Sunday, January 09, 2011

अगली बार जब स्त्री-विमर्श सूझे ! -- शीबा असलम फ़हमी (पत्रकार, स्तंभकार, व समाजशास्त्री )

याद कीजिये, क्या अपने कभी आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति को किसी बड़े आन्दोलन या सामाजिक बदलाव का नेतृत्व करते देखा है? राजा राम मोहन राय,बाल गंगाधर तिलक, सर सैयद अहमद खान, भीमराव अम्बेडकर,छत्रपति शाहूजी महाराज,ज्योतिबा फुले, मोहनदास करमचंद गाँधी, कांशीराम या महिलाओं में रज़िया सुल्तान,लक्ष्मीबाई, चाँद बीबी, सावित्रीबाई फुले,पंडिता रामाबाई,रकमाबाई, बेगम भोपाल, ज़ीनत महल - कौन थे ये लोग ? ग़रीब-गुरबा? नहीं!
सीधी सी बात है, समाज से भिड़ने के लिए और उसके दबाव को झेलने के लिए जो आर्थिक मज़बूती चाहिए, अगर वह नहीं है तो आपकी सारी 'क्रांति' जिंदा रहने की जुगत के हवाले हो जाती है.खुद को संभाल न पाने वाला इन्सान कैसे किसी आर्थिक-सामाजिक विरोध और असहयोग को झेलकर समाज से टकराएगा ? एक निराश्रित, भूखे, कमजोर से यह उम्मीद कि वह क्रांति की अलख जगाकर परिस्थितियां बदल दे, निहायत मासूमाना मुतालबा है. लेकिन इस मामले को अगर आप स्त्री-विमर्श के हवाले से समझें तो परत-दर-परत एक गहरी होशियारी और आत्मलोभ का कच्चा चिठ्ठा खुलने लगता है.
कौन नहीं जनता कि संपत्ति में बंटवारे को लेकर समाज कितना पुरुषवादी है. बेटियों को हिस्सा देने के नाम पर क़ानूनी बारीकियों के जरिये ख़ुद को फायदे में रखने की ख़ातिर कितने वकीलों-जजों को रोजगार मुहैया कराया जा रहा है और बेटी का 'हिस्सा' तिल-तिल कर दबाया जा रहा है.
इसके बरक्स अगर आप पुरुषों के विमर्श और साहित्य की दुनिया पर नज़र डालें तो शायद ही कोई हो जो यह न मानता हो कि महिलाओं को सशक्तिकरण की ज़रूरत है. जो महिलावादी विमर्श-लेखन में नहीं हैं वे भी और जो बाज़ाब्ता झंडा उठाये हैं वे तो ख़ैर मानते ही हैं कि समाज में औरतों की हालत पतली है.
आजकल तो पुरुषों द्वारा कविता-कहानी के ज़रिये भी स्त्रियों की दयनीयता को महसूसने की कवायद शुरू हो चुकी है.ऐसे में ज़रूरी हो जाता है कि इनसे कहा जाय कि ज़रा आत्मावलोकन करें.अब इस लेखन और स्त्री आन्दोलन में पुरुष सहयोग की भागीदारी उस स्तर पर है कि जिम्मेदारी भी डाली जाय. पिछले तीन-चार सालों से जब से महिला विषयक लेखन से जुड़ी हूँ, तब से ही कुछ ख़ास तरह के साहित्य और विमर्श से दो-चार हूँ. अक्सर तो लेखक-प्रकाशक टिप्पड़ी-समीक्षा के लिए किताबें भेज देते हैं. कुछ इन्टरनेट लिंक और साफ्ट कापी आदि भी आती रही है,जिनमें अक्सर कविताएँ मिलीं जो स्त्री और स्त्री-चरित्रों का आह्वान करती हैं. पिछले लगभग एक साल से ऐसे निजी और सामुदायिक ब्लॉगों की भी भरमार हैजिनमें स्त्री-केन्द्रित कविता-कहानी-विमर्श छाया हुआ है. कुछ कविताएँ अपपनी माँ, नानी, दादी वगैरह को मुखातिब हैं उनकी ज़िन्दगी के उन पहलुओं और हादसों को याद करती हैं जब उन्हें सिर्फ़ बेटी, बहू, माँ, बहन समझा गया, लेकिन इन्सान नहीं. जो ख़ानदान में तयशुदा किरदारों में ढल गयीं और भूल गयीं कि वे अपने आप में एक इन्सान भी हैं. जिनके होने से परिवार-खानदान की कई जिंदगियां तो संवर गईं लेकिन खुद उनका वज़ूद मिट गया. कुछ और इसी तरह के स्त्री-विमर्श पर नज़र डालूं तो,पुरुष-लेखकों का एक और वर्ग है जो अनुभूति के स्तर पर 'स्त्री-मन' में प्रवेश कर, वहाँ उतर जाता है जहाँ से वे खुद औरत बनकर दुनिया देख रहे हैं. उनके भीतर की स्त्री के नजरियों को लेखनी में उतरना और फिर उन बारीकियों को आत्मसात करना.
