Thursday, June 02, 2011

निराले लोकतंत्र के खेल निराले हैं ! --- सुनील अमर


सन २०१० में भगवन बालाजी को ५ करोड़ रूपये का सोने का मुकुट
चढाते रेड्डी ( दाहिने )

कर्नाटक के माइन किंग यानी खान-माफिया और सरकार के मंत्री (या सच कहें तो सरकार के माई-बाप) जनार्दन रेड्डी ढ़ाई करोड़ रुपये की कीमत वाले सोने के भगवान की पूजा करते हैं और इतनी ही कीमत की सोने की कुर्सी पर बैठते भी हैं। सोने और चॉदी के बर्तनों में ही खाते भी हैं। यह उन्होंने वहॉ के लोकायुक्त को दिए अपने शपथ पत्र में घोषित किया है। अब यह उन्होंने उसमें साफ नहीं किया है कि वे खाते क्या हैं! चाल और चरित्र की बातें करने वाली एक नेत्री 40-50 हजार रुपये की साड़ी, और अब जैकेट भी, पहनने की शौकीन हैं तो देश में एक ताजा बनी मुख्यमंत्री भी ऐसी ही शानो-शौकत का रिकार्ड काफी पहले तोड़ते हुए 1997 में जेल यात्रा कर चुकी हैं। वे जब उस यात्रा पर जाने लगी थीं तो पता चला था कि उनकी जूतियॉ, चप्पलें, सैंडिलें और कपड़े-जेवर गिनने के लिए स्वयंसेवकों की आवश्यकता पड़ी थी। गरीबों की चिन्ता में दिन-रात घुलती रहने वाली एक और मुख्यमंत्री हैं जिनके सोफे, कुर्सियां और बाथरुम आदि के सामान मात्र कुछ अरब रुपयों में विदेशों से मॅगा लिए गये थे।
गरीबों की चिन्ता में ही गलते रहने वाले बिहार के एक स्वनामधन्य, जो मुख्यमंत्री आवास में आलू खोदने, गन्ना चूसने या गाय दुहने को ही अपने कार्यों का निर्वहन मानते थेे, जाड़े के दिनों में बहुत परेशान हो जाया करते थे और उनकी ठंढ़क तब मिटती थी जब वे 20-25 हजार रुपयों की कीमत का स्वेटर पहन लेते थे। अभी ज्यादा अरसा नहीं हुआ जब देश के एक तत्कालीन गृहमंत्री दिन भर के लिए सफारी सूटों की एक बड़ी रेंज मेंन्टेन करके रखते थे - सभाओं के लिए एक तो शोक सभाओं के लिए दूसरा, दुर्घटना देखने के लिए तीसरा तो हत्याओं को देखने के लिए चौथा, लंच के लिए पॉचवां तो डिनर के लिए......। अब गृहमंत्री का काम इतने झमेले का होता है कि और ज्यादा सफारी सूट बदलने के लिए वक्त ही न मिले, सो आजिज आकर उन्होंने पद ही छोड़ (?) दिया!
इस लोकतंत्र के खेल कितने निराले हैं कि देश की तीन चौथाई भूखी-नंगी आबादी को अखाड़ा बनाकर लूटे-खाए-अघाए लोग उसमें कुलॉचे भर रहे हैं! ये कोई नहीं पूछ रहा है कि पॉच साल पहले गठित अर्जुन सेनगुप्ता समिति ने जो 84 करोड़ 60 लाख लोगों की दैनिक आमदनी 20 रुपया से भी कम बताई है, क्या लोकपाल विधेयक बन जाने से उन्हें शाम को रोटी मिल जाया करेगी? भ्रष्टाचार और काला धन वापसी पर अनशन अगर सफल हो जाता है तो क्या उसका इस्तेमाल इन तीन चौथाई भुक्खड़ों का पेट भरने के लिए किसी कारआमद योजना में किया जाएगा? या यह सारा खेल हमेशा की तरह सिर्फ 25 फीसदी का ही है और तय कर लिया गया है कि घी अगर गिरेगा भी तो दाल में ही जाएगा?
