Wednesday, July 27, 2011

पूर्वांचल में भी हैं किसानों की समस्याऐं --- सुनील अमर




एक लम्बे अरसे से सुस्त पड़ी उत्तर प्रदेश की काँग्रेसी राजनीति को पिछले कुछ वर्षों से राहुल गॉधी ने अपने नये अंदाज में आंदोलित करना शुरु किया है। इस क्रम में सबसे पहले उन्होंने दलितों के मुहल्लों में नहाना-खाना-सोना शुरु कर कॉग्रेस में उनकी विश्वास बहाली का प्रयास किया। इसी दौरान राहुल देश-प्रदेश के युवाओं से स्कूल-कॉलेजों में जाकर मिलते रहे। इधर भूमि अधिग्रहण की ज्यादतियों पर बेहद आन्दोलित पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के बीच बार-बार जाकर उन्होंने मामले को राष्ट्रीय स्तर पर इस कदर चर्चित किया कि जहाँ प्रदेश सरकार को अपनी फेस सेविंग के लिए इस समस्या को लेकर कई फैसले करने पड़े, वहीं उन्हीं की पार्टी की अगुवाई में चल रही केन्द्र सरकार को भी किसान हितों को लेकर कई महत्त्वपूर्ण घोषणाऐं करनी पड़ीं और आगामी अगस्त माह से शुरु हो रहे संसद के मानसून सत्र में उन्हें पेश करने का निर्णय लेना पड़ा है। अब राहुल गॉधी ने पूर्वांचल की तरफ रुख किया है। कॉग्रेस की तरफ से बताया गया है कि वाराणसी में युवक कॉग्रेस की संगठनिक बैठक होगी और इसमें प्रयास होगा कि पूर्वांचल के ज्यादा से ज्यादा युवाओं को संगठन से जोड़ा जा सके। उत्तर प्रदेश में वर्ष 2012में विधानसभा के चुनाव होने हैं।
               उत्तर प्रदेश का अगर भौगोलिक और आर्थिक विश्लेशण किया जाय तो यह साफ पता चलता है कि प्रदेश का पूर्वी हिस्सा जिसमें करीब 32 जिले आते हैं, भौगोलिक रुप से पर्याप्त समृध्द होने के बावजूद राज्यकृत संसाधनों और आर्थिक समृध्दि में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुकाबले कहीं ठहरता ही नहीं। यह इस तथ्य के बावजूद है कि इसी पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही अधिकांश मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री प्रदेश और देश को अब तक मिलते रहे हैं। श्रीमती सोनिया और राहुल गॉधी स्वयं इसी पूर्वांचल क्षेत्र का प्रतिनिधित्व संसद में करते हैं। वाराणसी एक अति प्राचीन और महत्त्वपूर्ण धार्मिक नगरी होने के साथ-साथ पूर्वांचल की संस्कृति का उत्कृष्ट प्रतीक है। समग्र पूर्वांचल क्षेत्र को कोई भी संदेश देने के लिए वाराणसी से अच्छी कोई जगह नहीं। अभी कुछ माह पूर्व भी कॉग्रेस की एक संगठनात्मक बैठक यहाँ हो चुकी है।
               पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों की जिन समस्याओं को लेकर राहुल गॉधी ने भ्रमण और पदयात्रा की वे भूमि अधिग्रहण से सम्बंधित थीं लेकिन उससे कहीं त्रासद और मारक परिस्थितियॉ किसानों के साथ पूर्वांचल में मौजूद हैं। यहॉ यह कहना प्रासंगिक होगा कि यदि इस क्षेत्र की किसान-समस्याओं को श्री राहुल गॉधी द्वारा उठाया जाय तो उसका न सिर्फ तात्कालिक बल्कि दीर्घकालिक लाभ कॉग्रेस को मिल सकता है। पूर्वांचल के तमाम हिस्से जहॉ बरसात के दिनों में बाढ़ से घिर कर जन-धान की हानि का शिकार होते हैं वहीं अन्य दिनों में बिजली की हाहाकारी कटौती, सरकारी नलकूपों की स्थायी खराबी,नहरों के सूखी रहने तथा खाद-बीज की अनुपलब्धता और इसके चलते कालाबाजारी तथा तमाम सरकारी खरीद योजनाओं के बावजूद दलालों व बिचौलियों के हाथों लुटने की मजबूरी ही यहाँ के किसानों की नियति बन चुकी है। पूर्वांचल में सबसे खराब स्थिति तो शीतगृहों की है।
               आबादी और कृषि के क्षेत्रफल के लिहाज से देखें तो यहॉ न के बराबर शीतगृह हैं। यह किसानों के शोषण का बहुत बड़ा कारण है। तुलनात्मक तौर पर देखें तो पूर्वांचल की बदहाली भी बुंदेलखण्ड से कम नहीं है।
               राहुल गॉधी युवाओं को अधिकाधिक संख्या में कॉग्रेस से जोड़ना चाहते हैं। यह सच है कि वोट की राजनीति में युवा शक्ति बहुत कारगर भूमिका निभाती है और जहॉ परिवर्तन चाहिए हो वहाँ तो युवाओं बगैर काम चल ही नहीं सकता। राहुल गाँधी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान राजनीति की है। वहॉ आमतौर पर किसान सम्पन्न हैं क्योंकि उनके पास न सिर्फ बड़ी जोत है बल्कि खेती के लिए आवश्यक संसाधन के तौर पर वहाँ पर्याप्त नहरें हैं, विद्युत आपूर्ति बेहतर है, तथा गोदामों, शीतगृहों व अनाज मंडियों की व्यवस्था बेहतर है। ऐसे में वहाँ किसान का बेटा भी अपनी सम्पन्नता के बूते राजनीति में दखल बनाए रखता है। पूर्वांचल में ऐसा नहीं है। यहॉ के अधिसंख्य युवा रोजगार की खोज में पश्चिमी उत्तर प्रदेश सहित पंजाब, हरियाणा, मुम्बई या फिर गुजरात की तरफ निकल जाते हैं। जो यहॉ रह भी जाते हैं वो रोजगार के दुष्चक्र में ऐसे फॅसते हैं कि उनके लिए किसी भी राजनीतिक दल से जुड़ना संभव नहीं होता। ऐसे में समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग राजनीति में अपनी हिस्सेदारी से बचा रह जाता है और उसकी आवाज अनसुनी रह जाती है। श्री राहुल गॉधी पूर्वांचल के अपने अभियान में अगर समाज के इस वंचित वर्ग को भी सामने लाने की कोई योजना बना सकें तो यह सिर्फ राजनीतिक ही नहीं बल्कि हर लिहाज से एक बड़ा कदम साबित होगा।
               पूर्वांचल का अधिकांश हिस्सा इन्हीं दिनों बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित होता है। व्यापक जन-धन की हानि होती है। अन्य तमाम दिक्कतों के साथ-साथ किसानों की महीनों की मेहनत पर पानी फिर जाता है। बाढ़ से उनके खेत खराब हो जाते हैं और वे जलभराव के कारण बुवाई नहीं कर पाते या बोया हुआ भी नष्ट हो जाता है। इन्हीं दिनों में पूर्वांचल का पूरा क्षेत्र जापानी इंसेलायटिस या मस्तिष्क ज्वर नामक जानलेवा बीमारी से प्रभावित रहता है और प्रतिवर्ष हजारों लोग इसके शिकार होकर काल कवलित हो जाते हैं। इनमें बड़ी तादाद बच्चों की होती है। यह बीमारी पूर्वांचल के लिए अभिशाप सरीखी है। प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाऐं कितनी बदहाल और माफियाओं के चंगुल में हैं,यह अभी ताबड़तोड़ तीन सी.एम.ओ. की हत्या से स्पष्ट है, जिनमें एक डिप्टी सी.एम.ओ. थे जिन्हें जेल के भीतर कथित तौर पर मार डाला गया है। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि यह हत्याऐं उन अधिकारियों की हुई हैं जो केन्द्र सरकार की एक महत्त्वाकांक्षी स्वास्थ्य योजना राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत तैनात थे। इस योजना के तहत प्रत्येक जिला अस्पताल को दवा आदि की खरीद हेतु वर्ष में 30 करोड़ रुपये दिए जाते हैं। पूर्वांचल के मस्तिष्क ज्वर प्रभावित जिलों को इस बीमारी के उपचार हेतु खास तौर पर अतिरिक्त बजट व दवाऐं दी जाती हैं। इतना भारी-भरकम बजट फिर भी नतीजा शून्य ही रहता है क्योंकि क्रियान्वयन और निगरानी तंत्र में भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। पूर्वांचल में इस मौसम का आगमन लोगों में भय पैदा करता है। यह निश्चित है कि अगर राहुल गॉधी सरीखे नेता पूर्वांचल की इन समस्याओं में जरा भी रुचि लेना शुरु कर दें तो यहॉ के हालात काफी बदल सकते हैं,जैसा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश कीं किसान समस्याओं के संदर्भ में अभी देखा गया।
               प्रदेश की राजनीति में तीन प्रमुख वर्गों - दलित, छात्र/युवा तथा किसान - की तरफ कॉग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गॉधी ने ध्यान दिया है। इन तीनों वर्गों को अगर  राजनीति की मुख्यधारा से जोड़ा जा सके तो इसके राजनीतिक फलितार्थ तो होंगें ही,सामाजिक-आर्थिक विकास को भी गति दी जा सकती है। कहने को तो सभी राजनीतिक दलों ने इन तीनों वर्गों से सम्बन्धित अपने फ्रंटल संगठन बना रखे हैं लेकिन वह महज खानापूरी ही है। बसपा के बहुजन से सर्वजन की तरफ के प्रयाण को दलित पचा नहीं पा रहे है,और प्रदे के किसानों ने बीते तीन दशक में किसान नेताओं और धरती पुत्रों के कई रुपों को नजदीक से देखा जो अंतत:राजनीतिक भयादोहन कर सरकार में शामिल होने और कुनबापरस्ती बढ़ाने को ही किसान सेवा समझते रहे हैं। पूर्वाचल राज्य के गठन की मॉग तो एक लम्बी प्रक्रिया है लेकिन कोई भी राजनीतिक दल अगर पूर्वाचल के किसानों की गंभीरता से सुध ले ले तो उसकी जड़ें वहाँ मजबूत हो सकती हैं। इस समस्या को किसी राष्ट्रीय दल तथा नयी सोच के नेतृत्व से ही हल करने की उम्मीद की जा सकती है। क्षेत्रीय दल या राज्य सरकारें भी इस दिशा में कारगर काम नहीं कर पाऐंगीं। ( हम समवेत फीचर्स में २५ जुलाई २०११ को प्रकाशित )

