टीवी और रेडियो पर इन दिनों आ रहे एक विज्ञापन में बच्चा स्कूल से घर आता है तो मां पूछती है-‘.अपने दोस्तों को भी साथ लाए हो?’बच्चा आश्र्चय से पूछता है कि कैसे दोस्त! तो मां धूल, मिट्टी, कीटाणु आदि-आदि का हवाला देती है। बच्चे का पिता कहता है कि साबुन से नहा लेना तो मां कहती है कि किसी ऐसे-वैसे साबुन से नहीं, फलां से नहाना होगा। यह विज्ञापन बच्चों के कोमल मन में अपनी पैठ बनाता है तथा मां-बाप को चिंतित करता है कि कहीं वास्तव में उनके बच्चे के साथ स्कूल से ढेर सारे जीवाणु और गंदगी न चली आती हो। और फिर वे यथासामथ्र्य बच्चे की हिफाजज करने लगते हैं। दरअसल प्रकाशित प्रसारित हो रहे सारे विज्ञापन व्यक्ति के मन पर मनोवैज्ञानिक असर डालते हैं। विज्ञापनों की मारक क्षमता और बारम्बारता दिमाग पर ऐसा असर डालती है कि उपभोक्ता उनके झांसे में आकर वस्तु नहीं, ब्रान्ड मांगने लगता है! आप अपने आस-पास के लोगों को देखें तो पाऐंगें कि अक्सर वह वस्तु नहीं सीधे-सीधे किसी ब्रान्ड को मांग कर रहे होते हैं। यही विज्ञापन की सफलता है। किसी गलत वस्तु को एक बार कोई धोखे से खरीद ले तो और बात है लेकिन उसको बार-बार खरीदने के लिए उसके दिमाग का अनुकूलन ही कर दिया जाय, यह ज्यादा खतरनाक बात है। ज्यादातर विज्ञापन आज इसी तरह का मानसिक अनुकूलन बनाने में लगे हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के विज्ञापनों के नियंतण्रहेतु बनी विनियामक संस्था भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई) ने विभिन्न उत्पादों से सम्बन्धित ताजा प्राप्त कुल 136 शिकायतों के निस्तारण में 99 को सही पाया है। इन मामलों में शिकायतें सही पाई गई और वस्तुओं की विज्ञापित बातें सच्चाई से परे थीं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि विज्ञापनों की धोखाधड़ी किस स्तर पर हो रही है। माना जाना चाहिए कि बहुत बड़ी संख्या में ऐसे उत्पाद भी होंगें जिनकी शिकायत इस नियामक संस्था तक पहुंच ही नहीं पाई होंगीं। अपने साथ हुए धोखे या जालसाजी की शिकायत करने की जागरूकता वैसे भी अपने यहां बहुत कम है। सामान्यत: यदि उपभोक्ता को नुकसान कम पैसों का हुआ हो तो वह शिकायत करने जैसे पचड़े में नहीं पड़ना चाहता। इस लिहाज से परिषद के पास जो शिकायतें आई होंगी, वे कुल शिकायतों का सौवां/हजारवां हिस्सा ही रही होंगीं। इसका अनुमान ऐसे भी लगाया जा सकता है कि परिषद तक पहुंची शिकायतें प्राय: नामचीन कंपनियों के बहुप्रचलित उत्पादों के विरुद्ध थीं। नई या कम चर्चित कम्पनियों के उत्पादों के गुण-दोष पर तो लोग वैसे भी कम ध्यान देते हैं। सरकारी और कुछ गैर सरकारी संगठनों के विज्ञापन सूचित, सचेत तथा जागरूक करने के लिए जरूर होते हैं लेकिन इसके अलावा बाकी के विज्ञापन येन-केन- प्रकारेण अपना माल बेचने के लिए ही होते हैं। आज का बाजारवाद बेहद आक्रामक है। वह लोगों को मूर्ख बनाकर, फंसाकर, डराकर तथा इससे भी काम न चले तो उनके जीवन में सम्बन्धित वस्तु की जरूरत पैदा कर अपना माल बेचना जानता है। इसका सबसे सटीक उदाहरण पीने का पानी और आयोडीन युक्त नमक है। जीवन के लिए अति आवश्यक इन दोनों वस्तुओं के बारे में दशकों से सिलसिलेवार और एक खास दृष्टिकोण से समाचार, लेख, गोष्ठियां, विज्ञापन और जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है। लोगों को बताया जाता है कि बोतलबंद पानी के अलावा दुनिया का सारा पानी दूषित हो चुका है। पानी के बारे में जिस तरह की बातें विज्ञापित की जाती हैं, उसके अनुसार तो उन लोगों का जीवन खतरे में पड़ जाना