Thursday, October 03, 2013

महिलाओं की सेवा शर्तों में बदलाव जरुरी --- सुनील अमर


रेलू जिम्मेदारियों के कारण महिलाओं द्वारा नौकरी या रोजगार छोड़ देना एक आम बात है लेकिन हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि इसे बहुत गम्भीरता से नहीं लिया जाता, मानो ऐसा होना स्वाभाविक ही हो। सामान्य के अलावा योग्य और प्रतिभावान महिलाओं को भी ऐसा करना पड़ता है और इस प्रकार संस्थान योग्य कार्यकर्ताओं से वंचित हो जाते हैं। भारत जैसे देश में जहाँ कई करोड़ परिवार अपनी महिला सदस्य की कमाई से ही चलते हैं, ऐसा होने पर भुखमरी के कगार पर आ जाते हैं और वहाँ बिखराव शुरु हो जाता है। सुखद है कि संसद की एक स्थाई समिति ने गत दिनों एक बहुप्रतीक्षित रपट पेश कर इन परिस्थितियों को सुधारने हेतु कानून बनाने और संशोधित किये जाने की मॉग की है।
              कामकाजी महिलाओं के लिए कई प्रकार की चुनौतियाँ सामने आती हैं। घर से बाहर कदम रखते ही उन्हें तमाम तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। लैंगिक भेदभाव तथा छेड़छाड़ की घटनाऐं उनके साथ विकसित देशों में भी वैसे ही होती है जैसे तथाकथित तीसरी दुनिया के देशों में। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि इस मामले में एक अनपढ़ मजदूर स्त्री और खूब पढ़ी-लिखी स्त्री की स्थिति एक जैसी ही होती है। समान काम के लिए मजदूर स्त्री को पुरुष मजदूर के मुकाबले अगर मजदूरी कम दी जाती है तो निजी क्षेत्र के दतरों में भी उसे वेतन कम दिया जाता है, जबकि कार्य और कार्य के घंटे एक समान ही होते हैं। दुनिया का कोई भी पिछड़ा या विकसित देश हो या घने जंगलों के बीच रहने वाला कबीला, हर जगह औरत की भूमिका मर्दों से कई गुना अधिक होती हैं क्योंकि वह न सिर्फ मर्द के कन्धो से कन्धाा मिलाकर काम करती है बल्कि काम के बाद या साथ-साथ उसे घर और बच्चों को भी संभालना पड़ता है। यह एक आम दृश्य है कि पति-पत्नी अगर साथ-साथ काम पर से लौटें तो पति आराम फरमाने लगता है और पत्नी उसके चाय नाश्ते का प्रबंध कर घर, चौका और   बच्चों को संभालने में लग जाती है। कार्यस्थलों पर एक स्त्री को पुरुषवादी नजरिये से कमतर  जरुर ऑंका जाता है लेकिन तमाम सर्वेक्षणों के नतीजे बताते हैं कि अपने पुरुष सहकर्मी के मुकाबले एक स्त्री कर्मचारी/अधिकारी का कार्य निष्पादन कहीं बेहतर और समय से होता है।
               स्त्री का माँ बनना एक प्राकृतिक गुण है। समाज व राष्ट्र के अस्तित्व लिए भी यह अपरिहार्य है। एक स्त्री अगर माँ बनती है तो उसके हर प्रकार की अधिकारों की रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है। यह कर्तव्य तब और व्यापक हो जाता है अगर वह स्त्री कामकाजी है। कामकाजी स्त्री राज्य के लिए कई प्रकार से उपयोगी होती है। वह न सिर्फ राज्य के कार्यो का यथासामर्थ्य निष्पादन करती है बल्कि राज्य को एक परिवार और नागरिक भी देती है। अफसोस की बात है कि इतना होने पर भी कार्यस्थल पर  उसकी स्त्रीगत समस्याओं की तरफ से राज्य लगातार उदासीन है। यही कारण है कि जब घर या नौकरी में से एक चुनने की बात आती है तो स्त्री नौकरी छोड़ देती है। यह समस्या सरकारी क्षेत्र से लेकर निजी क्षेत्र तक व्याप्त है। निजी क्षेत्र में अक्सर ऐसा होता है कि स्त्री कर्मचारी गर्भवती होने के बाद जब अवकाश लेती है तो उसकी जगह पर किसी और की नियुक्ति कर ली जाती है। संसद की एक स्थाई समिति 'कार्मिक, विधि एवं जनशिकायत' ने कामकाजी महिलाओं की समस्या का  व्यापक अध्ययन कर गत दिवस अपनी रपट पेश की है। समिति की संस्तुति है कि नौकरी करने वाली महिलाओं, खासकर युवतियों को काम के घंटों में रियायत दी जानी चाहिए क्योंकि उन्हें अपना घर-परिवार भी संभालना पड़ता है। इसी प्रकार माँ बनने वाली कामकाजी स्त्री के लिए मातृत्व अवकाश भी 180 दिन वेतन सहित करने का सुझाव दिया गया है। समिति ने यह भी पाया है कि नौकरी करने वाले दम्पत्ति को एक ही स्थान पर नियुक्त किए जाने की व्यवस्था पर्याप्त नहीं है और इसे अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। कॉग्रेस सांसद शांताराम नायक की अध्यक्षता वाली इस समिति ने पाया कि कार्यस्थल पर हो रहे महिलाओं के यौन उत्पीड़न के मामलों में कार्यवाही बेहद असंतोषजनक है। रिपोर्ट में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि 'समिति का यह मानना है कि महिलाओं और युवा माँओं के लिए कामकाज के लचीले घंटों  तथा घर से काम करने की नीति अपना कर उन्हें कार्यालय और घर के बीच बेहतर संतुलन कायम करने में मदद की जा सकती है।'
       समिति ने सुझाव दिया है कि अगर एक कामकाजी महिला के काम छोड़ने का यही मुख्य कारण है तो इससे उचित तरीके से निपटा जा सकता है। इससे अनुभवी और कुशल कर्मचारियों को बनाये रखा जा सकेगा तथा नये कर्मचारियों को भर्ती करने  और उनके प्रशिक्षण में लगने वाले श्रम से बचा जा सकेगा। दुनिया में 120 से अधिक देश ऐसे हैं जो अपनी महिला कर्मचारी को मातृत्व अवकाश तथा नवजात के पालन-पोषण हेतु वेतन सहित अवकाश देते है। अवकाश व वेतन की स्थितियाँ हर देश में अलग-अलग हैं लेकिन अपने देश में तो सरकारी विभागों में ही इस मामले में एकरुपता नहीं है। यह अवकाश 90 दिन से लेकर 135 दिन तक का है। इस स्थिति से नाराज उक्त समिति ने सरकार से कहा है कि मातृत्व अवकाश 180 दिन तथा नवजात के पालन पोषण का अवकाश 730 दिन का वेतन सहित होना चाहिए तथा यह सरकारी व निजी क्षेत्र में समान रुप से लागू हो। अक्सर होता यह है कि जो निजी संगठन उक्त अवकाश दे भी देते है, वे इस काल का वेतन नहीं देते जिससे महिलाऐं मातृत्व अवकाश प्राय: बहुत सीमित तथा पालन पोषण अवकाश लेती ही नहीं है। समिति का यह सुझाव भी काफी प्रभावशाली है कि यदि घर से काम करना संभव हो तो महिला कर्मी को घर से ही काम करने की अनुमति होनी चाहिए ताकि वह घर भी संभाल सके।
              महिला कर्मचारियों के काम के घंटे कम करने व उन्हें घर परिवार हेतु अवकाश देने की अवधारणा नयी नहीं है। दुनिया के कई देशों में ऐसा हो चुका है। अमेरिकी कहर के शिकार हुए इराक के पूर्व राष्ट्रपति स्व. सद्दाम हुसैन ने अपने देश में स्त्रियों को अभूतपूर्व सुविधा व अधिकार दे रखा था। उनके कार्यकाल में महिला कर्मचारी सिर्फ आधो समय कार्य करती थीं और वेतन उन्हें पूरा मिलता था। सद्दाम का मानना था कि माँओं द्वारा देश के लिए योग्य नागरिक तैयार करना आफिस में कार्य करने से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। इराक में पत्नी को तलाक देने वाले को अपनी सारी सम्पत्ति तलाकशुदा पत्नी को देनी पड़ती थी। लीबिया के शासक कर्नल मुअम्मर गद्दाफी ने भी स्त्रियों व नागरिकों को तमाम तरह की वो सुविधाऐं दे रखी थीं जो अति विकसित कहे जाने वाले देशों के लिए भी संभव नहीं। स्थायी समिति के सुझाव बहुत कारगर और दूरगामी परिणाम देने वाले हैं। मौजूदा समय में जबकि समाज पर कई तरह के खतरे हमलावर हैं, मॉओं को राज्य से उक्त सहूलियतें मिलनी ही चाहिए। हम देख ही रहे हैं कि बच्चों को पालने की जिम्मेदारी से बचने के लिए आज देश की युवतियों में लिव इन रिलेशनशिप का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। यह कल्पना ही आतंकित करती है कि हमारे युवा बच्चे पैदा करना बंद कर दें। फिर परिवार और समाज कहॉ से बनेगा! अंतत: बच्चे राज्य की जिम्मेदारी हैं। बेहतर हो कि राज्य इसे प्राथमिक स्तर से ही कबूल करना शुरु कर दे।

    

Friday, April 26, 2013

महत्त्वाकांक्षा की फिसलन और आडवाणी --- सुनील अमर


भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी उम्र के सबसे परिपक्व दौर में हैं। इस उम्र में सार्वजनिक जीवन जी रहे किसी व्यक्ति से वैचारिक स्थिरता की उम्मीद की जाती है, फिसलन की नहीं लेकिन बीते सात-आठ वर्षों में श्री आडवाणी ने कई तरह के परस्पर विरोधी बयान देकर अपनी राजनीतिक स्थिति और भविष्य मजबूत करने की कोशिश की है। ये और बात है कि उनके ऐसे प्रयास उनकी वर्षों से संचित और अर्जित राजनीतिक हैसियत को लगातार छीज रहे हैं। राजनीति दाॅव-पेंच का खेल है। बहुत बार ऐसा होता है कि पुराने महारथियों के भी दाॅव उल्टे पड़ते रहते हैं। श्री आडवाणी के दाॅव उल्टे भले ही पड़ रहे हों लेकिन एक बात तो स्पष्ट ही है कि उनके अंदर महत्त्वाकांक्षा कूट-कूट कर भरी है। भाजपा में इस समय जबकि पुराने हो चले नेताओं को सायास या अनायास नेपथ्य में करने का अभियान सा चल पड़ा ह,ै आडवाणी की लिप्सा बताती है कि राजनीति में कोई कभी रिटायर नहीं होता।
गत सप्ताह श्री आडवाणी ने पार्टी नेताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि अयोध्या आंदोलन पर शर्म नहीं गर्व करने की जरुरत है। उनका तात्पर्य वर्ष 1992 में अयोध्या में किये गये बाबरी मस्जिद विध्वंस से था। भारतीय राजनीति के इतिहास में शायद ही ऐसा कोई और उदाहरण मिले जिसमें किसी राजनीतिक दल के वरिष्ठ नेताओं ने अपने किसी कृत्य पर कई-कई बार बयान बदला हो। आज श्री आडवाणी जिस बात पर गर्व करने की सलाह अपने नेताओं को दे रहे हैं, वर्ष 2005 में पाकिस्तान स्थित अपने जन्म स्थान के दौरे पर जाने पर वहाॅ उन्होंने इस घटना को शर्मनाक बताया था और ऐसा उन्होंने पाकिस्तान के पितृ पुरुष कायदे आजम जिन्ना की समाधि  पर जाकर कहा था। वर्ष 1992 में बाबरी विध्वंस के समय भाजपा नेता कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और उन्होंने अदालत को बाबरी मस्जिद की रक्षा का वचन दे रखा था लेकिन जब उन्हीं के नेतृत्व में मस्जिद गिरा दी गयी तो उन्होंने तथा उनकी पार्टी ने गर्वोक्ति की थी कि ‘जो कहा, सो किया’। इसके लिए वे जेल भी गये। ये और बात है बाद के दिनों में जब कल्याण सिंह भाजपा से निकाल दिये गये तो उन्होंने सार्वजनिक रुप से कई बार कहा कि उन्हें तो अंधेरे में रखकर बाबरी विध्वंस को अंजाम दिया गया। समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव से गलबहियाॅ करते समय तो उन्होंने इसे और भी विस्तार से कई बार बताया था लेकिन राजनीति का तकाजा देखिए कि वही कल्याण सिंह आज फिर से भाजपा में हैं। आडवाणी आज गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी से मात खाते दिख रहे हैं लेकिन यही आडवाणी हैं जिनकी सार्वजनिक तौर पर की गई मदद के कारण ही नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर टिके रह सके थे। 2002 के गुजरात दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी राजधर्म का पालन न कर सकने के कारण मोदी सरकार को ही बर्खास्त करना चाह रहे थे लेकिन उस वक्त श्री आडवाणी ही थे जिनके जिद पकड़ लेने के कारण वाजपेयी को पीछे हटना पड़ा था। तब आडवाणी की निगाह में नरेन्द्र मोदी से बड़ा कोई सूरमा नहीं था। श्री आडवाणी का तब का वैचारिक प्रेत आज वास्तविक आकार ले चुका है। क्या यह कहना अप्रासंगिक होगा कि मोदी आडवाणी के लिए राजनीतिक भस्मासुर साबित हो रहे हैं?
श्री आडवाणी एक लम्बे अरसे से प्रधानमंत्री पद के इच्छुक हैं। आधुनिक भारत के राजनीतिक इतिहास में शायद ही कोई व्यक्ति इस तरह से इस पद के लिए प्रतीक्षारत रहा हो। समाचार माध्यम उन्हें लगातार प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री या पी.एम. इन वेटिंग लिखते आ रहे हैं लेकिन याद नहीं पड़ता कि श्री आडवाणी ने कभी इस पर कोई आपत्ति या खंडन किया हो। महज एक दशक पहले की बात है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भाजपा को साथ लेकर तो चलता था लेकिन वह आॅखें नहीं तरेर सकता था क्योंकि तब भाजपा अपने राजनीतिक  उफान पर थी लेकिन आज वही संघ भाजपा की बाहें मरोड़ रहा है। भाजपा के तपे-तपाये नेताओं को बर्खास्त कर रहा या उन्हें गुमनामी के गर्त में ढ़केल रहा है। के. गोविंदाचार्य, साध्वी ऋतम्भरा, मुरली मनोहर जोशी, बंगारु लक्ष्मण, जसवंत सिंह, कल्याण सिंह, संजय जोशी, विनय कटियार आदि ऐसे अनेक नाम हैं जिन्हें इस्तेमाल करने के बाद संघ ने इनका बस्ता बाॅध दिया। जिन्ना की समाधि पर उनकी तारीफ के कसीदे पढ़ने के बाद से श्री लालकृष्ण आडवाणी संघ में अपनी पुरानी हैसियत खो बैठे हैं और लगभग तभी से जैसे संघ ने तय कर लिया हो कि अब उसे इनकी जरुरत नहीं रही। संघ ने उन्हें कदम-कदम पर अपमानित किया। कुछ माह पूर्व मुम्बई में हुई पार्टी की बैठक आड़वाणी और सुषमा स्वराज ने क्षुब्ध होकर छोड़ दी थी। इसी बैठक में मोदी का इकबाल बुलंद किया गया था और उनकी जिद पर संजय जोशी को पार्टी से निकाला गया था।
मोदी पर संघ का पूरा आशीर्वाद है। उसी का बिल्कुल उल्टा आडवाणी के साथ है। बावजूद इसके आडवाणी अगर मैदान में डटे हैं तो यह उनका राजनीतिक तजुर्बा है जो उन्हें बताता है कि भारतीय राजनीति में कुछ भी संभव है। मोदी अगर मैदान से हट जाॅय तो स्वाभाविक है कि आडवाणी फिर से अपनी पुरानी स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं। मोदी को इस दौड़ से हटाने के लिए आडवाणी के कूटनीतिक प्रयास जारी हैं। मोदी अगर किसी भी तरह इस दौड़ से हट जाॅय तो संघ उन्हें आगे कर सके, इसकेे लिए वे संघ को खुश करने और उसकी नजर में गुड ब्वाय बनने के तमाम प्रयास कर रहे हैं। अयोध्या संध का प्रिय मुद्दा है तो अब श्री आडवाणी अयोध्या कांड पर गर्व कर रहे हैं जबकि इस कांड की जाॅच के लिए नियुक्त आयोग और अदालत के समक्ष वे बार-बार कह चुके हैं कि उन्होंने अपनी तरफ से अयोध्या में इकठ्ठा और उग्र कारसेवकों को रोकने की पूरी कोशिश की थी। किसी पद की लिप्सा किस तरह वयोवृद्ध लोगों को भी हास्यास्पद ढ़ॅग से पलटी मारने को विवश कर देती है, श्री आडवाणी इसके उदाहरण हैं। अनुकूलित किये गये समाचार माध्यम चाहे जो प्रचार करें, सच ये है कि मोदी को इस तरह सबके उपर थोपे जाने से भाजपा में एक बड़ा वर्ग काफी नाखुश है। आडवाणी ने भाजपा में एक काफी लम्बी पारी बहुत सफलतापूूर्वक और दबंगई से खेली है और इस नाते उनके पास नेता व कार्यकर्ता दोनों हैं। ये लोग मानते हैं कि संघ का मोदी कार्ड कहीं नितिन गड़करी की गति को न प्राप्त हो जाय। जदयू का दबाव अपनी जगह पर है। जिस तरह से शरद यादव अपने दल के सिद्धांतों की बातें कर मोदी प्रकरण पर भाजपा को अर्दब में लेने की कोशिश कर रहे हैं और कह रहे हैं कि सिद्धांत भी कोई चीज होती है उससे यही माना जाना चाहिए कि अगर चुनाव पूर्व उनका भाजपा से तालमेल बिगड़ा तो वह चुनाव बाद भी वैसा ही रहेगा क्योंकि पार्टी के यही सिद्धांत तो तब भी रहंेगें। राजनीति में संयोग भी बहुत महत्त्वपूर्ण कारक होता है। वर्ष 1889 में चैधरी देवीलाल सबसे बडे़ दल के नेता चुने गये थे लेकिन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह बन गये थे। स्व. चरण सिंह और स्व. चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनते हम देख ही चुके हैं। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को हटाने के बाद श्री वाजपेयी की पसंद के जिस शख्स राम प्रकाश गुप्त को मुख्यमंत्री बनाया गया था उनके बारे में पार्टी के अधिकांश नेता जानते ही नहीं थे। ऐसे विकट संभावनाओं के बियाबान में आडवाणी अगर पलटीमार चरित्र बना रहे हैं तो आश्चर्य कैसा ! 0 0  ( Published in daily DNA on edit page no. 9 on 26 Apr 2013 Link is ---http://www.dailynewsactivist.com )