एक और मिज़ाज है स्त्री-केन्द्रित लेखनी का,जो विमर्श-विश्लेषण द्वारा महिलाओं को बराबरी-इंसाफ़ और हक़ हासिल करने के लिए हांक लगाता है. वहाँ आह्वान के साथ-साथ धिक्कार भी है जो औरत के संकोच, बुज़दिली,धर्मभीरुता,संस्कारी और शुशील बर्ताव को छोड़, आग-ज्वाला बनने का आह्वान करता है, और इसके अभाव को स्त्री की 'गुलामी की मनोदशा' का प्रतीक मानता है.
साहित्य बिरादरी में तो स्त्री-देह को लेकर जो कुछ चल रहा है उस पर सिर्फ़ यही कह कर बात ख़त्म करुँगी कि दैहिक मुक्ति मात्र से सारी दुनिया में स्त्रीवादी क्रांति का सपना देखना अजीब लगता है. और बात जब वेशभूषा, पर्दा-प्रथा या संस्कृति पर आकर टिक जाती है तो और भी सतही हो जाती है. पुरुषों द्वारा इस तरह के स्त्री-विमर्श में भाषणबाजी के तौर पर वह सब कुछ है जो कि हम किसी प्रतिक्रियावादी विमर्श में देखते हैं.और जिसे अंग्रेजी में 'लिप-सर्विस' कहा जाता है, बस.
लेकिन इस हमदर्दी-भरे लेखन-विमर्श और विश्लेषण में ईमानदारी की बेहद कमी है जो किसी से ढंकी-छुपी नहीं है.और जिन पर पुरुष-समाज की मौन स्वीकृति जारी है और जो महिला-सबलीकरण में सबसे बड़ी बाधा है.
महिलाओं की दुर्दशा पर द्रवित साहित्य रचने वालों से लेकर,ठोस, विचारोत्तेजक और रेडिकल विमर्श करने वालों से भी यह पूछा जाना ज़रूरी हो गया है कि वह साहित्य कब रचा जायेगा जिसमें पति,पिता,भाई,पुत्र,पौत्र के असली किरदार उतरेंगें कि कैसे उनके पिता उनकी माँ के साथ खुलकर वह सब करते रहे जिससे वे दया की निरीह पात्र बनती गईं? कैसे उनके दादा-नाना-ताया का रौब-दाब कायम होता रहा? कैसे वे खुद पति के रूप में अपने पूर्वजों का अगला संस्करण बने हुए हैं? आज समाज में जिन स्रोतों से ताकत, सम्मान, आत्मविश्वास हासिल किया जाता है,स्त्री को भी ज़रूरत उन्हीं की है न की दैहिक चिंतन के चक्रव्यूह में फंसकर असली मुद्दों से भटकने की.
