Friday, May 02, 2014

कारगर होगी चुनाव आयोग की नई रोकथाम ------ सुनील अमर



 से समय में जब ये खबरें आ रही हों कि देश के एक प्रमुख राजनीतिक दल ने अपने प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी की छवि चमकाने के लिए देश की एक शीर्ष विज्ञापन कम्पनी को चार सौ करोड़ रुपये का ठेका दे दिया है तथा चुनाव से काफी पहले से ही यह राजनीतिक दल अपनी एक-एक रैली पर कई करोड़ रुपये खर्च कर रहा है, तो दुनिया में अपनी निष्पक्ष और सख्त छवि के प्रसिध्द देश के चुनाव आयोग का चिंतित होना स्वाभाविक ही है। चुनावों में बढ़ते धन बल को हर हाल में रोकने के लिए कटिबध्द भारत के चुनाव आयोग ने आसन्न लोकसभा चुनावों के मद्दे-नजर कुछ नयी तैयारियाँ की हैं। इसमें मुख्य रुप से चुनाव में प्रयुक्त होने वाले कालेधान पर हर संभव तरीके से रोक लगाना है।
              चुनावों में किस तरह से राजनीतिक लोग बड़े पैमाने पर कालेधन का इस्तेमाल कर आयोग की ऑख में धाूल झोंकते हैं इसकी पहली सार्वजनिक स्वीकारोक्ति कुछ माह पूर्व भाजपा के एक बड़े नेता गोपीनाथ मुंडे ने मुम्बई में की थी। उन्होंने स्वीकार किया था कि अपने लोकसभा के चुनाव में उन्होंने आठ करोड़ रुपये से अधिक धन खर्च किया था। धयान रहे कि चुनाव आयोग द्वारा लोकसभा प्रत्याशी के खर्च की वैधानिक सीमा सिर्फ चालीस लाख रुपया तथा विधान सभा प्रत्याशी की सिर्फ सोलह लाख रुपया ही है। श्री मुंडे की इस स्वीकारोक्ति को चुनाव आयोग ने गंभीरता से लिया है और उन्हें तथ्यों को छुपाने का दोषी मानते हुए कार्यवाही शुरु की है। यह सिर्फ गोपीनाथ मुंडे का ही मामला नहीं है। ऐसा माना जाता है कि चुनाव लड़ने वाले प्राय: सभी लोग अंधाधुंध पैसा खर्च करते हैं लेकिन आयोग को दिए जाने वाले अपने दस्तावेजों में निर्धारित सीमा से भी आधा ही खर्च किया हुआ दिखाते हैं। अब यह एक आम रिवाज बन गया है कि ऐसे प्रत्याशी अपने विज्ञापन तथा अन्य मद में हुए भारी खर्च को अपने प्रशंसकों और समर्थकों द्वारा खर्च किया हुआ बताकर आयोग की ऑंखों में धूल झोंकते हैं। इस बार की बैठक में आयोग ने ऐसे कृत्यों का संज्ञान लेते हुए यह निर्धारित किया है कि किसी भी प्रत्याशी के पक्ष में कोई व्यक्ति तभी विज्ञापन छपवा या प्रचार सामाग्री बनवा सकेगा जब उसे प्रत्याशी की लिखित सहमति प्राप्त होगी। नि:सन्देह ऐसा हो जाने से प्रत्याशी की ऐसे खर्चों की जवाबदेही बनेगी।
             आयोग का एक दूसरा प्रावधान भी बहु प्रतीक्षित कदम है। यह देखने में आता है कि समाचार माधयम किसी एक राजनीतिक दल या व्यक्ति को अपनी खबरों में ज्यादा समय या स्थान देने लगते हैं। आयोग की समझ में यह भी एक प्रकार की पेड न्यूज सरीखा मामला है और उसकी कोशिश है कि आने वाले चुनावों में प्रत्येक दल या प्रत्याशी को समान अवसर और स्थान मिल सके। धनबल के इस खेल में होता यह है कि बहुत से योग्य प्रत्याशी धनाभाव में अपनी बात मतदाताओं तक पहॅुचा ही नहीं पाते और वह धनपतियों की चकाचौंधा में गुम हो जाते है। धन के इस मायाजाल को काटने का उपाय वामपंथी दलों ने काडर बनाकर और सतत जनसम्पर्क करके निकाला था लेकिन अफसोस है कि वामपंथ चुनावी परिदृश्य से गायब ही होता जा रहा है। एक दिक्कत यह है कि आयोग के पास किसी समाचार माधयम के विरुद्व कार्यवाही करने का सीधा अधिकार नहीं है। अखबार में आए ऐसे मामलों की शिकायत तो वह भारतीय प्रेस परिषद को भेज देता है। प्रेस परिषद की भी सीमा यही है कि वह दोषी पाए गए अखबार या पत्रिका की (परिषद के अधिकार क्षेत्र में प्रिंट माध्यम ही आता है) सिर्फ भर्त्सना ही कर सकता है। दंड देने का अधिकार उसके पास भी नहीं है। परिषद सर्वोच्च संस्था है। दंड देने