देश के सबसे युवा मुख्यमंत्री के रुप में अखिलेश यादव ने लगभग छह माह पूर्व उत्तर प्रदेश जैसे महाप्रदेश की बागडोर संभाली थी। इससे पूर्व अखिलेश ने कभी भी शासन में किसी दायित्व को नहीं संभाला था। इसलिए हर लिहाज से इस नये और युवा मुख्यमंत्री के कार्यकाल को ऑकने के लिए यह समय अत्यन्त कम है फिर भी चुनाव में किये गये अपने वादों पर उन्होंने अमल भी शुरु कर दिया है। बेरोजगारों को भत्ता तथा राजकीय नहरों से फसलों की मुत सिंचाई तथा कन्या विद्या धन जैसी योजनाऐं शुरु की जा चुकी है तथा किसानों के कर्जमाफी जैसी कई अन्य घोषणाओं के क्रियान्वयन पर मंथन चल रहा है। लिंगदोह समिति की सिफारिशों के अनुरुप छात्रसंघों के चुनाव कराने की घोषणा कर दी गई है।
अखिलेश के पिता श्री मुलायम सिंह यादव सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। चुनाव परिणाम आने के बाद कई दिनों तक यह उहापोह बना हुआ था कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा! अखिलेश कहते थे कि नेताजी (मुलायम सिंह को पार्टीजन इसी सम्बोधन से बुलाते हैं) ही मुख्यमंत्री बनेंगें और नेता जी कहते थे कि अखिलेश बनेंगें। दोनों के बयानों से यह बिल्कुल साफ लगता था कि दोनों ही मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। असल में यह एक परिवार की राजनीतिक विरासत का तनावपूर्ण हस्तांतरण था जिसमें मुलायम सिंह ने बहुत धौर्य और दूरगामी सोच से काम लिया। चुनाव प्रचार से भी पहले से पिता-पुत्र एक साथ न के बराबर देखे जा रहे थे। जानना दिलचस्प होगा कि अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने के फैसले के बाद जब पिता-पुत्र यानी मुलायम-अखिलेश एक ही गाड़ी में बैठकर सपा मुख्यालय से बाहर निकले तो यह एक खबर बन गयी थी कि आज मुलायम-अखिलेश एक ही गाड़ी में बैठै!
उत्तर प्रदेश से हटने के बाद स्वाभाविक है कि मुलायम सिंह के पास राष्ट्रीय राजनीति का ही विकल्प बच रहा था क्योंकि देश के किसी अन्य राज्य में सपा का कोई जनाधार नहीं है। देश में जितने भी क्षेत्रीय राजनीतिक दल हैं उसमें सपा प्रमुख ऐसे व्यक्ति हैं जो केन्द्रीय राजनीति में सबसे ज्यादा सक्रिय हैं। वह न सिर्फ केन्द्रीय रक्षा मंत्री रह चुके हैं बल्कि एक समय (1996 में) तो प्रधानमंत्री बनते-बनते भी रह गये थे। सुधी पाठकों को याद होगा कि केन्द्रीय रक्षा मंत्री रहते हुए भी मुलायम सिंह यादव के लिए उत्तर प्रदेश ही समूचा हिन्दुस्तान था और वे जरा सा भी मौका मिलते ही रक्षा वायुयानों के काफिले के साथ लखनऊ आ धमकते थे! अब मुलायम सिंह को लगता है कि केन्द्र में ऐसी राजनीतिक परिस्थितियाँ बन चुकी हैं कि वे एक बार फिर अपने खोये हुए अवसर को पाने का प्रयास कर सकते हैं। यह तभी संभव है जब उनकी पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव में इतनी सीटें प्राप्त करे कि वे दबाव की राजनीति कर सकें। मुलायम ने कई बार कहा भी है कि अगर उन्हें 50 से अधिक सीटें मिलती हैं तो उन्हें प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक नहीं सकता। यह 50 सीटें उन्हें उत्तर प्रदेश से ही मिलने की उम्मीद है और इसे पाने के लिए स्वाभाविक हैं कि वे राज्य सरकार को इस्तेमाल कर रहे हैं। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर केन्द्र सरकार को लेकर मुलायम सिंह के कई फैसले ऐसे हैं जो अगर अखिलेश सिंह को करने होते तो शायद वे दूसरी तरह या जरा बाद में करते।
