टी.वी.चैनलों पर इन दिनों एक विज्ञापन आता है, जिसमें साफ,सुन्दर और मजबूत दाँतों वाली एक युवा लड़की को एक टूथ पेस्ट कम्पनी का सेल्समैन बताता है कि उसके दाँतों में बहुत ज्यादा कीटाणु हैं और वह उसे एक अजीबो-गरीब पैमाने से नापकर दिखाता है, जिसमें ढ़ेर सारे बैक्टीरिया दिखायी पड़ते हैं लेकिन जब वह लड़की सेल्समैन की कम्पनी का टूथ पेस्ट कर लेती है, तो तुरन्त ही उसके दाँतों से कीटाणु गायब हो जाते हैं! सेल्समैन बताता है कि सबके मुँह में इसी तरह कीटाणु होते हैं, जो दाँतों और मसूढ़ों को सड़ा डालते हैं। तात्पर्य यह है कि उस कम्पनी का टूथ पेस्ट जरुर करना चाहिए। साबुनों का भी विज्ञापन इसी तरह आता है कि यदि अला-फला कम्पनी के साबुनों का इस्तेमाल न किया गया तो कपड़े खतरनाक कीटाणुओं से भरे रहेंगें और तमाम भयानक बीमारियाँ होती रहेंगीं। एक साबुन कम्पनी तो अपनी एक ऐसी प्रयोगशाला दिखाती है, जैसी कि बड़ी-बड़ी दवा कम्पनियों में भी क्या होती होगी! दर्शक, स्वाभाविक ही बड़े पशो-पेश में पड़ जाता है कि क्या वास्तव में उसके कपड़े कीटाणुओं से भरे पड़े हैं?
भूमंडलीकरण ने जिस उपभोक्ता-संस्कृति या उपभोगवाद को जन्म दिया है, यह विज्ञापनी कुचक्र उसी का प्रतिफलन है। दरअसल डर को बेचना बहुत आसान होता है, बशर्ते ग्राहक को ठीक से डरा दिया जाय। डरा हुआ आदमी कुछ भी कर सकता है क्योंकि उसके विवेक पर डर हाबी हुआ रहता है। ऐसे में उसे डर से मुक्ति का जो उपाय बताया जाता है वह सहज ही उसे अपना लेता है। वस्तुओं की बिक्री बढ़ाने के लिए विवेकहीन ग्राहक से अच्छा और क्या हो सकता है! सो येन-केन-प्रकारेण ग्राहकों को डराने का यह गैर-कानूनी कार्य सरे-आम और निर्बाध रुप से चल रहा है। अब ऐसा नहीं है कि डराने का यह खेल सिर्फ उपभोक्ता वस्तुओं के लिए ही किया जा रहा है, बल्कि इसका दायरा काफी विस्तृत हो चुका है। इसमें पहले भूत-प्रेत की कपोल-कल्पित कहानियों पर आधारित धारावाहिकों को दिखाकर भयभीत ग्राहक तैयार किये जाते हैं, तत्पश्चात उनके उपचारार्थ ढ़ोंगी बाबाओं, तांत्रिकों और तथाकथित धर्मगुरुओं को टी.वी. चैनलों पर पेशकर उनकी दुकान चलवाई जाती है। यह ध्यान दिला देना उचित ही होगा कि भयादोहन के इस व्यापार में सिर्फ उपदेश ही नहीं बिकता बल्कि करोड़ों-अरबों रुपये की पूजा सामग्रियों और चढ़ावे का भी वारा-न्यारा होता है। इस प्रकार यह एक सुनियोजित व्यापार है।
टी.वी. पर आने वाले विज्ञापनों पर अगर गौर करें तो पता चलता है कि इनका सहज निशाना मुख्य तौर पर महिलाऐं और बच्चे होते हैं। इन्हीं को लक्ष्य कर विज्ञापनों का निर्माण किया जाता है। इसके पीछे का मनोविज्ञान भी बिल्कुल साफ है-घर चलाने और उसके लिए सामान खरीदने की जिम्मेदारी गृहणी की होती है तथा प्रत्येक बच्चा अपने माँ-बाप की कमजोरी होता है। बच्चे की सलामती और उसके खुशहाल भविष्य के लिये मॉ-बाप कुछ भी करने के लिए हमेशा ही हो जाते हैं, और इसीलिए वे धंधोबाजों के निशाने पर आ जाते हैं। धंधा करने के लिए पहले भ्रान्तियाँ पैदा की जाती हैं, तत्पश्चात उसके निवारण के सामान उपलब्ध कराये जाते हैं। अभी कुछ दिन पहले एक विज्ञापन आता था जिसमें एक स्त्री दूसरी से कहती थी कि- साफ तो है लेकिन स्वच्छ नहीं। अब जब तक आम दर्शक इस व्याकरण में पड़े कि साफ और स्वच्छ का फर्क क्या हुआ तब तक उसे बता दिया जाता था कि साफ तो किसी भी उत्पाद