Wednesday, July 04, 2012

कई सवाल खड़े करती है माही की मौत -- सुनील अमर




                  दुनिया की दुश्वारियों से नावाकिफ चार साल की मासूम बच्ची माही हरियाणा के मानेसर में उस अंधे कुऐं में गिरकर मर गयी जो किसी और का गुनाह था। उसे बचाने में सेना के जवानों ने हमेशा की तरह प्रशंसनीय कार्य किया लेकिन वह नन्हीं सी जान कुॅऐ में गिरने के बाद ज्यादा देर तक जीवित ही नहीं रही थी जबकि पथरीली जमीन को काटते हुए 80 फुट नीचे उस तक पहॅुचने में सेना के जवानों को 87 घंटे लग गये थे। बोरवेल के ये हादसे नये नहीं हैं और बीते पॉच वर्षों में लगभग डेढ़ दर्जन ऐसे हादसे देश भर में हो चुके हैं। सबसे चर्चित हादसा हरियाणा का ही प्रिंस नामक बच्चे का था। वह भी माही की तरह ऐन अपने जन्म दिन 23 जुलाई 2006 को बोरवेल में गिर पड़ा था लेकिन उसे सेना के जवानों ने 40घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद जीवित निकालने में सफलता पाई थी। बाकी मामलों में शायद चार-पाँच बच्चे ही जीवित निकाले जा सके। इसी के साथ यह भी सच है कि इतने हादसों के बावजूद न तो अवैधा बोरवेल (जमीन की खुदाई करके बनाये गए कुँओं) पर लगायी गयी सरकारी रोक प्रभावी हो सकी है और न ही वैध कुँओं को ढ़ॅंक कर रखने के आदेश। इतने बच्चों के काल कवलित हो जाने और इन्हें बचाने में सेना के सैकड़ों जवानों के प्रशंसनीय श्रम व सरकारी धान की बरबादी के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि अब आगे ऐसे हादसे नहीं होंगें क्योंकि पिछले छह वर्षों से ऐसे कुओं की खुदाई पर रोक होने के बाद भी आखिर कुॅए खोदे ही जा रहे हैं! ताजा खबर है कि पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले में भी बीते 25 जून को एक बोरवेल में गिरे रोशन अली मंडल नामक किशोर की मौत हो गई है और उसके शव को भी कुॅए से निकाला गया है।
               माही की मौत ने कई सवाल उठाये हैं। सवाल सिर्फ बोरवेल का ही नहीं है। देश में ऐसे तमाम कार्यों पर रोक है जिनसे आम जनता को दिक्कत होती है या वे जन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, लेकिन वे सभी काम उनसे सम्बन्धित अधिकारियों की ऑंखों के सामने सरे-आम हो रहे हैं। केन्द्रीय भू-जल प्राधिकरण ने देश भर में ऐसे 84 स्थानों को चिन्हित व प्रतिबन्धित किया हुआ है जहाँ कुऑं खोदने, बोरिंग करने व जल निकासी के लिए अधिकारियों की अनुमति आवश्यक है। इनमें से 12स्थान सिर्फ हरियाणा में ही हैं। ऐसे स्थानों पर उस मंडल के उपायुक्त की अनुमति के बगैर कुऑ की खुदाई या बोरिंग नहीं की जा सकती। माही की मौत जहाँ हुई है,वह भी ऐसे ही क्षेत्र में आता है लेकिन घटना गवाह है कि किस तरह कानून का मखौल उड़ाकर निरीह बच्चों को काल का ग्रास बनाया जा रहा है। यद्यपि हरियाणा सरकार सिर्फ बीते एक साल में ही 500से अधिक ऐसे अवैध बोरवेल को बंद करा चुकी है तथा आगे की निगरानी और जॉच के लिए 27 निरीक्षण टीमों को तैनात कर रखा है, बावजूद इस सबके हादसे हो ही रहे हैं। वजह साफ है- ऐसे कृत्यों पर गंभीर दंड़ की व्यवस्था अभी तक की ही नहीं गयी है।