Thursday, April 25, 2013

इस साहस का समर्थन करे समाज ---- सुनील अमर


खाप पंचायतों की प्रतिगामी हरकतों से त्रस्त देश के नारी समाज में एक स्त्री ने अपने हक के लिए लड़ने की हिम्मत दिखाई है। घर-परिवार और समाज के तमाम एतराज को दरकिनार कर एक फौजी की नि:संतान विधवा ने वीर्य बैंक में रखे अपने पति के वीर्य से गर्भधारण किया है। इस दंपत्ति का एक अस्पताल में संतानोत्पत्ति हेतु इलाज चल रहा था लेकिन फौजी पति को बार-बार छुट्टी नहीं मिल पाने के कारण चिकित्सकों ने उसका वीर्य सुरक्षित रख लिया था। लगभग साढ़े तीन साल पहले पति की मौत हो गई। 35 वर्षीया पत्नी ने न सिर्फ दूसरी शादी करने से इनकार कर दिया बल्कि उसने अपने परिजनों के समक्ष अपनी इच्छा रखी कि वह स्थानीय अस्पताल में रखे अपने पति के वीर्य से गर्भवती होना चाहती है। जैसा कि फौजियों की नि:संतान विधवाओं के साथ अकसर होता है, यहां भी परिजन व समाज इस स्त्री के विरुद्ध हो गए। ताजा स्थिति तक पहुंचने में उत्तर प्रदेश के आगरा जिले की इस साहसी महिला को तीन साल लंबी लड़ाई लड़कर अपने दृढ़ मनोबल का परिचय देना पड़ा और वह इस सामाजिक लड़ाई को जीत गई। हमारे भारतीय समाज की बड़ी विचित्र स्थिति है। हमारे नागर समाज के विरोध का अंतर्विरोध यह है कि वह स्त्री अधिकारों के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर सरकार के खिलाफ तो खूब प्रदर्शन कर सकता है लेकिन वहां से 20-30 किमी के दायरे में औरतों के खिलाफ जहर उगल रही खाप पंचायतों तक जाने की हिम्मत नहीं करता! ऊपर वर्णित घटना तो ऐसे घटनाक्रमों की एक कड़ी भर है जहां परिवार के लोग अपनी ही विधवा बहू को महज इसलिए मार देते या मरने को विवश कर देते हैं ताकि उसका हिस्सा और उसी सम्पत्ति को कब्जाया जा सके। सती प्रथा इसी षड्यंत्र और कुकर्म का एक हिस्सा रही है। हम प्राय: देखते-सुनते हैं कि देश की रक्षा में शहीद हो जाने वाले सैनिकों की विधवाओं के साथ उनके ही सास-ससुर और जेठ-देवर कैसे न सिर्फ उस स्त्री का पारिवारिक हक बल्कि सरकार द्वारा दी गई सहायता को भी हड़प जाने का कुचक्र करते रहते हैं। कई मामलों में तो ऐसी विधवाओं को अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ता है। उपरोक्त मामले में तो वह स्त्री अपने ही पति के वीर्य से कृत्रिम गर्भाधान करके अपने ही सास-ससुर के वंश को आगे बढ़ाना चाहती है, लेकिन यह भी उन सबको अगर कबूल नहीं तो इसका मतलब यही है कि वे अपनी संपत्ति का एक और हिस्सेदार नहीं चाहते!
ऐसी विचारधारा वाले परिवारों में ऐसी स्त्रियों के जीवन को भी खतरे से मुक्त नहीं माना जा सकता। लेकिन ऐसी सोच कम पढ़े-लिखे या अपढ़ लोगों की ही हो, ऐसा नहीं माना जा सकता। समाज के सुशिक्षित तबके का भी कमोबेश यही हाल है। हमारे देश के तथाकथित संत- महात्मा, राजनेता, बड़े नौकरशाह तथा कुछेक न्यायाधीशों के विचार भी उक्त महिला के परिजनों जैसे ही हैं। देश में बलात्कार के बढ़ते अपराधों पर संतों, सामाजिक-सियासी नेताओं के कुविचार हम जान ही चुके हैं कि बलात्कार के मामलों में सारा दोष औरत का ही होता है। हमारी पढ़ाईिलखाई, शिक्षा-दीक्षा और ज्ञान-विज्ञान की सारी तरक्की का हासिल महज यही है कि जिन परिवारों में सिर्फ लड़की ही है वहां भी मां-बाप का अंतिम संस्कार करने का हक उसे नहीं है, भले ही दूर के किसी रिश्तेदार पुरुष से यह करवाया जाए!
गत वर्ष जयपुर उच्च न्यायालय में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश अरुण मिश्र व न्यायाधीश नरेंद्र कुमार जैन की खंडपीठ ने राजस्थान सरकार से पूछा था कि मां-बाप के अंतिम संस्कार बेटियों से कराने की कोई प्रोत्साहन योजना क्यों नहीं बनती। ध्यान रहे कि राजस्थान खास तौर पर सती प्रथा से ग्रस्त राज्य है। असल में तो ऐसी योजनाओं को केंद्र सरकार द्वारा तैयार कर पूरे देश में लागू कराया जाना चाहिए। लेकिन इसके उलट स्त्रियों से संबंधित बहुत से ऐसे मामले हैं जहां अदालतों का रवैया भी हमारे पुरुष समाज की मानसिकता का ही विस्तार होता लगता है। अभी इसी साल की शुरुआत में सर्वोच्च अदालत ने कर्नाटक के एक सत्र न्यायालय के खिलाफ बहुत सख्त टिप्पणी की। एक मामले में पति दहेज के लिए अक्सर अपनी पत्नी की बेरहमी से पीटा करता था जिससे उसकी एक आंख में गंभीर चोट आई और वह हमेशा के लिए खराब हो गई। बाद में पत्नी ने तंग आकर जहर खाकर आत्महत्या कर ली। मुकदमा चलने पर ट्रायल न्यायालय ने मारपीट की घटना को विवाहित जीवन का हिस्सा बताया और सभी तीन अभियुक्तों को बरी कर दिया। जबकि इसी मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने महिला के पति को सजा दी। सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले की सुनवाई करते न्यायाधीशद्वय आफताब आलम और रंजना प्रकाश देसाई की पीठ ने ट्रायल कोर्ट की कड़े शब्दों में र्भत्सना की और कहा कि किसी महिला की पिटाई या उससे गाली-गलौज उसके आत्मसम्मान पर हमला है और इसे साधारण तौर पर नहीं लिया जा सकता। न्यायाधीशों ने कहा कि अब समय आ गया है कि अदालतें महिलाओं के प्रति किए जा रहे अत्याचारों के प्रति अपना नजरिया बदलें। यहां यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि देश में सिर्फ यौन हिंसा से संबंधित एक लाख से अधिक मामले अदालतों में विचाराधीन हैं। आगरा की इस महिला ने जिस साहस का परिचय दिया है वह एक मिसाल है। एक स्त्री अपने शरीर की उसी तरह मालिक होती है जैसे एक पुरुष। वह अगर अपने दिवंगत पति के बच्चे की मां बनना चाहती है तो इसे किस आधार पर उसका घर और समाज नकार सकता है? कारण साफ है कि अगर वह अपने पति के बच्चे का मां बन जाएगी तो वह भी पारिवारिक संपत्ति का हिस्सेदार हो जाएगा, लेकिन अगर वह विधवा किसी और से शादी कर ले तो परिवार के लोग उसके हिस्से की संपत्ति के भी स्वामी हो जाएंगे। दुर्भाग्य से समाज के हर तबके में ऐसी सोच के लोग अब भी मौजूद हैं। बहरहाल, इस महिला के साहस का समर्थन किया जाना जरूरी है।

