Wednesday, June 08, 2011

आखिर क्यों नहीं कम हो रही है गरीबी ---- सुनील अमर


















































देश में इन दिनों ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना चल रही है और विशेषज्ञ बताते हैं कि अब तक की सबसे सफल पंचवर्षीय योजना इसे कहा जा सकता है। इस योजना में विकास दर पहले और दूसरे वर्ष यानी 2007 और 2008 में तो दहाई के अंक को छूने के कगार तक पहुँच गई थी। देश में विदेशी मुद्रा का पर्याप्त भंडार है और खाद्यान्न का सुरक्षित भंडार तो मानक के दो गुना से भी ज्यादा है। घरेलू स्तर पर यद्यपि मंहगाई बढ़ रही है लेकिन अर्थशास्त्र का एक नियम कहता है कि किसी भी देश में मंहगाई का स्तर उसकी आर्थिक समृद्वि का सूचक होता है। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थान बता रहे हैं कि भारत में पुरुषों की जीवन प्रत्याशा में तीन तथा महिलाओं में पांच वर्षों की वृद्धि हुई है। जनगणना के ताजा आंकड़े बताते हैं कि साक्षारता बढ़ी है तथा जनसंख्या वृद्धि पर कुछ हद तक काबू पाया गया है। पिछले कुछ वर्षों में लगातार वैश्विक संक्रामक रोगों के भारत में फैलने की खबरें आती रही थीं लेकिन इधर उन पर भी पूरी तरह नियंत्रण है। मुम्बई हमले के बाद से कोई बड़ी आतंकी घटना देश में नहीं हुई है और आश्चर्यजनक रुप से जम्मू-कश्मीर शांत है। राज्यों के चुनाव लोकतांत्रिक दक्षता के साथ हो रहे हैं। बांग्लादेश बनने के बाद से हम जो एक हिंसक और शिकारी खुशी से पूरी तरह वंचित हो गये थे उसकी पूर्ति भी अमेरिका ने पाकिस्तान के एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन को मारकर (?) कर दी है। इस प्रकार विश्वकप के सेमी फाइनल और ओसामा कांड के कारण हमने पड़ोसी-पतन और उसकी थुक्का-फजीहत से होने वाले दुगने सुख को भी हासिल किया है। निश्चित ही ये सब उपलब्धियां हैं और किसी भी सरकार को अपनी इन उपलब्धियों पर गर्व करने का हक़ होना ही चाहिए। सो संप्रग-2 को भी इतराने का पूरा हक़ है ही।
तो फिर गरीबी क्यों नहीं कम हो रही है? वह कौन सा व्यवधान है जो इसके आड़े आ रहा है? जब देश-दुनिया के तमाम क्षेत्रों में हम कदम-दर-कदम बढ़ते चले जा रहे हैं तो एक दर्जन से अधिक गरीबी उन्मूलन योजनाओं के बावजूद देश में गरीबी बढ़ती ही क्यों चली जा रही है? सरकार की अपनी ही कमेटियां बता रही हैं कि इस सबसे सफल पंचवर्षीय योजना के दौरान भी गरीबी बढ़ी ही है, घटी नहीं। कई सरकारी कमेटियों ने कई तरह के पैमानों से नाप-जोख की लेकिन नतीजा यही निकला कि गरीब और बढ़ते ही जा रहे हैं! दुनिया के एक दर्जन देशों की टोटल आबादी से भी अधिक लोग हमारे देश में रोज भूखे पेट सोते हैं और सरकार उनकी गरीबी नापने का पैमाना कैलोरी को बनाये हुए है कि गरीब लोग कुल कितनी कैलोरी रोज खा रहे हैं? क्या यह कुछ ‘रोम और नीरो’ तथा ‘ब्रेड नहीं है तो केक खाओ’ जैसा मजाक नहीं है? सरकारी कमेटियां अभी गरीबी की परिभाषा ही नहीं तय कर पा रही हैं! राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन के अनुसार देश में 60.50 प्रतिशत गरीब लोग हैं तो ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित एन.सी. सक्सेना समिति की रपट गरीबों की संख्या 50 प्रतिशत बताती है। चर्चित अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्ता समिति इसे 77 प्रतिशत तो राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा गठित सुरेश तेंदुलकर समिति का निष्कर्ष है कि गरीब कुल 37.2 प्रतिशत ही हैं। इसमें सबसे अद्भुत काम योजना आयोग ने किया और सभी राज्यों को कहा कि वे गरीबों की संख्या को 36 प्रतिशत मानकर ही योजनाओं का क्रियान्वयन करें!
