Tuesday, December 21, 2010

उप्र भाजपा और उमा भारती की वापसी -- सुनील अमर

पिछले सात-आठ वर्षों से अस्त-व्यस्त पड़ी उ.प्र. भारतीय जनता पार्टी को पुनर्जीवित करने का जिम्मा अब उन उमा भारती को दिया जा रहा है, जिन्हें लगभग 5 वर्ष पूर्व पार्टी विरोधी गतिविधियों का आरोप लगाकर निष्कासित कर दिया गया था, और जिन्होंने लगभग उसी वक्त भारतीय जनशक्ति पार्टी यानी भाजपा नाम से ही अपनी नयी पार्टी बना ली थी। भाजपा नेतृत्व का मानना है कि उ.प्र. में पिछड़ों को आकर्षित व उग्र हिन्दुत्व को जीवित रखकर ही फिर से राजनीतिक स्थिरता प्राप्त की जा सकती है और इसके लिए वह उमा भारती सरीखे नेताआं को अब उपयुक्त मान रही है। पार्टी उ.प्र. को लेकर कितनी चिन्तित है, इसका अन्दाज इसी से लगाया जा सकता है कि उमा की वापसी के अलावा पूर्व राष्ट्रीय अधयक्ष राजनाथ सिंह ने अब अपना पूरा समय उ.प्र. में ही लगाने की तथा वर्तमान अधयक्ष गड़करी ने उ.प्र. पर विशेष धयान देने की घोषणा की है। यह तथ्य भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि पार्टी के पास उ.प्र. से कई बड़े और कद्दावर नेता हैं।
उमा भारती की भाजपा-वापसी के प्रयास और चर्चाऐं लगभग डेढ़ साल से चल रही हैं। दरअसल, जब एक वक्त के भाजपा के नायक कल्याण सिंह, अपने लम्बे राजनीतिक अनुभव को मिथ्या करार देते हुए अपनी धार विरोधी समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिये तो भाजपा को लगा कि अब पिछड़े वोट सपा के साथ जुड़ जायेंगें। लगभग तभी यह भूमिका बन गई थी कि अब उमा भारती को भाजपा में वापस लाया जाना चाहिए। कल्याण और उमा, ये दोनों भाजपा के पिछड़े वर्ग के दिग्गज नेता रहे हैं। स्वाभाविक ही है कि पार्टी को इनकी कमी खटकती। हालाँकि कल्याण को पार्टी में वापस लाने का प्रयोग एक राजनीतिक भूल ही साबित हुई थी। लेकिन राजनीति, सिर्फ अच्छाइयों और सच्चाइयों पर चलने की चीज तो होती नहीं। इसमें तो बहुत बार जानबूझ कर पिछली भूलों और गल्तियों पर पुन: सवार हुआ जाता है!
उमा भारती को जब भाजपा से निकाला गया था, उस वक्त पार्टी अगर उ.प्र. में ढ़लान पर थी, तो आज वह गिर चुकी है। इस दौरान जितने भी चुनाव और उप-चुनाव हुए, उनमें लगातार इस पार्टी की हालत खराब होती गई, और प्रत्याषियों की जमानत जब्त होने का रिकार्ड बनता गया। आज तो उ.प्र. में स्थिति यह है कि अभी नयी-नयी गठित और नामालूम सी पीस पार्टी के मुकाबले भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी कहीं टिक नहीं पा रही है। अभी गत सप्ताह सम्पन्न जिला पंचायत अधयक्षों के चुनाव में 72 जिलों मे से सिर्फ एक जिले में भाजपा जीत पाई है! पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को आकर्र्षित करने के लिए सपा, बसपा और काँग्रेस कोई कोशिश बाकी नहीं रख रही हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि उ.प्र. में भाजपा के स्वर्णिम दिनों में (वर्श 1992 से लेकर 1999 तक) पिछडे, ख़ासकर कुर्मी और लोधा, इसके प्रमुख वोट बैंक हुआ करते थे। इस वोट बैंक को आकर्शित करने में प्रदेष के कल्याण सिंह, उमा भारती, ओमप्रकाश सिंह, विनय कटियार और गंगाचरण सिंह आदि नेताओं का बहुत योगदान था। लेकिन एक तो राम मंदिर निर्माण के सम्बन्ध में बार-बार की लफाजी और दूसरे उक्त बड़े नेताओं के सत्ता में कई बार रहने के बावजूद पिछड़ों के लिए कोई सार्थक कार्य न किये जाने के कारण यह वोट बैंक भी इससे उदासीन होकर दूसरी तरफ खिसक गया। इसी दौरान भाजपा के षीर्श पुरुश अटल बिहारी वाजपेयी से अपनी मत-भिन्नता के चलते कल्याण सिंह का तथा अन्यान्य कारणों से उमा भारती का जो उत्पीड़न पार्टी द्वारा शुरु हुआ तो इसका भी काफी गलत संदेश पिछड़े वर्ग में गया। भाजपा को इन सबका काफी नुकसान उठाना पड़ा।
