Tuesday, February 22, 2011

ग्रामीण स्वास्थ्य के लिये तैयार होंगे ग्रामीण डाक्टर्स ---- सुनील अमर

देश के ग्रामीण क्षेत्र की बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं में आमूल-चूल परिवर्तन लाने के लिए केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया ने तीन वर्षीय पाठय-क्रम की जिस योजना पर काम शुरु किया है, वह अगर ठीक से परवान चढ़ सकी तो निश्चित ही कारगर साबित होगी। आश्चर्यजनक है कि इस योजना की रुपरेखा तैयार करने वाले सज्जन और खुद डाक्टर ही इस योजना का विरोध कर रहे हैं। हालाँकि डाक्टरों के ही एक कार्यक्रम में राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने इसे उपयोगी करार देकर तमाम अटकलों पर एक तरह से विराम लगा दिया है। यह किसी से छिपा नहीं है कि गॉवों में सरकारी और प्रशिक्षित दोनों तरह के डॉक्टरों की बेहद कमी है, जिसका नतीजा है कि वहाँ अकुशल या जिन्हें झोला छाप कहा जाता है, ऐसे डाक्टरों की भरमार है जो प्राय: ही जानलेवा साबित होते रहते हैं। ग्रामीण क्षेत्र के सरकारी चिकित्सालयों में जिन डाक्टरों की तैनाती की जाती है वे शायद ही वहाँ कभी रात्रि निवास करते हों, क्योंकि तमाम प्रकार की आवासीय दिक्कतों के कारण ऐसे डॉक्टर निकटवर्ती शहरों में अपना आवास बना लेते है और बहुत आवश्यक होने पर ही वे अपनी तैनाती के अस्पताल पर जाते हैं।

ग्रामीण इलाकों में मुख्य रुप से तीन तरह की चिकित्सा संबंधी समस्याऐं हैं। एक तो योग्य चिकित्सकों का अभाव, दूसरे, इसी वजह से तथाकथित झोला छाप डाक्टरों की भरमार तथा तीसरे, योग्य और सरकारी चिकित्सकों द्वारा अन्यान्य प्रलोभनवश महंगी दवाओं को लिखकर इलाज करना। यहाँ यह चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है कि देश के सरकारी अस्पतालों में प्रति व्यक्ति कितने रुपये का औसत बजट इलाज के लिए पड़ता है। ग्रामीण इलाकों में चिकित्सा में आने वाली सबसे बड़ी बाधा सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों का न रहना है। उनकी गैर मौजूदगी में कम्पाउन्डर ही डाक्टर का काम करते हैं। अब जो मरीज कम्पाउन्डर को नहीं दिखाना चाहते वे मजबूरी में प्रायवेट चिकित्सकों के पास जाते हैं, भले ही वह झोला छाप हो। ऐसे बहुत से नीम हकीम ख़तरे-जान लोगों ने बाकायदा नर्सिंग होम्स तक खोल रखा है! केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की गत वर्ष की रपट बताती है कि आजादी मिलने के समय देश में निजी अस्पतालों की जो संख्या मात्र 8 प्रतिशत थी, वो अब बढ़कर 68 प्रतिशत हो गयी है!

स्वास्थ्य मंत्रालय की इस नयी योजना में देश में मेडिकल स्कूलों की स्थापना की जानी है। जैसे कि नाम से ही स्पष्ट है, ये मेडिकल कॉलेज नहीं होंगें। यहॉ से पॉच साल के बजाय सिर्फ तीन साल में ही अपनी पढ़ाई पूरी कर एक नये तरह के डाक्टरों की खेप निकलेगी जो देश के देहाती क्षेत्रों को अपनी सेवायें देगी। ऐसे डॉक्टरों को बी.आर.एच.सी (बैचलर ऑफ रुरल हेल्थ कोर्स) की डिग्री मिलेगी। उनके पंजीकरण में ही इस तरह की बाध्यता होगी कि वे एक निश्चित परिधि या क्षेत्र में ही नौकरी या मेडिकल प्रैक्टिस कर सकेंगें। वैसे तो यह संकल्पना ही एक तरह का क्षोभ पैदा करती है कि देश में दो तरह की स्वास्थ्य सेवायें रखी जायं-शहरी लोगों के लिए उत्कृष्ट किस्म की और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए दोयम दर्जे की! फिर भी यह माना जा सकता है कि देश में संसाधनों की जो स्थिति है, उसमें अभी इस तरह की ही व्यवस्थाऐं हो सकती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में जिस तरह से फर्जी डाक्टरों की भरमार है, उसके बजाय अगर बी.आर.एच.सी वहॉ उपलब्ध रहेंगें तो यह एक तरह से ठीक ही रहेगा।

