Friday, January 07, 2011

कृषि क्षेत्र की उपेक्षा का नतीजा--सुनील अमर

कुछ ताजा खबरों से पता चलता है कि देश के भीतर सब कुछ कैसे गड्मड चल रहा है। कहा जाता है कि सरकार ने अनाज ज्यादा खरीद लिया और उसे रखने की जगह नहीं है, इसलिए वह सड़ रहा है और देश की सबसे बड़ी अदालत इस पर सरकार से कैफियत तलब करती है कि जब रखने की जगह नहीं है और तमाम देशवासी भूखों मर रहे हैं तो उसे गरीबों और जरूरतमंदों में क्यों नहीं बांट देते? सरकारी विभागों ने ही दो महीने पहले बता दिया था कि प्याज की पैदावार इस साल भारी बरसात के कारण 60 प्रतिशत कम हुई है, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री एक-दूसरे से पूछ और बता रहे हैं कि प्याज की कीमतें आसमान कैसे छूने लगी हैं!

यह भी गौर करने की बात है कि प्याज की कीमतें लगभग साल भर से बढ़ ही रही हैं। अब इधर जब बिचौलिये अपनी तिजोरी भरने में और उजड़े हुए किसान अपनी जान गंवाने में लगे हैं तो सरकार ने ब्रह्मास्त्र चलाते हुए महाराष्ट्र के प्याज-किसानों को 400 करोड़ रुपयों का एक राहत पैकेज देने की घोषणा कर दी है। दूसरी तरफ मंहगी दर पर प्याज खरीद कर उसे सस्ती दर पर जनता को उपलब्ध कराने का खेल भी दिल्ली में शुरू हुआ है। इन सबके साथ-साथ खबर है कि पाकिस्तान से प्याज का आयात हो रहा है और (रोक के बावजूद) देश से प्याज का निर्यात भी बदस्तूर जारी है!

देश की सत्ता को जब संप्रग ने अपनी पहली पारी के रूप में 2004 में संभाला था, तब यह बात बहुत जोर-शोर से प्रचारित की गई थी कि पहली बार ऐसा स्र्वणिम अवसर आया है जब दुनिया के चार वरिष्ठ अर्थशास्त्री भारत सरकार में मौजूद हैं-वे हैं- प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री प्रणव मुर्खजी, गृहमंत्री पी. चिदम्बरम तथा योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया। उस वक्त यह भी याद दिलाया गया था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नरसिंह राव सरकार में वित्त मंत्री रहते हुए देश में पहली बार नये आर्थिक सुधारो का एजेंडा लागू किया था। तब से अब तक दिल्ली की यमुना में बहुत पानी बह चुका है और देश की गरीब जनता का बहुत सा खून और पसीना भी। सरकार के अपने ही आंकड़ें बताते हैं कि देश की तीन चौथाई आबादी घोर बदहाली में जी रही है और एक दशक में दो लाख से अधिक अन्नदाता हताशा के कारण कीटनाशक पीकर अपनी जान दे चुके हैं। इतने किसानों की आत्महत्याओं के बावजूद हमारे दूरअंदेशी अर्थशास्त्री अहलूवालिया जी का निष्र्कष है कि देश में महंगाई इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि गांवाें में अमीरी आ गई है!