मॅंहगाई बढ़ाने पर आमादा केन्द्र सरकार - सुनील अमर




यह पहले से ही पता था कि निर्यात की अनुमति देते ही चीनी के दाम बढ़ जाऐंगें, बावजूद इसके केन्द्र सरकार ने चीनी निर्यात पर लगी रोक पिछले सप्ताह हटा ली और तत्काल ही खुदरा बाजार में चीनी के दाम में चार रुपया प्रति किलो की वृद्धि हो गयी! व्यापारियों को कालाबाजार सरीखा लाभ पहुँचाने वाले वायदा कारोबार पर भी गत वर्ष तब रोक लगा दी गई थी जब चीनी का दाम 50 रुपये प्रतिकिलो तक पहुँच गया था, लेकिन इधर वह भी खोल दिया गया है। इसके साथ ही पेट्रो पदार्थों की मूल्य वृद्धि ने भी वही काम किया है जिसकी अपेक्षा थी। उधर योजना आयोग के उपाध्यक्ष जनाब मोंटेक सिंह आहलूवालिया हैं जिन्होंने गत दिनों देशवासियों को अपना अर्थशास्त्र बताया है कि पेट्रो मूल्यों में वृद्धि से मॅहगाई घटेगी! यहाँ यह जानना दिलचस्प होगा कि स्कूटर-मोटरसायकिल के पेट्रोल के मुकाबले हवाई जहाज का पेट्रोल (यानी ए.टी.एफ.) लगभग 15 रुपया प्रति लीटर सस्ता है!
गत वर्ष स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से देश को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने ठोस शब्दों में आश्वासन दिया था कि अगले 100 दिनों में मॅहगाई पर काबू पा लिया जाएगा। प्रधानमंत्री का यह ‘100 दिन’ उस कार्टून की तरह हास्यास्पद हो गया जिसमें एक घुड़सवार एक डंडे के सिरे पर चारा बाॅधकर घोड़े के मॅुंह से जरा सा आगे किये रहता है। घोड़ा समझता है कि अभी चंद कदम बढ़ते ही चारा मुंह में आ जाएगा और इसी उम्मीद में वह आगे बढ़ता जाता है। वह नहीं जानता कि उसी रफ्तार से चारा भी आगे बढ़ता जा रहा है। लाल किले से उतरने के बाद भी कई बार प्रधानमंत्री ने 100-100 दिन की मोहलत देशवासियों से मांगी लेकिन हालत घोड़े और चारे वाली ही बनी हुई है और एक बार फिर प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर पर पहुँचने वाले हैं। अभी 80 रुपये किलो वाली प्याज के दाम घटने से जरा राहत महसूस हो रही थी कि अब चीनी और टमाटर भी 50 रुपया किलो तक पहुँच रहे हैं। बाजार के जानकार अंदेशा व्यक्त कर रहे हैं कि आने वाले दिनों में टमाटर गरीबों की आँखें लाल कर देगा। अमीर लोग नहीं जानते होंगें कि गरीबों का पेट भरने में आलू, प्याज और टमाटर का कितना महत्वपूर्ण योगदान होता है। अमीर लोग टमाटर की सलाद खाते हैं लेकिन गरीब एक टमाटर फोड़कर उसमें नमक और मिर्च मिलाकर उसी से दो रोटी खाकर अपनी भूख मिटा लेता है! गरीब लोग सलाद नहीं खाते।  
कुछ साधारण से सवाल आम आदमी के मन में रोज ही उठते हैं लेकिन सत्ता प्रतिष्ठानों से उसे जवाब नहीं मिलता। मसलन, कर्नाटक और महाराष्ट्र के किसानों से जब प्याज 3 से 5 रु. प्रति किलो थोक में खरीदी जाती है तो वह दिल्ली के आजादपुर मंडी में पहॅुचकर 80 रुपये किलो कैसे बिकने लगती है? उ.प्र. के सोनभद्र और मिर्जापुर जिलों से जो टमाटर एक रुपया प्रतिकिलो से भी कम दाम पर थोक व्यापारी खरीदते हैं वह सब्जी मंडी में पहुंच कर 25 रुपया किलो कैसे हो जाता है? देश के कृषि मंत्री जब बताते हैं कि इस बार चीनी का जबर्दस्त उत्पादन हुआ है और हमारे भंडार भरे हुए हैं लिहाजा चीनी मिल मालिकों को निर्यात की अनुमति दे दी जानी चाहिए तो फिर एक ही सप्ताह में चीनी का दाम इतना ज्यादा कैसे बढ़ जाता है? और जब हमारा अतीत गवाह है कि पेट्रो मूल्य बढ़ने से हमेशा चतुर्दिक रुप से मॅहगाई बढ़ जाती है तो हमारे अर्थशास्त्री आहलूवालिया कैसे कह रहे हैं कि इससे मॅहगाई थम जाएगी? क्या यह देश की जनता से गलत बयानी नहीं है और यदि हाँ तो क्या ऐसे लोग गुनाहगार नहीं हैं?
देश के गन्ना किसानों का अरबों रुपया चीनी मिल मालिकों ने जैसे एक परम्परा के तहत दशकों से दबा रखा है। इसे निपटाने के लिए सरकार उन्हें ऋण भी देती है लेकिन वे ऋण लेकर भी किसानों का बकाया अदा नहीं करते। वे अच्छे दामों पर एथनाल बेचते हैं, गन्ने से ज्यादा मॅहगी उसकी खोई (बैगास) बेचते हैं या खोई का इस्तेमाल कर बिजली का उत्पादन करते हैं तथा चीनी का मनमानी दाम बढ़ाते व निर्यात करते हैं! क्या इन पर किसी सरकारी विभाग का नियंत्रण नहीं है? एक तमाशा देखिए - वर्ष 2008-09 में किसानों ने साल-दर-साल के शोषण से आजिज आकर गन्ना उत्पादन कम किया और इस प्रकार न्यूनतम सालाना खपत 2.30करोड़ टन के सापेक्ष सिर्फ 1.47 करोड़ टन चीनी का ही उत्पादन देश में हुआ। इसकी पूर्ति के लिए सरकार ने न सिर्फ विदेशों से 60 लाख टन चीनी का आयात किया बल्कि विदेशी चीनी पर लगने वाले 60 प्रतिशत आयात शुल्क को भी दिसम्बर 2010 तक माफ किए रखा ताकि चीनी की उपलब्धता बनाकर चढ़े दामों को गिराया जा सके। वर्ष 2009-10 में उत्पादन में थोड़ा सुधार हुआ और वह बढ़कर 1.90 करोड़ टन तक पहुंचा। चालू वर्ष में बताया गया कि चीनी का सकल घरेलू उत्पादन 2.45 करोड़ टन है जो कि घरेलू मांग से भी 15 लाख टन ज्यादा था। आयातित चीनी का भी एक बड़ा भंडार इसी के साथ मौजूद था। इन्ही सब आंकड़ों को आधार बनाकर चीनी मिल मालिक लाबी पिछले कई महीने से निर्यात को खोलने तथा वायदा कारोबार चालू किए जाने की मांग कर रही थी। यह सब सही है। व्यापार का राज-काज शायद ऐसे ही चलता होगा लेकिन इस बात का जबाब कौन देगा कि जब 15 लाख टन अतिरिक्त देशी चीनी के साथ आयातित चीनी का भंडार भी देश में मौजूद है, तो फिर दाम क्यों बढ़ रहे हैं?
अब स्थिति यह है कि सरकार ने दस लाख टन चीनी के निर्यात की छूट दे दी है और दूसरी तरफ 60 प्रतिशत आयात शुल्क अब लागू है। मतलब विदेशी चीनी अब नहीं आनी है। उसका रास्ता इस 60 प्रतिशत ने बंद कर दिया है तथा घरेलू चीनी के बाहर जाने का रास्ता खोल दिया गया है! अब इसका नतीजा जो होना था वो होने लगा है। चीनी के दामों में इधर जो 400 रुपये प्रति कुंतल की बढ़ोत्तरी हुई है वह निर्यात के कारण है। पेट्रो मूल्यों का असर पड़ना अभी बाकी है। श्री आहलूवालिया का तर्क है कि पेट्रो मूल्यों में वृद्धि के कारण लोग वस्तुओं का उपभोग करना कम कर देंगें या दाम ज्यादा देंगें। इस प्रकार जब मांग कम हो जाएगी तो आपूर्ति स्वाभाविक रुप से बढ़ जाएगी और दाम कम हो जाऐंगें। श्री आहलूवालिया जी शायद जान बूझकर इस तथ्य को नहीं बताना चाहते कि जो वर्ग पेट्रो पदार्थों का उपभोग करता है उसे इस तरह की मॅहगाइयों से कोई फर्क ही नहीं पड़ता। (इसमें कृपया मिट्टी का तेल उपयोग करने वालों और डीजल से खेती करने वालों को न जोड़ें)। यही तर्क वे हवाई जहाज यात्रियों के संदर्भ में क्यों नहीं देते? क्यों नहीं ए.टी.एफ. का दाम चैगुना कर देते ताकि सरकार का राजस्व घाटा एक झटके में ही पूरा हो जाय? 
  टमाटर का दाम बढ़ने पर हो सकता है कि सरकार पीली दाल की तरह दिल्ली आदि महानगरों में खुद ही सस्ता बिकवाना शुरु कर दे। यह कितना हास्यास्पद है कि एक संप्रभु सरकार कालाबाजारी पर लगाम लगाने के बजाय बेचारगी में सस्ती दर की दुकान चलाना शुरु कर दे! और यह कैसी निर्लज्जता है कि हवाई जहाज का पेट्रोल सस्ता करने के लिए सामान्य जनता के इस्तेमाल का पेट्रोल मॅहगा कर दिया जाय! संप्रग को क्या अब चुनाव नहीं लडना है?राष्ट्रीय हिंदी  दैनिक हरि भूमि में 27 जुलाई 2011 को प्रकाशित ) 