Wednesday, March 20, 2013

तो हमें तुम्हारी जरूरत ही क्या है मौलाना?--शीबा असलम फ़हमी



imageशीबा असलम फ़हमी

कश्मीर की तीन मुसलमान लड़कियों को खामोश करके खुश तो बहुत होगे तुम! तुम दुनिया को यह बताना चाहते हो कि उनके गिटार को चुप करवा कर तुमने इस्लाम को बचा लिया भारत में, कश्मीर में. लेकिन असलियत तुम जानते हो, और दूसरे भी कि तुमने इस्लाम को नहीं बल्कि अपनी सत्ता को बचाया है. अगर आम मुसलमान अपनी जिंदगी के फैसले खुद करने लगेगा, खुद सोचने-समझने लगेगा तो फिर तुम किस मर्ज की दवा रह जाओगे? आखिर उन लड़कियों को कहना पड़ा कि 'मुफ्ती ही बेहतर जानते हैं कि अल्लाह का हुक्म क्या है, इसलिए हम मुफ्ती की बात मानते हुए अपना म्यूजिक बंद करते हैं.' वैसे अल्लाह ने ईरान, तुर्की, पाकिस्तान, बांग्लादेश और ट्यूनीशिया के मौलानाओं को म्यूजिक पर पाबंदी क्यूं नहीं बताई? सिर्फ भारतीय मौलाना से अल्लाह यह राजदारी क्यूं करता है? अपनी बेटियों से इतना डरे हुए क्यूं हो, मौलाना?
देखें मौलाना, ऐसा है कि आपका औरतों से दुश्मनी वाला रवैया अब किसी तरह परदे में रहने वाला नहीं. अब मुसलमान औरत को समझ में आ रहा है कि पहले तो आपने मजहब को, उसकी जानकारियों को, उसकी राहतों को अगवा कर अपने अंधेरे पिंजरों में कैद कर लिया जहां सिर्फ आपके हमखयाल ही दाखिल हो सकते हैं. जिसने भी जरा सी चूं-चां की, वह भटका हुआ करार दिया गया यानी कि मुसलमान औरत को पहले तो मजहब की उम्दा और आला तालीम से दूर रखा गया, उसके लिए अच्छे और बाकायदा मजहबी तालीम देने वाले संस्थान ही कायम नहीं होने दिए गए. मजहब के मामलों पर गौर-ओ-फिक्र से मुसलमान औरत को अलग रखा. किसी पर्सनल लॉ बोर्ड, किसी फिकह अकादमी, किसी मुशावरत, किसी कजियात में मुसलमान औरत को कभी कोई ऐसी फैसला लेने लायक भागीदारी नहीं दी गई कि वह इस्लाम में औरत को राहत देने वाले इंतजामों से बाखबर हो कर उनका अपने पक्ष में इस्तेमाल कर पाती.
इसके बाद मुसलमान औरत पर तुमने अपनी मनचाही मर्दाना शरियत थोपी. यहां पर भी वही जिद कि हम जो बताएं वही शरियत है और उस पर तुर्रा यह भी कि शरियत बदल नहीं सकती, हिमालय की तरह अटल है. किसको बेवकूफ बना रहे हो, मौलाना? शिया, मेमन, बोहरा, देवबंदी, बरेलवी, हनफी, शाफई, मलिकी, महदवी और न जाने कितनी तरह की शरियतें रचने के बाद औरतों को बताते हो कि शरियत अटल है? शरियत के नाम पर तीन तलाक की मानसिक हिंसा तुम करो और करवाओ और हम यह मान लें कि यही अल्लाह का इंसाफ है औरत के लिए? चार बीवियां तुम रखो और रखवाओ और हम मान लें कि यही अल्लाह का इंसाफ है? अरे, अल्लाह को क्यों बदनाम करते हो अपने मतलब के लिए?
मुसलमान औरत को कभी कोई ऐसी फैसला लेने लायक भागीदारी नहीं दी गई कि वह इस्लाम में औरत को राहत देने वाले इंतजामों से बाखबर हो कर उनका अपने पक्ष में इस्तेमाल कर पाती
हमें पता है कि तुमने इसी लिए भारत में मुसलमान औरतों को मस्जिद में नहीं आने दिया. अगर मुसलमान औरतें भी सारी दुनिया के मुस्लिम मुल्कों की तरह मस्जिदों में उसी हक से दाखिल हो जाएं जिस हक से मर्द होते हैं तो क्या आसमान टूट पड़ेगा कौम पर? लेकिन यह कोई मासूम- सी पाबंदी नहीं है, मौलाना. तुम्हें पता है कि अगर ये औरतें हर रोज एक छत के नीचे इकट्ठी होकर आपस में बातचीत कर लेंगी, अपने हाल एक-दूसरे पर जाहिर कर देंगी तो संगठित हो जाएंगी. अभी वे उन जुल्मों को सिर्फ 'अपनी बदनसीबी' और 'अल्लाह का इम्तेहान' समझ कर एक निजी दुख की तरह झेल लेती हैं. मगर वे एक जगह इकट्ठी हो गईं तो उन्हें पता चल जाएगा कि ये तो वे तारीखी ज़ुल्म हैं जो उनकी नानी-दादी-मांओं ने
भी झेले हैं.
आखिर 'कौम' की तमाम मुश्किलों पर मस्जिदों के भीतर ही तो एक राय बनाई जाती है न? यहां तक कि देहली की एक मस्जिद तो यह तक तय कर देती है कि कौम अगले चुनाव में वोट किसे देगी. तो मौलाना, तुम्हें भी पता है और हमें भी पता है कि मस्जिद में अगर औरतें इकट्ठी हो गईं तो सबसे पहले खतरा तुम पर ही आना है.
 मौलाना पूरी कौम के नाम पर या कौम के लिए तुम जो भी बोर्ड, मजलिस, मदरसा, स्कूल, नदवा, वगैरह बनाते हो उसमें मुसलमान औरतों को 50 फीसदी नुमाइंदगी क्यूं नहीं देते? तुम लगातार भारत सरकार को कोसते रहते हो कि वह मुसलमानों की तादाद के मुताबिक उन्हें नुमाइंदगी न दे कर उनके साथ नाइंसाफी करती है, उनकी तरक्की में रुकावट डालती है. लेकिन जहां तुम पॉवर में हो वहां भारत सरकार से भी बड़े वाले हुक्मरां बन जाते हो. तब तुम्हें यह खयाल नहीं आता कि मुसलमान औरतें आबादी का आधा हिस्सा हैं? अपने जलसों में जब तुम पूरी कौम के मामलात तय करते हो तो देहली की वजीर-ए-आला शीला दीक्षित और कांग्रेस सदर सोनिया गांधी को तो मंच के बीचोबीच जगह देते हो, लेकिन इसी जलसे में एक भी मुसलमान औरत तुम्हें नहीं मिलती शामिल रखने के लिए?
 लेकिन मौलाना उस ऊपरवाले का सितम देखो कि जब कौम पर मुश्किल आती है तो कोई तीस्ता सीतलवाड़, कोई मनीषा सेठी, कोई जमरूदा, कोई सीमा, कोई सहबा, कोई नंदिता, कोई अरुंधती ही सड़कों से ले कर मीडिया तक पर उतरती है अपने हमवतनों को बचाने के लिए. तब तुम चुप्पी साधे ताकते रहते हो औरतों के इस अहसान को. तब बरसों से जमा किया गया तुम्हारा इक्तेदार, सरकारों के साथ तुम्हारी वोट वाली सांठ-गांठ, या तुम्हारा 'खास इल्म' किसी काम नहीं आता कौम के. तुम लाखों की रैलियां करके जिन सियासी दलों को यह जताते हो कि देखो हमारे पास इतना बड़ा वोट-बैंक है लिहाजा हमसे सौदा करो, वे सियासी पार्टियां तुम्हें बस
एक बार भुनाने लायक बैंक-चेक से ज्यादा कुछ समझती नहीं.
किस्सा-कोताह यह कि तुम्हारे होने से कौम को राहत तो कोई मिलती नहीं, इसकी इज्जत और हिफाजत में तो कोई इजाफा होता नहीं, इसकी छवि एक सहनशील और इंसाफ-पसंद कौम की बनती नहीं, तुम्हारी अपनी औरतें और कमजोर और पसमांदा खुद तुमसे खुश नहीं, तुम्हारे जरिये चलाए जा रहे इदारों, मदरसों, स्कूलों से समाज के काम के इंसान तो निकलते नहीं. तो फिर तुम हो किस काम के? कोई ऐसी सामाजिक बुराई जो तुम्हारे होने से मिट गई हो उसका नाम बताओ, मौलाना? तुम उन खाप पंचायतों से किस तरह अलग हो जो जुल्म की शिकार औरतों पर ही उस जुल्म की जिम्मेदारी थोप देती हैं? दहेज घरेलू हिंसा, बेटियों-बहनों को जायदाद में हक, जात-बिरादरी की ऊंच-नीच जैसे मामलों पर तो कभी तुम्हारी आवाज बुलंद होते सुनी नहीं. वक्फ की जायदादों पर नाग की तरह कुंडली मारे बैठो हो जो  बेवाओं-यतीमों-तलाकशुदा औरतों का हक था.
अगर किसी तरह का कोई अच्छा काम तुमसे हो ही नहीं सकता तो हमें तुम्हारी जरूरत क्या? सिर्फ मर्दाने मदरसे चलाओ और बंद करो अपनी ये सामाजिक दुकानें, मौलाना !   (http://www.tehelkahindi.com/index.php?news=1658)

Tuesday, February 26, 2013

बैंकों की उपेक्षा के शिकार छोटे किसान

बैंकों की उपेक्षा के शिकार छोटे किसान

                  देश के छोटे किसानों की आर्थिक हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा है, ऐसा एक ताजा सरकारी रपट में बताया गया है। सरकार द्वारा इस सिलसिले में किये जा रहे प्रयत्नों को राष्ट्रीयकृत बैंकों की वजह से वांछित सफलता नहीं मिल रही है और छोटे किसान मजबूरी में साहूकारों और सूदखोरों के चंगुल में फॅंस रहे हैं। यही वजह है कि किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं का दु:खद सिलसिला थम नहीं रहा है। देश में सबसे खराब स्थिति महाराष्ट्र की है जहॉ गत माह विधानमंडल में सरकार ने स्वीकार किया कि औसत चार किसान प्रतिदिन आत्महत्या कर रहे हैं। कहने की जरुरत नहीं कि ये सब छोटे किसान ही होते हैं। नियंत्रक व महालेखा परीक्षक की ताजा रपट बताती है कि देश में महज छह प्रतिशत छोटे किसान ही बैंकों से ऋण पा रहे हैं बाकी 94 प्रतिशत अपनी कृषि सम्बन्धी जरुरतों के लिए सूदखोरों के रहमो-करम पर हैं। यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि देश में सूदखोरी और साहूकारी का धंधा इधर काफी तेजी से बढ़ रहा है।
                  कृषि योग्य जमीन के लगातार बॅटवारे तथा अन्यान्य सरकारी जरुरतों के लिए किये जा रहे भूमि अधिग्रहण के चलते लघु व सीमांत किसानों की संख्या बढ़ रही है। यह दोहरे ढॅंग़ से इसलिए खतरनाक है कि जोत घटने के साथ इस पर पारिवारिक निर्भरता भी बढ़ती जा रही है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन ने ताजा रपट में बताया है कि देश में 80 प्रतिशत लघु व सीमांत किसान हैं और नियंत्रक व महालेखा परीक्षक की रपट बताती है कि इस 80 प्रतिशत में से महज 06 प्रतिशत को ही बैंकों से कृषि ऋण मिल पा रहा है। यह एक भयावह सच्चाई है। इस सच्चाई को यह तथ्य और संगीन बना देता है कि केन्द्र सरकार द्वारा जो भारी भरकम राशि किसान ऋण माफी के लिए दी जाती है उसका वास्तविक हश्र क्या होता होगा। वह किन तथाकथित किसानों के पास पहॅुच जाती होगी!
                केन्द्र सरकार व भारतीय रिजर्व बैंक के निर्देश हैं कि राष्ट्रीयकृत बैंक अपनी सकल ऋण राशि का 18 प्रतिशत कृषि कार्यो के लिए दें। असल में ऐसी निगरानी करने की व्यवस्था है ही नही कि बैंक इस 18 प्रतिशत राशि में से लघु व सीमांत किसानों को कितना देते हैं। हो यह रहा है कि इसमें से अधिकांश धानराशि बड़े किसान, कृषि फार्म वाले, बीज उत्पादन में लगी बड़ी कम्पनियॉ, कृषि यंत्र बनाने वाले उद्यमी तथा चाय बागान और फलों के बगीचे वाले असरदार लोग ले जाते हैं। बैंक सिर्फ यह दिखा देते हैं कि उन्होंने सकल ऋणराशि का 18 प्रतिशत कृषि कार्य हेतु वितरित कर दिया है। अगर यह जॉच ही कर ली जाय कि क्षेत्रवार उन्होंने कितना कृषि ऋण वितरित किया तो भी साफ हो जाय कि बैंक क्या खेल कर रहे हैं। गत वर्ष सूचना के अधिकार के तहत मॉगी गयी एक जानकारी में देश के एक बड़े राष्ट्रीयकृत बैंक ने बताया था कि उसने 75 प्रतिशत से अधिक कृषि ऋण सिर्फ मुम्बई की शाखाओं से ही बॉट दिया था! कारण साफ है कि मुम्बई में ही तमाम बड़ी-बड़ी बीज उत्पादक कम्पनियों व कृषि उपकरण निर्माताओं के कार्यालय हैं। कृषि उपकरणों का गोरखधंधा भी काफी बड़ा है। कृषि के नाम पर बनने वाले तमाम यंत्र और उपकरण का प्रयोग अन्यान्य कार्यो व उद्यमों में होता है, वैसे ही जैसे कृषि के लिए दी जा रही भारी छूट वाली उर्वरक और डीजल का लाभ ज्यादातर दूसरे लोग ही उठा रहे हैं। बीते पॉच वर्षों में केन्द्र सरकार ने कृषि ऋण पर दी जाने वाली धनराशि को ढ़ाई गुना से भी अधिक बढ़ा दिया है लेकिन हालात बताते हैं कि देश के किसानों की हालात में वांछित सुधार नहीं आ पा रहा है। महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र और उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का बुंदेलखंड इलाका इसका उदाहरण है।
                ध्यान रहे कि सरकार किसान क्रेडिट कार्ड की मार्फत दिए जाने वाले ऋण पर सिर्फ सात प्रतिशत ब्याज लेती है तथा समय से ऋण चुकाने वाले किसानों को एक से दो प्रतिशत व्याज दर की छूट भी देती है, जबकि अन्य कृषि ऋण 11 से 16 प्रतिशत की ब्याज दर पर हैं। दूसरे, कृषि ऋणों की वसूली में ज्यादा सख्ती न किये जाने की हिदायत भी सरकारें देती रहती हैं। यही कारण है कि बड़े किसान और तथाकथित उद्यमी इस सरकारी रियायत को झटक लेते हैं। छोटे किसानों को अपनी जरुरतों के लिए मजबूरी में सूदखोरों के पास जाना पड़ता है जो अंतत: या तो उनकी जमीन हड़प लेते हैं या पैसा वसूलने के लिए उन्हें तमाम तरह से उत्पीड़ित करते हैं। ऐसे साहूकारों या सूदखोरों को वित्तीय तकनीकी भाषा में 'शैडो बैंकिंग' कहा जाता है। यानी छद्म बैंकिंग। स्विटजरलैंड स्थिति अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्था 'फायनेन्सियल स्टैब्लिटी बोर्ड की ताजा रपट बताती है कि भारत में ऐसी शैडो बैंकिंग बहुत तेजी से फैल रही है और सरकार को इस पर रोक लगानी चाहिए। संस्था का ऑकलन है कि यह 20 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है और देश में इसका कारोबार 37 लाख करोड़ से ज्यादा का हो गया है। संस्था का सुझाव है कि नियम कानूनों के अभाव ने शैडो बैंकिग को देश की अर्थव्यस्था के लिये खतरनाक बना दिया है अन्यथा यह बैंकिंग का विकल्प हो सकती है। स्व. अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट ने जो बताया था कि देश में 84 करोड़ 60 लाख लोगों की औसत दैनिक आय रु. 09 से लेकर 19 के बीच में हैं, यह वर्ग अपनी जरुरतों के लिए इन्हीं साहूकारों व सूदखोरों के चंगुल में फॅंसता है।
               लघु व सीमांत किसान खेती में लगे रहें इसका सिर्फ एक उपाय उन्हें सरकारी प्रोत्साहन देना ही है। दुनिया के विकसित देशों में भी खेती सरकारी सहयता पर ही निर्भर है। अमेरिका जैसे देशों में तो किसानों को भारी मदद दी जाती है। भारत का सामाजिक और भौगोलिक ताना-बाना ऐसा है कि यहॉ खेती को सिर्फ बड़े किसानों या सामूहिक खेती के भरोसे छोड़ा ही नहीं जा सकता। ऐसे में किसानों को प्रोत्साहन और संरक्षण आवश्यक है। अफसोस ये है कि देश में बहुत बड़ी संख्या में ग्रामीण क्षेत्र अभी बैंकों से जुड़े नहीं हैं। 5000 से अधिक की आबादी वाले ग्रामीण क्षेत्रों में शाखा खोलने के लिए सरकार के दबाव के बावजूद बैंक इसलिए तैयार नहीं हैं कि इस पर खर्च बहुत आएगा और वहॉ व्यवसाय न के बराबर होगा। श्री प्रणब मुखर्जी के वित्त मंत्रीत्व में बैंकों ने इस पर साफ कह दिया था कि अगर सरकार धन दे तभी बैंक अपनी शाखा खोल सकते हैं। सरकारी दबाव के दबाव के बाद हालात यह है कि बैंकों ने गॉवों में शाखा खोलने के बजाय वहॉ अपने कमीशन एजेंट रख दिये हैं जो प्रकारान्तर से अनपढ़ गॉव वालों का शोषण करने में लगे हैं। यह स्थिति ठीक नहीं है। लघु और सीमान्त किसान अपने उत्पाद के लिए सरकार या बाजार के अच्छे मूल्य समर्थन के बावजूद खुशहाल नहीं हो सकते क्योंकि उनके पास बेचने को ज्यादा कुछ होता ही नहीं। वे खेती में लगे रहें इसके लिए उन्हें सरकारी सहायता चाहिए ही। ऐसे लोगों का खेती से विमुख होना सरकार के खाद्य संरक्षण कार्यक्रम को भारी चुनौती देगा।

स्त्री-पुरुष समानता की कीमत क्या होगी ? --- सुनील अमर

 दो घटनाओं से बात शुरु करना चाहूँगा। दोनों 40 साल से ज्यादा ही पुरानी हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवों में कहीं-कहीं एक बेहद गरीब जाति निवास करती है,जिसे वहॉ की स्थानीय बोली में वनराजा या वनमंशा कहा जाता है। ये कद-काठी, चाल-ढ़ाल, रहन-सहन तथा बोली आदि में आदिवासी सरीखे होते हैं,आबादी से काफी दूर बाग या इसी तरह के स्थान पर झोपड़ी डालकर रहते हैं,दोना-पत्तल बनाना इनका पुश्तैनी काम है। इसी वनराजा समुदाय की एक 35-40 वर्षीया स्त्री अपने पति के साथ एक दिन गॉव के एक संभ्रांत व्यक्ति के यहॉ आई और कहा कि ''बाबू, हम दोनों की 'खपड़कुच्ची' करवा दो।'' बाबू भी खपड़कुच्ची का मतलब नहीं जानते थे, सो उसी से पूछा कि यह क्या होता है?इस पर उस औरत ने कहा अब हमारी अपने मर्द के साथ और नहीं पट रही है, इसलिए हम 'बियाह' तोड़ना चाहते हैं। उसने आगे बताया कि खपरैल वाली छत में लगने वाला 'खपड़ा' जमीन पर रखकर पति-पत्नी दोनों अपने पैर से मार-मारकर तोड़ देंगें तो रिश्ता टूटा मान लिया जाएगा यानी कि तलाक हो जाएगा और यह काम समाज के किसी बडे अादमी के सामने होना चाहिए।