का अधिकार प्राप्त होने से उसके विरुद्व अपील की स्थिति बनेगी और उसकी सर्वोच्चता नहीं रह जाएगी। लेकिन देखने में यह आ रहा है कि समाचार माधयमों की प्रवृत्ति में आमूल-चूल बदलाव आ गया है और इनकी प्रकृति समाजसेवा की न होकर उद्यम की हो गयी है। इसलिए महज भर्त्सना का इन पर कोई भी असर नहीं हो रहा है। शासन द्वारा इन्हें दंडित करने की अवधारणा इसलिए उचित नहीं कही जा सकती कि इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है। ऐसे में चारों तरफ से बार-बार यही कहा जाता है कि समाचार माधयम अपने भीतर से ही खुद पर अंकुश लगाने की व्यवस्था करें लेकिन यह आग्रह कारगर नहीं हो पा रहा है। बेहतर होगा कि आयोग अनुभवी और स्वच्छ छवि वाले प्रेस प्रतिधियों को मिलाकर एक अधिकार सम्पन्न संस्था बनाए और दोषी पाए जाने वाले समाचार माधयमों पर खुली कार्यवाही की व्यवस्था करे। आयोग मीडिया में 'अंडर टेबल' चलने वाले इस धांधो को बंद करने के प्रति अपनी प्रतिबद्वता प्रकट कर रहा है लेकिन इस बात का उसे धयान रखना ही होगा कि उसका कोई भी कृत्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले की श्रेणी में न आए।
             समाचार माध्यमों पर निगाह रखने में आयोग को एक नई चुनौती का सामना करना पड़ रहा है और वह है-सोशल मीडिया यानी इंटरनेट पर मौजूद समाचार और प्रचार माधयम। इंटरनेट के बढ़ते प्रचार-प्रसार ने इसे काफी उपयोगी बना दिया है और इसका भी हर तरह से असर दिख रहा है। आयोग इस पर निगरानी बैठा रहा है और समझा जाता है कि इस पर हुई गतिविधि को भी प्रत्याशी के प्रचार और खर्चे से जोड़ा जाएगा। मंहगाई और प्रचार के विकसित होते संसाधनों के परिप्रेक्ष्य में आयोग प्रत्याशियों के चुनाव खर्च की निर्धारित सीमा को भी बढ़ाने पर विचार कर रहा है। हालॉकि ऐसा होने से कोई वांछित सुधार आ जाएगा, इसमें शक है। चालीस लाख की सीमा होने पर जो प्रत्याशी पच्चीस लाख का चुनाव खर्च दिखा रहे हैं वो साठ लाख की सीमा होने पर थोड़ा और खर्च दिखा देंगें। तय सीमा से अधिक खर्च तो आज तक किसी भी प्रत्याशी ने दिखाया नहीं है। यह जरुर हुआ है कि देश में अपने तरह के पहले मामले में उत्तर प्रदेश में वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में पेड न्यूज का मामला साबित हो जाने पर एक महिला विधायक उमलेश यादव का चुनाव आयोग ने रद्द घोषित कर दिया था।
             आयोग के चुनाव सुधार की दिशा में उठाए गए कदमों ने सार्थक नतीजे दिए हैं। उसकी सख्ती और चुस्त व्यवस्था का ही परिणाम है कि बूथ कैप्चरिंग जैसी चुनावी महामारी अब समाप्त हो चुकी है और इसके लिए कुख्यात बिहार जैसे राज्य भी अब इससे मुक्त हो चुके हैं। हालाँकि कई बार आयोग के निर्णय लोगों को हास्यास्पद और बेजा कार्यवाही जैसे लगते हैं, जैसे उत्तर प्रदेश के गत विधानसभा चुनाव में पूर्ववर्ती बसपा सरकार द्वारा प्रदेश में जगह-जगह स्थापित की गई हाथी की मूर्तियों को पर्दे में ढ़ॅंकने का आदेश लेकिन जनभावना को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने पर आदेश की सार्थकता समझ में आती है। देश में अभी भी सारे चुनाव आखिर चिह्नों पर ही तो लड़े जाते हैं। ऐसे में पेड न्यूज, चुनाव घोषणा के पूर्व किए गए खर्चे तथा शुभचिंतको आदि की आड़ में किए जाने वाले बेतहाशा खर्चों को कानून की जद में लाना बहुत जरुरी है। चुनाव में धनबल की बहुलता ने योग्य लेकिन धनहीन व्यक्तियों को न सिर्फ लड़ाई से बाहर कर दिया है बल्कि जनता के सदनों को अपराधियों और धंधेबाजों से भर दिया है। आयोग के चुनाव सुधार की ताजा पहल का समर्थन और स्वागत किया जाना चाहिए। ( हमसमवेत)

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