प्रिय संपादक जी ,
संजय दिवेदी जी का लेख पढ़ा, बल्कि दो बार पढ़ा! बहुत करीने से , बहुत विस्तार से और बहुत सिलसिलेवार व्याख्या की है उन्होंने धर्म-परिवर्तन जैसे संवेदनशील मुद्दे पर. वर्तमान से होते हुए अतीत तक जाकर उन्होंने यह बताया है कि धर्म कैसे एक निहायत व्यक्तिगत मामला है और कैसे प्रजा से लेकर राजाओं तक ने अपनी मर्जी और पसंद के मुताबिक धर्म-परिवर्तन किया है! अच्छा लगा!
लेख जब पढ़ना शुरू किया तो लगा था कि आदिवासियों पर संघ द्वारा किये जा रहे तमाम कार्यक्रमों को लेकर एक आदिवासी-बहुल इलाके में जो कुम्भ सरीखा आयोजन होने जा रहा है, जरुर ही उसमें उन्ही को केन्द्रीय तत्व के तौर पर रखा गया होगा . लेख का शीर्षक भी यह बताता लग रहा था कि अवश्य ही इसमें आदिवासियों की मूलभूत समस्याओं पर चर्चा होगी, लेकिन यह चर्चा -जल, जंगल, जमीन जैसी संज्ञाओं से आगे नहीं गयी! मैं बहुत आशान्वित था कि तथाकथित विकास के नाम पर आदिवासियों का जिस तरह उच्छेदन किया जा रहा है, और जिस वजह से वे नक्सालियों से सहानुभूति रखने को विवश हैं , उस पर भी रौशनी जरुर डाली गयी होगी, लेकिन निराश ही हुआ! यहाँ मैं यह कहना चाहता हूँ कि आदिवासियों की समस्याएँ सिर्फ जल-जंगल-जमीन तक ही सीमित नहीं हैं. उनके साथ भी उसी तरह का दोहरा अत्याचार हो रहा है, जैसा कि जम्मू-कश्मीर के निवासियों के साथ आतंकवादी और सेना के जवान कर रहे हैं !संपादक जी , मैं संजय जी से कहना चाहता हूँ कि आदिवासियों का मूल सवाल धर्म-परिवर्तन है ही नहीं ! धर्म रोटी से बढ़कर नहीं हो सकता ! रोटी के बाद ही धर्म का नंबर आता है! और आदिवासियों की मूल समस्या तो Survival यानि जीवन-संग्राम में टिके रहने की है !
क्या ही अच्छा होता, अगर इस मौके पर इन्ही मूल समस्याओं को लेकर एक Eye -Opener मार्का लेख लिखा गया होता, जो हो सकता है कि महा-कुम्भ में कुछ लोगों की निगाह से जरुर गुज़रता और अपना काम कर जाता!
मैं संजय जी की कई बातों से बहुत संजीदगी से सहमत हूँ, जैसे इस लेख का अंतिम पैराग्राफ ! वास्तव में इस लेख का उपसंहार ही इसका समूचा धड़ बन गया है! संजय जी अगर अन्यथा न लें तो मैं आग्रह करना चाहता हूँ कि वे, जब भी समय और सहूलियत पायें, इस पैराग्राफ को अपनी लेखनी चलाकर जरा बड़ा फलक दें तो हम लोग उस पर नए सिरे से बहस शुरू करें!
धर्म-परिवर्तन और वह भी खाली पेट का ! इससे बड़ा प्रहसन और क्या हो सकता है भला? यह दूसरे धर्म के प्रति ललक नहीं बल्कि एक सड़े धर्म से उपजी जुगुप्सा पर प्रतिक्रिया और कहीं रोटी मिल जाने की उम्मीद भर ही है! जहाँ भी यह उम्मीद दिखेगी, जुगुप्सित और भूखे लोग वहां-वहां आते-जाते रहेंगें ! उन्हें कोई भी मिशनरी या संघ रोक नहीं पायेगा.
संजय जी को साधुवाद ! बहुत सही समय पर उन्होंने एक राष्ट्रीय मसले को बहस की शक्ल दी है. उम्मीद है कि उक्त कार्यक्रम संपन्न हो जाने के बाद एक बार फिर उनकी प्रतिक्रिया जानने को मिलेगी!(यह लेख pravakta.com पर छपे श्री संजय द्विवेदी के लेख की प्रतिक्रिया में है )
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