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नया मोर्चा
समय और समाज का साक्षी
Friday, May 02, 2014
दलों व माध्यमों की पारदर्शिता से रुक सकेगी 'पेड न्यूज' ---- सुनील अमर
'पे
ड न्यूज' यानी पैसे लेकर माफिक समाचार प्रकाशित करने का मामला एक बार फिर चर्चा में है। देश के मुख्य चुनाव आयुक्त वी.एस. सम्पत ने गत दिनों तिरुवनंतपुरम् में चुनाव सुधारों पर आयोजित एक सेमिनार में कहा कि राजनीतिक दलों द्वारा पैसे देकर माफिक खबरों को छपवाने से चुनावी प्रक्रिया को व्यापक क्षति पहुॅचती है, इसलिए इसे चुनाव अपराध बनाना चाहिए ताकि इसमें शामिल सभी लोगों को परिणामों का सामना करना पड़े। उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग ने इस सम्बन्ध में विधि मंत्रालय को एक प्रस्ताव भेजा है।
पत्रकारिता की बदलती प्रवृत्ति तथा उसमें आ रहे चारित्रिक क्षरण का एक रुप पेड न्यूज के तौर पर दिखाई पड़ने लगा है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ राजनीतिक दल ही पैसा देकर मनमाफिक खबरें छपवाते हैं या सिर्फ अपने देश में ही ऐसा हो रहा है बल्कि दुनिया के तमाम देशों में तमाम तरह के लोग अपने स्वार्थवश ऐसा कर रहे हैं। पैसा देकर खबरें चाहे राजनीतिक दल छपवाऐं या उद्योगपति, अंतत: उसका खमियाजा उस खबर को पढ़ने वाले को ही उठाना पड़ता है। राजनीतिक दल चूँकि सत्ता में आकर देश का संचालन करते हैं इसलिए उनके द्वारा प्रचारित किया गया कोई झूठ ज्यादा गंभीर और व्यापक प्रभाव वाला हो जाता है। सभी जानते हैं कि समाचार माध्यमों में दो जगह होती है- एक जहाँ समाचार रहता है और दूसरी, जहॉ विज्ञापन। पत्रकारिता करने वालों की एक व्यावहारिक समझ यह होती है कि जो बताया जाय वह विज्ञापन होता है और जो छिपाया जाय वह समाचार। शुरु से ही समाचारों की विश्वसनीयता विज्ञापनों से कहीं अधिक होती रही है क्योंकि पाठक को विश्वास रहता है कि समाचार माध्यम ने आवश्यक छानबीन के पश्चात ही खबर को जारी किया होगा जबकि विज्ञापन तो होता ही है ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए। पाठकों का यही विश्वास समाचारों को कीमती बनाता है और न्यस्त स्वार्थों वाले लोग यही कीमत देकर अपने विज्ञापन को खबर बनवाते हैं ताकि पढ़ने वालों को अपने हक़ में किया जा सके। हाल के वर्षों में राजनीतिक दलों द्वारा ऐसा किए जाने के मामले बहुतायत में आने लगे हैं और कुछ निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपनी सदस्यता से वंचित भी किए जा चुके हैं।
लेकिन सिर्फ राजनीतिक दल ही इस मामले में दोषी हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता। घूस देने वाला जितना गुनाहगार होता है, उतना ही लेने वाला भी। राजनीतिक दल या अन्य लोग पहले भी समाचार माध्यमों को अपने पक्ष में करते रहते थे। आचार्य द्विवेदी का एक प्रसंग इस सन्दर्भ में सामयिक होगा। उन दिनों वे 'सरस्वती' का सम्पादन कर रहे थे। एक सज्जन उनसे मिलने आये तो अपने साथ कोई उपहार भी लाए थे। चलते समय उन्होंने अपनी कोई रचना द्विवेदी जी को सरस्वती में प्रकाशनार्थ दी। कुछ माह पश्चात एक दिन वे सज्जन फिर द्विवेदी जी से मिलने आये और अपनी रचना प्रकाशित न होने के बारे में शिकायत की। बातों-बातों में उन्होंने दिए गए उपहार की तरफ भी द्विवेदी जी का ध्यान दिलाया। द्विवेदी जी कुछ क्षण उन्हें देखते रहे और फिर आलमारी की तरफ इशारा करके बोले कि आपका दिया उपहार ज्यों का त्यों वहाँ रखा है, आप तुरन्त उसे ले लीजिए। सरस्वती किसी के व्यापार का साधन नहीं बन सकती।