              देश में ऐसे बहुत से कानून और न्यायालयों के आदेश हैं जिनका क्रियान्वयन ही नहीं किया जाता क्योंकि हमारी सरकारी मशीनरी या तो काम नहीं करना चाहती या फिर किंही कारणों से वह सम्बन्धित मामलों से ऑखें बंद किये रहती है। बोरवेल के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय ने 11फरवरी 2010को एक आदेश जारी कर सभी राज्य सरकारों से कहा था कि बोरवेल खोदने वाले को सम्बन्धित अधिकारियों से 15दिन पूर्व ही अनुमति लेनी आवश्यक होगी। कुछ दिन बाद अगस्त 2010 को अदालत ने इसमें संशोधन करते हुए प्राविधान किया था कि अगर बोरवेल का कोई हादसा होता है तो सम्बन्धित जिला मैजिस्ट्रैट को इसके लिए उत्तरदायी माना जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेश के बावजूद अब तक घटी ऐसी 19 घटनाओं में एक भी जिला मैजिस्ट्रैट को दंडित नहीं किया गया है। मानेसर में र्हुई ताजा घटना में भी भू-स्वामी की तलाश की जा रही है। यह कितने अचरज की बात है कि हमारा प्रशासन ऐसे कुॅओं को ढॅक़वा तक नहीं सकता! देश में वैसे तो असंख्य कुऐं सूखे या खुले पड़े हैं लेकिन वे उतने खतरनाक नहीं हैं जितने बोरवेल क्योंकि साधारण कुॅऐ काफी चौड़े और बहुत कम गहरे होते हैं और उनमें गिरे व्यक्ति या जानवर को निकालना चंद मिनटों का काम होता है जबकि बोरवेल प्राय: बहुत ही सॅकरे, 2-3 फुट और 100 फुट के करीब गहरे होते हैं। बोरवेल प्राय: वहीं बनाये जाते हैं जहॉ जमीन पथरीली होने के कारण पानी बहुत नीचे होता है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि ऐसे हादसे उन्हीं बोरवेल में होते हैं जहॉ बहुत गहरी बोरिंग करने के बावजूद पानी का स्रोत नहीं मिलता और फिर ऐसे बोरवेल को लावारिस छोड़ दिया जाता है! जिन बोरवेल में पानी मिल जाता है, वे खुले नहीं रहते। उनमें टयूब वेल लग जाती है।
                असल में ऐसे कारनामों के लिए सारा दोष प्रशासनिक भ्रष्टाचार का है। पहले तो रिश्वत लेकर बोरवेल खुदने दिया जाता है, बाद में बोरवेल मालिक को ही फॅसाकर अधिकारी अपना गला बचा लेते हैं। देश में, खासकर उत्तर भारत में, एक बहुत खतरनाक शौक प्रचलित है, शादी-विवाह में या अन्य खुशी के मौकों पर बंदूक या पिस्टल से फायरिंग करने का। यह खुशी से ज्यादा ताकत का प्रदर्शन होता है। हर साल सैकड़ों बेगुनाह लोग ऐसी अंधाधुध फायरिंग में अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। सम्पत्ति का नुकसान अलग से होता है। इसे रोकने के लिए राज्य सरकारें तमाम तरह के प्रतिबंध की घोषणा करती हैं लेकिन उनका क्रियान्वयन नहीं होता। बीती एक मई 2012 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने एक आपराधिक मामले में लाइसेंसी असलाह के दुरुपयोग की सुनवाई करते समय राज्य सरकार को एक महत्तवपूर्ण आदेश दिया कि शादी-विवाह या अन्य खुशी के मौके पर फायरिंग पर तत्काल रोक लगाकर ऐसा करने वालों के विरुध्द आपराधिक मामला दर्ज किया जाय। निचली अदालतें भी इस प्रकार का आदेश पहले दे चुकी हैं लेकिन नतीजा वही है- प्रशासन कुछ करना ही नहीं चाहता।