सत्तारूढ़ कांग्रेस ने अपनी स्थापना के 125 र्वष पूरे होने का जश्न हाल ही में अपने 83वें अधिवेशन के रूप में मनाया। अधिवेशन में कृषि संबंधी जो प्रस्ताव पेश किया गया, उसमें बताया गया कि देश में 52 प्रतिशत लोगों को कृषि से रोजगार मिल रहा है, लेकिन इसके विपरीत पिछले महीने ही केन्द्र सरकार के श्रम मंत्रालय ने एक सव्रे रपट जारी की है जिसमें बताया गया है कि कृषि से रोजगार हासिल करने वालों की संख्या घटकर अब सिर्फ 45.5 प्रतिशत रह गयी है तथा बड़ी संख्या में लोग खेती छोड़ रहे हैं! उधर बीते 12 नवम्बर को दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में आयोजित जी-20 देशों के शिखर सम्मेलन में विश्व नेताओं को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी कि देश की अर्थव्यवस्था काफी मजबूत है और शीघ्र ही यह नौ प्रतिशत की विकास दर को छूने वाली है। संयोग देखिए कि उसी के सिर्फ एक दिन पहले श्रम मंत्रालय ने एक सव्रे रपट जारी कर बताया कि राष्ट्रीय सैम्पल सव्रे ने 2007-08 में देश में बेरोजगारों की जो संख्या एक करोड़ बतायी थी, वह अब बढ़कर चार करोड़ से अधिक हो गयी है! इसका क्या मतलब माना जाए कि अपनी ही सरकार की रपट का पता कांग्रेस और उसके प्रधानमंत्री को नहीं है या वह सच्ची रिपोर्ट पेश नहीं करना चाहती ? सचाई यह है कि देश में जब भी इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी आधारभूत ढांचे की बात की जाती है तो उसमें कृषि को कोई खास महत्व नहीं दिया जाता। जब कृषि पर निर्भरता 75 प्रतिशत थी तब भी और अब जबकि सरकार 52 प्रतिशत बता रही है तब भी। यही कारण है कि देश के इस सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र की हमेशा उपेक्षा की गई। कांग्रेस ने इस अधिवेशन में कृषि पर पेश प्रस्ताव में भले ही पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का यह र्चचित उद्धरण पेश किया कि ‘..और सभी क्षेत्र प्रतीक्षा कर सकते हैं लेकिन कृषि नहीं।’ लेकिन वास्तविकता यह है कि सिर्फ छंटी-छटाई सैद्धान्तिक बातों के अलावा कृषि की बेहतरी के लिए सरकार के पास न तो कोई विचार हैं और न कोई योजना। केन्द्रीय मंत्री सचिन पायलट ने जरूर कृषि क्षेत्र को लेकर अपनी चिंता और सुझावों से अधिवेशन को अवगत कराया लेकिन इस पर अमल कर पाना उनकी पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार के वश की बात नहीं लगती। श्री पायलट का सुझाव था कि उर्वरक अनुदान (सब्सिडी) के रूप में प्रतिर्वष जो एक लाख करोड़ से ऊपर की धनराशि उर्वरक निर्माताओं को दी जाती है वह सीधे किसानों को दी जाए। इस मुद्दे पर कुछ र्चचा की जा सकती है। दरअसल संप्रग प्रथम ने ही यह तय किया था कि उर्वरकों पर छूट की व्यवस्था में परिर्वतन की आवश्यकता है और छूट की धनराशि के कूपन तैयार कर किसानों को दे दिये जाएं ताकि किसान बाजार भाव पर उर्वरक खरीद कर तथा दुकानदार को छूट का कूपन देकर उसका लाभ प्राप्त कर लें। अभी कुछ माह पहले यह भी तय किया गया था कि छूट के कूपन बैंकों के माध्यम से किसानों को दिये जाएं, लेकिन यह व्यवस्था आज तक लागू नहीं हो पाई है क्योेंकि उर्वरक निर्माताओं की लॉबी बहुत प्रभावशाली है। वहां से लेकर सरकार तक इसमें प्रतिर्वष अरबों रुपयों का खेल होता है। यह जानना दिलचस्प होगा कि पूर्व केन्द्रीय उर्वरक और पेट्रोलियम मंत्री रामविलास पासवान के कार्यकाल में र्वष 2004-05 में जो उर्वरक अनुदान 15,779 करोड़ रुपये का था वह एक साल बाद 2006-07 में बढ़कर 40,338 करोड़ रुपये तथा 2008-09 में तो 1,19772 करोड़ रुपये का हो गया!

आखिर देश में उर्वरकों की खपत कितनी है जो मात्र यूरिया और डीएपी पर ही एक साल में सवा लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी दे दी गई? क्या देश के किसान इतनी खाद इस्तेमाल करने भर के लिए अमीर हो गये हैं? किसानों की बदहाली की दैनिक र्चचाओं के बीच उर्वरक निर्माताओं के इस दुष्प्रचार पर आंख मूंदकर कैसे यकीन कर लिया जाए कि किसान उर्वरको का अंधाधुंध इस्तेमाल कर रहे हैं। दरअसल अनुदान लेने के लिए र्फजी उत्पादन दिखाने का जो खेल होता है, वह किसी से छिपा नहीं है। श्री पायलट ने यह भी कहा कि कृषि ऋणों पर ब्याज अब भी बहुत ज्यादा है और इसे कम किया जाना चाहिए। ध्यान रहे कि राष्ट्रीय किसान आयोग के पूर्व अध्यक्ष और प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक डा. स्वामीनाथन ने चार र्वष पूर्व ही सरकार को सुझाव दिया था कि कृषि ऋण पर ब्याज चार प्रतिशत से भी कम रखा जाए लेकिन संप्रग सरकार आज तक इसे क्रियान्वित नहीं कर पाई। महाराष्ट्र के किसानों को बार-बार हजारों करोड़ रुपयों का राहत पैकेज केन्द्र सरकार दे रही है लेकिन क्या किसानों की हालत और आत्महत्याओं के आंकड़ों में कोई सुधार हो रहा है? फिर इस तरह के शोशे छोड़ कर सरकार किसे बहलाना चाह रही है?oo in Rashtriya Sahara on edit page 07-01-2011

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