Friday, May 02, 2014

खेती-किसानी की सुध भी कोई ले --- सुनील अमर


किसान और मजदूरों को मिलाकर देश की लगभग तीन-चौथाई आबादी बनती है लेकिन किसी भी प्रमुख राजनीतिक पार्टी के एजेंडे में खेतीकि सानी मुख्य मुद्दा नहीं हैं। यह हताशापूर्ण स्थिति है। खासकर ऐसे समय में जब प्राकृतिक आपदा और कृषि ऋण से त्रस्त किसानों की आत्महत्या की संख्या बढ़ती जा रही है। देश की सव्रेक्षण एजेंसियों तथा स्वयं सरकार की जांच-पड़ताल का नतीजा बताता है कि किसानों की औसत मासिक आय बढ़ने के बजाय घट रही है और खेती-किसानी छोड़कर पलायन कर रहे लोगों की संख्या में इजाफा हो रहा है। ऐसे में उम्मीद थी कि सत्तारूढ़ दल व्यापक अनुभवों से सबक लेते हुए किसानों की बदहाली के लिए ठोस उपायों की घोषणा करता और देश में परिवर्तन लाने का ढिंढोरा पीट रही प्रमुख विपक्षी पार्टी पार्टी किसानों की दयनीय दशा पर तरस खाती लेकिन दोनों पार्टियां इस दिशा में उसी तरह खामोश हैं जैसे अन्य क्षेत्रीय पार्टियां। किसान एक बार फिर ठगा जा रहा है। वामपंथी दल इस तबके की बात जरूर करते हैं लेकिन वे सत्ता परिवर्तन करने की स्थिति में नहीं हैं। किसानों की बदहाली का मुख्य कारण उनका असंगठित होना है। संसदीय राजनीति का जो स्वरूप हो गया है, उसमें सिर्फ संगठित वर्ग की ही आवाज सुनी जाती है। किसानों का जो वर्ग संगठित है, उसमें बड़े किसान और खेती के नाम पर फलों के बगीचे, चाय बागानों के मालिक, कृषि यंत्र निर्माता तथा रासायनिक उर्वरक निर्माता आदि आते हैं। किसानों के नाम पर दी जाने वाली सरकारी रियायतों का तीन-चौथाई हिस्सा यही ले जाते हैं। इनकी आवाज सरकारें सुनती हैं और ये लोग ही कृषि नीतियों को प्रभावित करते हैं। इनके लिए चुनावी घोषणा की भी जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि ये सरकारों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी किसानों और युवाओं की बात तो करते हैं लेकिन उनकी देख-रेख में तैयार कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र में किसानों-मजदूरों के बारे में कुछ खास नहीं है। हालांकि कॉग्रेस नीत संप्रग-1 के कार्यकाल में मजदूरों की कर्जमाफी का महत्वपूर्ण काम किया गया था जो उसके तत्कालीन चुनावी घोषणापत्र के अनुरूप था। भाजपा केन्द्र में परिवर्तन का नारा दे रही है। घोषित
लोकसभा चुनाव के लिए देश में काफी पहले से भाजपा ने प्रचार का भारी-भरकम काम शुरू कर दिया था। उसके नये खेवनहार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी लगभग साल भर से रैलियां कर रहे हैं लेकिन उनके भाषणों में भी देश की कृषि नीति के बारे में कुछ खास सुनने को नहीं मिलता है। गन्ना किसानों की बात तो उन्होंने एकाध बार की है लेकिन समग्र किसानों की बात नहीं करते। केन्द्र में कुल मिलाकर इसके खाते में छह वर्षों से अधिक का कार्यकाल दर्ज है लेकिन किसानों की बदहाली दूर करने का ठोस प्रयास इस सरकार ने कभी नहीं किया। अबकी बार भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी तो बड़े व्यवसायियों और उद्योगपतियों से लगाव के लिए ही ज्यादा जाने जाते हैं। तमाम सरकारी और गैर-सरकारी सव्रेक्षण बताते हैं कि देश के किसानों की प्रति परिवार औसत मासिक आमदनी 2200 रपए के करीब है। चार व्यक्तियों के एक परिवार के मानक के अनुसार