              इस पर बाबू ने जानना चाहा कि आखिर ऐसा क्या हो गया है कि रिश्ता तोड़ने की नौबत आ गई है? तब उस औरत ने कहा कि दिन भर काम हम करें, खाना हम बनायें, घर हम संभालें, सोते समय इसका पैर भी हम दबाऐं और यह दिन भर महुआ की शराब उतारे और उसे पीकर हमारी पिटाई करे। अब हम इसके साथ किसी भी सूरत में नहीं रहेंगे। हालांकि उसके पति ने उससे सुलह करने की काफी कोशिश की लेकिन उस औरत ने उसी वक्त 'खपड़कुच्ची' कर ली! कुछ समय पश्चात वह एक दूसरा पति ले आई और उसी गॉव में अलग छप्पर डाल कर रहने लगी!
              दूसरा वाक्या इससे जरा हट कर है। उप्र में एक महिला शिक्षाधिकारी हुआ करती थीं। पढ़ाई-लिखाई और फिर नौकरी की कुछ ऐसी व्यस्तता रही कि उम्र के 35-40साल निकल गये और वे शादी नहीं कर पाईं। बाद में उन्हें अपने पद और अपनी उम्र के माफिक कोई जॅचा ही नही। लेकिन शरीर की भी एक भूख होती है। पद और सामाजिक मर्यादा यहॉ भी इतना ज्यादा आड़े आती है कि इस भूख को आम आदमी की तरह मिटाना संभव नहीं दिखता। सो धीरे-धीरे उन्होंने अपने चपरासी, जो कि उनके घरेलू नौकर की भी तरह काम करता था, से ही इस भूख को शांत करना शुरु किया और एक दिन उन्हें उससे एक बच्चा भी हुआ। शिक्षाधिकारी ने तय किया कि वे उससे बाकायदा शादी कर लेंगी। इस कार्य में उस व्यक्ति का चपरासी का पद आड़े आ रहा था, सो उन्होंने उसकी नौकरी छुड़वा कर उसे कोई व्यवसाय शुरु करा दिया।
                इन दोनों घटनाओं का ज़िक्र यहाँ विवाह नामक संस्था के प्रसंग में है। ये घटनाऐं लगभग र्आशती पुरानी और समाज के दो सर्वथा विपरीत वर्ग से हैं। दोनों में सम्बनित स्त्रियों ने अपनी खुदमुख्तारी दिखाई, अपने पुरुषों का अपने हिसाब से इस्तेमाल किया और अपने जीवन की दिशा तय की। आज टूटते वैवाहिक सम्बन, अदालतों में बढ़ते तलाक के मामले और इन सबसे  निजात पाने के लिए प्रचलन में आ रहा 'लिव इन रिलेशन', इन सब के पीछे वजह या यो कहें कि डर, सिर्फ यह है कि साथ रह रहे स्त्री-पुरुष में से 'पत्नी' कौन बने? यह तो निश्चित है कि दोनों में से किसी एक के पत्नी बने बगैर तो विवाह नामक संस्था की गाड़ी दूर तक चलनी नहीं है। अब समानता के मुद्दे को लें। समाज के अर्थ-केन्द्रित होते जाने और वैश्वीकरण की परिघटना ने जिन सामाजिक संस्थाओं को सर्वाधिक क्षति पहॅुंचाई, उनमें सर्व प्रमुख हैं- परिवार और विवाह। इन दोनों पर इन दिनों मॅडराते खतरे को देखकर अब इनके बचे रहने पर ही संशय हो रहा है! समाज में धन के निर्णायक तत्त्व हो जाने के कारण सभी गुण और आदर्श अब गौण हो गये हैं। इस क्रम में ज्यादा से ज्यादा धन कमाने की होड़ ने पुरुषों को इस बात के लिये मजबूर किया कि वे अपनी स्त्रियों को भी धन कमाने के लिए मैदान में उतारें। धन कमाने के लिए योग्यता जरुरी थी और योग्यता के लिए पढ़ाई। पढ़ाई ने सिर्फ योग्यता ही नहीं दी, बुद्धि, विवेक और जागरुकता भी दी, और यही तीनों चीजें हैं जिनसे पुरुष हमेशा ही स्त्री को सप्रयास दूर रखता आया था।  यहॉ देखने वाली बात यह है कि जिस भी समाज में स्त्री अपने पुरुष के मुकाबले आर्थिक रुप से आत्मनिर्भर हुई, वहॉ प्राय: दो ही बातें हुईं-या तो उसका पुरुष उसके साथ पत्नी बनकर रहा या फिर छुटकारा! कई जगह तो इसका ऐसा दिलचस्प नजारा देखने को मिल रहा है कि वहॉ पुरुष अपनी स्त्री की पत्नी बना हुआ है! मसलन, जिन्हें खुद नौकरी नहीं मिली लेकिन जिनकी पत्नियों को नौकरी मिल गई, वे घर सँभालने लगे, पत्नियों को सायकिल या मोटरसायकिल पर बैठा कर उनके कार्यस्थल तक रोज लाने-ले जाने लगे और बच्चे भी संभाले। लेकिन जहॉ यह नहीं हुआ, चाहे पुरुष के भी कमाऊ होने के कारण या उसके अन्दर एक मर्द का दंभ होने के कारण, वहॉ टकराव हुआ। तो क्या यह माना जाय कि परिवार और विवाह नामक संस्थाऐं निष्प्रयोज्य हो रही हैं? और क्या इन संस्थाओं को बचा कर रखने के लिए वह कीमत चुकानी जरुरी है जो ये मॉगती हैं? स्त्री का मानसिक अनुकूलन करने के लिए हमारे प्राचीन ग्रंथों ने यह पारिभाषित किया कि परिवार रुपी गाड़ी के लिए पति और पत्नी दो पहिए के समान हैं लेकिन साथ में सारा जोर इस बात पर भी लगाया कि पति ही परमेश्वर है! फिर वो पहिया कैसे हुआ? लिव इन रिलेशनशिप का तो मूलभाव ही अस्थायित्व है, फिर इसमें परिवार की गुंजाइश कहॉ बचती है? और अगर बच्चे पैदा हुए, तो अलगाव के बाद उनकी परवरिश कौन करे?
                   तो क्या स्त्री-पुरुष समानता की कीमत हम परिवार को खत्म करके चुकायेंगे? कैरियर और रिलेशन, इन दो तत्त्वों ने आज के युवा को आत्मकेन्द्रित बना दिया है। कहना न होगा वह अब समाज के प्रति अपने दायित्वों को ही नकारने लगा है। संतान को जन्म दिये बगैर स्त्री-पुरुष का सम्बन बनाकर रखना क्या समाज और प्रकृति के प्रति अपराध नहीं है? समूची सृष्टि में ऐसा उदाहरण क्या और किसी जीव या वनस्पति में मिल सकता है? बहरहाल आज जहाँ हम आ चुके हैं, वहॉ से पीछे हटना तो मुमकिन नहीं। इसी के साथ यह भी मुमकिन नहीं कि स्त्री को माँ का लबादा ओढ़ाकर उसे ही बच्चे की समस्त जिम्मेदारियों का नैसर्गिक वाहक माना जाय। ऐसे में सवाल यह उठता है कि ऐसे युगलों को बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित कैसे किया जाय?स्पष्ट है कि राष्ट्र को ही आगे आकर यह जिम्मेदारी लेनी होगी। जो युगल बच्चे पैदा करने के बाद भी उनका पालन-पोषण न करना चाहें,उन्हें राष्ट्र पाले। अपने देश में अभी ऐसे युगलों की यह प्रवृत्ति खतरनाक चेतावनी के स्तर पर नहीं पहुँची है लेकिन शुरुआत हो चुकी है। स्त्री-पुरुष समानता आवश्यक है और साथ ही साथ परिवार भी लेकिन यह तभी मुमकिन है जब पैदा हुए बच्चे की जिम्मेदारी के मामले में माँ भी उतनी ही स्वतंत्र हो जितना कि पिता। देश की भावी माताओं को यह गारंटी राष्ट्र से मिलनी ही चाहिए।

Thursday, December 20, 2012

मंडी बन गये हैं मीडिया के सरोकार --- सुनील अमर



               मीडिया के बदलते सरोकारों पर अक्सर बहस होती रहती है और ऐसे निष्कर्ष भी निकाले जा रहे हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए प्राणवायु माने जाने वाले इस जन माध्यम की सोच व सरोकार में पतनशील परिवर्तन हो रहा है जो कि इस माध्यम के लिए ही नहीं बल्कि देश के राजनीतिक भविष्य के लिए भी घातक होगा। देश की राजधानी दिल्ली में दो सम्पादक कथित तौर पर घूस मॉगने के आरोप में जेल में निरुध्द हैं और अदालत ने उनकी जमानत याचिका भी इस आधार पर खारिज कर दी है कि जेल से छूटने पर वे गवाहों व सबूतों को प्रभावित कर सकते हैं। देश में पत्रकारिता के इतिहास में संभवत:यह पहली घटना है। इसी बीच देसी अखबारों ने कोलम्बिया की पॉप गायिका शकीरा, जो कि मॉ बनने वाली है, के ''गर्भस्थ भ्रूण का अल्ट्रासाउन्ड फोटो'' छाप कर बताया है कि होने वाला बच्चा लड़का है!गत माह ऐसे ही अखबारों ने एक और खबर बहुत महत्त्वपूर्ण बनाकर प्रकाशित की थी जिसमें बताया गया था कि इटली में मॉडलिंग करने वाली एक लड़की अपने कौमार्य की नीलामी कर रही है और उसकी इतने रुपयों की बोली लग चुकी है!
               बाजारवाद सारी दुनिया में पैर पसार रहा है और 'हार्डकोर' कम्युनिस्ट चीन भी अब इसकी चपेट में है। ऐसे में मीडिया भी अगर बाजार की वस्तु बन जाय तो आश्चर्य कैसा! आज अगर बाजार की परिभाषा बदली है तो बाजार ने अपने दायरे में आने वाली सभी चीजों को पुनर्परिभाषित किया है। बाजार का ध्येय वाक्य अगर 'शुभ और लाभ' है तो इसका उद्धोष है कि 'सब बिकता है।' इसलिए आश्चर्य नहीं कि आज बहुत से बड़े विचारक और मीडिया विशेषज्ञ अखबार समेत सभी समाचार माध्यमों को एक प्रोडक्ट मानने लगे हैं और किसी प्रोडक्ट को बेचने के लिए जिस तरह के दॉव-पेच किये जाते हैं, वो सब इस क्षेत्र में कमोवेश आ गये हैं। यही कारण है कि उपर जिन खबरों पर बहुत आश्चर्य व्यक्त किया गया है, वैसी खबरें अब मीडिया में बहुत आम हैं। बाजार का सिध्दांत है कि नयी वस्तु पुरानी को खिसका कर अपनी जगह बनाती है, सो बहुत सी खबरें दूसरे या तीसरे दर्जे से होती हुई बाहर हो चुकी हैं और उनका स्थान नये मिजाज की खबरों ने ले लिया है। इस परिवर्तन में दिक्कत उनके लिए आयी है जिनके पास अपनी आवाज नहीं थी और अखबार ही उनकी आवाज बनते थे। यह कैसी विडम्बना है कि आज अखबार तो भारी-भरकम और अत्यधिक विस्तार वाले हो गये हैं लेकिन उनका देश की उस तीन चौथाई आबादी से कोई सरोकार ही नहीं है जो दो वक्त की रोटी, कपडे अौर मकान को मोहताज हैं!
               समाज में अखबार की अवधारणा 'वॉच डॉग' यानी सजग प्रहरी के तौर पर की गयी है और यह अपेक्षा की जाती है कि देश-दुनिया में हो रहे परिवर्तनों व घटनाओं से वह लोगों को अवगत कराता रहेगा। इसके साथ ही अखबार का एक और महत्त्वपूर्ण काम है जनमत बनाना। हाल के वर्षों में हमने देखा कि अखबार या अन्य समाचार माध्यम ये सारे काम तो कर रहे हैं क्योंकि यह इनका गुण है लेकिन इससे फायदा कुछ विशिष्ट लोगों को ही पहुॅचाया जा रहा है। भारत जैसे देश में पत्रकारिता का स्वरुप ब्रिटेन, अमरीका, जापान या अन्य अमीर व विकसित देशों से भिन्न रहा है क्योंकि यहाँ की सामाजिक संरचना व आवश्यकताऐं भिन्न हैं। बीते दो दशक में देसी पत्रकारिता में उतना बदलाव आ गया है जितना पत्रकारिता के इतिहास में कभी नहीं आया था। देश की मुख्यधारा की पत्रकारिता कुछ गिने-चुने हाथों में सिमट गयी तो उसके सरोकार भी ऐसे ही हाथों के इर्द-गिर्द सिमट गये। यह कथित मुख्यधारा की पत्रकारिता आज इंडस्ट्री बन गयी है। आज इसके लक्ष्य हैं कि कैसे ज्यादा से ज्यादा पाठक बनें, उससे बाजार बने और बाजार से पैसा मिले। अब इस 'इंडस्ट्री पत्रकारिता' को न तो पैसा लेकर खबर छापने में कोई गुरेज है और न अपने स्वार्थ के लिए फर्जी खबर छापने से। बाजारवाद का 'सब बिकता है' का झंडा यहाँ इनके पहले पन्ने से दिखना शुरु हो जाता है और यहीं शकीरा के गर्भस्थ बच्चे का अल्ट्रासाउंड फोटो लगाया जाता है ताकि इसी बहाने पाठक इन बहुपृष्ठीय भारी अखबारों के भीतरी पन्नों तक जॉय जहॉ तमाम विज्ञापन और बिकी हुई खबरें उनका इंतजार करती रहती हैं। सभी जानते हैं कि इंडस्ट्री, पूॅजी की मोहताज होती है और पूॅजी का अपना चरित्र होता है! आज इस पूॅजी का चरित्र ही मीडिया का चरित्र हो गया है। जो मीडिया संस्थान पूॅजी के चपेटे में आने से बचे हुए हैं, उनका अपना अलग चरित्र बरकरार है।
              मीडिया के बदलते सरोकारों पर वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ एक दिलचस्प घटना का उदाहरण देते हैं। वे बताते हैं कि कुछ वर्ष पहले महाराष्ट्र के पुणे में हुई एक फैशन प्रतियोगिता का समाचार संकलन करने देश-विदेश के पॉच सौ से अधिक पत्रकार गये थे लेकिन वहीं निकट स्थित विदर्भ में हजारों की संख्या में आत्महत्या कर रहे किसानों की सुध लेने मात्र तीन पत्रकार गये थे जिनमें से एक स्वयं साईंनाथ थे! सारी दुनिया में मीडिया आज मुनाफे का खेल है। जो भी घटना या समाचार उसे मुनाफा दे सकता है, उसी में उसकी दिलचस्पी होती है। आप पूछ सकते हैं कि क्या 25-30 पृष्ठ के दैनिक अखबार और 24 घंटे के समाचार चैनल में सब कुछ मुनाफा दे सकने वाला ही होता है तो जवाब होगा कि हाँ, क्योंकि इन सबका जो प्राण-तत्त्व होता है वह मुनाफाखोर ही होता है। किसी अखबार या चैनल में करोड़ों-अरबों रुपया लगाने वाला व्यक्ति जाहिर है कि उससे मुनाफा और अपना हित चिंतन करेगा ही। अन्ना या रामदेव के आंदोलन की प्रस्तुति ये किसी समजासेवा के दायित्व से अभिभूत होकर नहीं करते बल्कि यह इन्हें एक ऐसी सनसनीखेज सामाग्री उपलब्धा कराता है जिस पर सवार होकर इनके बेशुमार विज्ञापन नोटों की बारिश में बदल जाते हैं! दूसरी तरफ इरोम चानू शर्मिला का मामला है जो वहॉ तैनात सशस्त्र बलों के अत्याचार के खिलाफ बीते 12 वर्षों से मणिपुर में लगातार भूख हड़ताल पर हैं, लेकिन जिन्हें एक बार भी तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया ने सर-माथे नहीं बैठाया क्योंकि उससे मीडिया को कोई लाभ नहीं दिखता। इसके बजाय अखबार के पहले पन्ने भी आज सिने कलाकारों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सी.ई.ओ., यहॉ तक कि माफियाओं की चर्चा से भरे रहते हैं लेकिन 24 पृष्ठ में चार पृष्ठ भी देश की उस 75प्रतिशत जनता के लिए नहीं होता जो कि हर प्रकार से पिस रही है। दर्शकों व पाठकों को हर हाल में बॉधकर रखना है इसलिए आज प्राय:सभी चैनलों पर बलात्कार सरीखी अत्यन्त शर्मनाक घटना को भी पचासों बार घुमा-फिराकर दिखाया जाता है। व्यावसायिक लाभ के लिए निर्ममता और निर्लज्जता की पराकाष्ठा यह है कि बलात्कार और हत्या जैसी घटनाओं को चैनल की स्टूडियों मे 'री-शूट' किया जाता है ताकि इसी बहाने दर्शक रुकें और टी.आर.पी. बढ़े। भूत-प्रेत के कल्पित किस्सों की भी बाढ़ सी आई हुई है। आज का मीडिया नितांत स्वार्थी हो गया है। अब तो तमाम प्रतिबध्द कही जाने वाली पत्र-पत्रिकाऐं भी इस गति को पहुॅच रही हैं।