                 बोरवेल जैसी ही एक और वारदात अक्सर होती है जिसमें हमेशा गरीब लोग मारे जाते हैं और वह है सीवर की सफाई। सभी जानते हैं कि सीवरों में अत्यन्त खतरनाक गैंसें पाई जाती हैं जिनके सम्पर्क में आते ही मनुष्य मर सकता है। पश्चिमी देशों में यह काम मशीनों से होता है। अपने यहॉ भी'' मैनुअल स्कवैन्जर्स एंड काँस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैटरीन एक्ट 1993'' द्वारा मनुष्य से सीवर साफ कराना अपराध माना गया है लेकिन यह काम जारी है और अभी बीते सप्ताह दिल्ली में सीवर साफ करते एक पिता-पुत्र की एक साथ ही मौत हो गयी है! कानून पता नहीं किस गोदाम में पड़ा हुआ है। यही हाल ध्वनि प्रदूषण का है। इस सम्बन्ध में स्पष्ट नियम हैं कि दिन और रात के बीच कब से कब तक कितनी तीव्रता का शोर किया जा सकता है और खास आयोजन के लिए सम्बन्धित अधिकारियों से आयोजन की अनुमति लेनी आवश्यक है लेकिन हम सभी रोज देखते हैं कि शादी-विवाह या धार्मिक आयोजनों में सारी-सारी रात थर्रा देने वाली तीव्रता के साथ बैंड बजते रहते हैं और ऐसी जगहों पर रहने वाले हृदय व अवसाद के मरीजों की जान पर बन आती है। ऐसे आपराधिक कृत्यों के जारी रहने की एक वजह हमारे भीतर 'सिविक सेंस' यानी नागरिक चेतना का अभाव भी है। हम बर्दाश्त कर लेते हैं लेकिन एकजुट होकर विरोध या शिकायत नहीं करते।

Sunday, July 01, 2012

भ्रष्‍टाचार... आखिर कौन बोलेगा हल्‍ला बोल ---शंभू भद्रा





देश में भ्रष्‍टाचार ने रक्‍तबीज का रूप ले लिया है। सरकारी तंत्र पूरी तरह भ्रष्‍ट हो चुका है। सत्‍ता पक्ष और विपक्ष ‘मेरा भ्रष्‍टाचार बनाम तेरा भ्रष्‍टाचार’ का खेल ‘खेल’ रहे हैं। मीडिया कठपुतली बन कर रह गया है। अन्‍ना हजारे जैसे आम आदमी भ्रष्‍टाचार के खिलाफ आवाज उठाते हैं, तो राजनीतिक दलों की तरफ से कहा जाता है कि आप जनता द्वारा इलेक्‍टेड नहीं हैं, इसलिए आपको सरकार से संवाद करने का हक नहीं है, जबकि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है। लेकिन लगता है कि सरकार जनता को केवल वोट देने के अधिकार तक ही सीमित रखना चाहती है, जोकि किसी भी गणतांत्रिक प्रणाली के लिए बेहद खतरनाक बात है। इससे लोकशाही में जनता की भागीदारी के सिद्धांत का उल्‍लंघन होता है। ऐसे में अहम सवाल है कि भ्रष्‍ट सरकारी तंत्र से पग-पग पर पीडि़त ‘आम आदमी’ को मुक्ति कैसे मिलेगी, आखिर भ्रष्‍टाचार के खिलाफ कौन हल्‍ला बोलेगा। इन्‍हीं सवालों पर रोशनी डाल रहे हैं शंभू भद्रा... 