इस लोकतंत्र के खेल बड़े निराले हैं! समरथ को नहिं दोस गुसांईं। अब तो लगता है कि नीरो गलती से रोम में पैदा हो गया था। उसे भारत में पैदा होना चाहिए था। जो समर्थ हैं उनके लिए इस व्यवस्था से ज्यादा बेहतर और क्या हो सकता है और जो हत्भाग्य हैं वे भी बिना टिकट के ही ये सब तमाशा देख रहे हैं। ये हत्भाग्य देख सकते हैं कि कैसे टंकी पर तेल बेचने की नौकरी करने वाले की औलादें न सिर्फ सैकड़ों कम्पनियों की मालिक बन जाती हैं बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा मकान बना डालती हैं! ये हतभाग्य, इस मामले में तो सौभाग्यशाली हैं ही कि भले वे जन्म से ही भूखे हों लेकिन वे देख सकते है कि उनके प्रिय देश में इतना अनाज ठूंसा हुआ है कि रखने को जगह नहीं और वह सड़ रहा है। इन कपूतों को पता है कि जिस कोठी के सामने के फुटपाथ पर उनके दुधमुंहे भूखे पेट तड़प रहे हैं उसके कुत्तों तक को दूध-भात अच्छा नहीं लगता। ये इस देश में पैदा भले ही हो जाते हैं लेकिन फुटपाथ पर भी बैठने का हक इन्हें नहीं होता और अगर बिना हक का यह काम ये करते भी हैं तो देश के रईसजादों की गाड़ियां इन्हें रौंद डालती हैं। अब इसमें गाड़ी वालों का क्या दोष? लम्बी गाड़ियॉ और कैसे मुड़ती हैं ?
ये लोकतंत्र है कि अदालतें जिन्हें अपराधी बताती हैं, ‘हमारा’ लोकतंत्र उन्हें ही हमारा भाग्य विधाता बना देता है। ये लोकतंत्र का ही काल-चक्र है कि पुलिस एक समय में जिनके हाथ-पैर तोड़े रहती है, अगले ही चरण में उन्हीं के सामने हाथ जोड़े खड़ी रहने को अभिशप्त रहती है। ये लोकतंत्र ही है कि गणित पढ़ा हुआ एक आदमी कानून मंत्री बन जाता है, अर्थशास्त्र का विशेषज्ञ पुलिस विभाग संभालता है, जिसने कभी कबड्डी तक नहीं खेली हो वह जन्म-जन्मांतर के लिए खेलों का मसीहा बना रहता है, जिसने सारी उम्र कानून तोड़े हों वह कानून बनाने की सभा में शामिल हो जाता है, जिसने.........।
और यह भी हमारे लोकतंत्र में ही संभव है कि जो सत्ता की कुसीं पर बैठकर ‘हम दो, हमारे दो’ का उपदेश देते हैं वे अपने निजी जीवन में ‘हम पॉच, हमारे सोलह’ का आदर्श पेश कर सकते हैं। कनिमोरी जेल न गई होतीं तो दुनिया लोकतंत्र की इस उदारता से शायद परिचित ही न हो पाती। इस लोकतंत्र की माया असीम है! अपराधियों, अमीरों, भ्रष्टाचारियों, और बलात्कारियों के लिए इसका दिल कितना बड़ा है, इसे कोई एण्डरसनों, अम्बानियों, कलमाड़ियों और राठौरों से जाकर पूछे तो सही बात पता चले! पिछले वर्ष किया गया सी-वोटर का एक सर्वेक्षण बताता है कि इस लोकतांत्रिक देश के 25 फीसद जनगण साल भर में ढ़ाई लाख करोड़ रुपया भगवान की पूजा पर खर्च कर डालते हैं। इसे आप इस तरह समझ सकते हैं कि यह केन्द्र सरकार द्वारा गरीबों के रोजगार के लिए बने मनरेगा के सालाना बजट का सिर्फ ढ़ाई गुना है!
ये हमारा लोकतंत्र रंगरेज है। काले को सफेद और सफेद को काला करता रहता है। लाल को उखाड़ फेंकता है। हरे को भगवा और भगवा को हरा कर देता है। मुर्दा को जिन्दा और जिन्दा को........। बलि-बलि जाऊॅ मैं तोरे रंगरेजवा......।
( विस्फोट.कॉम पर भी प्रकाशित)

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