Friday, November 16, 2012

फ़ैज़ाबाद को जलाने की साजिश किसकी ? - सुनील अमर





                 फैज़ाबाद देशद्रोहियों की साजिश का गंभीर शिकार होते-होते बचा। जो शहर वर्ष 1989 से लेकर वर्ष 1992 तक देश व समाज तोड़ने वालों के झॉसे में नहीं आया उसे एक बार फिर जलाने की कोशिश की गयी लेकिन यहाँ की जनता निश्चित ही बधाई की पात्र है जिसने हमेशा की तरह इस बार भी धर्य का परिचय देकर असमाजिक तत्त्वों को मुॅहतोड़ जवाब दिया। बीते माह 25 अक्तूबर को दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन के दौरान पूर्व नियोजित ढॅग़ से उपद्रव कर एक समुदाय की दुकानें जलायी गयीं। इनकी चपेट में आकर कहीं-कहीं दूसरे समुदाय की भी दुकानें जलीं। दंगाई कितने पूर्व नियोजित ढ़ॅग से काम कर रहे थे, इसका पता इसी से चलता है कि जल रही दुकानों की आग बुझाने आ रहे सरकारी दमकल को रास्ते में कथित भीड़ ने रोक दिया। फलस्वरुप विपरीत दिशा में 55किमी दूर टांडा स्थित नेशनल थर्मल पॉवर कारपोरेशन से दमकलों को मॅगाया गया। इस दौरान यहॉ की स्थानीय जनता ने कितने धर्य का परिचय दिया, इसका पता इसी से लगाया जा सकता है कि लगभग एक पखवारे तक र्कफयू लगा होने तथा बार-बार उपद्रव भड़काने की कोशिशों के बाद भी यहॉ जनहानि नहीं होने पायी है। शहर से दूर की एक बाजार में दो मौतें हुई बतायी जा रही हैं। घटना के एक पखवारे बाद अब शासन-प्रशासन की नाकामियॉ खुलकर सामने आ रही हैं।
                 ऐतिहासिक व जुड़वा शहर अयोध्या और फैजाबाद अमन के शहर हैं। हिन्दू-मुसलमान की अच्छी खासी तादाद होने के साथ-साथ ही यहाँ के लोगों का साम्प्रदायिक सद्भाव भी गज़ब का है। अनुमान लगाइए कि जिस अयोध्या को लेकर देश-दुनिया में बार-बार उत्तेजना देखी गयी वही अयोधया इन दिनों फैजाबाद में हो रहे  उत्पात में भी न सिर्फ शांत बल्कि निर्लिप्त सी रही और वहॉ पूजा-नमाज के रोजमर्रा कामों के अलावा दुर्गापूजा,दशहरा व बकरीद के सारे आयोजन हमेशा की तरह दोनों धर्मो के लोगों ने मिलकर मनाये। साफ है कि फैजाबाद को जलाने की साजिश कुछ ऐसे लोगों की थी जिन्हें इस तहस-नहस से किसी न किसी प्रकार का लाभ होता दिख रहा था। हैरानी तो प्रशासनिक निकम्मेपन पर है कि वो कैसे ऑख मॅूदकर व हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा! फैजाबाद नगर के एक बाहरी मोहल्ले देवकाली स्थित एक मंदिर की प्रतिमा लगभग डेढ़ माह पहले चोरी चली गयी। प्रतिमा आस्था व प्राचीनता के कारण भले कीमती रही हो लेकिन धातु के तौर पर वह कोई बहुत कीमती नहीं थी। उसके चोरी जाने की खबर से स्थानीय श्रध्दालुओं में क्रोध व उत्तेजना की लहर दौड़ गई। पुलिस प्रशासन हरकत में तो तुरन्त आया लेकिन इस मामले में इतनी ज्यादा राजनीतिक दखलन्दाजी थी कि वह मनचाहे लोगों पर हाथ नहीं डाल पाया। मामला लम्बा खिंचा तो धार्मिक आस्था का दोहन कर अपना उल्लू सीधा करने वाले भी सक्रिय हो गये। प्रशासन के विरुध्द कई बार प्रदर्शन हुए। शहर के हृदय स्थल चौक घंटाघर पर स्थानीय मुसलमानों ने भी एक दिवसीय धरना देकर मूर्ति बरामदगी की मॉग की।  ध्यान देने की बात यह है कि अयोध्या में मंदिरों से मूर्ति चोरी होने की घटनाऐं प्राय: ही होती रहती हैं क्योंकि तमाम मंदिरों में अष्टधातु आदि की बेशकीमती मूर्तियॉ स्थापित हैं व पीतल आदि धातुओं के भारी-भरकम कलश व घंटे लगे हुए हैं। अक्सर ही ऐसी चोरियों में उन मंदिरों के रखवालों की संलिप्तता उजागर होती रहती है। कुछ वर्ष पहले जनपद की एक बाजार में स्थित मंदिर से अष्टधातु की एक देव प्रतिमा चोरी गयी थी जिसकी कीमत तीन करोड़ से भी अधिक ऑकी गयी थी लेकिन ऐसी सारी घटनायें कभी भी धार्मिक उत्तेजना नहीं बल्कि पुलिस ततीश का ही हिस्सा बनी रहीं।
                   बहरहाल, ऐसी ही चोरियों के क्रम में जब उक्त देवकाली मंदिर में चोरी हुई तो उसे हवा देने जनपद गोरखपुर स्थित गोरखनाथ धाम मंदिर के महंत व भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ 13अक्तूबर को फैजाबाद आ पहुॅचे। उनके आने पर स्थानीय प्रशासन उनके आगे दंडवत हो गया। उनकी मान-मनौव्वल होने लगी तथा उनसे सिफारिश की गयी कि वे अपने कार्यक्रम को सीमित करें। जवाब में योगी आदित्यनाथ ने अपने भाषण में कहा कि प्रदेश सरकार कब्रिस्तानों की सुरक्षा के लिए सरकारी धान फॅूक रही है और मंदिर लूटे जा रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा कि अगर 48घंटे में मूर्ति बरामद न की गई तो 'बड़ा आंदोलन'छेड़ा जाएगा। इसके जवाब में उसी दिन समाजवादी पार्टी की प्रदेश कार्यसमिति के सदस्य व लोहियावादी विचारक सूर्यकांत पान्डेय ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि दुर्गा पूजा व दशहरा के अवसर पर संघ व अन्य कट्टरपंथी ताकतें शहर का अमन चैन बिगाड़ना चाहती हैं। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि भाजपा व संघ को अयोध्या-फैजाबाद से अपने विधायक का हार जाना हजम नहीं हो रहा है और वे इसका बदला शहर की शांति व्यवस्था खराब करके लेना चाहती हैं। यही हुआ भी और ऐन 10 दिन के बाद शहर दंगे की भेंट चढ़ गया।
              फैजाबाद शहर के विधान सभा क्षेत्र का नाम अयोध्या है। यहॉ से वर्ष 1991 में भाजपा प्रत्याशी जीता था और वह तब से लगातार जीतता रहा। इस दौरान भाजपा यहॉ से संसदीय सीट जीती और हारी भी लेकिन विधानसभा सीट पर उसका कब्जा 21साल तक लगातार बना रहा। इस बार हुए विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के उपाध्यक्ष रहे तेज नारायण पाण्डेय को अपना प्रत्याशी बनाया और उन्होंने भाजपा के 21साल के जीत के इतिहास को हार में बदल दिया। सभी जानते हैं कि भाजपा के लिए अयोध्या का क्या मतलब है। अयोध्या की अशांति से ही भाजपा को यह सीट मिली थी। अयोधया में ही विश्व हिंदू परिषद ने अपना मुख्यालय 'कारसेवक पुरम्' बना रखा है जो प्रकारान्तर से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भी क्षेत्रीय मुख्यालय है। अयोध्या में अपनी हार से भाजपा व उसके सभी अनुसंगी सकते में आ गए। उसकी इस हार का संदेश सारी दुनिया में गया। अभी दो माह पूर्व विहिप ने घोषणा की है कि वह आगामी कुंभ मेले में अपनी धार्म संसद की बैठक में अयोध्या में मंदिर निर्माण आंदोलन पर विचार करेगी तथा इसके लिए हिंदू जनमानस को फिर से जगायेगी। वह दस रुपये का कूपन बॉटकर चंदा एकत्र करने के अभियान में भी लगी है।
              लेकिन फैजाबाद का प्रशासन इन सबसे अनजान रहा। यहॉ की खुफिया इकाइयों की हालत बहुत ही खराब है तथा ये लोग खुद सुरागरशी न कर पत्रकारों से ही सूचनाऐं पाकर प्रशासन को देते रहते हैं। सबसे संगीन हालत निकटवर्ती कस्बे भदरसा की रही जहॉ उसके टाउन एरिया चेयरमैन की भूमिका बहुत गलत बतायी जा रही है। भाजपा को छोड़कर बाकी सभी राजनीतिक दलों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी थी कि शहर में दुर्गापूजा के दौरान उपद्रव किया जा सकता है लेकिन प्रशासन ने एक न सुनी बल्कि हैरत की बात है दुर्गापूजा की प्रतिमाओं के विसर्जन के दिन शराब की दुकानें खुली थीं जिन्हें कि ऐसे अवसरों पर बंदी का आदेश रहता है। पुलिस लाइन में ही यहॉ का अग्निशमन विभाग है लेकिन उसके टैंकरों में पानी ही नहीं था जबकि ऐसे टैंकरों को पानी से भरकर ही खड़ा करने का प्राविधान है।
                फैजाबाद व उसके उपद्रवग्रस्त आधा दर्जन कस्बों में हालात फिलहाल सामान्य है लेकिन तनाव बढ़ाने की कोशिशें लगातार हो रही हैं। अफसोस की बात है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव फैजाबाद नहीं आये। वे महज अधिकारियों का तबादला करके ही फैजाबाद की जनता के घावों पर मरहम लगाना चाह रहे हैं। शासन ने उपद्रवियों के प्रतिकिसी भी प्रकार की सख्ती का परिचय नहीं दिया है जिसका नतीजा आगे चलकर और खराब हो सकता है क्योंकि ये दंगा राजनीतिक रोटी सेंकने का प्रयास है।