  भ्रष्‍टाचार की स्थिति नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक सरकारी योजनाओं के लिए आवंटित धन का केवल 20 फीसदी धन ही योजनाओं पर खर्च होता है। पूर्व प्रधानमंत्री स्‍व. राजीव गांधी के स्‍वर में सरकारी एक रुपये का केवल 15 पैसा अंतिम लाभार्थी तक पहुंचता है। हांगकांग की संस्‍था पालिटिकल एंड इकोनोमी रिस्‍क कंस्‍लटेंसी के सर्वे के मुताबिक एशिया के 16 भ्रष्‍टतम देशों में भारत चौथे पायदान पर है। इस सूची में भारत से अधिक भ्रष्‍ट देश केवल फिलिपींस, इंडोनेशिया और कंबोडिया है। चीन की स्थिति भारत से बहुत बेहतर है। भारत पाकिस्‍तान, बांग्‍लादेश, नेपाल, भूटान, म्‍यांमार, थाइलैंड और श्रीलंका से भी गया गुजरा है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के अनुसार 180 देशों की सूची में नीचे से भारत 84वें स्‍थान पर है।
   देश में संत्री से लेकर मंत्री तक करीब 90 प्रतिशत सरकारी कर्मी भ्रष्‍ट हैं। देश का करीब 468 अरब डालर कालाधन बाहर है। भ्रष्‍टाचार के रूप इसके दो रूप होते हैं। व्‍यक्तिगत (इंडिविजुअल) और संस्‍थागत (इंस्‍टीट्यूशनल)। घूस (नकद) लेना, किकबैक (पद का दुरुपयोग कर उपहार प्राप्‍त करना या कमीशन लेना), अवैध वसूली (एक्‍सटॉर्सन), टैक्‍स चोरी, हवाला, गबन (सरकारी धन की हेराफेरी), भाई-भतीजावाद (नेपोटिज्‍म-सगे संबंधियों एंड क्रोनीज्‍म-दोस्‍तों) आदि व्‍यक्तिगत भ्रष्‍टाचार के रूप हैं। राजनीतिक भ्रष्‍टाचार अर्थात क्‍लेप्‍टोक्रेसी (शासन तंत्र पर कब्‍जा जमाकर नियम-कानून के जरिये सरकारी संपत्ति मसलन जमीन, खादान, प्राकृतिक संसाधन, तेल-गैस, सोना आदि का दोहन करना, पेट्रोनेज यानी सत्‍ता संभालने के तुरंत बाद नीति संचालन के महत्‍वपूर्ण पदों पर अपने मनपसंद अफसरों की नियुक्ति करना और सत्‍ता की लूट में हिस्‍सेदारी सुनिश्चित करने के लिए मौकापरस्‍त गठबंधन बनाना आदि क्‍लेप्‍टोक्रेसी है), मनी लांड्रिंग, संगठित अपराध (ऑर्गेनाइज्‍ड क्राइम), कॉरपोरेट कार्टेल (मिलीभगत कर उपभोक्‍ता वस्‍तुओं की कीमतें तय करना और क्षेत्र-मात्रा के आधार पर कारोबार का विभाजन कर लेना), कॉरपोरेट-पॉलिटिशियन नेक्‍सस, ड्रग्‍स तस्‍करी, मानव तस्‍करी, बाल मजदूरी, श्रम का शोषण आदि संस्‍थागत भ्रष्‍टाचार की श्रेणी में आते हैं। 
 अभी दुनिया में हर साल एक ट्रिलियन (10 खरब) डालर का संस्‍थागत भ्रष्‍टाचार होता है। आजकल भ्रष्‍टाचार का एक तीसरा रूप भी प्रचलन में है- थर्ड पार्टी करप्‍शन। यह है सरकार और कॉरपोरेट के बीच या देश और देश के बीच किसी खास नीति को प्रभावित करने के लिए या अपनी बात मनवाने के लिए एक भरोसेमंद मध्‍यस्‍थ थर्ड पार्टी की भूमिका निभाता है। थर्ड पार्टी करप्‍शन अवसर के स्‍वस्‍थ प्रतिस्‍पर्धा की राह में बाधक है। कैसे असर डालता है भ्रष्‍टाचार किसी भी