तब और आज की परिस्थितियों में बुनियादी फ़र्क यह है कि तब न तो लाभ कमाने के आकांक्षी इस कार्य क्षेत्र में आते थे, न पत्र-पत्रिकाओं का प्रचार-प्रसार आज जितना व्यापक था और न ही यह क्षेत्र अकूत आर्थिक लाभ कमाने का उपक्रम बना था। आज अगर अरबों-खरबों रुपये का ऋण लेकर और पूॅजी बाजार से जनता का धन लेकर समाचार पत्र या चैनल चलाए जा रहे हैं तो निश्चित ही वे लाभ कमाने के लिए ही हैं और जो काम लाभ कमाने के लिए किया जाएगा वहाँ हर प्रकार से लाभ कमाने की बात सोची जाएगी ही। यह तो दौर ही बाजारवाद का है जहॉ 'सब बिकता है' का उद्धोष चौबीस घंटे हो रहा है। आज के समय में जो पत्र-पत्रिकाऐं लाभ न कमाने की घोषणा करके चलाई जा रही हैं वहाँ भी कंचन न सही कामिनी-शोषण कर उपकृत करने की काली छायाऐं प्रतिबिम्बित हो रही हैं। तो उपकृत होना और करना आज जैसे समाचार माधयमों की नियति बन गई है।
'पेड न्यूज' की प्रकृति और इसे रोकने के उपायों पर अगर विचार किया जाय तो समझ में आता है कि इस मामले में सबसे बड़ी दोषी तो सरकार खुद ही है। समाचार माध्यमों को करोड़ों रुपयों का विज्ञापन तथा अन्य तमाम सरकारी सहूलियतें जब दी जाती हैं तो अप्रत्यक्ष रुप से यह दबाव तो रहता ही है कि अगर किसी भी तरह से दाता नाराज हो गया तो प्राप्त हो रही सुविधा व सहूलियत बंद हो जाएगी। सरकार जब विज्ञापन देती है तो अपेक्षा भी रखती है कि समाचार माध्यम सरकारी खबरों को भी महत्त्वपूर्ण ढ़ॅंग से प्रकाशित करेगा। चुनाव नजदीक आने पर यह लेन-देन जरा बड़े पैमाने पर होने लगता है। यही कारण है कि चुनाव आयोग ने विधि मंत्रालय को भेजे सुधार सम्बन्धी प्रस्ताव में यह कहा है कि चुनाव होने से कम से कम छह माह पूर्व सत्तारुढ़ दल अपनी सरकार की उपलब्धियों के बखान वाले विज्ञापनों को जारी करना बंद कर दें।
आज के दौर की राजनीति बेहद खर्चीली हो गयी है। साधारण जनाधार वाले किसी राजनीतिक दल को चलाना आज किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी को चलाने जैसा हो गया है। ऐसे में सभी राजनीतिक दल अपने प्रभाव और जुगाड़ से अधिकाधिक धान इकठ्ठा करने में लगे रहते हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सेदारी करने के बावजूद किसी भी दल में न तो आंतरिक लोकतंत्र है और न ही मॉग होने के बावजूद कोई दल इसे स्वीकार करने के पक्ष में है। यहाँ तक कि पार्टी के खातों की जॉच कराने को भी कोई दल तैयार नहीं। यही वह कारण है जो पेड न्यूज को बढ़ावा देता है। लगभग यही हालत समाचार माध
्
यम चलाने वाली कम्पनियों की भी है। सूचना तकनीक पर संसद की स्थाई समिति ने बीती 6 मई को प्रस्तुत अपनी 47वीं रिपोर्ट में कहा है कि मीडिया घरानों के खातों की नियमित जॉच की जानी चाहिए ताकि यह पता चले कि उनके राजस्व के स्रोत क्या-क्या हैं। समिति ने पेड न्यूज पर व्यापक अधययन कर कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। इसके अलावा समिति ने मीडिया संस्थानों में कार्यरत पत्रकारों के वेतन, उनकी नौकरी की परिस्थितियाँ, कार्य करने की स्वतंत्रता तथा संस्था में सम्पादक के अधिकारों की भी समय-समय पर समीक्षा करने पर जोर दिया है। समिति का मानना है कि ठेका पर पत्रकारों को रखने और कम वेतन दिए जाने के कारण भी पेड न्यूज का प्रचलन बढ़ा है। समिति ने इसी क्रम में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात की तरफ इंगित किया है कि अखबारों की नियामक संस्था भारतीय प्रेस परिषद में बहुत से मालिक-सम्पादक और मालिक भी शामिल रहते हैं। इस स्थिति में पेड न्यूज पर अंकुश लगाना मुश्किल होगा। समिति ने एक वजनदार संस्तुति यह भी की है कि पेड न्यूज का मामला सही पाए जाने पर चुनाव आयोग को प्रत्याशी के विरुध्द कार्यवाही करने का अधिकार मिलना चाहिए। आज जो स्थितियॉ हैं उनमें समाचार पत्र को उत्पाद तथा समूह को कारपोरेट मान लेने वाले मीडिया घरानों से पेड न्यूज बंद करने की उम्मीद सरासर बेमानी होगी। इस पर बाहर से अंकुश लगाने की व्यवस्था करनी होगी। चाहे ऐसा भारतीय प्रेस परिषद करे, चुनाव आयोग करे या कोई अन्य संवैधानिक संस्था। ( 30 December 2013 Humsamvet)
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सुनील अमर
Ayodhya - Delhi, U.P., India
An M.A. in English and a degree in Journalism . 45 years given to this field till now. Writer - Shayer & Social Activist .
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