खाप पंचायतों की प्रतिगामी हरकतों से त्रस्त देश के नारी समाज में एक स्त्री ने अपने हक के लिए लड़ने की हिम्मत दिखाई है। घर-परिवार और समाज के तमाम एतराज को दरकिनार कर एक फौजी की नि:संतान विधवा ने वीर्य बैंक में रखे अपने पति के वीर्य से गर्भधारण किया है। इस दंपत्ति का एक अस्पताल में संतानोत्पत्ति हेतु इलाज चल रहा था लेकिन फौजी पति को बार-बार छुट्टी नहीं मिल पाने के कारण चिकित्सकों ने उसका वीर्य सुरक्षित रख लिया था। लगभग साढ़े तीन साल पहले पति की मौत हो गई। 35 वर्षीया पत्नी ने न सिर्फ दूसरी शादी करने से इनकार कर दिया बल्कि उसने अपने परिजनों के समक्ष अपनी इच्छा रखी कि वह स्थानीय अस्पताल में रखे अपने पति के वीर्य से गर्भवती होना चाहती है। जैसा कि फौजियों की नि:संतान विधवाओं के साथ अकसर होता है, यहां भी परिजन व समाज इस स्त्री के विरुद्ध हो गए। ताजा स्थिति तक पहुंचने में उत्तर प्रदेश के आगरा जिले की इस साहसी महिला को तीन साल लंबी लड़ाई लड़कर अपने दृढ़ मनोबल का परिचय देना पड़ा और वह इस सामाजिक लड़ाई को जीत गई। हमारे भारतीय समाज की बड़ी विचित्र स्थिति है। हमारे नागर समाज के विरोध का अंतर्विरोध यह है कि वह स्त्री अधिकारों के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर सरकार के खिलाफ तो खूब प्रदर्शन कर सकता है लेकिन वहां से 20-30 किमी के दायरे में औरतों के खिलाफ जहर उगल रही खाप पंचायतों तक जाने की हिम्मत नहीं करता! ऊपर वर्णित घटना तो ऐसे घटनाक्रमों की एक कड़ी भर है जहां परिवार के लोग अपनी ही विधवा बहू को महज इसलिए मार देते या मरने को विवश कर देते हैं ताकि उसका हिस्सा और उसी सम्पत्ति को कब्जाया जा सके। सती प्रथा इसी षड्यंत्र और कुकर्म का एक हिस्सा रही है। हम प्राय: देखते-सुनते हैं कि देश की रक्षा में शहीद हो जाने वाले सैनिकों की विधवाओं के साथ उनके ही सास-ससुर और जेठ-देवर कैसे न सिर्फ उस स्त्री का पारिवारिक हक बल्कि सरकार द्वारा दी गई सहायता को भी हड़प जाने का कुचक्र करते रहते हैं। कई मामलों में तो ऐसी विधवाओं को अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ता है। उपरोक्त मामले में तो वह स्त्री अपने ही पति के वीर्य से कृत्रिम गर्भाधान करके अपने ही सास-ससुर के वंश को आगे बढ़ाना चाहती है, लेकिन यह भी उन सबको अगर कबूल नहीं तो इसका मतलब यही है कि वे अपनी संपत्ति का एक और हिस्सेदार नहीं चाहते!
ऐसी विचारधारा वाले परिवारों में ऐसी स्त्रियों के जीवन को भी खतरे से मुक्त नहीं माना जा सकता। लेकिन ऐसी सोच कम पढ़े-लिखे या अपढ़ लोगों की ही हो, ऐसा नहीं माना जा सकता। समाज के सुशिक्षित तबके का भी कमोबेश यही हाल है। हमारे देश के तथाकथित संत- महात्मा, राजनेता, बड़े नौकरशाह तथा कुछेक न्यायाधीशों के विचार भी उक्त महिला के परिजनों जैसे ही हैं। देश में बलात्कार के बढ़ते अपराधों पर संतों, सामाजिक-सियासी नेताओं के कुविचार हम जान ही चुके हैं कि बलात्कार के मामलों में सारा दोष औरत का ही होता है। हमारी पढ़ाईिलखाई, शिक्षा-दीक्षा और ज्ञान-विज्ञान की सारी तरक्की का हासिल महज यही है कि जिन परिवारों में सिर्फ लड़की ही है वहां भी मां-बाप का अंतिम संस्कार करने का हक उसे नहीं है, भले ही दूर के किसी रिश्तेदार पुरुष से यह करवाया जाए!