Thursday, July 21, 2011

एक जुनून इस ‘‘सायकिल टीचर’’ आदित्य का ! -- सुनील अमर


कहावत है कि वह जुनून क्या जो सिर चढ़कर न बोले! ऐसा ही एक जूनून सिर पर सवार है लखनऊ के आदित्य कुमार के। आदित्य लोगों को अंग्रेजी में निपुण करना चाहते हैं, वह भी फ्री में। वे चाहते हैं कि आज के छात्रों व युवाओं को कम से कम इतनी अंग्रेजी जरुर आये कि वे अपनी रोजमर्रा की आवश्यकताओं को बेहिचक पूरी कर सकें। आदित्य साधनहीन हैं लेकिन यह साधनहीनता उनके उत्साह को कम नहीं कर सकी है। अपनी आजीविका के लिए वे ट्यूशन पढ़ाते हैं लेकिन समाज निर्माण का जज़्बा ऐसा है कि बड़े-बड़े साधन सम्पन्नों को उनके सामने शर्म करनी चाहिए। एक पुरानी सी बाइसिकिल पर अपना साजो-सामान बांधकर आदित्य सड़क-सड़क, गली-गली और झुग्गी-झोपडि़यों में घूम-टहल कर जरुरतमंदों को अंग्रेजी भाषा का निःशुल्क प्रशिक्षण देते हैं। ऐसा वे पिछले पांच वर्षों से नियमित रूप से कर रहे हैं। उनसे अंग्रेजी सीखने वालों में गरीब घरों के छात्र, फेरी लगाने वाले दुकानदार, फुटपाथ किनारे बैठकर रोजी कमाने वाले मजलूम से लेकर पुलिसवाले तक शामिल हैं।
          अपने जुनून के बारे में आदित्य बताते हैं कि वे मूलरुप से जनपद फर्रुखाबाद के रहने वाले हैं और रोजगार की तलाश में लगभग 15 साल पहले लखनऊ आ गये थे। रोजगार के तौर पर उन्हें यहां ट्यूशन पढ़ाना पड़ा। आदित्य बताते हैं कि वे एक दलित परिवार से हैं इसलिए आज के समाज में जितनी भी सामाजिक विसंगतियां दलितों को लेकर हैं, आदित्य को भी वह सब झेलना पड़ा है और आज भी झेल रहे हैं। वे कहते हैं कि सामाजिक प्रताड़ना ने ही मुझे प्रेरित किया कि गरीब लोगों को अगर ठीक से शिक्षा मिल जाय तो गरीबी दूर करने की अपनी लड़ाई को वे बेहतर ढ़ॅग से लड़ सकते हैं। उनका प्रयास इसी दिशा में है।
आदित्य ने अपनी साइकिल में एक छोटा सा पी.ए.एस. यानी पब्लिक एड्रेस सिस्टम लगा रखा है और बैनर भी। वे लोगों को इसी लाउडस्पीकर से आकर्षित कर अपनी बात बताते हैं और अगर अंग्रेजी सीखने वाले ज्यादा लोग हो जाते हैं या सड़क पर शोरगुल ज्यादा होता है तो इसी से लोगों को पढ़ाते भी हैं। उनके इस अभिनव समाज सेवा के कारण अब लोग उन्हें साइकिल टीचर, गरीबों का शिक्षक और ऑन रोड अंग्रेजी शिक्षक कहने लगे हैं। वे बताते हैं कि उन्होंने इस तरह के काम में आ रही दिक्कतों और अपने अनुभव के आधार पर कई तरह का पाठ्यक्रम भी बना रखा है और जिस तरह के प्रशिक्षु होते हैं उन्हें उसी मुताबिक शिक्षा देते हैं। आदित्य बताते हैं कि वे एक वीडियो कैमरा भी रखते हैं और उससे तमाम जरुरी चीजों को रिकार्ड कर उसका पढ़ाई में इस्तेमाल करते हैं।
‘‘काम तो बहुत कठिन है?’’ पूछने पर आदित्य कहते हैं कि लगन हो तो कठिन काम भी आसान लगने लगता है, और फिर यह तो समाजसेवा है और खास बात यह है कि इससे उन्हें बहुत सुकून मिलता है। ‘‘सड़क किनारे ऐसा भीड़ वाला काम करने में काफी अड़चन आती होगी?’’ इसके जवाब में आदित्य कहते हैं कि कभी-कभी होती है लेकिन अब उन्हें इस बात का तजुर्बा हो गया है कि उन्हें अपनी क्लास कहां लगानी चाहिए। वे बताते हैं कि अब तो उन्हें काफी लोग पहचानने लगे हैं और देखते ही उनके पास इकट्ठा हो जाते हैं।०० ( हस्तक्षेप डाट कॉम  व चौराहा डाट कॉम पर २१ जुलाई को प्रकाशित )


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एक जुनून इस ‘‘सायकिल टीचर’’ आदित्य का !



Wednesday, July 20, 2011

उ.प्र.भाजपा : बाड़ ही खेत चरने पर आमादा --- सुनील अमर




उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव नजदीक आ गये हैं, राजनीतिक दलों की गतिविधियों से ऐसा लगने लगा है फिर भी राज्य में मौजूद दोनों राष्ट्रीय दल -काँग्रेस और भाजपा, में अभी वह तेजी नहीं दिख रही है जो राज्य स्तरीय बसपा और सपा में है। इन दोनों दलों ने तो अपने संभावित प्रत्याशियों की सूची भी लगभग पूरी कर ली है,जबकि कॉग्रेस और भाजपा ने अभी शुरुआत ही नहीं की है। जैसा कि सभी जानते हैं,आंतरिक अनुशासन के मामले में भाजपा कॉग्रेस का मुकाबला नहीं कर सकती इसलिए भाजपा की तरफ से प्रत्याशियों की घोषणा और उस पर होने वाले संभावित गृह युध्द की मीमांसा अभी से होने लगी है। हमेशा की अपेक्षा इसके इस बार ज्यादा संगीन होने की संभावना व्यक्त की जा रही है क्योंकि पार्टी की प्रदेश इकाई में इस बार न सिर्फ बड़े नेताओं की भरमार हो गई है बल्कि तमाम बड़े और वरिष्ठ नेताओं के पुत्र-पुत्रियों में भी टिकट हासिल करने की होड़ सी लग गई है। इसकी चर्चा करने पर सांगठनिक अनुभव रखने वाले वरिष्ठ भाजपा नेताओं के चेहरे पर परेशानी के लक्षण साफ-साफ दिखने लगते हैं।
               बीते एक दो वर्षों में प्रदेश में जो भी चुनाव या उपचुनाव हुए उनमें भाजपा की हालत बहुत खराब रही है। इसे एक वाक्य में इस तरह समझा जा सकता है कि प्रदेष में नवगठित और मुस्लिम संगठन के तौर पर पहचान बनाने वाली पीस पार्टी तथा कई निर्दलियों से भी भाजपा प्रत्याशी इन चुनावों में पीछे रहे हैं। ऐसा उन क्षेत्रों में भी हुआ जो भाजपा के दिग्गजों के लिए सुरक्षित माने जाते थे। अभी साल भर भी नहीं हुआ जब जिला पंचायत अध्यक्ष के स्थानीय निकाय चुनाव में प्रदेश के 70 जिलों में से सिर्र्फ एक जिले में ही भाजपा प्रत्याशी जीत सका था। जाहिर है कि इससे पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं। यही कारण था कि संगठन की ढ़ीली चूड़ियों को कसने के फेर में राष्ट्रीय नेतृत्व ने प्रदेश इकाई को बड़े-बड़े नेताओं और असंख्य पदाधिकारियों से भर दिया। प्रदेश अधयक्ष, तीन प्रदेश प्रभारी, पूर्व प्रदेश अधयक्षों की एक कोर कमेटी, चुनाव तैयारियों को मॉनीटर करने के लिए पॉच वरिष्ठ नेताओं की एक कमेटी तथा चुनाव प्रभारी और विशेष चुनाव प्रभारी! अब नेता से लेकर कार्यकर्ता तक के लिए यह एक अबूझ पहेली कि इसमें से सबसे बड़ा और शक्तिमान कौन है। इसमें ताजा आमद वाली सुश्री उमा भारती, योगी आदित्य नाथ, वरुण गाँधी और पूर्व बजरंगी विनय कटियार जैसों का जिक्र जानबूझकर छोड़ दिया गया है क्योंकि ये सब तो प्रदेश में रहेंगें ही।
               उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए यहाँ तमाम बड़े नेताओं का होना भी एक समस्या ही है। अब इन बड़े नेताओं के पुत्रों व पुत्रियों ने भी प्रदेश की राजनीति में हाथ आजमाने की शुरुआत कर दी है और ऐसा प्रत्येक बड़ा नेता चाह रहा है कि उसकी संतान को किसी दमदार सीट का टिकट मिल जाय! अब यह चाह कोढ़ में खाज वाली ऐसी स्थिति को चरितार्थ कर रही है जिससे निपटना पार्टी नेतृत्व के लिए आसान नहीं होगा। मसलन- पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अधयक्ष तथा प्रदेश के विशेष चुनाव प्रभारी राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह हैं। इनके लिए कई सीटों पर सर्वेक्षण हो रहा है कि यह कहाँ से जीत सकते हैं। चर्चा है कि गौतमबुध्द नगर, वाराणसी और लखनऊ में से किसी एक या एकाधिक पर इन्हें टिकट मिल सकता है। श्री पंकज सिंह वैसे भी प्रदेश संगठन में मंत्री हैं। दूसरे बड़े नेता सांसद लालजी टंडन हैं जिनके पुत्र गोपाल टंडन हैं। माना जाता है कि श्री लालजी टंडन श्री अटल बिहारी वाजपेयी के कृपापात्र हैं। ये जब लखनऊ से सांसद बने तो इनके द्वारा रिक्त विधानसभा सीट लखनऊ पश्चिमी पर इनके पुत्र ने अपनी दावेदारी जताते हुए टिकट मॉगा लेकिन वह नहीं मिला। अब 2012 के चुनाव में ये फिर दावेदार हैं।
               एक दूसरे बड़े नेता सत्यदेव सिंह हैं। श्री सिंह न सिर्फ वरिष्ठ हैं बल्कि मौजूदा प्रदेश संगठन में प्रवक्ता भी हैं। अयोधया से सटे जनपद गोण्डा को काटकर बनाये गये जनपद बलरामपुर से श्री सिंह सांसद हुआ करते थे। इस प्रकार इनकी राजनीतिक कर्मभूमि गोण्डा और बलरामपुर ही है। श्री सिंह के पुत्र वैभव सिंह हैं और विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते हैं लेकिन बलरामपुर या गोण्डा से नहीं बल्कि किसी जिताऊ सीट से और इस क्रम में इनकी निगाह लखनऊ पूर्वी सीट पर है। यह सीट भाजपा की मजबूत सीटों में से है। एक अन्य वरिष्ठ नेता पूर्व सांसद रामबख्श वर्मा हैं जो अपने बेटे आलोक वर्मा के लिए कन्नौज से टिकट चाहते हैं। इसी प्रकार पूर्व संगठन मंत्री, पूर्व विधान परिषद सदस्य तथा वर्तमान में राष्ट्रीय कार्य समिति के सदस्य प्रो. रामजी सिंह हैं जो अपने लाड़ले अरिजित सिंह को जनपद मउ से टिकट दिलवाना चाहते हैं।
               इसी प्रकार प्रदेश सरकार में कई बार मंत्री रह चुकी वरिष्ठ नेता व मौजूदा प्रदेश महामंत्री श्रीमती प्रेमलता कटियार हैं जो अपनी पुत्री नीलिमा कटियार के लिए कानपुर से टिकट चाहती हैं। एक समय के दिग्गज रहे स्व. रामप्रकाश त्रिपाठी की पुत्री सुश्री अर्चना पाण्डे हैं जो छिबरामऊ से एक अदद टिकट की ख्वाहिशमंद हैं। यह सूची अभी और भी लम्बी होगी और जितनी लम्बी होगी उतना ही पार्टी का चुनावी और अनुशासनात्मक ढ़ाँचा बिगड़ेगा। इससे तमाम लोग नाराज होंगें और आयाराम-गयाराम का खेल चालू होगा। इन दिक्कतों के साथ-साथ प्रदेष के बनते-बिगड़ते राजनीतिक समीकरण भी हैं जिनसे पार पाने के लिए पार्टी का शीर्ष नेतृत्व माथापच्ची कर रहा है। असल में बसपा की अद्भुत मजबूती और कॉग्रेस के दमदार उभार ने भाजपा के साथ-साथ सपा को भी चिंतित कर रखा है। इन पँक्तियों के लेखक का शुरु से ही यह मत रहा है कि सपा और भाजपा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब भी इनमें से एक का भला होगा तो दूसरे को प्रतिक्रियास्वरुप फायदा हो ही जाएगा।
               उत्तर प्रदेश की राजनीति में जब से भाजपा का अवसान हो रहा है ठीक तभी से सपा का ग्राफ भी गिरावट पर है। इन दोनों पार्टियों को सबसे ज्यादा नुकसान कॉग्रेस से दिख रहा है। बसपा संस्थापक स्व.कांशीराम का सिध्दान्त ही था कि कॉग्रेस की मजबूती बसपा के लिए खतरे की घंटी होगी। इस प्रकार आज उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा और भाजपा के लिए कॉग्रेस एक चुनौती है। भाजपा की पकड़ अपने पितृ संगठन जनसंघ के समय से ही ज्यादातर शहरी मतदाताओं पर ही रही है। वो तो बाद में अयोध्या आंदोलन के दौरान भाजपा का विस्तार ग्रामीण क्षेत्रों में हुआ। अब भाजपा नेतृत्व यह सोचकर चिन्तित है कि राहुल गॉधी की सक्रियता से कहीं शहरी मतदाता कॉग्रेस की तरफ न मुड़ जाय। बीते लोकसभा चुनाव के बाद राजनीतिक विश्लेषकों ने यह राय व्यक्त की थी कि पिछड़े वर्ग के मतदाताओं का झुकाव कॉग्रेस की तरफ हुआ है। भाजपा के स्वर्णिम दिनों में यह वर्ग अच्छी तादाद में भाजपा से जुड़ा था। इसी वर्ग को साधने के लिए ही उमा भारती को लाया गया है। इस प्रकार उत्तर प्रदेश में एक विचित्र संयोग यह हो गया है कि देश के दोनों राष्ट्रीय दलों ने यहॉ की चुनावी कमान जिन्हें सौंप रखी है वे न सिर्फ मध्य प्रदेश के हैं बल्कि वहॉ के पूर्व मुख्यमंत्री भी रहे हैं यानी कि कॉग्रेस के दिग्विजय सिंह और भाजपा की उमा भारती! 
               भाजपा से जहॉ अपेक्षा यह थी कि वह मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में अपने लिए कोई समीकरण तलाश कर नेताओं और कार्यकर्ताओं को आश्वस्त करे, वहॉ उसके बड़े नेता अपने और अपनी संतानों के राजनीतिक भविष्य को आश्वस्त करने में ही अपनी सारी ऊर्जा लगा रहे हैं। इससे पार्टी में निचले स्तर पर हताशा जनक संदेश जा रहे हैं। पार्टी के निष्ठावान और समर्पित नेता व कार्यकर्ता खिन्न हैं लेकिन वे करें ही क्या जब बाड़ ही खेत चरने पर आमादा है।   ( हम समवेत फीचर्स में १८ जुलाई को प्रकाशित )