चाहिए जो सरकारी आपूत्तर्ि या हैंडपम्प के पानी का प्रयोग करते हैं। यह सच है कि देश में भू-गर्भीय जल में आर्सेनिक और फ्लोराइड जैसे हानिकारक तत्त्वों की मात्रा मौजूद है लेकिन यूनिसेफ की रपट (वर्ष 2008) कहती है कि भारत की 88 प्रतिशत आबादी को संशोधित साधनों से पीने का पानी सुलभ है। पीने के पानी को गन्दा, दूषित और जहरीला बताकर भय पैदा करने का ही नतीजा है कि आज देश में बोतलबंद पानी का व्यवसाय 10,000 करोड़ रुपये से भी अधिक का हो गया है और जिसके वर्ष 2015 तक 15,000 करोड़ रुपये तक हो जाने का अनुमान है। आज स्थिति यह हो गयी है कि शहरों में बहुत से लोगों ने अवैध ट्यूबवेल या सरकारी आपूत्तर्ि से पानी चुराकर उसे बेचने का धंधा बना लिया है। गांव देहात में शुद्ध बोतलबंद पानी के भ्रम में लोग भारी कीमत देकर उसे हर रोज खरीद रहे हैं। दुकानों और दफ्तरों में भी पानी के डिब्बे उसी तरह पहुंचाए जा रहे हैं जैसे खाने का टिफिन। विज्ञापन से पैदा हुई दहशत का आलम यह है कि पैसे वाले लोग पेयजल शुद्धिकरण के लिए घरों में महंगे आरओ या वॉटर प्यूरीफायर लगा रहे हैं। कई मामलों में तो लोग ‘ज्यादा महंगा, तो ज्यादा अच्छा’ की मानसिकता के चलते ऐसे स्तर का आरओ घर में लगा रहे हैं जिसकी उन्हें जरूरत ही नहीं है और वह उनके पेयजल को डिस्टिल्ड वॉटर बना दे रहा है। जानना जरूरी है कि प्राकृतिक शुद्ध जल में कई प्रकार के खनिज और लवण पाए जाते हैं जो मानव शरीर के लिए जरूरी होते हैं लेकिन उक्त प्रकार के आरओ इन सबको भी छानकर निकाल देते हैं। यही स्थिति खाद्य तेलों के साथ भी है। विज्ञापन का असर ऐसा है कि अब वे लोग भी रिफाइंड तेल खा रहे हैं जिन्हें इसकी कोई जरूरत नहीं है। ताजा अध्ययन बताते हैं कि रिफाइंड तेल से ऐसे बहुत से तत्व निकाल दिए जाते हैं जिनकी एक स्वस्थ आदमी को रोज आवश्यकता होती है। आयोडीन युक्त नमक का मामला भी ऐसा ही है। आयोडीन की अत्यन्त अल्प मात्रा की ही जरूरत हर आदमी को होती है। जिन इलाकों में प्राकृतिक तौर पर आयोडीन नहीं पाया जाता, वहां घेंघा आदि कई बीमारियां हो जाती हैं। ऐसे लोग देश की कुल आबादी का मात्र 2.5 यानी ढाई प्रतिशत ही हैं। ताजा रिसर्च से पता चलता है कि एक स्वस्थ आदमी को प्रतिदिन सिर्फ दामलव डेढ़ सौ (0.150) माइक्रोग्राम आयोडीन चाहिए। एक हजार माइक्रोग्राम का एक मिलीग्राम होता है तो एक मिलीग्राम आयोडीन एक सप्ताह के लिए पर्याप्त हुआ। इसका मतलब यह हुआ यदि कोई व्यक्ति 90 वर्ष की उम्र तक जिए तो उसे जीवन में कुल साढ़े चार ग्राम आयोडीन की जरूरत होगी! यह खाना खाने वाले चम्मच से आधा चम्मच ही हुआ। मानव शरीर की खासियत यह है कि यह अतिरिक्त आयोडीन की मात्रा को उत्सर्जन क्रियाओं द्वारा निकाल देता है इसलिए आयोडीनयुक्त नमक बनाने वाली कम्पनियों का अरबों रुपये का धंधा चल रहा है। इस नमक लॉबी के दबाव में वर्ष 2005 में केन्द्र सरकार ने साधारण नमक की बिक्री को प्रतिबंधित कर दिया जिससे नमक- कम्पनियों की चांदी हो गई। जबकि नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन हैदराबाद ने अपने अध्ययन में पाया कि आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, केरल, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में प्राकृतिक रूप से ही जरूरत से ज्यादा आयोडीन मौजूद है। बावजूद इसके समूचे देश को साधारण नमक की जगह आयोडीनयुक्त नमक खाने को बाध्य करने की कोशिशें होती हैं। ( राष्ट्रीय सहारा 09 May 2014 के सम्पादकीय पृष्ठ 10 पर )
Tuesday, May 13, 2014
भ्रामक विज्ञापनों के जाल में फंसे उपभोक्ता ----- सुनील अमर