यह प्रति व्यक्ति दैनिक 20 रुपये से भी कम बैठता है जिसके बारे में लगभग सात साल पहले प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अजरुन सेनगुप्ता ने अपनी रपट में बताया था कि देश की 83 करोड़ 60 लाख आबादी की औसत दैनिक आमदनी नौ से बीस रुपये के बीच है। देश में सभी वस्तुओं और वेतनभोगियों की आमदनी लगातार बढ़ रही है लेकिन किसान की आमदनी स्थिर हो गई है। देश में परिवर्तन लाने का दावा करने वाले इसके बारे में मुंह नहीं खोल रहे हैं। किसान से कहीं ज्यादा अच्छी हालत तो मनरेगा के मजदूर और जेल में बंद कैदियों की है। जेल में बंद एक कैदी जहां 99 रुपये दैनिक तक पाता है, वहीं मनरेगा में 150 से लेकर 200 रुपये तक की दिहाड़ी सरकारें दे रही हैं। एक किसान परिवार अगर जेल चला जाए तो अपनी खेती की कमाई का छह गुना ज्यादा तो निश्चित ही पा सकता है और अगर वह किसानी छोड़कर मजदूर बन जाय तो 10-12 गुना ज्यादा कमा सकता है। शोध संस्था ‘सीएसडीएस’ ने बीते मार्च महीने में अपनी एक सव्रे रपट जारी की है जिसमें देश के किसानों की भयावह सचाई सामने आई है। इस सव्रे में 18 राज्यों के 137 जिलों में 11000 किसानों से बात की गई। रपट के अनुसार किसान मानते हैं कि सरकारी योजनाओं का लाभ सिर्फ बड़े और सक्षम किसानों को ही मिल रहा है और 76 प्रतिशत किसानों ने कहा कि वे खेती छोड़कर कोई दूसरा काम करना चाहते हैं। तमाम शहरी और औद्योगिक विकास के बावजूद देश की आधी आबादी आज भी खेती पर निर्भर है। क्या यह माना जा सकता है कि इस आधी आबादी को सरकार कल- कारखानों और मजदूरी में समायोजित कर लेगी? सरकारी तौर पर यह कहा जाता है कि खेती पर निर्भर रहने वालों का दबाव बढ़ रहा है लेकिन उस दबाव को कम करने का कोई उपाय किया नहीं जाता। एक सहज उपाय कृषि से सम्बन्धित कुटीर उद्योग धंधों तथा प्रसंस्करण इकाइयों का विकास है जिससे न सिर्फ किसानों को अतिरिक्त आमदनी हो सकती है बल्कि ग्रामीण नौजवानों का शहरों की तरफ पलायन भी रुक सकता है लेकिन इस दिशा में आज तक कुछ हुआ ही नहीं। इसके विपरीत यह जरूर हुआ है कि खेतिहर नौजवानों के शहर की तरफ पलायन करने से वहां कामगारों की भीड़ बढ़ी है और वे कम वेतन या दिहाड़ी पर काम करने को मजबूर हैं। इससे पूंजीपतियों का ही लाभ हो रहा है। देश आज भी कृषि प्रधान है। ऐसे में जरूरी था कि दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियां अपने चुनाव घोषणा पत्र में तीन मुद्दे जरूर रखतीं। पहला रेल विभाग की तरह कृषि का भी अलग से बजट बने। ताकि किसानों की समस्याओं का तरीके से निस्तारण किया जा सके। दूसरे, प्रत्येक लघु और मध्यम किसान को निश्चित आय की गारंटी सरकार से मिले ताकि वह खेती से विमुख न हो और तीसरा देश के इस सबसे बड़े क्षेत्र के लिए प्रशासनिक सेवा और तकनीकी सेवा की तरह अलग से भारतीय कृषि सेवा भी होनी चाहिए क्योंकि अब तक इस विभाग से सभी महत्वपूर्ण पदों पर प्रशासनिक सेवा के अधिकारी ही कब्जा जमाए हुए हैं जिनका खेती-किसानी से कोई वास्ता नहीं होता। खेती के लिए हवाई योजनाएं इसीलिए बनती रहती हैं। अफसोस यह कि आगामी पांच वर्षो में किसान फिर से उसी तरह बदहाली में जीने को अभिशप्त होगा जैसे अब तक जीता आया है। ( 25 April in Rashtriya Sahara) 

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