Thursday, July 14, 2011

बुंदेलखण्ड : प्रकृति नहीं, सियासत का कोप भारी है ! --- सुनील अमर


बुंदेलखण्ड देश का दूसरा विदर्भ बनता जा रहा है। केन्द्र और राज्य सरकारों के तमाम घोषित उपायों के बावजूद यहॉ के किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं का सिलसिला थम नहीं रहा है। स्थिति की भयावहता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि गत माह इलाहाबाद उच्च न्यायालय उ.प्र. ने समाचार पत्रों में छप रही आत्महत्याओं की खबरों पर स्वत: संज्ञान लेते हुए केन्द्र व उ.प्र. सरकार से कैफियत तलब की है। इस क्षेत्र की बदहाली के लिए प्राकृतिक कारणों के साथ-साथ राजनीतिक कारण कितने जिम्मेदार हैं, इसको इस तथ्य से समझा जा सकता है कि केन्द्र द्वारा गत वर्ष बुंदेलखण्ड को अतिरिक्त सहायता के मद में दिए गए 800 करोड़ रुपये को उ.प्र. सरकार खर्च ही नहीं कर पाई है और उसने बीते मार्च माह तक मात्र 73 करोड़ यानी सिर्फ 09 प्रतिशत धनराशि का उपयोग प्रमाण पत्र दिया है! जानना दिलचस्प होगा कि केन्द्र सरकार ने बुंदेलखण्ड के विकास और राहत कार्यों के लिए कुल लगभग 8000 करोड़ रुपयों का भारी-भरकम विषेश पैकेज दे रखा है लेकिन वहॉ प्रशासनिक स्तर पर घोर अवयस्था के चलते स्थिति सुधारने के बजाय और बिगड़ती ही जा रही है।
               बीते 15 जून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उक्त मामले का स्वत: संज्ञान लेते हुए न सिर्फ केन्द्र व राज्य सरकार से जवाब तलब किया है बल्कि अग्रिम आदेश तक इस क्षेत्र में सभी प्रकार की राजकीय व साहूकरी वसूली पर रोक भी लगा दी है। आत्म हत्याओं के ऑकड़े से चिंतित न्यायालय ने उ.प्र. के मुख्य सचिव को आदेश दिया है कि वे ऐसे प्रत्येक प्रकरण में अस्पताल,थाना तथा ब्लाक मुख्यालय से विस्तृत जानकारी तथा किसानों को शासन द्वारा दी जाने वाली कुल सहायता का ब्यौरा एक माह के भीतर न्यायालय में पेश करें। न्यायालय की चिंता को किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के इन ऑकड़ों से समझा जा सकता है कि वर्ष 2009से अब तक यानी मात्र दो वर्ों में 1670 किसानों ने कर्ज व गरीबी से तंग आकर अपनी जान दे दी है। बुंदेलखण्ड मध्य प्रदेश और उ.प्र. के कुछ हिस्सों को मिलाकर बनता है। इसमें उ.प्र. के बॉदा, जालौन, हमीरपुर, झॉसी, चित्रकूट, महोबा और ललितपुर जिले हैं।     केन्द्र से पर्याप्त धनराशि आने के बावजूद प्रदेश सरकार की प्रशासनिक अक्षमता के कारण योजनाओं पर अमल नहीं हो पा रहा है जिससे हताश किसान अपनी जीवनलीला ही समाप्त कर ले रहे हैं।
               बुंदेलखण्ड की प्रमुख समस्या सूखा है। एक तो यह समूचा क्षेत्र वैसे ही पथरीला और असमतल है दूसरे बीते एक दशक से यहॉ नियमित बरसात न होने के कारण स्थिति इतनी विकराल हो गई है कि जगह-जगह जमीन फट जाती है और दरारों में से बेतहाशा धुॅआ निकलने लगता है। उ.प्र. में इस बार जब बसपा की सरकार सत्तारुढ़ हुई तो उसने तीन साल पहले 2008में बुंदेलखण्ड के सूखे से चिन्तित होकर वहॉ कृत्रिम बरसात कराने की घोषणा की और इसके लिए विदेशों से तकनीकी जानकारी भी प्राप्त की गई। यह प्रक्रिया इसमें सिल्वर आयोडाइड (चॉदी का एक अवयव) इस्तेमाल होने के कारण मॅहगी तो थी लेकिन इसके व्यापक असर को देखते हुए इस पर अमल करने का निश्चय किया गया। अब पता नहीं कोई प्रशासनिक अड़चन आयी या लगभग उसी दौरान कॉग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गॉधी ने बुंदेलखण्ड पर थोड़ा ध्यान देना शुरु कर दिया, जो भी हो, राज्य सरकार ने इस अत्यन्त उपयोगी योजना को किसी तहखाने में डाल दिया।
               आज बुंदेलखण्ड के दोनो हिस्सों की मुख्य समस्या पानी की किल्लत और इससे उत्पन्न समस्याऐं जैसे कि फसल का सूखना तथा चारे व पेयजल की कमी आदि ही हैं। जाहिर है कि ये समस्याऐं हल की जा सकती हैं और इनको हल करने के लिए तमाम योजनाऐं वहॉ लागू भी है लेकिन वे सब प्रशासनिक लूट-खसोट की शिकार होकर उत्पीड़नकारी हो गयी हैं। वहॉ गॉवों में सामुदायिक रसोई चलाकर जरुरतमंदों को भोजन देने की योजना है तो जानवरों के लिए चारा बैंक भी है। पेयजल के सचल टैंकरों से जलापूर्ति की व्यवस्था है तो मनरेगा जैसी योजनाओं की मार्फत कार्य के अवसर भी उपलब्ध कराये जा रहे है और मनरेगा के श्रम का उपयोग तालाबो की खुदाई, उनका सुदृढ़ीकरण तथा बरसाती जल को रोकने के लिए मेंड़ व बॉध बनाने में भी किया जा रहा है। किसानों की ऋण माफी योजना वहाँ भी लागू की गई है। यें सब है लेकिन इन सबके वहॉ काम न कर पाने का मुख्य कारण प्रशासनिक भ्रष्टाचार है जिसके कारण जरुरतमंद लोग कोई भी लाभ नहीं पा रहे हैं और उनके सामने अंतिम विकल्प अपनी जान गँवा देने का ही है। सार्वजनिक वितरण के लिए वहॉ गए पेयजल के टैंकरों को बदमाश बन्दूक के बल पर लूट लेते हैं और फिर मनमाना दाम लेकर बेचते हैं। बाकी योजनाओं के हश्र का अनुमान लगाया जा सकता है। हताशा का आलम यह है कि आत्महत्या के साथ-साथ इस क्षेत्र से पलायन भी तेजी से हो रहा है। सरकारी ऑकड़ों की ही मानें तो इधर के वर्षों में लगभग 13000 परिवार उ.प्र. के बुंदेलखण्ड से पलायित हो चुके हैं। गैर सरकारी तौर पर यह संख्या दोगुनी बतायी जाती है।
               उच्च न्यायालय के संज्ञान लेने के तत्काल बाद केन्द्रीय योजना आयोग की एक बैठक हुई जिसमें उक्त क्षेत्र के सांसदों ने हिस्सा लिया। बुंदेलखण्ड पैकेज की धनराशि के खर्च पर हुई इस समीक्षा बैठक में शामिल बांदा से सपा सांसद आर. के. पटेल ने कहा कि सारी योजनाऐ अधिकारियों की लूट-खसोट की शिकार हैं और इनकी सी.बी.आई. जॉच होनी चाहिए। सपा के ही घनश्याम अनुरागी ने पैकेज के कार्यो में भारी बंदरबॉट की शिकायत की तो झॉसी के सांसद प्रदीप जैन आदित्य ने आरोप लगाया कि प्रदेश सरकार जानबूझकर बुंदेलखण्ड में केन्द्रीय योजनाओं की दुर्दशा कर रही है, क्योंकि उसे डर है कि कहीं योजनाओं की सफलता का श्रेय राहुल गॉधी को न मिल जाय। जैन ने किसानों के कर्ज के एकमुश्त समाधान किए जाने की मॉग केन्द्र सरकार से की जबकि हमीरपुर के बसपा सांसद विजय बहादुर सिंह ने आरोप लगाया कि बुंदेलखण्ड के लिए प्रस्तावित कई योजनाओं के लिए केन्द्र के कई विभागों से धन मिलना था जो कि आज तक मिला ही नहीं। बहरहाल श्री सिंह के आरोप उस वक्त निराधार साबित हो गये जब गत सप्ताह उ.प्र. के मुख्य सचिव ने स्वीकार किया कि केन्द्र द्वारा दिए गए धन को खर्च करने के लिए अभी उन्हें एक वर् का समय और चाहिए। उन्होंने यह स्वीकारोक्ति बुंदेलखण्ड पर केन्द्रीय पैकेज के प्रभारी डॉ. जे.एस. सामरा के साथ हुई एक बैठक में की।
               बुंदेलखण्ड के लोगों की हताा और विषाद का मुख्य कारण पानी है। इसका हल हुए बगैर वहॉ जन जीवन सामान्य नहीं हो सकता। तमाम कारगर और तस्वीर बदलने मे सक्षम योजनाऐं वहॉ राजनीतिक खींचतान में उलझी पड़ी हैं। इसलिए आवश्यकता वहॉ जलागम की कोई केन्द्रीय योजना शुरु करने की है। इसी समस्या के हल के लिए बहुउद्देष्यीय केन-बेतवा नदी जोड़ने की योजना बनाई गई है। केन्द्र की इस योजना के तहत केन नदी के अतिरिक्त पानी को बेतवा नदी तक पहॅुचाया जाना प्रस्तावित है तथा इसमें बनाये जाने बॉध, बैराज और नहरों से पूरे बुंदेलखण्ड को हरा-भरा किया जाना है। इसके तहत मकोरिया, रिछान, बरारी और केसरी नामक स्थानों पर बॉध बनाये जाने हैं तथा इसी में से नहरें निकलेंगी। प्रारम्भ में 1800 करोड़ रुपये की अनुमानित यह योजना अब 9000 करोड़ रुपये की बतायी जा रही है, लेकिन इसका क्रियान्वयन बुंदेलखण्ड की सूरत बदल सकता है।(Published in Humsamvet Features on 11 July 2011)