जो पुरुष-समाज स्त्री-मुक्ति-विमर्श में शामिल है, उनसे दो टूक सवाल है कि पिता-भाई के रूप में क्या आपने अपनी बेटी और बहन को परिवार की जायदाद में हिस्सा दिया या कन्नी काट गए? अगर पिता-भाई के रूप में पुरुष ईमानदार और न्यायप्रिय नहीं है तो उनकी बेटियां-बहनें अबलायें ही बनी रहेंगीं. पति-ससुराल और समाज में हैसियत-हीन बनने की प्रक्रिया मायके से ही शुरू होती है जब--
(1) विवेकशील होने के लिए शिक्षा नहीं मिलती.
(2) आत्मविश्वासी होने के लिए आज़ादी नहीं मिलती.
(3) आत्मनिर्भर होने के लिए परिवार-पिता की जायदाद में हक़ बराबर हिस्सा नहीं मिलता.
ये तीनों धन बेटियों को पीहर में मिलने चाहिए. अगर औरत इनसे लैस है तो ससुराल-पति क्या पूरे समाज के आगे ससम्मान ज़िन्दगी तय है लेकिन अगर पिता ही ने उसे इनके अभाव में अपाहिज बना दिया है तो क्या मायका, क्या ससुराल और क्या बाहर की दुनिया- सभी जगह उसे समझौते ही करने हैं और आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता पर कितने ही प्रवचन उसका कोई भला नहीं कर सकते.
साहित्य-जगत में स्त्री-सबलीकरण पर आप अगली बार जब भी सोचें, कृपया यहीं से सोचें कि खुद आपने अपनी बेटी-बहन-पत्नी को परिवार की संपत्ति में 'हक़ बराबर' हिस्सा दिया क्या? क्योंकि मध्यवर्ग में स्त्री-शिक्षा पर चेतना तो कमोबेश आ गयी है, दूसरी तरफ सरकारी नीतियों की वजह से भी लड़कियों की शिक्षा आगे बढ़ी है लेकिन मर्द की जहाँ अपनी ताक़त-हैसियत में निजी स्तर पर भागीदारी की बात आती है, वह सरासर मुजरिम की भूमिका में है. तब वह दहेज़,भात, नेग आदि कुरीतियों की आड़ में छुपकर मिमियाता है कि हम बहन-बेटी को ज़िन्दगी भर देते ही हैं. बेटी को दहेज़-भात-नेग में टरकाने वाले यह सब खुद रख लें अपने लिए और जो अपने लिए जायदाद दबा रखी है वह बेटियों-बहनों को दे दें तो चलेगा? क्या वे इस अदला-बदली को तैयार होंगें?
एक और पलायनवादी तर्क यह आता है कि बेटी-बहन को तो ससुराल से भी मिलता है. यह सबसे कुटिल तर्क देते समय वे यह नहीं सोचते कि जब तुम खुद अपने खून, अपनी औलाद को नहीं दे रहे हो तो पराये लोग जो दहेज के बदले उसे ले गए, वह उसके नाम अपनी जायदाद लिखवायेंगें ? या ऐसे पिता-भाई खुद अपनी पत्नियों के नाम जायदाद का कितना हिस्सा चढ़वाते हैं कागज़ों पर?
जिस दिन बेटी के पास पलटकर वापस आने का संबल अपना 'घर' होगा जिस दिन डोली-अर्थी के चक्रव्यूह से वह मुक्त होगी, जिस दिन बुरे वक़्त में संबल बनने के लिए रिश्ते और संसाधन होंगे, उसी दिन से बहुएं-पत्नियाँ आत्मसम्मानी, आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर होंगी.
सवाल यह है कि अपने इस वाजिब हक़ को लेने के लिए प्रेरित करनेवाला न साहित्य है कहीं,न विमर्श, क्योंकि यह किसी सरकारी नीति में हिस्सेदारी का मामला नहीं है, न ही किसी दूसरे की बहन-बेटी को ' स्त्री-देह' की मानसिक जकड़न से मुक्त करवाकर स्वान्तः सुखाय भोग का मामला, इसमें तो खुद अपनी अंटी ढ़ीली करनी पड़ती है, और बैठे-बिठाये बाप की जायदाद से मिलने वाले सुख-संतोष-सुरक्षा से हाथ धोना पड़ता है.