Saturday, October 20, 2012

राष्ट्र-विकास में कृषि की घटती हिस्सेदारी --- सुनील अमर

देश के सकल विकास में कृषि की हिस्सेदारी साल दर साल घटती जा रही है। सरकार की अपनी ही रिपोर्ट बताती है कि यह छह वर्षों में 19 प्रतिशत से घटकर 14 प्रतिशत पर आ गई है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि देश में अनाज का उत्पादन काफी बढ़ा है और सरकारी खरीद के कारण हमारे गोदाम न सिर्फ जरुरत से ज्यादा भरे हैं बल्कि तमाम अनाज बाहर खुले में भी रखना पड़ा है। कृषि की घटती हिस्सेदारी का एक दूसरा अर्थ यह भी है कि किसान खेती छोड़कर अन्य कार्यों में लग रहे हैं तथा कृषि योग्य जमीन घट रही व लागत बढ़ रही है। कृषि प्रधान देश होने के नाते भारत के लिए यह स्थिति ठीक नहीं कही जा सकती। देश में कृषि पर निर्भरता भी घटकर आधी से भी कम रह गयी है।
                गत दिनों कृषि से सम्बन्धित सरकारी ऑकड़े पेश किए गए जिसमें बताया गया है कि बीते आठ साल में जीडपी यानी सकल विकास में कृषि की भागीदारी पॉच प्रतिशत कम हो गयी है। वर्ष 2010 में केन्द्रीय श्रम मंत्रालय ने संसद में अपनी एक सर्वे रपट पेश की थी जिसमें बताया गया था कि कृषि पर व्यक्तियों की निर्भरता घटकर अब आधी से भी कम यानी सिर्फ 45.5 प्रतिशत ही रह गयी है। एक सरकारी ऑकड़े के ही अनुसार वर्ष 2004-05 में कुल 18.30 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि देश में थी जो अन्यान्य कारणों से घटकर वर्ष 2007-08 में 18.24 करोड़ हेक्टेयर रह गयी है यानी कि करीब छह लाख हेक्टेयर जमीन कम हो गयी है।
               सभी जानते हैं कि दुनिया का जिस तरह से वैश्वीकरण हुआ और अब आर्थिक उदारीकरण हो रहा है उसमें प्रत्येक देश के लिए कृषि प्राथमिक नहीं बल्कि तीसरे, चौथे या कहीं-कहीं तो आखिरी पायदान पर भी चली गयी है। कृषि की तरफ उतना ही ध्यान है कि यह नागरिकों की उदरपूर्ति के लिए आधारभूत अनाज ( जैसे गेहॅू-धान ) का उत्पादन करती रहे। अपने देश में कृषि के लिए न सिर्फ विविध मौसम उपलब्ध हैं बल्कि लगभग 64 प्रकार की मिट्टी भी है जिसमें प्राय: सभी फल, सब्जी और फसलें ली जा सकती हैं। बावजूद इसके आलम यह है कि देश के किसान खेती से विरक्त होते जा रहे हैं। जाहिर है कि इसके पीछे अपेक्षित सरकारी सहायता और सहूलियत का न मिलना तथा लगातार छोटी और अलाभकारी होती जा रही कृषि जोत ही मुख्य कारण हैं। दुनिया के अन्य विकसित देशं के मुकाबले हमारे देश में कृषि को बहुत कम राजकीय संरक्षण है। हमारे यहॉ प्रति किसान परिवार की औसत मासिक आय आज भी 2400 रुपये से कम है!
               इसके अलावा तमाम ऐसे अन्य कारक हैं जो किसानों को हतोत्साहित कर खेती छोड़ने को बाधय करते हैं। असल में जैसे चिकित्सा, अध्यापन, वकालत और संगीत आदि पहले व्यवसाय न होकर, वृत्ति थे वैसे ही कृषि भी एक वृत्ति ही हैं, यह अलग बात है कि आज लगभग सभी वृत्तियाँ व्यवसाय में बदल गयी हैं। बड़े किसानों या फार्म हाउस वालों की बात छोड़ दी जाय तो छोटा किसान आज भी अपनी धारती माता को छोड़ने के बारे में सोच नहीं पाता, भले ही उसे तमाम तरह के घाटे व नुकसान इससे हो रहे हों। यही कारण है कि किसान भारी तादाद में आत्महत्या कर रहे हैं। प्रकृति की मार, बाजार का खेल तथा साहूकारों के शोषण के बाद अब एक और कारक भी किसानों के उत्पीड़न में शामिल हो गया है- हायब्रिड के नाम पर निर्वंश बीज। यह देखने में आ रहा है कि कीटरोधी तथा अधिक उपज देने वाले के तौर पर प्रचारित हो रहे तथाकथित हायब्रिड बीजों में ऐसे निर्वंश बीज भी आ रहे हैं जो खेत में तैयार होने पर तो बहुत अच्छे लगते हैं लेकिन उनमें या तो बीज ही नहीं होते या फिर इनके बीज में अंकुरण क्षमता ही नहीं होती। गत वर्ष बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान आदि प्रांतों में हजारों किसानों ने उड़द, तिल व मक्का के ऐसे ही बीज बोये और नतीजे में उनके सामने निर्वंश बीज आये। इन फसलों की बालें तो बड़ी-बड़ी और तंदुरुस्त आयीं लेकिन उनमें दाने नहीं थे। किसान लुट गये! उनकी सिर्फ एक फसल नहीं बरबाद हुई बल्कि अगली फसल बोने को भी उन्हें लाले पड़ गये। ऐसी ही परिस्थितियों में किसान सूदखोरों के जाल में फॅंस जाता है।
              वर्ष 2010 में बीज बिल में यह प्रावधान किया गया था कि बीजों की शुध्दता और उर्वरता यानी अंकुरण क्षमता को मानकों के अनुरुप न रखने पर एक लाख रुपये का जुर्माना तथा नकली बीज बेचने पर एक साल की सजा व पॉच लाख रुपये का जुर्माना देना होगा। यह नाकाफी है। इसमें किसानों को कुछ नहीं मिलता और इस बात के प्राविधान किये जाने चाहिए कि न्यूतनतम क्षतिपूर्ति किसानों को मिले। देश में अभी जो नामी-गिरामी बीज कम्पनियॉ काम कर रही हैं उनमें से पॉयनियर, मायको व मोंसेंटो ने निर्वंश बीजों को बेचा बल्कि राजकीय बीज निगम के बीज भी निर्वंश साबित हुए लेकिन कानून में ऐसी कम्पनियों पर जिम्मेदारी डालने की व्यवस्था ही नहीं है। देश में फसल बीमा योजना लागू है लेकिन आम किसान उससे वाकिफ नहीं है। सहकारी समितियों पर सदस्य किसान के उर्वरक खरीदने पर स्वत: ही एक अल्वावधि का बीमा लागू हो जाता है जो किसानों के दुर्घटनाग्रस्त होने पर क्षतिपूर्ति करता है लेकिन यह भी कागजों में ही है और क्योंकि अधिकांश सहकारी समितियॉ भ्रष्टाचार की शिकार हैं, इसलिए यह योजना प्रभावी नहीं है।
               कृषि की तरफ पर्याप्त धयान न दिये जाने से हालात असंतुलित हो गये हैं। एक तरफ तो धान-गेहॅू का इतना अधिक उत्पादन हो रहा है कि हमारे सरकारी भंडारों में इसे रखने की भी जगह नहीं है लेकिन दूसरी तरफ किसान बदहाल है और उसकी आत्महत्या करने की दर में बढ़ोत्तरी हो रही है। असल में कृषि जोतों के निरंतर छोटा होते जाने तथा उनपर निर्भरता बढ़ने से भी ऐसी समस्याऐं हो रही हैं। इनका एक समाधान बापू ने बताया था, कुटीर उद्योग के रुप में। वास्तव में कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देकर सरकारें गॉव की आबादी को गॉव में ही रोक सकती हैं। कुछ उत्पादों को कुटीर उद्योग के तौर पर चिन्हित कर उन्हें बड़े उद्योगों के लिए मना कर दिया जाय। बड़े उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं पर ज्यादा कर लगाकर छोटे-लघु व कुटीर उद्योगों को संरक्षण दिया जा सकता है। ऐसा किये जाने पर किसान अपनी छोटी खेती से बचे समय में घर पर या नजदीक के किसी उत्पादन केन्द्र पर कामकर अपनी आय बढ़ा सकते हैं। वर्तमान समय में पशुधन पर भी ज्यादा जोर नहीं दिया जा सकता क्योंकि जहाँ खेत कम हैं वहॉ इनके लिए चारे की समस्या आ जाती है। काफी अरसे से गोदाम और छोटे शीतगृहों की देश व्यापी श्रंखला बनाने की बात केन्द्र व राज्य सरकारें कर रही हैं लेकिन अभी यह क्रियान्वित नहीं हो पाया है। असल में कृषि में सरकारी निवेश ही काफी कम है। राज्य सरकारें तो और भी उदासीन हैं। सरकारी निवेश बढ़े और ठोस योजनाएं बनें तो निजी क्षेत्र भी इसमें अपना निवेश करे। अब इस सच्चाई से मुॅह नहीं मोड़ा जा सकता कि अमेरिका जैसा देश भी अपने किसानों को मुक्तहस्त अनुदान बॉट रहा है ताकि किसान खेती के काम में लगे रहें और अनाज उत्पादन होता रहे। (15 अक्टूबर-2012 )

Wednesday, October 17, 2012

मुलायम के दबाव में उ.प्र सरकार -- सुनील अमर


देश के सबसे युवा मुख्यमंत्री के रुप में अखिलेश यादव ने लगभग छह माह पूर्व उत्तर प्रदेश जैसे महाप्रदेश की बागडोर संभाली थी। इससे पूर्व अखिलेश ने कभी भी शासन में किसी दायित्व को नहीं संभाला था। इसलिए हर लिहाज से इस नये और युवा मुख्यमंत्री के कार्यकाल को ऑकने के लिए यह समय अत्यन्त कम है फिर भी चुनाव में किये गये अपने वादों पर उन्होंने अमल भी शुरु कर दिया है। बेरोजगारों को भत्ता तथा राजकीय नहरों से फसलों की मुत सिंचाई तथा कन्या विद्या धन जैसी योजनाऐं शुरु की जा चुकी है तथा किसानों के कर्जमाफी जैसी कई अन्य घोषणाओं के क्रियान्वयन पर मंथन चल रहा है। लिंगदोह समिति की सिफारिशों के अनुरुप छात्रसंघों के चुनाव कराने की घोषणा कर दी गई है।
                अखिलेश के पिता श्री मुलायम सिंह यादव सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। चुनाव परिणाम आने के बाद कई दिनों तक यह उहापोह बना हुआ था कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा! अखिलेश कहते थे कि नेताजी (मुलायम सिंह को पार्टीजन इसी सम्बोधन से बुलाते हैं) ही मुख्यमंत्री बनेंगें और नेता जी कहते थे कि अखिलेश बनेंगें। दोनों के बयानों से यह बिल्कुल साफ लगता था कि दोनों ही मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। असल में यह एक परिवार की राजनीतिक विरासत का तनावपूर्ण हस्तांतरण था जिसमें मुलायम सिंह ने बहुत धौर्य और दूरगामी सोच से काम लिया। चुनाव प्रचार से भी पहले से पिता-पुत्र एक साथ न के बराबर देखे जा रहे थे। जानना दिलचस्प होगा कि अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने के फैसले के बाद जब पिता-पुत्र यानी मुलायम-अखिलेश एक ही गाड़ी में बैठकर सपा मुख्यालय से बाहर निकले तो यह एक खबर बन गयी थी कि आज मुलायम-अखिलेश एक ही गाड़ी में बैठै!
               उत्तर प्रदेश से हटने के बाद स्वाभाविक है कि मुलायम सिंह के पास राष्ट्रीय राजनीति का ही विकल्प बच रहा था क्योंकि देश के किसी अन्य राज्य में सपा का कोई जनाधार नहीं है। देश में जितने भी क्षेत्रीय राजनीतिक दल हैं उसमें सपा प्रमुख ऐसे व्यक्ति हैं जो केन्द्रीय राजनीति में सबसे ज्यादा सक्रिय हैं। वह न सिर्फ केन्द्रीय रक्षा मंत्री रह चुके हैं बल्कि एक समय (1996 में) तो प्रधानमंत्री बनते-बनते भी रह गये थे। सुधी पाठकों को याद होगा कि केन्द्रीय रक्षा मंत्री रहते हुए भी मुलायम सिंह यादव के लिए उत्तर प्रदेश ही समूचा हिन्दुस्तान था और वे जरा सा भी मौका मिलते ही रक्षा वायुयानों के काफिले के साथ लखनऊ आ धमकते थे! अब मुलायम सिंह को लगता है कि केन्द्र में ऐसी राजनीतिक परिस्थितियाँ बन चुकी हैं कि वे एक बार फिर अपने खोये हुए अवसर को पाने का प्रयास कर सकते हैं। यह तभी संभव है जब उनकी पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव में इतनी सीटें प्राप्त करे कि वे दबाव की राजनीति कर सकें। मुलायम ने कई बार कहा भी है कि अगर उन्हें 50 से अधिक सीटें मिलती हैं तो उन्हें प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक नहीं सकता। यह 50 सीटें उन्हें उत्तर प्रदेश से ही मिलने की उम्मीद है और इसे पाने के लिए स्वाभाविक हैं कि वे राज्य सरकार को इस्तेमाल कर रहे हैं। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर केन्द्र सरकार को लेकर मुलायम सिंह के कई फैसले ऐसे हैं जो अगर अखिलेश सिंह को करने होते तो शायद वे दूसरी तरह या जरा बाद में करते।
                  मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सामने आज दो तरह की राजनीतिक चुनौतियॉ हैं- एक तो आगामी लोकसभा चुनाव तथा दूसरा, विधानसभा का अगला चुनाव। अखिलेश के उपर अगर मुलायम सिंह की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का बोझ न हो तो उनके पास साढ़े चार साल का अच्छा खासा वक्त है और वे अपनी प्रबल बहुमत की सरकार के सहारे अपनी चुनावी घोषणाओं को बिना किसी अफरा-तफरी के अमली जामा पहना सकते हैं लेकिन उनकी सरकार की एक अग्नि परीक्षा लोकसभा चुनाव के रुप में सामने है जिसके लिए वक्त बहुत कम बचा है और मुसलमानों को खुश करने जैसी जिन योजनाओं के क्रियान्वयन से लोकसभा चुनाव में सीटें बढ़ाने का प्रयास मुलायम सिंह कर रहे हैं उनसे प्रदेश का दूसरा वर्ग खासा नाराज हो रहा है। इस काम में मुलायम सिंह ऐसे दत्त-चित्त होकर लगे हैं कि उनकी सबको साथ लेकर चलने की समाजवादी सोच जाने कहॉ तिरोहित हो गयी है। मुलायम के पुराने साथी तथा सपा का मुस्लिम चेहरा बताये जा रहे कैबिनेट मंत्री आजम खॉ प्रदेश में सुपर मुख्यमंत्री बन गये हैं। उनकी कार्यप्रणाली इतनी निरंकुश और बदमिजाज हो गयी है कि पार्टीजनों से लेकर नौकरशाह तक त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। आजम की ही तरह कई और वरिष्ठ मंत्री हैं जो आज भी अखिलेश को लड़का ही समझते हैं। इन्हें बर्दाश्त करना अखिलेश के लिए अपरिहार्य हो गया है। स्वाभाविक है कि अगर पिता मुलायम सिंह का दबाव न होता तो या तो ये मंत्री अपनी आदतें सुधारते या फिर बाहर का रास्ता देखते। मुलायम की मजबूरी यह है कि वे अपने इन पुराने साथियों को इस वक्त नियंत्रित नहीं कर सकते क्योंकि उनकी निगाह निकटस्थ लोकसभा चुनाव पर है। मुलायम सिंह के एक और पुराने साथी तथा फिलहाल कॉग्रेसी के केन्द्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा इन दिनों फिर मुलायम के गुन गाने लगे हैं। लोकसभा चुनाव में कॉग्रेस के संदिग्धा भविष्य से आशंकित श्री वर्मा अगर सपा में शामिल होते हैं तो वह निश्चय ही अखिलेश के लिए दूसरे आजम खाँ साबित होंगें।
                 केन्द्र की कॉग्रेसनीत संप्रग सरकार ममता-माया-मुलायम की बैसाखी पर टिकी है जिसमें से अपनी घोषणा के अनुरुप ममता बनर्जी ने संप्रग से किनारा कर लिया है। इसी मानसून सत्र में कोयला आवंटन घोटाले के मुद्दे पर मुलायम सिंह ने वाम दलों के साथ मिलकर संसद पर धरना दिया था और उनके तेवर कॉग्रेस पर बेहद आक्रामक थे लेकिन अचानक ही वे पलटी मार गये और कॉग्रेस के गुण गाने लगे। पता नहीं लोकसभा चुनाव में मुलायम अपनी इस कला से कौन सा लाभ उठायेंगें लेकिन यह सच है कि उत्तर प्रदेश में अखिलेश की बोलती बंद है। समर्थन के मामले पर अखिलेश अगर ममता बनर्जी जैसा स्टैंड ले सकते तो विधानसभा चुनावों में उनका ज्यादा भला हो सकता था। सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर मुलायम ने विरोध कर अगड़ों के पक्ष में जो स्टैंड लिया था, उनके इस कृत्य ने उसे नेपथ्य में डाल दिया है।
                मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में 50-60 सीटें पाने का मंसूबा रखते हैं। प्रदेश में वोटों का बॅटवारा सिर्फ कॉग्रेस और सपा के बीच ही नहीं होगा, उसमें भाजपा और बसपा भी होगी। प्रदेश में अभी लोकसभा चुनाव लायक माहौल सपा सरकार नहीं बना पाई है। ऐसे में चुनाव अगर समय पूर्व होते हैं तो सपा को जितनी सीटें पिछले लोकसभा चुनाव में मिली हैं उन्हीं को संभालना बड़ी बात होगी। प्रदेश की कुल 80 सीटों में ही सपा, भाजपा, बसपा और कॉग्रेस को हिस्सा मिलना है। हो सकता है कि कॉग्रेस अपनी मौजूदा सीटों में से भी कुछ को खो बैठे लेकिन उसकी खोयी सीट सपा को ही क्यों मिले, यह एक बड़ा और तकनीकी प्रश्न है। कॉग्रेस को अंधा भक्त की तरह समर्थन दे रही सपा अगर अपनी मौजूदा लोकसभा सीटों में से भी कुछ को खो देती है तो यह अखिलेश यादव की सरकार के लिए काफी संकट की बात होगी। अखिलेश के किसी भी बयान से आज तक यह नहीं लगा है कि वे केन्द्रीय राजनीति में किसी प्रकार की रुचि ले रहे हैं| 0 0 