भारतीय जनशक्ति पार्टी का गठन कर भाजपा को नेस्तनाबूद कर देने की बार-बार की धमकी और भाजपा प्रत्याशियों के खिलाफ चुनाव लड़ चुकी सुश्री उमा भारती, एक लम्बे समय से भाजपा में आने के जुगाड़ मे लगी थीं। वे अगर सफल नहीं हो पा रही थीं तो इसका साफ मतलब यह था कि पार्टी के भीतर एक बड़ा और प्रभावी तबका इसका विरोध कर रहा था। यह विरोध कितना ताकतवर था, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि लौह-पुरुष आडवाणी के खुलकर चाहने के बावजूद उमा की वापसी नहीं हो पा रही थी। अब अगर उनकी वापसी हो रही है तो यह सिर्फ आडवाणी के चाहने से नहीं, बल्कि उन परिस्थितियों के चलते हो रही है जिनमें एक तो, संघ के खुले दख़ल से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर नितिन गड़करी की नियुक्ति, दूसरी, भाजपा को एक बार फिर से 1992 की राजनीतिक-धार्मिक कट्टरता के हिसाब से चलाने का संकल्प और तीसरी, अभी-अभी बिहार में सम्पन्न विधान सभा चुनाव के नतीजों की वह व्याख्या कि बैकवर्ड और मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण ने जद-यू और भाजपा गठबंधन को हैरतअंगेज सफलता दिला दी, आदि शामिल हैं। अब भाजपा को लग रहा है कि बिहार की तरह उ.प्र. में भी बैकवर्ड कार्ड खेलकर और 1992 की तरह धार्मिक भावनाओं को उभार कर चुनावी लाभ लिया जा सकता है। हालांकि भाजपा यह भूल रही है कि बिहार का ताजा चुनाव, जाति नहीं विकास के बूते और लालू-राज की वापसी के भय को आधार बना कर लड़ा और जीत गया।
बिहार के जिस ताजा प्रयोग की चर्चा आजकल मीडिया में खूब की जा रही है, उ.प्र. में वर्ष 2007 में वही प्रयोग और वैसी ही हैरतअंगेज सफलता बसपा प्राप्त कर चुकी है। आज भी बसपा अपने उसी स्टैण्ड पर कायम है और आगामी चुनाव भी उसी तरह लड़ने की अपनी मंशा वह जाहिर कर चुकी है। ऐसे में सुश्री उमा भारती के पास वह कौन सा फार्मूला है जिससे वह न सिर्फ पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को आकर्शित कर लेंगीं बल्कि राम मंदिर के नाम पर हिन्दुओं में धार्मिक भावनाओं का उफान लाकर वे वोटों से भाजपा की झोली को भर देंगी? और यह सब, हो सकता है वे कर भी ले जातीं, लेकिन उन्हें उ.प्र. में जो भाजपा संगठन मिल रहा है, वह भी गौर करने लायक है कि क्या वह इतना सक्षम भी है? उ.प्र. में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सूर्यप्रताप शाही हैं, जो लगभग उसी तरह से अक्षम हैं, जैसे पिछले दो-तीन अध्यक्ष होते रहे हैं। निवर्तमान अघ्यक्ष डा. रमापतिराम त्रिपाठी का कार्यकाल तो बहुत ही लचर रहा। संगठन की तमाम बैठके और अधिवेशनं तक में मंच पर ही तू-तू, मैं-मैं का नजारा दिखाई पड़ता रहा। आज भी कमोवेश वही स्थिति बनी हुई है। और तो और, राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर नितिन गड़करी की ताजपोशी को ही लेकर आज तक उ.प्र. भाजपा सहज नहीं हो पाई है। यही वजह है कि देष के सभी राज्यों से अधिक ध्यान उ.प्र. पर देने के बावजूद श्री गड़करी यहॉ कोई भी सुधार कर नहीं पाए हैं।
कल्याण सिंह, साधवी ऋतम्भरा और उमा भारती सरीखे नेता भाजपा के लिए तभी तक मुफीद थे, जब तक वह कट्टर हिन्दुत्व की राह पर चल रही थी। इन सभी नेताओं ने अपने आज तक के राजनीतिक जीवन में 'जय श्री राम' और 'मंदिर वहीं बनायेंगें' के अलावा और कुछ किया नहीं। साधवी तो भाजपा के शासनकाल में काफी जमीन आदि का जुगाड़ बनाकर अब आश्रम व्यवस्था तक ही सीमित रह गई हैं। कल्याण और उमा, भाजपा से निकाले जाने के बाद अपने-अपने राजनीतिक संगठन बनाकर अपनी सामर्थ्य को ऑंक चुके हैं। दरअसल भाजपा को अयोध्या विवाद के फैसले से बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन जब फैसला आया तो उसने सारी उम्मीदों की हवा ही निकाल दी। फिर भाजपा को मुसलमानों से उम्मीद बंधी कि शायद मुसलमान ही फैसले पर प्रतिक्रिया करनी शुरु कर दें लेकिन मुसलमानों ने न्यायिक लड़ाई लड़ने की घोशणा करके अपनी प्रतिक्रिया बेहद संतुलित कर दी। इससे भाजपा और संघ को अपने भविष्य के मंसूबों को धार देने में बहुत निराशा महसूस हो रही हैं। (Published in Hum Samvet Features on 20 December 2010)

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