देश के विकास में सबसे बड़ा बाधक है भ्रष्‍टाचार। अगर चुनाव और विधायिका भ्रष्‍ट हैं, तो आप स्‍वच्‍छ प्रशासन की कल्‍पना नहीं कर सकते। न ही आप नीति निर्माताओं से ईमानदारी और जन-जवाबदेही की अपेक्षा कर सकते। न्‍यायपालिका में भ्रष्‍टाचार इंसाफ और कानून के राज को नकारात्‍मक तरीके से प्रभावित करता है। प्रशासन (पुलिस सहित) में भ्रष्‍टाचार जन कल्‍याण के लिए बनी सरकारी योजनाओं के क्रियान्‍वयन को बाईपास करता है और घूस, अवैध वसूली किकबैक आदि को बढ़ावा देता है। यह जनतंत्र के लोक कल्‍याण के सिद्धांत का उल्‍लंघन करता है।
  गवर्नेंस में भ्रष्‍टाचार सरकार की संस्‍थागत क्षमता को कमजोर करता है, जिससे सरकारी संसाधन की लूट को बल मिलता है और सरकारी दफ्तर खरीद-बिक्री केंद्र बनकर रह जाता है। फलत: ऐसी सरकार की वैधता पर सवाल उठने लगता है। कॉरपोरेट भ्रष्‍टाचार मौके की समानता और स्‍वस्‍थ प्रतिस्‍पर्धा के माहौल पर हमला करता है। कॉरपोरेट और सरकार के बीच नेक्‍सस जन संसाधन की लूट को प्रश्रय देता है। उपभोक्‍ता वस्‍तुओं के मूल्‍य नियंत्रण पर से सरकार की पकड़ ढीली हो जाती है। कंपनियां कार्टेल बनाकर मनमानी पर उतर आती है और जनता महंगाई से बिलबिलाने लगती है। कॉरपोरेट को कानून का भय नहीं रह जाता है और वह सरकारी नियमों के पालन में आनाकानी बरतने लगता है। प्रभाव और धौंस का इस्‍तेमाल कर व्‍यापार करना भी भ्रष्‍टाचार है और इससे स्‍वस्‍थ व्‍यापार की अवधारणा का हनन होता है। अमेरिका इसका उदाहरण है। पब्लिक सेक्‍टर (सार्वजनिक क्षेत्र) में भ्रष्‍टाचार सरकारी धन को मुनाफे के खेल में झोंक देता है, जिससे जनता को उचित दर उत्‍पाद उपलब्‍ध कराने की भावना खत्‍म हो जाती है। इस भ्रष्‍टाचार के चलते सरकारी कंपनियों के अधिकारी सार्वजनिक परियोजनाओं के क्रियान्‍वयन में व्‍यवधान पैदा करने लगते हैं, इससे उच्‍च स्‍तर का निर्माण नहीं हो पाता है, पर्यावरण की उपेक्षा होती और सरकारी सेवाओं की गुणवत्‍ता प्रभावित होती है। नतीजा सरकार पर बजट दबाव बढ़ जाता है।     
शायद इसीलिए नोबल पुरस्‍कार प्राप्‍त अर्थशास्‍त्री अमर्त्‍य सेन ने कहा था कि सूखे के कारण अकाल नहीं पड़ता, बल्कि राजनीतिक कायरता के चलते अकाल से लोगों की मौत होती है। 
 इसके अलावा स्‍वास्‍थ्‍य, शिक्षा, जन सुरक्षा और ट्रेड यूनियनों में भी जमकर भ्रष्‍टाचार है। भ्रष्‍टाचार पनपाने वाले शासन के लूपहोल्‍स 1.सरकारी सेवाओं, योजनाओं और नियमों के क्रियान्‍वयन में गोपनीयता होना। अर्थात प्रशासन में पारदर्शिता का अभाव। वैसे आरटीआई के रूप में जनता के पास हथियार है, लेकिन यह एकतरफा है। जब किसी व्‍यक्ति को किसी सरकारी फैसले के बारे में जानने की जरूरत महसूस होगी, तब वह आरटीआई का इस्‍तेमाल कर सकेगा। लेकिन होना यह चाहिए कि केवल गोपनीय अपवाद को छोड़ कर सभी प्रशासनिक फैसले पारदर्शी तरीके से किए जाएं। यह विडियो रिकार्डिंग और लाइव प्रसारण से संभव है।