समाचारों के प्रस्तुतिकरण पर प्रश्नचिह्न -- सुनील अमर

माचारों के संकलन और उनके प्रसारण में कितनी आजादी होनी चाहिए, यह विषय दुनिया भर में शुरु से ही अनिर्णीत रहा है। समाचार माध्यमों के जन्म के बाद से ऐसे अनेक अवसर दुनिया भर में आये हैं जब यह महसूस किया गया कि इन माध्यमों ने अपनी हदें लाँघी हैं और उसी के साथ-साथ ऐसी आवाजें भी उठीं कि इन्हें नियंत्रित किया जाना चाहिए। विश्व में ऐसे अनेक देश हैं जहाँ लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के बावजूद प्रेस को नियंत्रित किया गया है। अपने देश में भी आपातकाल के अलावा कई बार ऐसे प्रयास हो चुके हैं लेकिन अंतत: यही उचित माना गया कि यह अति महत्त्वपूर्ण माध्यम स्व-नियंत्रित रहे और अपनी हदें भी खुद ही निर्धारित करे। यह सब आरोप और मान्यताऐं लम्बे समय से ऐसे ही खुसर-पुसर तरीके से चल रही थीं लेकिन नब्बे के दशक के बाद के सूचना विस्फोट ने तो जैसे सारी सीमा ही तोड़ दी। इस विस्फोट ने जिस इलेक्ट्रॉनिक माध्यम को जन्म दिया उसने तो 'खुल जा सिम-सिम' के मंत्र को ही जैसे साकार कर दिया! यह सच है कि आज समाचार माध्यमों की स्वतंत्रता को काबू में करने की जितनी भी मॉगें की जा रही हैं वो तीन चौथाई इलेक्ट्रॉनिक माध्यम को लेकर ही है। इस माध्यम ने नैतिकता और मर्यादा की सामाजिक मान्यताओं का कुछ ऐसा उल्लंघन किया कि इसकी देखा-देखी प्रिंट मीडिया भी बहक उठा। मुम्बई में ताजमहल होटल पर हुए आतंकी हमले के बाद एक बार बड़ी शिद्दत से मीडिया की रिपोर्टिंग और उसकी लक्ष्मण रेखा पर चर्चा शुरु हुई। इस प्रकरण पर ताजा दखल दिल्ली उच्च न्यायालय का है।
               बच्चों से जुड़ी मीडिया रिपोर्टिंग के एक मामले पर सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने बीते पखवारे न सिर्फ एक दिशा निर्देश जारी किया बल्कि साफ-साफ कहा कि मीडिया को संयम और संतुलन बरतते हुए न्यायालय द्वारा जारी दिशा निर्देशों का पालन करना चाहिए। मामला यह था कि इसी साल की शुरुआत में दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में दो साल की एक बालिका भर्ती करायी गई जिसे एम्स के अधिकारियों ने फलक नाम दिया क्योंकि भर्ती के समय बालिका अनाथ थी। उसे गंभीर चोटें आई थीं और बावजूद सारे संभव उपचार के वह तीन महीने बाद हृदयाघात के कारण चल बसी। आशंका थी कि बच्ची की निर्ममता पूर्वक पिटाई की गई थी। लम्बे अरसे तक यह प्रकरण मीडिया में प्रमुखता से छाया रहा और इसने कई तरह की सामाजिक बहसों को भी जन्म दिया। इस दौरान मीडिया ने फलक के वास्तविक माता-पिता की खोज कर यह भी पता लगाया था कि कैसे वह देह मंडी की उत्पाद बनकर इस गति को पहुँची थी। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक वकील ने इस सम्बन्ध में वहाँ के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखकर शिकायत की थी कि जिस प्रकार से समाचार माध्यम दो साल की बच्ची फलक के बारे में उसके फोटो और तमाम निजी जानकारियाँ प्रचारित कर रहे हैं, उससे उसकी निजता तथा 'किशोर वय न्याय कानून' यानी जे.जे.एक्ट का उल्लंघन है। न्यायालय ने इसी पत्र पर संज्ञान लेते हुए न सिर्फ मामले की सुनवाई की बल्कि एक कमेटी का गठन भी किया जिसमें बाल न्यायालय बोर्ड के पीठासीन अधिकारी, राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग (एन.सी.पी.सी.आर.) केन्द्र व दिल्ली सरकार के सम्बन्धित अधिकारी, स्वयं सेवी संस्था, मीडिया और भारतीय प्रेस परिषद के एक-एक सदस्य को शामिल किया गया था। इस कमेटी ने बीती फरवरी में ही अपनी अनुशंषा न्यायालय को सौंप दी थी जिसमें सिफारिश की गई है कि बच्चों से सम्बन्धित मामलों में बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की मीडिया की आदत पर रोक लगायी जानी चाहिए तथा बच्चों की पहचान व उनकी निजता से सम्बन्धित बातों को भी प्रसारित नहीं किया जाना चाहिए ताकि उनके मानसिक व शारीरिक विकास पर कोई विपरीत असर न पड़े। सुनवाई कर रही पीठ ने राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग, भारतीय प्रेस परिषद, सूचना व प्रसारण मंत्रालय, प्रसार भारती व अन्य सम्बन्धित विभागों को निर्देश दिया है कि वे कमेटी की सिफारिशों का प्रचार-प्रसार कर बाल हितों की रक्षा करें। हालाँकि न्यायालय ने यह सदाशा भी प्रकट की है कि मीडिया स्वयं ही संयम से रिपोर्टिंग कर जे.जे.एक्ट का पालन करेगा।
              अन्यान्य कारणों से मीडिया आज अतिरंजित होकर रिपोर्टिंग करता है। इसके पीछे प्राय: वैचारिक व व्यावसायिक कारण ही होते हैं लेकिन एक तीसरा कारण भी होता है और वह है नासमझी का। बहुधा ऐसा होता है कि बच्चों या फिर वयस्कों के मामलों में भी रिपोर्टिंग करते समय संवाददाता यह भूल जाता है कि उस व्यक्ति की कोई निजी जिन्दगी भी है और कैमरे के सामने या अखबार में छप जाने के बाद उसे अपने परिवेश में लोगों से दो-चार होना पड़ेगा। बच्चों के उत्पीड़न या महिलाओं के दैहिक शोषण की परिचय सहित खबरें उनका शेष जीवन भी नारकीय बना देती है। हाल के दशकों में मीडिया की अतिरंजना का जबरदस्त उदाहरण अयोध्या में बाबरी मस्जिद पर हमले के समय मिला था जब एक खास विचारधारा वाले समाचार पत्रों ने पुलिस गोलीबारी से मरने वालों की संख्या के बारे में बताया था कि मृतकों को ट्रकों में भरकर सरयू नदी में फेंका गया था! हालॉकि उन्हीं अखबारों ने एक-दो दिन के बाद मृतकों की संख्या को काफी कम करके अपनी ही पूर्ववर्ती खबर को गलत साबित किया था और इस काम के लिए बाद में भारतीय प्रेस परिषद ने ऐसे अखबारों की भर्त्सना भी की थी। वर्ष 2008 में मुम्बई में हुए ताज हमले के समय भी मीडिया के अति उत्साह को लेकर तमाम सवाल उठाये गये थे और प्रतिबंध लगाने की भी बात उठी थी लेकिन अंतिम निष्कर्ष यही निकला था कि मीडिया आत्मानुशासित रहे तभी उचित होगा। इसी क्रम में कई वरिष्ठ पत्रकारों ने स्वयं ही एक कमेटी बनाकर आत्मानुशासन के मानदंड तय किये थे। हालॉकि यह कहना मुहाल है कि उसमें से कितनों का पालन किया जा रहा है! यही कारण तो है कि भारतीय प्रेस परिषद जैसी स्वायत्तशाषी व विधायी संस्था ने भी दंड देने का अधिकार नहीं लिया है। वह गलत कृत्यों के लिए समाचार पत्रों-पत्रिकाओं की महज भर्त्सना ही करती है क्योंकि यदि वह दंड देने का अधिकार लेगी तो उसके दंड के विरुध्द अपील भी होगी और इस प्रकार उसकी सर्वोच्चता जाती रहेगी।
               समाचार संकलन व प्रस्तुतिकरण में संतुलन का निरंतर अभाव होता जा रहा है। खबरों के साथ विचारों का घालमेल कर देना अब आम बात हो गई है। समाचार लेखन में गलत शब्दों का प्रयोग कर अर्थ का अनर्थ (जैसे आरोपित की जगह आरोपी तथा मुखालफ़त की जगह खिलाफ़त जैसे बहु प्रयुक्त शब्द) तो किया ही जा रहा है, इससे भी ज्यादा खतरनाक काम तो तमाम समाचारों को अदालती फैसले की तरह लिखने में किया जा रहा है। मसलन,पुलिस कहती है कि उसने चार बदमाश पकड़े तो संवाददाता भी लिख देता है कि चार बदमाश पकड़े गये!जबकि प्राय:90 प्रतिशत मामलों में इन कथित बदमाशों को अदालत बाइज्जत बरी कर देती है क्योंकि पुलिस का पक्ष बेहद लचर होता है। यही रवैया सेक्स रैकेट के मामले में होता है जब अखबार छापता है कि चार काल-गर्ल पकड़ी गई!वो तो भुक्तभोगियों के पास संसाधन या जानकारी का अभाव ही इन अखबारों की बचत बन जाता है अन्यथा ऐसे 'बदमाश' या 'कालगर्ल' अगर न्यायालय चले जॉय तो ये अखबार सजा के पात्र हो सकते हैं। हैरत तो यह देखकर होती है कि जिस समय में अप्रशिक्षित लेकिन स्वत:स्फूर्त लोग इस क्षेत्र में आते थे तब इसकी मर्यादा कहीं ज्यादा बनी रहती थी जबकि आज अगर मीडिया ने उद्योग का रुप ले लिया है तो इसके लिए प्रशिक्षित कामगार तैयार करने की फैक्टरियाँ भी खूब खुल गई हैं फिर भी अधकचरापन बढ़ता ही जा रहा है। ऐसा संभवत: सम्पादक नामक संस्था में हुए ह्रास के कारण ही हो रहा है। सम्पादक कभी स्वयं में एक पाठशाला हुआ करता था। 0 0