Tuesday, July 12, 2011

दिल्ली और पटना से प्रकाशित उर्दू दैनिक '' हमारा समाज'' में मेरा आलेख

दिल्ली और पटना से प्रकाशित उर्दू दैनिक '' हमारा समाज'' के सम्पादकीय पेज पर मेरा आलेख 12 जुलाई 2011  को --

दिल्ली से प्रकाशित उर्दू दैनिक ''जदीद खबर '' में मेरा आलेख

दिल्ली से प्रकाशित उर्दू दैनिक ''जदीद खबर ''  में 12 जुलाई 2011 को सम्पादकीय पृष्ठ 3 पर मेरा आलेख- http://jadidkhabar.कॉम 

Saturday, June 25, 2011

सच सच बतलाना निगमानंद.. --- सुनील अमर





                                प्रिय निगमानंद,
स्वामी निगमानंद 
             पैंतीस साल की उम्र कुछ कम तो नहीं होती! खासकर उस मुल्क में जहाँ के बच्चे इन दिनों पैदा होने के बाद 35 महीने में ही जवान हो जाते हों, तुम बच्चे ही बने रहे? साधु के साधु ही रह गये तुम और उसी निगाह से इस मुल्क के निजाम को भी देखते रहे? क्या तुम्हें वास्तव में यह नहीं पता था कि अब बच्चे तोतली आवाज में ‘‘मैया, मैं तो चन्द्र खिलौना लैहौं’’ न गाकर ‘‘माई नेम इज शीला, शीला की जवानी’’ और ‘‘मुन्नी बदनाम हुई’’ मार्का गाना गाने लगे हैं? इस तरक्कीशुदा देश में बच्चे तक इच्छाधारी होने लगे हैं निगमानंद लेकिन तुम......?
तुम तो पढ़े-लिखे भी थे निगमानंद फिर भी नहीं समझ पाये कि देश के मौजूदा हालात और निजाम सब अर्थमय हो गये हैं और इसी बीच तुम लगातार अनर्थ की बातें कर रहे थे? जिस देश में औलादें अपने बूढ़े माँ-बाप को भूलने लगी हों वहाँ तुम गंगा जैसी हजारों-हजार साल बूढ़ी नदी के स्वास्थ्य की बात कर रहे थे? तुम बालू-मिट्टी और पत्थर खोदकर अरबपति बन रहे लोगों के पेट पर लात मारने की बात कर रहे थे? क्या तुम नहीं जानते थे कि जिस देश का मुखिया अर्थशास्त्री हो, उसका वित्तमंत्री अर्थशास्त्री हो, उसका गृहमंत्री अर्थशास्त्री हो तथा उसके योजना आयोग का सर्वे-सर्वा भी प्रकांड अर्थशास्त्री हो, उस देश में अर्थ-चिन्तन, अर्थ-रक्षण और अर्थ-भक्षण के अलावा और होगा क्या, और उसमें जो भांजी मारने की कोशिश करेगा उसे आधी रात को पुलिस आकर रामलीला मैदान कर देगी चाहे वह कितना भी बड़ा योगी या मदारी क्यों न हो? क्या तुम टी.वी. और अखबार नहीं देख-पढ़ रहे थे? ओह! लेकिन कैसे देखते-पढ़ते तुम निगमानंद, तुम्हें तो न्याय की लड़ाई ने हफ्तों से कोमा में कर रखा था। इस देश में यह रिवाज बनता जा रहा है कि जो न्याय और इंसाफ की बात करता है, उसे हम लोग कोमा में ही देखना पसंद करते हैं। इरोम शर्मिला को तो तुमने देखा ही रहा होगा निगमानंद जिनके पेट में 10 साल से अन्न नहीं गया है ? तो क्या उन्हीं से प्रेरणा ली थी तुमने अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने की?
अपनी स्कूली किताबों में तुमने जरुर कहीं पढ़ा रहा होगा कि नदियाँ हमारी माँ  हैं क्योंकि इन्होंने ही हमारी सभ्यताओं को जन्म दिया है। इन्हीं की गोद में पल-बढ़कर हम सभ्य बने और आज बिच्छू के बच्चों की तरह इस लायक हो गये हैं कि इन्हें ही मिटाने पर आमादा हैं। तुम इसी का तो विरोध कर रहे थे निगमानंद? तुम शायद इधर कर्नाटक नहीं गये थे नहीं तो देखते कि जमीन खोदकर खरबपति बनने वालों के अंग विशेष पर ही वहाँ की सरकार टिकी हुई है और ऐसी ही सरकारों से प्राणवायु ग्रहण करने वालों के राज्य में तुम ऐसे ही महारथियों के खिलाफ आमरण अनशन कर रहे थे तो तुम्हें तो मरना ही था निगमानंद! भूख से या षडयंत्र से। लेकिन इतना अन्याय देखकर तो गंगा खुद ही इस देश को छोड़ देना चाहेंगी निगमानंद, तुमने नाहक ही अपनी जान दी!
सवाल तुम्हारी मौत का नहीं है निगमानंद। इस देश में तो तुम्हारे जैसे तमाम लोग भूख, प्यास, अन्याय, दुर्घटना और सरकार की साजिशों का शिकार होकर रोज मरते ही रहते हैं। सवाल तुम्हारे उस भोलेपन का है, सवाल तुम्हारी उस आत्म-मुग्धता का है जिसे यह भरोसा था कि जब इस महान लोकतांत्रिक देश का एक नागरिक, एक बिल्कुल जायज और देश हित के मुद्दे को लेकर अपनी मांग न मानी जाने पर जान देने का ऐलान करेगा तो सत्ता की चूलें हिल जायेंगीं! इसी भोलेपन ने इस देश में तुमसे भी पहले तीन जानें ली हैं निगमानंद, इसे जानते हुए भी तुम इतने आत्म मुग्ध और विश्वास से भरे हुए क्यों थे? क्या तुमने चंद दिन पहले ही नहीं देखा था कि सारी दुनिया में क्रांति ला देने का दावा करने वाले स्वयंभू योगी, पुलिस को देखकर औरतों के बीच में जा छिपते हैं? लेकिन तुम कैसे देखते निगमानंद, तुम तो कोमा में थे। और यह अच्छा ही था कि तुम यह सब देखने के लिए होश में नहीं थे, नहीं तो भ्रम टूटने की कई और तकलीफें लेकर ही तुम मरते।
  तुम तो जानते ही थे कि इस देश में उत्पीड़न से आजिज लोग पुलिस कप्तान के दफ्तर में पेट्रोल छिड़ककर आत्मदाह कर लेते हैं फिर भी कुछ नहीं होता, जिला मैजिस्ट्रेट की अदालत के सामने परिवार सहित आग लगा लेते हैं लेकिन ऊॅंचा सुनने और चमकदार देखने की अभ्यस्त हमारी यह अंधी-बहरी व्यवस्था उन्हें तब भी नहीं सुनती। निगमानंद, अपनी जान से बढ़कर किसी भी आदमी के पास क्या होता है देने के लिए? और अगर तब भी उसकी न सुनी जाय तो वह ऐसे आँख बंद कर पगुराते जानवर को ठोंक-पीटकर सही करने पर आमादा न हो जाय तो और क्या करे? और तब यह सत्ता पुरुष धीरे से आधी आँख खोलकर कहता है कि यह तो नक्सली है और यह तो राष्ट्रद्रोही है!
अरसा हुआ जब हमारा लोकतंत्र, भीड़तंत्र में बदल गया। शायद तुम कभी जेल नहीं गये थे निगमानंद नहीं तो जरुर जानते कि कैदी जिंदा रहें या मुर्दा, गिनती में पूरे होने ही चाहिए! कमाल देखिए कि जेल का यही अलिखित नियम हमारे लोकतंत्र में लिखित रुप में मौजूद है! यहाँ भी मॅूड़ी ही गिनी जाती है। जिसके साथ जितनी ज्यादा मॅूड़ी, उसे देश को चर-खा लेने का उतना ही ज्यादा अधिकार! तो तुम्हारे साथ कितनी मुंडियां थीं निगमानंद ? क्या कहा, एक भी नहीं? हा-हा ! फिर तुमने कैसे हिम्मत कर ली थी सरकार से अपनी बातें मनवाने की दोस्त? क्या तुम्हें टीम अन्ना का भी हश्र नहीं पता था? लेकिन कैसे पता होता तुम्हें निगमानंद, तुम तो कोमा में थे!
सच बताना निगमानंद, तुम भूख-प्यास से कोमा में  चले गये थे या अपने विश्वासों के टूटने की वजह से? मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि विश्वास का टूटना आदमी को भीतर से तोड़ देता है। निगमानंद और इरोम शर्मिला जैसों को अगर भूख-प्यास सताती तो वे भी इस भीड़तंत्र में खूब चरते-खाते और यकीन मानिये, हुक्मरान उन्हें लाखों-करोड़ों देकर सम्मानित करते और सर-आँखों पर बैठाते! लेकिन जिसकी भूख अपने चारों तरफ के लोगों का पेट भरा देखने से मिटती हो, जिसकी प्यास दुधमुंहों को दूध पीते देखकर मिटती हो और यह सब न होने पर जो आततायी व्यवस्था से लड़ने को उद्यत हो जाते हों, उन्हें देर-सबेर तुम्हारी तरह कोमा में ही जाना पड़ता है दोस्त!
सादगी, ईमानदारी, सच्चाई और विनम्रता यह सब आजकल कोमा की ही अवस्थाऐं हैं दोस्त निगमानंद! इनका अंत कैसे होता है, तुम्हें देखने के बाद अब इस पर सोचने की जरुरत क्या? बस, इतना जरुर बताना निगमानंद कि हमारे मौजूदा निजाम का कोमा कैसे टूटेगा? ( दैनिक जनसन्देश  टाईम्स में २५ जून २०११ को सम्पादकीय पृष्ठ ८ पर प्रकाशित www.jansandeshtimes.com )