टीवी और रेडियो पर इन दिनों आ रहे एक विज्ञापन में बच्चा स्कूल से घर आता है तो मां पूछती है-‘.अपने दोस्तों को भी साथ लाए हो?’बच्चा आश्र्चय से पूछता है कि कैसे दोस्त! तो मां धूल, मिट्टी, कीटाणु आदि-आदि का हवाला देती है। बच्चे का पिता कहता है कि साबुन से नहा लेना तो मां कहती है कि किसी ऐसे-वैसे साबुन से नहीं, फलां से नहाना होगा। यह विज्ञापन बच्चों के कोमल मन में अपनी पैठ बनाता है तथा मां-बाप को चिंतित करता है कि कहीं वास्तव में उनके बच्चे के साथ स्कूल से ढेर सारे जीवाणु और गंदगी न चली आती हो। और फिर वे यथासामथ्र्य बच्चे की हिफाजज करने लगते हैं। दरअसल प्रकाशित प्रसारित हो रहे सारे विज्ञापन व्यक्ति के मन पर मनोवैज्ञानिक असर डालते हैं। विज्ञापनों की मारक क्षमता और बारम्बारता दिमाग पर ऐसा असर डालती है कि उपभोक्ता उनके झांसे में आकर वस्तु नहीं, ब्रान्ड मांगने लगता है! आप अपने आस-पास के लोगों को देखें तो पाऐंगें कि अक्सर वह वस्तु नहीं सीधे-सीधे किसी ब्रान्ड को मांग कर रहे होते हैं। यही विज्ञापन की सफलता है। किसी गलत वस्तु को एक बार कोई धोखे से खरीद ले तो और बात है लेकिन उसको बार-बार खरीदने के लिए उसके दिमाग का अनुकूलन ही कर दिया जाय, यह ज्यादा खतरनाक बात है। ज्यादातर विज्ञापन आज इसी तरह का मानसिक अनुकूलन बनाने में लगे हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के विज्ञापनों के नियंतण्रहेतु बनी विनियामक संस्था भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई) ने विभिन्न उत्पादों से सम्बन्धित ताजा प्राप्त कुल 136 शिकायतों के निस्तारण में 99 को सही पाया है। इन मामलों में शिकायतें सही पाई गई और वस्तुओं की विज्ञापित बातें सच्चाई से परे थीं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि विज्ञापनों की धोखाधड़ी किस स्तर पर हो रही है। माना जाना चाहिए कि बहुत बड़ी संख्या में ऐसे उत्पाद भी होंगें जिनकी शिकायत इस नियामक संस्था तक पहुंच ही नहीं पाई होंगीं। अपने साथ हुए धोखे या जालसाजी की शिकायत करने की जागरूकता वैसे भी अपने यहां बहुत कम है। सामान्यत: यदि उपभोक्ता को नुकसान कम पैसों का हुआ हो तो वह शिकायत करने जैसे पचड़े में नहीं पड़ना चाहता। इस लिहाज से परिषद के पास जो शिकायतें आई होंगी, वे कुल शिकायतों का सौवां/हजारवां हिस्सा ही रही होंगीं। इसका अनुमान ऐसे भी लगाया जा सकता है कि परिषद तक पहुंची शिकायतें प्राय: नामचीन कंपनियों के बहुप्रचलित उत्पादों के विरुद्ध थीं। नई या कम चर्चित कम्पनियों के उत्पादों के गुण-दोष पर तो लोग वैसे भी कम ध्यान देते हैं। सरकारी और कुछ गैर सरकारी संगठनों के विज्ञापन सूचित, सचेत तथा जागरूक करने के लिए जरूर होते हैं लेकिन इसके अलावा बाकी के विज्ञापन येन-केन- प्रकारेण अपना माल बेचने के लिए ही होते हैं। आज का बाजारवाद बेहद आक्रामक है। वह लोगों को मूर्ख बनाकर, फंसाकर, डराकर तथा इससे भी काम न चले तो उनके जीवन में सम्बन्धित वस्तु की जरूरत पैदा कर अपना माल बेचना जानता है। इसका सबसे सटीक उदाहरण पीने का पानी और आयोडीन युक्त नमक है। जीवन के लिए अति आवश्यक इन दोनों वस्तुओं के बारे में दशकों से सिलसिलेवार और एक खास दृष्टिकोण से समाचार, लेख, गोष्ठियां, विज्ञापन और जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है। लोगों को बताया जाता है कि बोतलबंद पानी के अलावा दुनिया का सारा पानी दूषित हो चुका है। पानी के बारे में जिस तरह की बातें विज्ञापित की जाती हैं, उसके अनुसार तो उन लोगों का जीवन खतरे