उ.प्र. सरकार के अंतर्विरोध --- सुनील अमर


देश के सबसे युवा मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार अपने व्यापक अंतर्विरोधों के कारण दिन-ब-दिन न सिर्फ जनता की आकांक्षाओं पर निराशा थोप रही है बल्कि कैबिनेट के शिवपाल यादव व आजम खाँ जैसे कई वरिष्ठ मंत्रियों के उन्मुक्त आचरण की वजह से बार-बार हास्यास्पद स्थिति भी पैदा हो रही है। यह सच है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इससे पूर्व कभी किसी सरकार में नहीं रहे हैं और इस प्रकार अपने पहले अवसर पर ही वह प्रदेश के इस सर्वोच्च प्रशासनिक दायित्व के पद पर आसीन हैं। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर भी अपने लम्बे राजनीतिक जीवन में कभी किसी कैबिनेट में शामिल नहीं हुए थे और सीधे प्रधानमंत्री ही बने थे। स्व. राजीव गॉधी भी पहली ही बार में प्रधानमंत्री बन गये थे। श्री अखिलेश यादव को राजनीतिक व प्रशासनिक अनुभव बहुत कम है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य का मुख्यमंत्री होना गहरे राजनीतिक अनुभव की मॉग करता है जिसकी स्वाभाविक कमी अखिलेश के फैसलों और कैबिनेट पर उनके नियंत्रण में झलकती है।
                प्रदेश में इस बार जब चुनाव में समाजवादी पार्टी को प्रबल बहुमत प्राप्त हुआ तो इस बात पर कई दिनों तक रस्साकशी हुई कि मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव बनें या उनके पुत्र अखिलेश। अखिलेश कहते थे कि नेता जी ही बनेंगें और नेता जी यानी मुलायम कहते थे कि अखिलेश बनेंगें। ये सच्चाई है कि मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बनना चाहते थे लेकिन पार्टी की पसंद के बहाने हुआ यह एक पारिवारिक सत्ता हस्तांतरण था। शुरु में ऐसा सोचा जा रहा था कि अखिलेश एक रिमोट कंट्रोल्ड मुख्यमंत्री होंगें लेकिन ऐसा कुछ खास लगा नहीं। अखिलेश के कुछ फैसलों में ऐसा अधकचरापन झलका कि वह उनके और उनके उन्हीं जैसे सलाहकारों का ही काम लगा। बेरोजगारी भत्ता में तमाम तिकड़म और विधायकों को मंहगी कार खरीदवाने जैसे फैसले इसके प्रमाण हैं।
                सरकार में सबसे बड़ी दिक्कत कई मंत्रियों का अत्यन्त वरिष्ठ तथा मुख्यमंत्री का बहुत कनिष्ठ होना है। यह फ़र्क 4-6 साल का नहीं, पीढ़ियों का है। आजम खाँ जैसे नेता समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्य और सपा प्रमुख मुलायम सिंह के दोस्त हैं और इसी तरह अवधेश प्रसाद, शिवपाल सिंह यादव, भगवती सिंह तथा अहमद हसन आदि मुलायम सिंह के हमउम्र तथा संस्थापक सदस्य हैं। इसमें शिवपाल तो अखिलेश के सगे चाचा हैं। इतने वरिष्ठों से मुलायम का बतौर मुख्यमंत्री काम लेना तो स्वाभाविक था लेकिन अखिलेश का इन पर वह नियंत्रण नहीं है। शिवपाल तो शुरु से ही उच्छृंखल स्वभाव के रहे हैं। सपा की पिछली सरकार में हुई पुलिस भर्ती धांधली के निर्देशक शिवपाल ही बताये गये थे। इस बार भी उन्होंने पिछले महीने अधिकारियों की एक बैठक में कथित तौर पर यह कहा कि आप सब चोरी तो कर सकते हैं लेकिन डाका नहीं डाल सकते। बाद में, शिवपाल मार्का नेता जैसा करते हैं, उन्होंने भी कह दिया कि मीडिया की कवरेज ही गलत थी। वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री आजम खॉ ने भी गत सप्ताह विधान सभा सचिवालय में एक मीटिंग के दौरान एक वरिष्ठ अधिकारी को असंसदीय शब्दों का प्रयोग कर भगा दिया।
                  यह सच है कि प्रदेश की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है। कई मामलों में तो निवर्तमान सरकार से भी अधिक खराब हालात हो गये हैं जैसे विद्युत आपूर्ति व मंहगाई। यह कहा जा सकता है कि प्रदेश में बरसात ठीक से न होने के कारण ऐसा हुआ है लेकिन जनता को तर्क नहीं परिणाम चाहिए। जब किसान के घर में गेंहॅू था तो व्यापारी उसे 950 रुपये कुन्तल भी नहीं खरीद रहे थे आज वही गेंहूॅ बाजार में 1600 से 1700 रुपये कुंतल बिक रहा है। प्रदेश में धान रोपाई के समय बरसात नहीं हुई तो बाजार में यूरिया खाद उपलब्ध थी लेकिन जब खाद डालने का समय आया तो बाजार से यूरिया गायब है या फिर कालाबाजारी में बिक रही है। उपर से जले पर नमक छिड़कने का काम मुख्यमंत्री के चाचा शिवपाल यादव कर रहे हैं कि प्रदेश में खाद की भरमार है!पूरे पॉच साल यही परिस्थितियॉ मायावती की बसपा सरकार में थीं। सरकार के सारे आश्वासन, केन्द्र सरकार की आर्थिक सहायता व चीनी निर्यात पर छूट देने के बावजूद प्रदेश के गन्ना किसानों का अरबों रुपया चीनी मिलों के पास बकाया पड़ा है और सरकार का कोई भी मंत्री सुनने को तैयार नहीं है।
                        प्रदेश की मौजूदा कैबिनेट में सबसे बड़े स्वेच्छाचारी मोहम्मद आजम खॉ हैं। अपने कार्य व्यवहार में वे खुद को मुख्यमंत्री ही मानते हैं। उनका एकमात्र गुण सपा में वरिष्ठ मुसलमान नेता होना है। प्रदेश में सपा की प्रत्येक सरकार वे कैबिनेट मंत्री रहे हैं। जितना उन्हें अखिलेश झेल रहे हैं उससे ज्यादा मुलायम सिंह झेल चुके हैं। गत वर्ष उनकी सपा में वापसी हुई है। अखिलेश के लिये यह खेल नया है जबकि उनके पिता मुलायम सिंह इस तरह के कई लोगों को हताश,निराश तत्पश्चात मनाकर वापस पार्टी में ला चुके हैं। आजम खॉ की ही तरह एक समय में बेनी प्रसाद वर्मा भी सपा के लिए अक्सर सिरदर्द हुआ करते थे। बेनी भी सपा के संस्थापक सदस्य थे लेकिन तब अमर सिंह के नियंत्रण में मुलायम सिंह हुआ करते थे इसलिए अमर सिंह ने अन्यान्य कारणों से आजम और बेनी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया। आजम तो गत वर्ष वापस आ गये लेकिन बेनी प्रसाद वर्मा अब कॉग्रेस में हैं और केन्द्रीय मंत्री का पद सुशोभित कर रहे हैं। बेनी का बड़बोलापन अभी भी गया नहीं हैं और अपनी आदत के अनुसार कॉग्रेस को भी गाहे-बगाहे मुसीबत में डालने का काम करते रहते हैं।
                   समाजवादी पार्टी पहली बार प्रबल बहुमत में आयी है और यह अच्छा ही होता अगर मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने होते। यह पहला अवसर होता जब उन्हें अपनी मर्जी और हनक के अनुसार सरकार चलाने को मिलती। वो एकाध साल में सरकार को पटरी पर लाकर अखिलेश को कुर्सी सौंप सकते थे और अखिलेश भी कुछ दिन कैबिनेट का ककहरा सीख लेते, लेकिन शायद अखिलेश में धौर्य खत्म हो गया था। राजनीतिक सूत्र बताते हैं कि अखिलेश कोई भी रिस्क नहीं लेना चाहते थे। आज स्थिति यह है कि कैबिनेट के तमाम वरिष्ठ मंत्री अपनी मर्जी के हो गये हैं। इसका सबसे बुरा असर नौकरशाही पर पड़ा है और वह प्रभावशाली नेताओं की गणेश परिक्रमा कर अपनी जेबें भरने में लगी है। यह नौकरशाही पिछली सरकार में यही कर रही थी। यही वजह है कि जनता को कोई भी बदलाव दिख नहीं रहा है। मुलायम सिंह अपनी पिछली सरकार में भी आपातकाल में अन्यान्य कारणों से जेल भेजे गये लोगों को लोकतंत्र-सेनानी घोषित कर रुपया 3000 प्रतिमाह की पेंशन देने की तैयारी में हैं। सभी जानते हैं कि आपातकाल में महज राजनीतिक व्यक्ति ही नही ज्यादातर अपराधी ही जेल भेजे गये थे। अपनी पिछली सरकार में जब मुलायम सिंह ने ऐसा किया था तो भी अपराधी तत्त्वों द्वारा लाभ उठाने की शिकायतें हुई थी। असल में मुलायम सिंह का यह प्रयास महज कॉग्रेस को चिढ़ाने के लिए था। सभी जानते हैं कि कॉग्रेस ने ही आपातकाल लगाया था। मुलायम के ऐसा करने से यह बात लगातार चर्चा में रहेगी। सरकार चाहे कितनी भी बढ़िया नीतियॉ बना रही हो, उद्योग धन्धों को बढ़ावा दे रही हो तथा यमुना एक्सप्रेस वे बना रही हो, आम आदमी तो यह देखता है कि उसके रोटी, कपड़ा और मकान का क्या हुआ? वह यह जानना चाहता है उसके बच्चों की शिक्षा व रोजी के लिए क्या संभवनायें इस सरकार ने पैदा की हैं। यह अफसोसजनक ही है कि अखिलेश यादव की सरकार 'फर्स्ट इम्प्रेशन' के तौर पर ऐसा कुछ भी नहीं कर सकी है। मुलायम सिंह के राजनीतिक गुरु डॉ. राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि ' जिन्दा कौमें पॉच साल इन्तजार नहीं करतीं '। मुलायम सिंह को भी राजकाज सुधारने के लिए दखल देना ही चाहिए अन्यथा हो सकता है कि पॉच साल बाद जनता दुबारा इंतजार करने को राजी न हो! 0 0 

चिकित्सक और चिकित्सा पध्दतियों का घालमेल --- सुनील अमर



ह अब एक सामान्य सी बात है कि चिकित्सा की किसी भी पध्दति में डिग्री लिया हुआ व्यक्ति बड़े आराम और अधिकार के साथ अंग्रेजी दवाओं की प्रैक्टिस करता है। अधिकांश मरीज यह जानते ही नहीं कि अंग्रेजी दवाओं से उनका इलाज करने वाला डॉक्टर ऐसा करने के लिए अधिकृत नहीं है। देश के प्रत्येक हिस्से में ऐसे हजारों डॉक्टर मेडिकल प्रैक्टिस करते मिल जायेंगे जिन्होंने पढ़ाई तो आयुर्वेद, होम्योपैथ या फिर यूनानी पध्दति में की है लेकिन मरीजों का इलाज वे इन दवाओं से न करके ऍग्रेजी दवाओं से ही करते हैं। इस सिलसिले में एक दिलचस्प वाकया उत्तर प्रदेश का है जहॉ कुछ अरसा पहले तक सरकारी अस्पतालों में तैनात होने वाले आयुर्वेद व होम्योपैथ के डॉक्टर भी ऍग्रेजी दवाऐं ही मरीजों को लिखते व देते थे। प्रदेश में सत्तारुढ़ नयी सरकार ने गत माह एक शासनादेश जारी कर आयुर्वेद, होम्यापैथ व यूनानी पध्दति के समस्त डॉक्टरों द्वारा ऍग्रेजी दवाओं के प्रयोग पर रोक लगा दी तथा इसके उल्लंघन पर आपराधिक कार्यवाही करने का निर्देश भी दिया। इस रोक के विरुध्द कुछ चिकित्सकों ने वहॉ के उच्च न्यायालय में अपील की तो गत सप्ताह अदालत ने सरकार के कदम को सही बताते हुए कहा कि याची अपनी विधा के विशेषज्ञ हो सकते हैं लेकिन इतने भर से उन्हें मार्डन दवाओं की प्रैक्टिस करने का अधिकार नहीं मिल जाता।
               यह सच है कि देश में एम.बी.बी.एस. डिग्रीधारी डॉक्टरों की भारी कमी है। कमी तो असल में मेडिकल कालेजों की ही बहुत है जहाँ तैयार होकर डॉक्टर निकलते हैं। मेडिकल की पढ़ाई के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षा सी.पी.एम.टी. अत्यन्त कठिन है तथा सीटें बहुत कम होने के कारण प्रत्येक सीट के लिए दावेदारों की संख्या अत्यधिक हो जाती है। प्रशासनिक सेवा की परीक्षाओं की तरह सी.पी.एम.टी. में भी मेरिट के हिसाब से पहले एम.बी.बी.एस. के लिए तत्पश्चात अन्य चिकित्सा पध्दतियों के लिए चयन होता है। हर पध्दति का अपना विशिष्ट पाठयक्रम तथा उपचार विधि होती है। जैसे इंजेक्शन और ऑपरेशन की जो व्यवस्था ऐलोपैथ में है वैसा संभवत: दुनिया की किसी अन्य पध्दति में नहीं है। इधर कुछ वर्षो से कुछ आयुर्वेदिक दवा निर्माताओं ने इंजेक्शन बनाना शुरु किया है लेकिन अन्यान्य कारणों से वह लोकप्रिय नहीं हो पाया है। आयुर्वेद हमारे देश की अत्यन्त प्राचीन चिकित्सा पध्दति है और आज भी दुनिया भर में महत्त्व रखती है लेकिन इसके मुकाबले एलोपैथ महज इसलिए सर्वव्यापी और लोकप्रिय हो गया कि असर करने में इसकी तीव्रता, सर्व सुलभता तथा इस पर हो रहे विस्मयकारी अनुसंधानों ने इसे सरर्वोच्च कर दिया। इसके बजाय आयुर्वेद हजारों साल पुरानी उन किताबों पर आश्रित होकर रह गया है जिन्हें ज्यादातर तो लाल कपड़े में बॉधकर रख दिया गया है और वे पूजा की सामाग्री बनकर रह गये हैं। इनमें कोई भी उल्लेखनीय अनुसंधान नहीं हुआ है। इसी प्रकार होम्योपैथी को भी इस देश में आये दो सौ साल से अधिक हो रहा है लेकिन वह महज पढ़े-लिखे लोगों में ही सिमटी हुई है।
               आयुर्वेद, यूनानी और होम्योपैथ के सिध्दांतकार यह कहते हैं कि उनकी चिकित्सा पध्दति भी तीव्र असरकारी है लेकिन सच यही है कि तात्कालिक असर के मामले में एलोपैथ का कोई सानी नहीं है। इस पध्दति में इंजेक्शन और ऑपरेशन की सुलभता ने इसे सर्वोच्च बना दिया है। चिकित्सक, चाहे वह सरकारी ही क्यों न हो, के पास गया हुआ मरीज तत्काल आराम चाहता है और यह उसे एलोपैथ में ही मिल पाता है। दूसरे, न सिर्फ सरकार अस्पतालों में एलोपैथ पार जोर देती है, बाजार में सर्वाधिक सुलभता भी इन्हीं दवाओं की है। यही कारण है कि अन्य पैथी के चिकित्सक भी इसी पैथी में इलाज करने को प्रमुखता देते हैं क्योंकि यह सहूलियत व व्यवयसाय दोनों दृष्टिकोण से ठीक पड़ता है। लेकिन प्रश्न यहॉ उनकी योग्यता का है। सरकारी अस्पताल हों या समाज में मौजूद प्रायवेट चिकित्सक, अगर एम.बी.बी.एस. डॉक्टर मौजूद हों तो न तो मरीज को अन्य डॉक्टर के पास जाना पड़ेगा और न ही अन्य पैथी के चिकित्सकों को एलोपैथ अपनाने को मजबूर होना पड़ेगा। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि एलोपैथिक दवाऐं तेज असर करने के साथ-साथ, मरीज को अगर अनुकूल न हुई तो नुकसान भी उतनी ही तेजी से करती है और क्षणांश में जानलेवा हो सकती हैं। यही कारण है कि अपात्र व्यक्तियों द्वारा इसकी प्रैक्टिस को गैर कानूनी व दंड योग्य घोषित किया गया है।     राजकीय प्रश्रय किसी भी विधा को शीर्ष पर पहुॅचा सकता है। अंग्रेजी भाषा और एलोपैथी के साथ यही हुआ है। सरकार का सारा जोर एलोपैथी पर रहता है। मेडिकल कॉउसिल ऑफ इंडिया में भी एलोपैथ का ही बोलबाला रहता है। बावजूद इसके, देश में डॉक्टर्स की भारी कमी है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के ऑकड़े बताते हैं कि देश के सामुदायिक केन्द्रों पर चिकित्सकों के लगभग चालीस प्रतिशत पद खाली पड़े हुए हैं। लगभग यही हाल कम्पाउन्डरों का भी है। जितने डॉक्टर हर साल संस्थानों से पढ़कर बाहर निकलते हैं उनमें से अधिकांश विदेश चले जाते हैं और कमाल यह है कि इस पर न तो सरकार को कोई नियंत्रण हैं और न इसकी जानकारी ही कि कितने डॉक्टर्स प्रतिवर्ष देश के बाहर चले जाते हैं।           
 लगभग एक वर्ष से केन्द्र सरकार यह योजना बना रही है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों के लिए तीन वर्षीय पाठयक्रम के आधार पर डॉक्टर्स तैयार किये जॉय जो उसी क्षेत्र में नौकरी या प्रैक्टिस करने को बाध्य हों। इसका ये मंतव्य है कि एक तो डॉक्टरों की कमी को जल्दी पूरा किया जा सके तथा ग्रामीण क्षेत्रों में योग्य डॉक्टर उपलब्ध रहें। इस योजना का सबसे ज्यादा विरोध डॉक्टर ही कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि ये सब-ग्रेड के डाक्टर उनके प्रोफेशन और उनकी हनक को कम कर देंगें। सरकार की आधी-अधूरी कोशिशों के साथ ये अत्यन्त आवश्यक योजना ठंढ़े बस्ते में पड़ी हुई है जबकि ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों व सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर डॉक्टर्स की बहुत किल्लत है। संसद में प्राय: हर बड़े राजनीतिक दल से तमाम डॉक्टर सांसद हैं लेकिन शायद ही इनके द्वारा कभी डॉक्टरों या मेडिकल कॉलेजों की कमी की बात की जाती हो। एलोपैथ के डॉक्टर यदि पर्याप्त संख्या में उपलब्धा हों तो दूसरे पैथ के डॉक्टर से एलोपैथ की दवा लेने मरीज क्यों जाऐंगें। अभी तो स्थिति यह है कि बड़ी संख्या में दवा विक्रेता भी मरीजों का उपचार करते रहते हैं। सरकारी ऑकड़ों के अनुसार हर साल औसत 1200 एम.बी.बी.एस. डॉक्टर विदेश चले जाते हैं और इस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं हैं जबकि ऐसे एक डॉक्टर को तैयार करने में सरकार का करोड़ों रुपया खर्च होता है और ये जिस देश में जाते हैं उन्हें बिना पैसा खर्च किये डॉक्टर मिल जाते हैं। देश में मेडिकल कॉलेज बहुत कम हैं। इस पर भी सितम यह है कि कॉलेजों को मानक के अनुसार न पाने पर मेडिकल काउन्सिल ऑफ इंडिया उनकी सीटें ही कम कर दे रही है। उच्च न्यायालय का आदेश सराहनीय है लेकिन गरीब मरीजों के मामले में यही कहावत सटीक बैठती है कि मरता क्या न करता। जब तक काबिल डॉक्टरों की पर्याप्त उपलब्धता नहीं होगी, मरीज आयुर्वेदिक और होम्यो ही नहीं झोला छाप से भी इलाज कराते रहेंगें। ग्रामीण डॉक्टरों को तैयार करने की योजना पर शीघ्र अमल ही इसका सही हल हो सकता है। जरुरत है कि सरकार डॉक्टरों की धौंस में आये बिना इस योजना को शुरु करे। 0 0