Friday, June 17, 2011

इस रंग बदलती दुनिया में….स्वामी रामदेव ! ---- सुनील अमर


बाबा रामदेव : एक अदा यह भी !
सयाने कह गये हैं- इस दुनिया में कुछ भी स्थाई नहीं, सब कच्चा है। सिर्फ वही ‘एक’ सच्चा है। फिर भी लोग नहीं मानते। बहुत से साधु-संत भी नहीं मानते, हमेशा आजमाने की कोशिश में लगे रहते हैं। किसी ने कह दिया कि आग में हाथ ड़ालने से जल जाता है तो क्या जरुरी है कि हाथ ड़ालकर देख ही लिया जाय? लेकिन बहुत से लोगों का दिल है कि मानता ही नहीं।
ज्ञानी लोग बताते हैं कि भगवा एक ऐसा रंग है जिसके बाद इस असार-संसार में फिर किसी और रंग की जरुरत ही नहीं रह जाती। भगवा, ज्वाला का प्रतीक है। उसको धारण करने का मतलब ही है कि आपने सांसारिक कमजोरियों, लिप्साओं और वासनाओं को संयम की आग में जलाकर नष्ट कर दिया है और जो कोई भी संसारी व्यक्ति आपके सानिध्य में रहेगा, आपसे दीक्षित होगा, उसका भी व्यामोह नष्ट हो जाएगा। पर, देखने में आता है कि प्राय: ऐसा होता नहीं। यह देव दुलर्भ है। मतलब देवता भी इससे विचलित होते रहे हैं। नारद-वारद को तो प्राय: ही ऐसी विचलन होती रहती थी। तो इसमें बाबा रामदेव का क्या दोष?
उपर जिन सयाने लोगों ने यह बताया है कि कुछ भी स्थायी नहीं, साजिशन उन्होंने यह नहीं बताया कि कम से कम कितनी देर तक यह टिकाऊ रहेगा, वरना बाबा धोखा न खाते। अब महाजनों की कही कोई बात 48 घंटा भी न टिके तो धोखा खाने के अलावा और हो ही क्या सकता है? देखने वाले दंग रह गये कि इस दौरान कितनी तेजी से रंग बदले! जिस बाबा का हवाई अड्डे पर रेड कार्पेट मार्का वेलकम किया गया, 5 स्टार होटल में आवभगत की गई उसी बाबा को 24 घंटे भी न बीतने पाये कि उन्हीं लोगों द्वारा यह सलूक! बाबा ने अपनी आदत के अनुसार सरकार से एडवांस में कोई गोपनीय सौदा कर ही लिया था तो काँग्रेस की पल्टी देखिए कि अखबारवालों के सामने उस चिठ्ठी को ही आऊट कर दिया!
बाबा भी कम नहीं। तप करने के लिए पुलिस से मोहलत ली थी लेकिन वहॉ जाने क्या-क्या करने लगे। कॉग्रेस अलग हैरान! उसकी किस्मत आजकल ऐसी ही चल रही है। अन्ना की काट के लिए जिसे मोहरा बनाती है वो रामदेव बन जाता है और जिसे लाट साहबी करने के लिए भेजती है, वो कामदेव बन जाता है! कॉग्रेस कब तक लाल-पीला स्वागत करती फोकट में। उसने बाबा से काबू में रहने को कहा तो बाबा के चेले कहने लगे कि बाबा तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। चेले क्या जाने बाबा की लीला कि बाबा की 8 फुट की म्यान महज दिखावे की है, तलवार तो उसमें दो फुट की भी नहीं है। खेल-खेल में शुरु हुआ कार्यक्रम कॉग्रेस को अपने गले में सॉप जैसा लिपटा दिखने लगा। बाबा के पल-पल रंग बदलने से आहत कॉग्रेस ने आखिर वही किया जो कोई भी दिग्भ्रमित कर सकता है। गले में पड़े रामदेव नामक सॉप को मॅूड़ी से पकड़ा और ले जाकर भाजपा के गले में डाल आई कि लो अब संभालो इसे।
जो लीला न करे वो भगवान कैसा? हमारे धर्मग्रंथों में भगवानों के जो मानक लिखे हैं, उसके अनुसार उनका लीला करना अपरिहार्य होता है। भगवान राम ने जनकपुर में लीला न की होती तो परशुराम उन पर फरसा ही चला बैठते। उनकी लीला देखकर वे संतुष्ट हो गये थे। भगवान आशाराम तो बाकायदा कृष्ण की वेशभूषा में स्त्रियों के साथ रासलीला रचाते है! उसी प्रकार भगवान रामदेव भी कुछ लीला करना चाह रहे थे। कभी किसी के कंधे पर चढ़ रहे थे, तो कभी महिलाओं के बीच में घुसे जा रहे थे। बेचारे ब्रह्मचारी आदमी! ख्याल आ गया होगा कि स्त्री न सही तो स्त्री का वस्त्र ही सही, सो किसी स्त्री का वस्त्र पहन लिया। हालॉकि पुलिस यह नहीं बताती कि वे महिलाओं का अधोवस्त्र भी पहने थे कि नहीं। पुलिस कभी भी पूरी बात नहीं बताती।
फिर पुलिस ही कब तक रंग न बदलती। वह तो स्वभाव से ही रंग में भंग करने को आतुर रहती है। थोड़ी देर पहले तक जो पुलिस जरखरीद गुलाम जैसी बनी हुई थी वह अचानक तांडव करने लगी। मुझे शक़ होता है कि पुलिसियों को इतनी ताकत कहीं योग से तो नहीं मिल गई? बहरहाल, पुलिस ने बाबा को बताया कि तप का मतलब यह नहीं होता कि तुम लिंग परिवर्तन करने लगो और अगर लिंग परिवर्तन की तुम्हारी इतनी ही इच्छा है तो चलो तुम्हें पहाड़ों में छोड़ दें। वहीं जो करना हो करो।
मुंशी प्रेमचंद ने अपनी प्रसिध्द कहानी ‘कफन’ के अंत में घीसू और माधव के बारे में लिखा है कि ‘ वे गाये और नाचे भी, ठुमके भी लगाये और भाव भी बताये। बाद में नशे की अधिकता के कारण सुध-बुध खोकर गिर पड़े।’ यही सब बाबा ने भी किया और गिर पड़े! वे पहले बाबा बने, फिर योगी बनकर योग सिखाने लगे। योग में भी उनकी रुचि नाखून रगड़कर सफेद बाल को काला करने और उँगलियों के कई दबाव बिंदु की मार्फत सेक्स जगाने जैसी समस्याओं में ज्यादा रही। बाबा ने इस बात का खासा प्रचार किया कि फलॉ उंगली में सेक्स जागृत करने का दबाव बिंदु होता है और इसीलिए शादी के एंगेजमेंट के समय उसी उँगली में ऍगूठी पहनी जाती है! (हमारे कई सुधी पाठकों को याद होगा, एक समय में स्वयंभू भगवान आचार्य रजनीश उर्फ ओशो भी ऐसा ही कुछ कहते थे। एक बार एक विदेशी पत्रकार ने उनसे पूछा कि भगवान्, ये महिलाऐं हाथ में चूड़ियां क्यों पहनती हैं, तो भगवान ने उत्तर दिया था – दीज आर बेंगल्स। दीज प्रोडयूस द साउन्ड ऑफ सेक्स। मतलब ये चूड़ियाँ हैं और ये सेक्सी ध्वनि पैदा करती हैं!) बाद में बाबा कारोबारी, व्यापारी और उद्योगपति भी बन गये। ये सब हुआ तो राजनीति में भी हाथ आजमाने की सोचने लगे। यहॉ तक तो गनीमत थी लेकिन बाबा को अचानक सत्ता की दलाली करने का भी शौक चढ़ा और रामदेव जैसे लोग शायद समझते हैं कि सत्ता किसी भैंसे की तरह है और अगर उसकी पूंछ पकड़ में आ गई तो मरोड़ कर भैंसे का काबू में कर ही लेंगें। वे काँग्रेस की पूंछ पकड़े तो, उसे मरोड़े भी लेकिन कॉग्रेस ने एक झटका देकर अपनी पूंछ छुड़ा ली। अब पूंछ छुटाया भैंसा कितना खतरनाक हो जाता है इसे तो कोई बाबा रामदेव से जाकर पूछे।
पॉच जून 2011 को दिल्ली के रामलीला मैदान पर आधी रात को सिर्फ रामदेव की धोती ही नहीं खुली उनके तमाम राज फाश हो गए! वे कितने बडे योगी हैं, वे कितना तप कर लेते हैं और वे जनता के लिए कितना संघर्ष कर सकते हैं, पुलिस को देखकर कितना ज्यादा डर सकते हैं, ये सब देश-दुनिया ने देखा। अब इधर बाबा के बारे में जो चंद लोग कटो-मरो की बातें कर उनकी रक्षा में लगे हैं, वे सब असल में उनके कारोबारी लोग हैं।
.बाबा रामदेव के उक्त प्रयत्नों से और चाहे कुछ हुआ या न हुआ हो, लेकिन कई नये तथ्य जरुर स्थापित हो गये। जैसे कि 1. भगवान से भी बड़ी सरकार होती है। 2. योग और तप से भी बड़ी देसी पुलिस होती है। 3. जिस नारी की छाईं पड़ने से भुजंग अन्धा हो जाता है, उसकी छाईं से हमारी पुलिस का रोवाँ भी नहीं टेढ़ा होता और वह ऐसी सैकड़ों छाइयों के बीच घुसकर अपना शिकार पकड़ सकती है, और 4 वक्त अगर बुरा हो तो अंजाम बुरा ही होगा क्योंकि कहा भी गया है कि – मनुज बली नहि होत है, समय होत बलवान, भीलन लूटी गोपिका, वहि अर्जुन, वहि बान!
इस रंग बदलती दुनिया में बेचारे बाबा रामदेव! क्या जानें कि यहाँ इन्सानों की नीयत ठीक नहीं। बाबा, निकला न करो तुम…………। ( प्रवक्ता डाट काम में १७ जून २०११ को प्रकाशित)



