लोहे में ही जंग लगता है, यह सनातनी जानकारी मैं उन लोगों को दे रहा हूँ जो लोहे को ही सर्व शक्तिमान मान कर अपने आदर्श पुरुषों को '' लौह-पुरुष'' की उपाधि से विभूषित कर देते हैं! बाद में इस लोहे में जंग लगा देखकर वे छि-छि कर दूर खड़े होते हैं कि कहीं उनका दामन भी गन्दा न हो जाये इस बुढ़ाते हुए लोहे के कारण !
इस 125 करोड़ की महा आबादी वाले देश में सिर्फ एक लौह-पुरुष और उनकी भी यह गति !
वर्ष 2004 में जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन अपने भारत का उदय कराने में असफल हो गया तो राजग के चतुर-सुजान लोगों ने ''भागते भूत की लंगोटी ही सही '' की तर्ज पर नेता-प्रतिपक्ष की कुर्सी हथियाने के लिए आपस में ही घुटना-टेक लड़ाई लड़ी.कायदे से यह कुर्सी भाजपा के वट-बृक्ष अटल बिहारी वाजपेयी को मिलनी चाहिए थी लेकिन प्रतिघात में चूँकि लौह-पुरुष का कोई जबाब नहीं,इसलिए वे यह कुर्सी झटक ले गए! उस वक़्त जिन लोगों ने अटल और अडवाणी को आमने-सामने खड़े देखा रहा होगा, उन्हें वाजपेयी के चेहरे की कातरता और अडवाणी के चेहरे की कुटिलता भी अच्छी तरह याद होगी. जिन लोगों ने शेक्सपियर का प्रसिद्द नाटक '' जुलिअस-सीजर पढ़ा है, उन्हें अवश्य ही वह दृश्य याद आ गया होगा जिसमे तलवार की चोट खाने के बाद सीजर अपने परम विश्वस्त ब्रुट्स से कहता है कि '' ब्रुट्स यु टू!'' कातर वाजपेयी की आँखें भी उस वक़्त मानों यही कह रही थीं कि '' आडवाणी, यू टू!'' '' अरे! सबने धोखा किया, सो किया लेकिन आडवानी तुम भी?''
समय का पहिया अगर गतिमान न होता और इतिहास अपने को दुहराता न होता तो भला लोहे में कभी जंग लग सकता था !
इस लोहे में जंग लगने की शुरुआत संभवतः 2005 में ही शुरू हुई, जिन्ना की समाधि से,
पत्रकारिता,राजनीति और पठन-पाठन के क्षेत्र में जो लोग हैं उन्हें जरुर याद होगा कि यही वह वक़्त था जब बाजपेयी की याददास्त ने साथ छोड़ना शुरू किया था और लौह-पुरुष की याददास्त ने जोर पकड़ना! लौह पुरुष को लाहौर में याद आया कि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष थे और 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में हुआ बाबरी मस्जिद का विध्वंस बहुत गलत था! बाजपेयी की डूबती याददास्त से वे चौकन्ने थे, सो भूल न जाय , इसलिए उन्होंने कायदे-आज़म की समाधि पर रखे रजिस्टर में बाकायदा इसे लिख दिया ताकि सनद रहे और वक़्त पर काम आये !
तो दोस्तों! वक़्त भी आया और जो लिखा था वह काम भी आया!!
नागपुर ने इस लोहे में लग रहे जंग को गंभीरता से लिया और रेगमाल उठा कर साफ करना शुरू कर दिया.
नागपुर??
दुनिया में कुछ स्थान ऐसे हैं जो शक्ति-पुंज के तौर पर जाने जाते हैं.इनका नाम ही इनकी ताकत का पर्याय है. जैसे -- 10 डाउनिंग स्ट्रीट, व्हाईट हॉउस, 10 जनपथ, क्रेमलिन आदि. उसी तरह नागपुर भी है, यह संघ का मुख्यालय होने के साथ-साथ भाजपा का हवाई अड्डा भी है.इसकी सभी उड़ानें यहीं से नियंत्रित होती हैं.इधर इसने भाजपा के लिए पायलट भी देना शुरू कर दिया है. तो किस्सा-कोताह यह कि पहले लौह-पुरुष की अध्यक्षी गयी फिर वो कुर्सी जिसके लिए वो ''ब्रुट्स'' तक बन गए थे !
बेचारे लौह-पुरुष !!
फिर एक वक़्त ऐसा भी आया कि मक्खन सी मुलायम एक महिला ने इस लोहे की सारी अकड़ निकालते हुए संसद का वह कक्ष भी हथिया लिया जिसमें लौह-पुरुष बैठा करते थे. यह दुर्दिन !!
भारतीय राजनीति में जिसकी दशा '' भीलन लूटीं गोपिका,वहि अर्जुन,वहि बान '' सरीखी हो जाती है, वह पत्र-वत्र लिखने लगता है.जब कोई सुनता ही नहीं तो किया क्या जाय ? राम जेठ मलानी ने तो एक बार पत्र लिखने का ऐसा सिलसिला शुरू किया था कि मामला मार-कुटाई पर जाकर शांत हुआ था. अपनी-अपनी पसंद !
इधर जमाना बदल गया है और पत्र-वत्र न तो कोई लिखना चाहता है और न ही कोई पढ़ना चाहता है. अब ट्विट और ब्लॉग लिखा जाता है. हो सकता है कि दो-चार साल पहले का समय होता तो लौह-पुरुष पत्र ही लिखते लेकिन प्रचलित रिवाज के हिसाब से उन्होंने ब्लॉग लिखा और जिसे-जिसे पढ़ना ज़रूरी था, उन्होंने उसे पढ़ा भी ! उमा भारती ने भी पढ़ा और कल्याण सिंह ने भी .
नागपुर शायद ब्लॉग भी नहीं पढ़ता ! कौन फंसे विदेशी संस्कृति में!
उमा भारती ने तो तुरंत ही भोपाल से लेकर राम जन्म भूमि तक का एक चक्कर लगा लिया. यह एक टेस्ट-फ्लाईट थी. लेकिन नागपुर के ATC (वायु-यातायात नियंत्रक) ने उसे नोटिस में ही नहीं लिया!
बेचारी उमा भारती ! फिर उन्होंने खिसियाकर कहा कि अभी तो उन्होंने अपनी पार्टी से कोई सलाह-मशविरा किया ही नहीं है कि भाजपा में जाना है कि नहीं ! अरसा हुआ उनके यह कहे. अभी शायद वह अपनी पार्टी को खोज रही होंगी! मिले तो राय-मशविरा करें!
और लौह-पुरुष !
ब्लॉग और ट्विट लिखकर भी कई नेताओं ने अपना भविष्य बनाया है -- जैसे शशि थरूर !
ख़ैर ! यह कहने में कोई एतराज तो नहीं होना चाहिए कि --- '' गर्व से कहो ,मैं ब्लोगर हूँ !'' oo
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