से किया जा सकता है लेकिन स्वच्छता तो सिर्फ उसी कम्पनी के उत्पाद से आ सकती है! एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने अपने साबुन के प्रचार के लिए एक समय तो एक नया शब्द ही गढ़ लिया था-चमकार! अब आप शब्दकोश में तलाशते रहिये यह शब्द और इसका मतलब! दिक्कत किसी वस्तु के प्रचार में नहीं बल्कि उसे जबरन बेचने में है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ दृष्य या श्रव्य माध्यमों पर ही ऐसा हो रहा है। प्रिन्ट माध्यम मे भी यह खेल उसी रफ्तार से हो रहा है जैसे दृष्य-श्रव्य में। यहाँ न सिर्फ शब्दों की बाजीगरी है बल्कि कानूनी शिकन्जे से अपनी गर्दन बचाये रखने के लिए अपठनीय बारीक अक्षरों में हिदायतें छापने की चालाकी भी रहती है। यह सभी जानते हैं कि सफाई अच्छी बात है लेकिन सफाई का आतंक पैदाकर कोई वस्तु विशेष बेचने का प्रयास करना तो गैर कानूनी ही कहा जाएगा। बच्चों के लिए एक विज्ञापन में दिखाया जाता है कि गर्मी के दिनों में सूर्य देवता बाकायदा एक पाइप उनके सिर पर लगाकर सारी ताकत चूस लेते हैं। धूप में लड़खड़ाता हुआ एक बच्चा और उसके सिर पर चिपकी एक पाइप से शरीर की सारी ताकत खींचती कोई आसमानी शक्ति! और फिर यह आदेशात्मक सुझाव कि सिर्फ उनकी कम्पनी का फलां पेय पदार्थ ही इससे बच्चे की सुरक्षा कर सकता है। अब बच्चे तो बच्चे, बड़ों को भी यह विज्ञापन ऐसा विचलित करता है कि वे भी अपने नन्हें-मुन्नों की सलामती के लिए चिन्तित हो जायँ। और वास्तव में यही चिन्ता पैदा कर देना ही तो करोड़ों में बनने वाले इन विज्ञापनों की सफलता है! जब आप चिन्तित हो जायेंगें तभी तो चिन्ता दूर करने का उपाय करेंगें!
दुनिया में धन केन्द्रित व्यवस्था और 'इस्तेमाल करो और फेंको' की पनपती संस्कृति ने निश्चित ही पुराने आदर्शों और मान्यताओं को ढहाया है। यही कारण है कि आज के समाज में तमाम ऐसे भी व्यवसाय हो गये हैं जो लोगों की भावनाओं को क्षति पहुँचाकर ही किये जाते हैं। इसके प्रतिफलन में भावनाऐं और संवेदनाऐं भी धीरे-धीरे दम तोड़ती जा रही हैं। यह सहज ही सोचने वाली बात है कि जिस तरह से विज्ञापनों में बताया जाता है कि काम करने से हाथों में कीटाणु, सांस लेने से शरीर के भीतर कीटाणु, कपड़ों में कीटाणु, दॉतों में कीटाणु, हर प्रकार के खाद्य पदार्थों में कीटाणु और गरज़ यह कि चारों तरफ कीटाणु ही कीटाणु भरे पड़े हैं, ऐसे में तो दुनिया के हर आदमी का जीवन ही दुश्वार हो जाना चाहिए था! लेकिन ऐसा नहीं है, लोग जी रहे है बल्कि हो यह रहा है कि आज अमीरों द्वारा संक्रमण और बीमारियॉ ज्यादा फैलायी जा रही हैं। बीते दिनों में हमने देखा कि वैश्वीकरण के चलते 'मैड काउ डिजीज','बर्ड फ्लू' और 'स्वाइन फ्लू', जैसी घातक संक्रामक बीमारियाँ गरीबों की देन नहीं थीं बल्कि जो सम्पन्न वर्ग है और जो खान-पान और रहन-सहन के सारे विज्ञापनी एहतियात बरत सकता है, वही पहले-पहल इन सबकी चपेट में आया और फिर बाकी लोगों को आना ही था। ये विज्ञापनी सावधानियॉ जाहिर है कि धंधेबाज हैं और इनका मकसद सिर्फ लोगों की जेब से पैसा खींचना भर ही हैं। फिर भी यह सवाल अपनी जगह रह ही जाता है कि लोगों को बहला-फुसला कर, दिग्भ्रमित कर अपना उल्लू सीधा करना कहाँ तक उचित है?
--- सुनील अमर ( Published in HumSamvet Features 13December2010)
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