इन आंकड़ों से पता चलता है कि सरकार की रुचि गरीबी को मिटाने में है या तकनीकी तौर पर उसे कम दिखाने में। जिस योजना आयोग का काम ही समस्या हल करने के लिए उपयुक्त योजनाऐं बनाने का हो, वह अगर आंकड़ेबाजी करके गरीबों की संख्या आधी से भी कम कर देने पर आमादा हो तो यह अनुमान कोई भी सहज ही लगा सकता है कि समस्या का क्या हश्र होने वाला है! बीते मार्च महीने में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने आश्चर्य व्यक्त किया कि सारे सर्वेक्षणों को दरकिनार करते हुए योजना आयोग यह कैसे कह सकता है कि सभी राज्य गरीबों की एक निश्चित संख्या को मानकर कार्य करें? अदालत ने प्रश्न किया कि क्या युवाओं और वृद्धों की कोई अधिकतम संख्या निश्चित की जा सकती है?
सन् 1971 में दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद स्व. इन्दिरा गाँधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था। उस वक्त यह नारा बहुत चर्चित हुआ था। उस समय से लेकर आज तक गरीबी हटाने की जितनी भी योजनाऐं बनीं, वास्तव में वे सिर्फ गरीबों को किसी तरह जिन्दा रखने के लिए ही थीं। केन्द्र मे वर्ष 2004 में संप्रग की सरकार बनने के बाद प्रख्यात अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया जिसे असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों आदि पर रिपोर्ट देनी थी। डा. सेनगुप्ता ने गरीबी आंकलन का सबसे आसान, उपयुक्त और व्यावहारिक तरीका यानी औसत दैनिक आमदनी की गणना को अपनाते हुए नतीजे निकाले और सरकार को बताया कि देश में कुल 83 करोड़ 60 लाख लोग ऐसे हैं जिनकी औसत दैनिक आमदनी रु. नौ से लेकर 20 तक ही है। अब यह आंकड़ा खुद योजना आयोग को ही नहीं सूट कर रहा है! वह जबरन कह रहा है कि देश में गरीबों की संख्या सिर्फ 36 प्रतिशत ही मानी जाय, जबकि वह जानता है कि सरकार जेल में बंद एक कैदी के भोजन पर प्रतिदिन 100 रुपये से अधिक खर्च करती है, तो क्या जेल के बाहर रहने वाला एक व्यक्ति इससे कम में गुजर कर सकता है?
यह हम पिछले 65 वर्षों से देख रहे हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा सस्ता या लगभग मुफ्त चावल-गेंहूँ बाँट देने से गरीबी नहीं मिट सकती, वृद्धावस्था-विधवा पेंशन से हालत सुधरने वाली नहीं है, मनरेगा के तहत वर्ष में 100 दिन मिलने वाले काम का लालच 265 दिनों के लिए एक दूसरी तरह की बेरोजगारी पैदा कर रहा है और सामाजिक सुरक्षा की जितनी भी योजनाऐं गरीबों के लिए बनी हैं वे जरुरतमंदों के दरवाजे तक पहुँच नहीं रहीं हैं। सरकार कैलोरी खाने की मात्रा को गरीबी/अमीरी का आधार मान रही है। क्या सरकार यह नहीं जानती कि जिसके घर नहीं है वो गरीब है, जो दो वक्त भोजन न कर सके वो गरीब है, जो अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा न सके वो गरीब है और जो बीमारी में इलाज न करा सके वो गरीब है? क्या इन जरुरतों को गरीबी निर्धारण का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए? जो आदमी 20 रुपये से अधिक रोज कमा ही नहीं पा रहा है आप उसकी कैलोरी नापकर उसके गरीब या अमीर होने का फतवा दे रहे हैं और दावा करते हैं कि आप जनकल्याणकारी राज्य और लोकप्रिय सरकार हैं?

गरीबी तब तक नहीं मिट सकती (और मिटी हुई मानी भी नहीं जानी चाहिए) जब तक कि 83 करोड़ 60 लाख लोगों की औसत दैनिक आमदनी इस लायक न कर दी जाय कि वे अपने बूते रोटी-कपड़ा-मकान और शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरुरतें पूरी कर सकें। शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में कुशल-अकुशल बेरोजगारों को वर्ष भर के लिए रोजगार की गारंटी, चाहे वह मनरेगा के ही तहत क्यों न हो जरुरी है। अगर सरकारी नौकरियाँ सृजित नहीं की जा सकतीं तो मानव श्रम के अवसर तो बेइंतहा मौजूद हैं, उनका इस्तेमाल क्यों नहीं?
  ( हरियाणा, छत्तीसगढ़ , मध्य प्रदेश व् दिल्ली से प्रकाशित होने वाले  दैनिक हरिभूमि  में ०७ जून २०११ को प्रकाशित)
Haribhoomi

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