'....... दुनिया के प्रायः सभी धर्मों में स्त्रियों को सब्जेक्ट ही समझा गया है . इसी से लगता है कि ईश्वर और घर्म दोनों मर्दों के सृजन हैं. ....... पुरुष स्त्री से चाह कर भी घायल होता है. चाह कर घायल होने में बड़ा सुख मिलता है लेकिन वही पुरुष जब उसी स्त्री से अनचाहे घायल होता है , तब उसकी शारीरिक ताकत तिलमिलाती है . जिस औरत को वह सजाना चाहता है , भोगना चाहता है वह दरअसल सिर्फ जिस्म न होकर एक सोच भी होती है और यही सोच मर्दों को परेशान करती है, डराती है .........यही कारण है कि मर्दों का अतिशय प्यार और अतिशय दरिंदगी , दोनों का कहर औरत पर ही टूटता है. इसमें असली खेल शारीरिक ताकत का है.........ताकतें, हमेशा बुद्धि के नियंत्रण में ही रही हैं . .....इसीलिए मर्द औरत की बुद्धि को इस्तेमाल नहीं होने देना चाहता है .उस पर धर्म का अंकुश लगाता है. वह अपने धर्म के खेल में औरत को शामिल नहीं करता है .
.......स्त्रियों को पुरुषों की सदाशयता के मुगालते में रहने के बजाय अपना ईश्वर और धर्म खुद गढ़ना चाहिए .पुरुषों का ईश्वर और धर्म ,पुरुषों का ही भला करेगा . ईश्वर और धर्म , ये पुरुष शिकारी के हथियार हैं , और अपने हथियार को भला अपने शिकार से साझा कौन करना चाहेगा ?
(सुनील अमर 09235728753 )
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