गत वर्ष जयपुर उच्च न्यायालय में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश अरुण मिश्र व न्यायाधीश नरेंद्र कुमार जैन की खंडपीठ ने राजस्थान सरकार से पूछा था कि मां-बाप के अंतिम संस्कार बेटियों से कराने की कोई प्रोत्साहन योजना क्यों नहीं बनती। ध्यान रहे कि राजस्थान खास तौर पर सती प्रथा से ग्रस्त राज्य है। असल में तो ऐसी योजनाओं को केंद्र सरकार द्वारा तैयार कर पूरे देश में लागू कराया जाना चाहिए। लेकिन इसके उलट स्त्रियों से संबंधित बहुत से ऐसे मामले हैं जहां अदालतों का रवैया भी हमारे पुरुष समाज की मानसिकता का ही विस्तार होता लगता है। अभी इसी साल की शुरुआत में सर्वोच्च अदालत ने कर्नाटक के एक सत्र न्यायालय के खिलाफ बहुत सख्त टिप्पणी की। एक मामले में पति दहेज के लिए अक्सर अपनी पत्नी की बेरहमी से पीटा करता था जिससे उसकी एक आंख में गंभीर चोट आई और वह हमेशा के लिए खराब हो गई। बाद में पत्नी ने तंग आकर जहर खाकर आत्महत्या कर ली। मुकदमा चलने पर ट्रायल न्यायालय ने मारपीट की घटना को विवाहित जीवन का हिस्सा बताया और सभी तीन अभियुक्तों को बरी कर दिया। जबकि इसी मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने महिला के पति को सजा दी। सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले की सुनवाई करते न्यायाधीशद्वय आफताब आलम और रंजना प्रकाश देसाई की पीठ ने ट्रायल कोर्ट की कड़े शब्दों में र्भत्सना की और कहा कि किसी महिला की पिटाई या उससे गाली-गलौज उसके आत्मसम्मान पर हमला है और इसे साधारण तौर पर नहीं लिया जा सकता। न्यायाधीशों ने कहा कि अब समय आ गया है कि अदालतें महिलाओं के प्रति किए जा रहे अत्याचारों के प्रति अपना नजरिया बदलें। यहां यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि देश में सिर्फ यौन हिंसा से संबंधित एक लाख से अधिक मामले अदालतों में विचाराधीन हैं। आगरा की इस महिला ने जिस साहस का परिचय दिया है वह एक मिसाल है। एक स्त्री अपने शरीर की उसी तरह मालिक होती है जैसे एक पुरुष। वह अगर अपने दिवंगत पति के बच्चे की मां बनना चाहती है तो इसे किस आधार पर उसका घर और समाज नकार सकता है? कारण साफ है कि अगर वह अपने पति के बच्चे का मां बन जाएगी तो वह भी पारिवारिक संपत्ति का हिस्सेदार हो जाएगा, लेकिन अगर वह विधवा किसी और से शादी कर ले तो परिवार के लोग उसके हिस्से की संपत्ति के भी स्वामी हो जाएंगे। दुर्भाग्य से समाज के हर तबके में ऐसी सोच के लोग अब भी मौजूद हैं। बहरहाल, इस महिला के साहस का समर्थन किया जाना जरूरी है।
(http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=9 Page10Delhi Edition 26 Apr 2013 )
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Thursday, April 25, 2013
इस साहस का समर्थन करे समाज ---- सुनील अमर
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