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सामने आज दो तरह की राजनीतिक चुनौतियॉ हैं- एक तो आगामी लोकसभा चुनाव तथा दूसरा, विधानसभा का अगला चुनाव। अखिलेश के उपर अगर मुलायम सिंह की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का बोझ न हो तो उनके पास साढ़े चार साल का अच्छा खासा वक्त है और वे अपनी प्रबल बहुमत की सरकार के सहारे अपनी चुनावी घोषणाओं को बिना किसी अफरा-तफरी के अमली जामा पहना सकते हैं लेकिन उनकी सरकार की एक अग्नि परीक्षा लोकसभा चुनाव के रुप में सामने है जिसके लिए वक्त बहुत कम बचा है और मुसलमानों को खुश करने जैसी जिन योजनाओं के क्रियान्वयन से लोकसभा चुनाव में सीटें बढ़ाने का प्रयास मुलायम सिंह कर रहे हैं उनसे प्रदेश का दूसरा वर्ग खासा नाराज हो रहा है। इस काम में मुलायम सिंह ऐसे दत्त-चित्त होकर लगे हैं कि उनकी सबको साथ लेकर चलने की समाजवादी सोच जाने कहॉ तिरोहित हो गयी है। मुलायम के पुराने साथी तथा सपा का मुस्लिम चेहरा बताये जा रहे कैबिनेट मंत्री आजम खॉ प्रदेश में सुपर मुख्यमंत्री बन गये हैं। उनकी कार्यप्रणाली इतनी निरंकुश और बदमिजाज हो गयी है कि पार्टीजनों से लेकर नौकरशाह तक त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। आजम की ही तरह कई और वरिष्ठ मंत्री हैं जो आज भी अखिलेश को लड़का ही समझते हैं। इन्हें बर्दाश्त करना अखिलेश के लिए अपरिहार्य हो गया है। स्वाभाविक है कि अगर पिता मुलायम सिंह का दबाव न होता तो या तो ये मंत्री अपनी आदतें सुधारते या फिर बाहर का रास्ता देखते। मुलायम की मजबूरी यह है कि वे अपने इन पुराने साथियों को इस वक्त नियंत्रित नहीं कर सकते क्योंकि उनकी निगाह निकटस्थ लोकसभा चुनाव पर है। मुलायम सिंह के एक और पुराने साथी तथा फिलहाल कॉग्रेसी के केन्द्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा इन दिनों फिर मुलायम के गुन गाने लगे हैं। लोकसभा चुनाव में कॉग्रेस के संदिग्धा भविष्य से आशंकित श्री वर्मा अगर सपा में शामिल होते हैं तो वह निश्चय ही अखिलेश के लिए दूसरे आजम खाँ साबित होंगें।
केन्द्र की कॉग्रेसनीत संप्रग सरकार ममता-माया-मुलायम की बैसाखी पर टिकी है जिसमें से अपनी घोषणा के अनुरुप ममता बनर्जी ने संप्रग से किनारा कर लिया है। इसी मानसून सत्र में कोयला आवंटन घोटाले के मुद्दे पर मुलायम सिंह ने वाम दलों के साथ मिलकर संसद पर धरना दिया था और उनके तेवर कॉग्रेस पर बेहद आक्रामक थे लेकिन अचानक ही वे पलटी मार गये और कॉग्रेस के गुण गाने लगे। पता नहीं लोकसभा चुनाव में मुलायम अपनी इस कला से कौन सा लाभ उठायेंगें लेकिन यह सच है कि उत्तर प्रदेश में अखिलेश की बोलती बंद है। समर्थन के मामले पर अखिलेश अगर ममता बनर्जी जैसा स्टैंड ले सकते तो विधानसभा चुनावों में उनका ज्यादा भला हो सकता था। सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर मुलायम ने विरोध कर अगड़ों के पक्ष में जो स्टैंड लिया था, उनके इस कृत्य ने उसे नेपथ्य में डाल दिया है।
मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में 50-60 सीटें पाने का मंसूबा रखते हैं। प्रदेश में वोटों का बॅटवारा सिर्फ कॉग्रेस और सपा के बीच ही नहीं होगा, उसमें भाजपा और बसपा भी होगी। प्रदेश में अभी लोकसभा चुनाव लायक माहौल सपा सरकार नहीं बना पाई है। ऐसे में चुनाव अगर समय पूर्व होते हैं तो सपा को जितनी सीटें पिछले लोकसभा चुनाव में मिली हैं उन्हीं को संभालना बड़ी बात होगी। प्रदेश की कुल 80 सीटों में ही सपा, भाजपा, बसपा और कॉग्रेस को हिस्सा मिलना है। हो सकता है कि कॉग्रेस अपनी मौजूदा सीटों में से भी कुछ को खो बैठे लेकिन उसकी खोयी सीट सपा को ही क्यों मिले, यह एक बड़ा और तकनीकी प्रश्न है। कॉग्रेस को अंधा भक्त की तरह समर्थन दे रही सपा अगर अपनी मौजूदा लोकसभा सीटों में से भी कुछ को खो देती है तो यह अखिलेश यादव की सरकार के लिए काफी संकट की बात होगी। अखिलेश के किसी भी बयान से आज तक यह नहीं लगा है कि वे केन्द्रीय राजनीति में किसी प्रकार की रुचि ले रहे हैं| 0 0
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