लिहाज़ा इस पर सर्वत्र मौन सधा हुआ है और बहस इस पर जारी है की किस तरह स्त्रियाँ ख्वामख्वाह अपने शारीर के प्रति अत्यधिक सतर्क होकर गुलामी में जकड़ी हुई हैं, कैसे वे शुचितावादी धार्मिक-सांस्कृतिक परम्पराओं को धोकर जीवन-सुख से खुद को वंचित कर रही हैं. कैसे वे समाज की तयशुदा भूमिकाओं में फंसकर रह गयी हैं और एक स्वछंद स्त्री होने के सुख से वंचित हैं.कुल मिलकर वह सारा स्त्री-विमर्श जारी है जिससे खुद मर्द किसी तरह के घाटे में नहीं हैं. वह परिवार की संपत्ति पर, सारे अधिकारों पर और सत्ता पर एकछत्र राजा बना बैठा है. उसकी सत्ता पर कहीं से आंच नहीं आ रही है. वह कमजोर,अधिकारहीन, विवेकहीन, आत्मविश्वासहीन, सम्पत्तिहीन महिलाओं (बेटी, बहन,पत्नी, माँ,रखैल) से घिरा हुआ, खुद को निर्विघ्न सत्ता में बनाये हुए है. और समाज में न्यायप्रिय, आधुनिक प्रगतिशील, स्त्रीवादी दिखने के लिए वह सभी फैशनेबल सिद्धांतों-वादों को अपनी वाणी में आत्मसात कर समय-सम्मत उवाच करता है.
ऐसी सूरत में सिमोन द बाउवार से लेकर प्रभा खेतान तक, और तसलीमा नसरीन से मैत्रेयी पुष्पा तक जो भी समर्थन स्त्री-विमर्श के नाम पर आप दे रहे हैं वह गल-थोथरी से ज्यादा क्या है? और आप ख़ुद जो द्रवित, सूक्ष्म, संवेदनशील साहित्य रच रहे हैं, वह समय को देखते हुए भाषा व शब्दकोष की होशियारी दिखाने से ज्यादा क्या है?
यक़ीन मानिये, इस वक़्त मुझे सामाजिक-साहित्यिक दुनिया के कई चेहरे याद आ रहे हैं जो निजी ज़िन्दगी में पैतृक संपत्ति पर ठाठ के चलते आज सामाजिक जीवन में भी स्त्री-दलित विमर्श पर क्रांतिकारी तजवीजें दे रहे हैं, वे तसलीमा नसरीन को सुरक्षा न दे पाने के लिए भारत सरकार को भी खरी-खरी सुनाते हैं और दलितों के उत्थान के बजाय पार्कों के निर्माण के लिए मायावती को भी आड़े हाथों लेते हैं. पर उनके निजी जीवन में झांकते ही पता चल जायेगा कि जनाब बहनों को केवल दहेज-भात-नेग में टरकाने में यक़ीन रखते हैं. ऐसे सामाजिक चिंतकों के जीवन में न्याय और बराबरी के आदर्शों की जाँच-पड़ताल का समय आ गया है.
महिला-सबलीकरण की मुहिम को संसद के साथ-साथ पीहर में स्थापित करने की ज़रूरत है. और निश्चित रूप से इसमें पुरुष ही कुछ कर सकते हैं. औरतें तो बस उनके ज़मीर को जगाने की कोशिश ही कर सकती हैं. इसलिए महिला-सशक्तिकरण पर अगली बार जब विमर्श करें तो यहीं से शुरू करें कि ख़ुद अपने परिवार-ख़ानदान में सबसे पहले जायदाद में भागीदारी के कागज़ तैयार करवाएं, फिर इस मुहिम को रिश्ते-नाते, पड़ोस-मुहल्ले तक पहुंचाएं.
जिस दिन बेटियां भी बेटों की तरह मजबूत ज़मीन पर खड़ी होंगी, दुनिया हिला देंगी. ( प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ' हँस' के जनवरी २०११ अंक से साभार )

1 comment:

  1. Bahut sunder!! Isi tarah ki vaicharik kranti se samajik kranti aayegi.Ise kab samjhengen hamare Pita-Bhai?

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