में पड़ जाना चाहिए जो सरकारी आपूत्तर्ि या हैंडपम्प के पानी का प्रयोग करते हैं। यह सच है कि देश में भू-गर्भीय जल में आर्सेनिक और फ्लोराइड जैसे हानिकारक तत्त्वों की मात्रा मौजूद है लेकिन यूनिसेफ की रपट (वर्ष 2008) कहती है कि भारत की 88 प्रतिशत आबादी को संशोधित साधनों से पीने का पानी सुलभ है। पीने के पानी को गन्दा, दूषित और जहरीला बताकर भय पैदा करने का ही नतीजा है कि आज देश में बोतलबंद पानी का व्यवसाय 10,000 करोड़ रुपये से भी अधिक का हो गया है और जिसके वर्ष 2015 तक 15,000 करोड़ रुपये तक हो जाने का अनुमान है। आज स्थिति यह हो गयी है कि शहरों में बहुत से लोगों ने अवैध ट्यूबवेल या सरकारी आपूत्तर्ि से पानी चुराकर उसे बेचने का धंधा बना लिया है। गांव देहात में शुद्ध बोतलबंद पानी के भ्रम में लोग भारी कीमत देकर उसे हर रोज खरीद रहे हैं। दुकानों और दफ्तरों में भी पानी के डिब्बे उसी तरह पहुंचाए जा रहे हैं जैसे खाने का टिफिन। विज्ञापन से पैदा हुई दहशत का आलम यह है कि पैसे वाले लोग पेयजल शुद्धिकरण के लिए घरों में महंगे आरओ या वॉटर प्यूरीफायर लगा रहे हैं। कई मामलों में तो लोग ‘ज्यादा महंगा, तो ज्यादा अच्छा’ की मानसिकता के चलते ऐसे स्तर का आरओ घर में लगा रहे हैं जिसकी उन्हें जरूरत ही नहीं है और वह उनके पेयजल को डिस्टिल्ड वॉटर बना दे रहा है। जानना जरूरी है कि प्राकृतिक शुद्ध जल में कई प्रकार के खनिज और लवण पाए जाते हैं जो मानव शरीर के लिए जरूरी होते हैं लेकिन उक्त प्रकार के आरओ इन सबको भी छानकर निकाल देते हैं। यही स्थिति खाद्य तेलों के साथ भी है। विज्ञापन का असर ऐसा है कि अब वे लोग भी रिफाइंड तेल खा रहे हैं जिन्हें इसकी कोई जरूरत नहीं है। ताजा अध्ययन बताते हैं कि रिफाइंड तेल से ऐसे बहुत से तत्व निकाल दिए जाते हैं जिनकी एक स्वस्थ आदमी को रोज आवश्यकता होती है। आयोडीन युक्त नमक का मामला भी ऐसा ही है। आयोडीन की अत्यन्त अल्प मात्रा की ही जरूरत हर आदमी को होती है। जिन इलाकों में प्राकृतिक तौर पर आयोडीन नहीं पाया जाता, वहां घेंघा आदि कई बीमारियां हो जाती हैं। ऐसे लोग देश की कुल आबादी का मात्र 2.5 यानी ढाई प्रतिशत ही हैं। ताजा रिसर्च से पता चलता है कि एक स्वस्थ आदमी को प्रतिदिन सिर्फ दामलव डेढ़ सौ (0.150) माइक्रोग्राम आयोडीन चाहिए। एक हजार माइक्रोग्राम का एक मिलीग्राम होता है तो एक मिलीग्राम आयोडीन एक सप्ताह के लिए पर्याप्त हुआ। इसका मतलब यह हुआ यदि कोई व्यक्ति 90 वर्ष की उम्र तक जिए तो उसे जीवन में कुल साढ़े चार ग्राम आयोडीन की जरूरत होगी! यह खाना खाने वाले चम्मच से आधा चम्मच ही हुआ। मानव शरीर की खासियत यह है कि यह अतिरिक्त आयोडीन की मात्रा को उत्सर्जन क्रियाओं द्वारा निकाल देता है इसलिए आयोडीनयुक्त नमक बनाने वाली कम्पनियों का अरबों रुपये का धंधा चल रहा है। इस नमक लॉबी के दबाव में वर्ष 2005 में केन्द्र सरकार ने साधारण नमक की बिक्री को प्रतिबंधित कर दिया जिससे नमक- कम्पनियों की चांदी हो गई। जबकि नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन हैदराबाद ने अपने अध्ययन में पाया कि आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, केरल, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में प्राकृतिक रूप से ही जरूरत से ज्यादा आयोडीन मौजूद है। बावजूद इसके समूचे देश को साधारण नमक की जगह आयोडीनयुक्त नमक खाने को बाध्य करने की कोशिशें होती हैं। ( राष्ट्रीय सहारा 09 May 2014 के सम्पादकीय पृष्ठ 10 पर )
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