हे सफल सरकार ! गरीबी का भी कुछ उपाय कर --- सुनील अमर



''...सरकार कैलोरी खाने की मात्रा को गरीबी/अमीरी का आधार मान रही है। क्या सरकार यह नहीं जानती कि जिसके घर नहीं है वो गरीब है, जो दो वक्त भोजन न कर सके वो गरीब है, जो अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा न सके वो गरीब है और जो बीमारी में इलाज न करा सके वो गरीब है? क्या इन जरुरतों को गरीबी निर्धारण का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए? जो आदमी 20 रुपये से अधिक रोज कमा ही नहीं पा रहा है आप उसकी कैलोरी नापकर उसके गरीब या अमीर होने का फतवा दे रहे हैं और दावा करते हैं कि आप जनकल्याणकारी राज्य और लोकप्रिय सरकार हैं?......'' ( जन सन्देश टाईम्स 18 जून 2011 के सम्पादकीय पृष्ठ 8 पर प्रकाशित )

Wednesday, June 15, 2011

लोकपाल व भ्रष्टाचार पर आन्दोलन का दूसरा पहलू ---- सुनील अमर


देश इन दिनों राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल के दौर से गुज़र रहा है। पिछले दिनों अरब देशों में हुई जन क्रांति का असर निष्चित ही यहॉ तक आया है। नागरिकों और समाजसेवियों में ऐसी चेतना का आना लोकतंत्र के लिए बहुत शुभ लक्षण माना जाता है। ऐसी चेतनाऐं ही परिवर्तन की वाहक होती हैं। इस तरह के परिवर्तनों में महत्त्वपूर्ण भूमिका उन लोगों व संगठनों की होती है जो इसके प्रायोजक या अगुवा होते हैं। इस प्रकार दो बातें साफ हो जानी चाहिए कि जो लोग ऐसे आन्दोलनों में लगते हैं,उनका वास्तविक सरोकार समाज के किस वर्ग से है तथा वे स्वयं किस पृष्ठभूमि से आते हैं।

               सर्वप्रथम जन लोकपाल आन्दोलन। 'इंडिया अगेन्स्ट करप्शन' नामक संस्था के बैनर तले श्री अन्ना हजारे और उनके साथियों ने पिछले महीने राजधानी के जंतर-मंतर पर आमरण अनशन कर आन्दोलन किया। उनकी मॉग है कि एक ऐसे सशक्त लोकपाल की स्थापना हो जिसके अधीन प्रधानमंत्री और न्यायपालिका से लेकर नौकरशाही और क्लर्क-बाबू तक आ सकें ताकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सके। गाँधीवादी विचारधारा से ओत-प्रोत अन्ना के कार्य-व्यवहार और उद्देश्यों पर कोई शक नहीं। उनकी टीम में जो और सदस्य हैं,कमोवेश उनके बारे में भी सब जानते ही हैं। अब प्रश्न यह है कि अन्ना की माँग के अनुसार लोकपाल की नियुक्ति अगर हो भी जाय तो क्या वह किसी और ग्रह का प्राणी होगा और उसमें काम-क्रोध-मद और लोभ व्याप्त नहीं होगा?क्या वह अपने निष्कर्षों और निर्देशों के क्रियान्वयन हेतु अलग से अपना कोई निर्दोष तंत्र बनायेगा या इसी कथित भ्रष्ट और पतित कार्यपालिका पर निर्भर करेगा? और अगर इसी पर निर्भर रहना होगा तो उन उद्देश्यों की पूर्ति कैसे होगी जिसके लिए यह आन्दोलन किया जा रहा है? क्या अभी हमने सी.वी.सी. पर हुए नाटकीय घटनाक्रमों को देखा नहीं?
               प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को भी इसकी जद में लाने की मॉग की जा रही है। यह इस महादेश के लोकतंत्र का सौभाग्य है कि इसे आज तक जितने भी प्रधानमंत्री मिले हैं ( उनमें से सिर्फ एक स्व. राव को छोड़कर ) वे चाहे जिस दल, विचारधारा और गठबंधन के रहे हों, उनकी नीयत और चरित्र पर कोई संदेह नहीं कर सका है। ऐसे में शासन के इस सर्वोच्च पद पर बैठने वाले व्यक्ति के सिर पर अनायास ही एक नंगी तलवार लटकाना आवश्यक नहीं लगता और अगर आवश्यकता होगी ही तो रास्ते तो बंद हो नहीं जा रहे हैं।
               जहाँ तक न्यायपालिका की बात है, इधर के वर्षों में उस पर सबूत सहित उगलियॉ उठनी शुरु हो गयीं हैं। पहले भी कदाचार के आरोप न्यायाधीशों पर लगते रहे हैं। वे कटघरे में भी आये लेकिन उन्हें बचाने का काम भी हमारे राजनेताओं ने ही किया। फिर भी एक बात को समझ लेना जरुरी है- नौकरशाही और न्यायाधीशों के क्रियाकलापों में एक बुनियादी अंतर कार्य की प्रकृति का होता है। यह सही है कि सब नौकर ही हैं,लेकिन न्याय करने को हम महज आठ घंटे की नौकरी नहीं मान सकते। फिर, नौकर का आदर्श उसका मालिक होता है। हमें सोचना चाहिए कि यही प्रवृत्ति अगर न्यायाधीशों में आ जाय तो क्या नतीजे निकल सकते हैं? क्या एक नौकर न्यायाधीश से तटस्थ न्याय की उम्मीद की जा सकती है ? हमारे संविधानकारों ने जब नौकर के रुप में सेवा में लिए जाने के बावजूद न्यायाधीशों को अतुलनीय अधिकारों से लैस किया तो उसके पीछे मंशा यही थी कि नौकरी के नियम-कानून से बँधा होने के बाद भी वे मानसिक रुप से नौकर न बन जॉय ताकि वे किसी भी प्रकार के भय, प्रलोभन या दबाव में आये बगैर कभी भी और कहीं भी न्यायिक प्रक्रिया को अंजाम दे सकें। इन सारी बातों के प्रमाण भी हम समय-समय पर देखते ही आ रहे हैं। न्यायिक प्रणाली के बंधुआ बन जाने के खतरों को हम पड़ोसी पाकिस्तान और तानाशाही व्यवस्था वाले देशों में देख ही रहे हैं। इस प्रकार न्यायपालिका को किसी दबाव बिन्दु के तहत लाना उचित नहीं होगा। अभी जिन व्याधियों की चिंता हमें न्यायपालिका की फिसलन से हो रही है,हो सकता है कि उक्त दबाव बिन्दु उससे भी बड़ी चिंता साबित हों !
               भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर भारतीय स्वाभिमान पार्टी के संस्थापक स्वामी रामदेव ने अभी बीते दिनों अपने निराले अंदाज में राजधानी में अनशन या तप या योग शिविर,जो कुछ भी हो, किया। इसकी मीमांसा करने के बजाय यह जानना जरुरी है कि क्या किसी भी मुद्दे को कोई भी व्यक्ति या संगठन उठाकर जो मर्जी चाहे कर सकता है? क्या डाकु को यह अधिकार होना चाहिए कि वे अपने डाकू-गिरोहों को इकट्ठा कर डाका डालने के अपने हक के लिए आन्दोलनरत हो जॉय? भ्रष्टाचार पर आंदोलन करने वाले व्यक्ति का स्वयं भ्रष्टाचार मुक्त होना क्या पहली शर्त नहीं होनी चाहिए? जो आदमी देश-विदेश में उद्योग-धंधे चलाता हो, जो स्वयं अपने मुह से सार्वजनिक तौर पर स्वीकार कर चुका हो कि उसके कामों के लिए उससे घूस मॉगा जाता है,जिसने अ-पारदर्शी तौर-तरीकों से सरकारी जमीनें हथियाई हों और जो आदमी परम्परा से ही नि:शुल्क उपलब्ध योग जैसी देशी विधा को लाखों रुपये का टिकट लगाकर सिखाता हो, जिसके कारखानों के हजारों गरीब मजदूर अपनी वाज़िब मजदूरी पाने के लिए संघर्षरत हों और उनकी पुलिस द्वारा पिटाई होती हो, क्या उसे भ्रष्टाचार पर बात करने का कोई हक़ होना चाहिए? और अगर वह ऐसी कोई कोशिश करता भी है तो उसे क्यों न व्यक्तिगत हित के लिए किया जा रहा उसका खेल माना जाय?
               देश की तीन चौथाई जनता विकट गरीबी में गुजर-बसर कर रही है और प्राय: ही उसे भूखे पेट सो जाना पड़ता है,यह तथ्य सरकारी रिपोर्टों से स्थापित है। श्री अन्ना हजारे का जन लोकपाल बन जाय और स्वामी रामदेव का भ्रष्टाचार विरोधी कानून बनकर विदेशों में कथित रुप से जमा अकूत काला धन वापस ले आये, क्या इन दोनों प्रयासों से इस तीन चौथाई जनता को भी कुछ हासिल हो सकता है ? इन दोनों आन्दोलन करने वालों ने क्या इस जनता को भी अपनी सोच में कभी रखा है? यदि हॉ, तो कृपया उसका सबूत दें और यदि नहीं तो क्या यह सारा अभियान सिर्फ खाये-अघाये और मुटियाये मात्र 25 प्रतिशत लोगों के लिए है? स्वामी रामदेव किसको झाँसा देना चाहते हैं? देश का वह कौन सा पैसेवाला है जिसका पैसा विदेशों में जमा नहीं है? ऐसे में कौन कानून बनायेगा, कौन क्रियान्वयन करेगा और क्यों? स्वामीजी के साथ जो लोग इस आंदोलन में आगे-पीछे साफ-साफ लगे हैं, क्या उससे स्वामी की वास्तविक मंशा साफ नहीं हो जाती ? जन लोकपाल एक तलवार का नाम है और भ्रष्टाचार पर नये कानून की मॉग एक राजनीतिक ड्रामा। इसमें गरीब लोग कहॉ हैं और उनका उध्दार कैसे होगा, इसे कौन से अन्ना और कौन से रामदेव से पूछा जाय? अफसोस है कि इस तीन-चौथाई जनता को कोई नाखुदा नहीं मिल पा रहा है। कोई निकलने की कोशिश भी करता है तो उसे सत्ता और व्यवस्था के मठाधीश समय रहते ही बॉट लेते हैं। ऐसी ही चालाकियाँ, असंतोष की जमीन तैयार कर उसमें क्रांति के बीज बीती हैं। यह ठीक ही हुआ कि बाबा के कन्धो पर रखकर अपनी बन्दूक चला रहे लोग अब बाबा को अपने कन्धे पर बैठा कर सामने आ गये हैं। ( हम समवेत न्यूज फीचर एजेंसी में १३ जून २०११ को प्रकाशित )