लेकिन मूल समस्या सिर्फ इतनी सी ही नहीं है। अभी जिन सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों पर चिकित्सक मौजूद भी रहते हैं, मसलन, जिला चिकित्सालयों में, वहाँ का तजुर्बा भी मरीजों के लिए यही है कि या तो डाक्टरों द्वारा उन्हें बाहर से खरीदने के लिए मंहगी दवाऐं लिख दी जाती हैं, या यही काम मरीजों को घर बुलाकर किया जाता है और साथ में तमाम तरह की जॉच का पर्चा भी थमाकर। अध्ययन बताते हैं कि जॉच और मंहगी दवा के दुश्चक्र के कारण मरीज को दस गुना तक ज्यादा पैसा खर्च करना पड़ता है। यही कारण है कि गरीब मरीज बीच में ही इलाज छोड़ देने को मजबूर हो जाते हैं। यह बीमारी किस तरह से दूर होगी, सरकार को इस पर भी विचार करना चाहिए। हालॉकि डाक्टरों को निर्देश हैं कि वे बाहर से खरीदनें के लिए दवा का पर्चा न बनायें लेकिन इलाज के लिए ड़ॉक्टर के पास गया मरीज उसकी बात मानेगा या सरकार की! दूसरी मुख्य समस्या है प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर डाक्टरों के रात्रि निवास न करने की। इसे कैसे बाध्यकारी किया जा सकता है, इस पर विचार किये जाने की आवश्यकता है। तीसरी और अहम् समस्या है मंहगे इलाज की। दवाओं की कम उपलब्धता और उनका घटिया होना भी एक चिकित्सक को बाहर की दवायें लिखने को प्रेरित करता है क्योंकि वह मरीज को ठीक करना चाहता है। ऐसे में एक परेशान हाल मरीज दवा कम्पनियों के दलालों और डाक्टरों की दुरभिसंन्धि का बेरहमी से शिकार बन जाता है। यह जानना दिलचस्प होगा कि दवा कम्पनियां अपनी दवाओं का ब्रान्ड नाम बनाती हैं और उनके प्रचार-प्रसार में बहुत धन खर्च करती हैं। इस प्रकार लागत और डाक्टर-स्टोरवालों का कमीशन जोड़कर ये दवाऐं खासी मंहगी हो जाती हैं, जबकि वही दवा जो जेनरिक यानी बिना ब्रांड-नाम के बाजार में उपलब्ध रहती है, उसकी कीमत चौथाई ही रहती है! छोटी दवा कम्पनियों के संघों का तो यहाँ तक कहना है कि यदि किसी प्रकार डाक्टरों और दवा विक्रेताओं को उपहार और कमीशन देने की प्रथा बंद हो जाय तो दवाओं की कीमत अपने आप आधी हो जाय! इसी क्रम में यह भी सोचने वाली बात है कि चिकित्सा के कार्य ने बीते दो दशक में उद्योग का रुप ले लिया है। मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी से लेकर पढ़ाई और नर्सिंग होम की स्थापना तक का कार्य अब भारी पूंजी का मोहताज हो चुका है। ऐसे में निजी चिकित्सा क्षेत्र से किसी रहम या खैरात की उम्मीद करना बेमानी ही होगा।

तीन वर्षीय बी.आर.एच.सी. डॉक्टर तैयार करने की केन्द्र सरकार की योजना वास्तव में देश के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित और स्थापित होने वाले सरकारी अस्पतालों के लिये डाक्टर उपलब्ध कराने की है। जब तक उपर वर्णित शेष दोनों व्याधियाँ भी न दूर की जायें, स्पष्ट है कि कोई खास सुधार हो नहीं पायेगा। जैसी कि योजना है, 200 बेड वाले जिला चिकित्सालयों में ही ऐसे स्कूल चलाये जायेंगें और उन्हें वहीं के सेवारत डाक्टर पढ़ायेंगें। इसमें शिक्षण कक्ष व छात्रावास आदि बनाने हेतु केन्द्र सरकार प्रति जिला चिकित्सालय 20 करोड़ रुपया देगी। उसका कहना है कि राजीव गाँधी राश्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अन्तर्गत राज्यों को जो धनराशि दी जा रही है वह डाक्टरों की कमी के कारण अस्पतालों में खर्च ही नहीं हो पा रही है। इस योजना का खाका वास्तव में मेडिकल काउन्सिल ऑफ इन्डिया के तत्कालीन अध्यक्ष डा. केतन देसाई ने तैयार करके केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद को दिया था। बाद में जब डा. देसाई को एमसीआई से निकाल बाहर कर दिया गया तो अब वे इसका विरोध करने लगे है।

आश्चर्यजनक यह है कि इस योजना के विरुध्द स्वयं डाक्टर्स ही हो गये है और वे 20 फरवरी को दिल्ली में प्रदर्शन करने पर आमादा हैं! वह तो अच्छा रहा कि एक्स रे एवं एम.आर.आई. डॉक्टरों के सम्मेलन में बीती 29 जनवरी को स्वयं राष्ट्रपति ने ही साफ कर दिया कि गॉवों को सस्ती चिकित्सा और डाक्टर सुलभ होने ही चाहिए। ( Also published in HAMSAMVET Features on 21 February 2011.May be clicked on humsamvet.org.in )

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