Wednesday, June 08, 2011

आखिर क्यों नहीं कम हो रही है गरीबी ---- सुनील अमर


















































देश में इन दिनों ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना चल रही है और विशेषज्ञ बताते हैं कि अब तक की सबसे सफल पंचवर्षीय योजना इसे कहा जा सकता है। इस योजना में विकास दर पहले और दूसरे वर्ष यानी 2007 और 2008 में तो दहाई के अंक को छूने के कगार तक पहुँच गई थी। देश में विदेशी मुद्रा का पर्याप्त भंडार है और खाद्यान्न का सुरक्षित भंडार तो मानक के दो गुना से भी ज्यादा है। घरेलू स्तर पर यद्यपि मंहगाई बढ़ रही है लेकिन अर्थशास्त्र का एक नियम कहता है कि किसी भी देश में मंहगाई का स्तर उसकी आर्थिक समृद्वि का सूचक होता है। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थान बता रहे हैं कि भारत में पुरुषों की जीवन प्रत्याशा में तीन तथा महिलाओं में पांच वर्षों की वृद्धि हुई है। जनगणना के ताजा आंकड़े बताते हैं कि साक्षारता बढ़ी है तथा जनसंख्या वृद्धि पर कुछ हद तक काबू पाया गया है। पिछले कुछ वर्षों में लगातार वैश्विक संक्रामक रोगों के भारत में फैलने की खबरें आती रही थीं लेकिन इधर उन पर भी पूरी तरह नियंत्रण है। मुम्बई हमले के बाद से कोई बड़ी आतंकी घटना देश में नहीं हुई है और आश्चर्यजनक रुप से जम्मू-कश्मीर शांत है। राज्यों के चुनाव लोकतांत्रिक दक्षता के साथ हो रहे हैं। बांग्लादेश बनने के बाद से हम जो एक हिंसक और शिकारी खुशी से पूरी तरह वंचित हो गये थे उसकी पूर्ति भी अमेरिका ने पाकिस्तान के एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन को मारकर (?) कर दी है। इस प्रकार विश्वकप के सेमी फाइनल और ओसामा कांड के कारण हमने पड़ोसी-पतन और उसकी थुक्का-फजीहत से होने वाले दुगने सुख को भी हासिल किया है। निश्चित ही ये सब उपलब्धियां हैं और किसी भी सरकार को अपनी इन उपलब्धियों पर गर्व करने का हक़ होना ही चाहिए। सो संप्रग-2 को भी इतराने का पूरा हक़ है ही।
तो फिर गरीबी क्यों नहीं कम हो रही है? वह कौन सा व्यवधान है जो इसके आड़े आ रहा है? जब देश-दुनिया के तमाम क्षेत्रों में हम कदम-दर-कदम बढ़ते चले जा रहे हैं तो एक दर्जन से अधिक गरीबी उन्मूलन योजनाओं के बावजूद देश में गरीबी बढ़ती ही क्यों चली जा रही है? सरकार की अपनी ही कमेटियां बता रही हैं कि इस सबसे सफल पंचवर्षीय योजना के दौरान भी गरीबी बढ़ी ही है, घटी नहीं। कई सरकारी कमेटियों ने कई तरह के पैमानों से नाप-जोख की लेकिन नतीजा यही निकला कि गरीब और बढ़ते ही जा रहे हैं! दुनिया के एक दर्जन देशों की टोटल आबादी से भी अधिक लोग हमारे देश में रोज भूखे पेट सोते हैं और सरकार उनकी गरीबी नापने का पैमाना कैलोरी को बनाये हुए है कि गरीब लोग कुल कितनी कैलोरी रोज खा रहे हैं? क्या यह कुछ ‘रोम और नीरो’ तथा ‘ब्रेड नहीं है तो केक खाओ’ जैसा मजाक नहीं है? सरकारी कमेटियां अभी गरीबी की परिभाषा ही नहीं तय कर पा रही हैं! राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन के अनुसार देश में 60.50 प्रतिशत गरीब लोग हैं तो ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित एन.सी. सक्सेना समिति की रपट गरीबों की संख्या 50 प्रतिशत बताती है। चर्चित अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्ता समिति इसे 77 प्रतिशत तो राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा गठित सुरेश तेंदुलकर समिति का निष्कर्ष है कि गरीब कुल 37.2 प्रतिशत ही हैं। इसमें सबसे अद्भुत काम योजना आयोग ने किया और सभी राज्यों को कहा कि वे गरीबों की संख्या को 36 प्रतिशत मानकर ही योजनाओं का क्रियान्वयन करें!
इन आंकड़ों से पता चलता है कि सरकार की रुचि गरीबी को मिटाने में है या तकनीकी तौर पर उसे कम दिखाने में। जिस योजना आयोग का काम ही समस्या हल करने के लिए उपयुक्त योजनाऐं बनाने का हो, वह अगर आंकड़ेबाजी करके गरीबों की संख्या आधी से भी कम कर देने पर आमादा हो तो यह अनुमान कोई भी सहज ही लगा सकता है कि समस्या का क्या हश्र होने वाला है! बीते मार्च महीने में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने आश्चर्य व्यक्त किया कि सारे सर्वेक्षणों को दरकिनार करते हुए योजना आयोग यह कैसे कह सकता है कि सभी राज्य गरीबों की एक निश्चित संख्या को मानकर कार्य करें? अदालत ने प्रश्न किया कि क्या युवाओं और वृद्धों की कोई अधिकतम संख्या निश्चित की जा सकती है?
सन् 1971 में दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद स्व. इन्दिरा गाँधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था। उस वक्त यह नारा बहुत चर्चित हुआ था। उस समय से लेकर आज तक गरीबी हटाने की जितनी भी योजनाऐं बनीं, वास्तव में वे सिर्फ गरीबों को किसी तरह जिन्दा रखने के लिए ही थीं। केन्द्र मे वर्ष 2004 में संप्रग की सरकार बनने के बाद प्रख्यात अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया जिसे असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों आदि पर रिपोर्ट देनी थी। डा. सेनगुप्ता ने गरीबी आंकलन का सबसे आसान, उपयुक्त और व्यावहारिक तरीका यानी औसत दैनिक आमदनी की गणना को अपनाते हुए नतीजे निकाले और सरकार को बताया कि देश में कुल 83 करोड़ 60 लाख लोग ऐसे हैं जिनकी औसत दैनिक आमदनी रु. नौ से लेकर 20 तक ही है। अब यह आंकड़ा खुद योजना आयोग को ही नहीं सूट कर रहा है! वह जबरन कह रहा है कि देश में गरीबों की संख्या सिर्फ 36 प्रतिशत ही मानी जाय, जबकि वह जानता है कि सरकार जेल में बंद एक कैदी के भोजन पर प्रतिदिन 100 रुपये से अधिक खर्च करती है, तो क्या जेल के बाहर रहने वाला एक व्यक्ति इससे कम में गुजर कर सकता है?
यह हम पिछले 65 वर्षों से देख रहे हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा सस्ता या लगभग मुफ्त चावल-गेंहूँ बाँट देने से गरीबी नहीं मिट सकती, वृद्धावस्था-विधवा पेंशन से हालत सुधरने वाली नहीं है, मनरेगा के तहत वर्ष में 100 दिन मिलने वाले काम का लालच 265 दिनों के लिए एक दूसरी तरह की बेरोजगारी पैदा कर रहा है और सामाजिक सुरक्षा की जितनी भी योजनाऐं गरीबों के लिए बनी हैं वे जरुरतमंदों के दरवाजे तक पहुँच नहीं रहीं हैं। सरकार कैलोरी खाने की मात्रा को गरीबी/अमीरी का आधार मान रही है। क्या सरकार यह नहीं जानती कि जिसके घर नहीं है वो गरीब है, जो दो वक्त भोजन न कर सके वो गरीब है, जो अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा न सके वो गरीब है और जो बीमारी में इलाज न करा सके वो गरीब है? क्या इन जरुरतों को गरीबी निर्धारण का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए? जो आदमी 20 रुपये से अधिक रोज कमा ही नहीं पा रहा है आप उसकी कैलोरी नापकर उसके गरीब या अमीर होने का फतवा दे रहे हैं और दावा करते हैं कि आप जनकल्याणकारी राज्य और लोकप्रिय सरकार हैं?

गरीबी तब तक नहीं मिट सकती (और मिटी हुई मानी भी नहीं जानी चाहिए) जब तक कि 83 करोड़ 60 लाख लोगों की औसत दैनिक आमदनी इस लायक न कर दी जाय कि वे अपने बूते रोटी-कपड़ा-मकान और शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरुरतें पूरी कर सकें। शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में कुशल-अकुशल बेरोजगारों को वर्ष भर के लिए रोजगार की गारंटी, चाहे वह मनरेगा के ही तहत क्यों न हो जरुरी है। अगर सरकारी नौकरियाँ सृजित नहीं की जा सकतीं तो मानव श्रम के अवसर तो बेइंतहा मौजूद हैं, उनका इस्तेमाल क्यों नहीं?
  ( हरियाणा, छत्तीसगढ़ , मध्य प्रदेश व् दिल्ली से प्रकाशित होने वाले  दैनिक हरिभूमि  में ०७ जून २०११ को प्रकाशित)
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