 2.मीडिया में खोजी पत्रकारिता का अभाव होना। 
3.बोलने और विरोध करने की आजादी और प्रेस की स्‍वतंत्रता का कुंद हो जाना।
 4.सरकारी लेखा का कमजोर होना। 
5.कदाचार पर अंकुश के लिए निगरानी तंत्र का या तो अभाव होना या लचर होना। 
6.सरकार को नियंत्रित करने वाले कारकों जैसे सिविल सोसायटी का मौन रहना, एनजीओ का सक्रिय नहीं रहना और जनता द्वारा अपने वोट के महत्‍व को नहीं समझना। 
7. त्रुटिपूर्ण प्रशासनिक सेवा, सुस्‍त सुधार, कानून के भय का अभाव, न्‍यायपालिका व न्‍यायिक व्‍यवस्‍था का जनोन्‍मुख नहीं होना और सामाजिक प्रहरी के तौर पर काम कर रहे ईमानदार नागरिक को पर्याप्‍त सुरक्षा नहीं मिलना। उपरोक्‍त सभी लूपहोल्‍स हैं जो भ्रष्‍टाचार को बढ़ावा देते हैं। शासन तंत्र में भ्रष्‍टाचार के लिए उपलब्‍ध अवसर 1.सरकारी कर्मियों को नकद उपयोग करने की छूट होना। 2.सरकारी धन को केंद्रीयकृत रखना, उसका विकेंद्रीकरण नहीं होना। उदाहरण के तौर पर दो करोड़ रुपये से दो हजार निकलेगा तो पत नहीं चलेगा पर दस हजार से दो हजार निकलेगा तो तुरंत पता चल जाएगा। 3.बिना सुपरविजन किए सरकारी निवेश करना। 4.सरकारी संपत्ति की बिक्री और अपारदर्शी तरीके से विनिवेश होना। 5.हर काम के लिए लाइसेंस का प्रावधान होना। इससे अवैध लेनदेन को बढ़ावा मिलता है। 6.लंबे समय तक सरकारी कर्मी का एक स्‍थान पर टिका होना। जनता और सरकारी कर्मियों के बीच कम संवाद होना। किसी भी फैसले के दुष्‍परिणाम की स्थिति में सरकारी कर्मियों की जवाबदेही तय नहीं होना। 7.चुनाव प्रक्रिया का महंगा होना। 8.प्रचुर सरकारी प्राकृतिक संसाधन के निर्यात का अवसर होना। पब्लिक सेक्‍टर का विशाल होना। 71 प्रतिशत भ्रष्‍टाचार पब्लिक सेक्‍टर में है। 
 शासन व्‍यवस्‍था के जरिये सरकारी संसाधन जमीन-खान-सोना-स्‍पेक्‍ट्रम आदि पर कब्‍जा जमाने का मौका होना। 9.शासन में स्‍वार्थ हित, भाई-भतीजावाद, उपहार संस्‍कृति और जनता के बीच वर्ग व जाति विभाजन की स्थिति होना। उक्‍त सभी अवसर भ्रष्‍टाचार के लिए खाद-पानी की तरह है। संप्रग सरकार का लचर रवैया अभी तक आपने देखा कि हमारी शासन प्रणाली में उपरोक्‍त वर्णित वो तमाम खामियां हैं जो भ्रष्‍टाचार के फलने-फूलने में मददगार हैं। अब कुछ नमूना भ्रष्‍टाचार के प्रति वर्तमान संप्रग सरकार के लचर रवैये का। अदालत की सक्रियता देश के राजनीतिक दलों को हमेशा चुभती रही है। 
 अभी किसी सदन का सदस्‍य नहीं होने के बावजूद वरिष्‍ठ माकपाई व पूर्व लोकसभा अध्‍यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने न्‍यायिक सक्रियता के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। लेकिन सोमनाथ बाबू की करतूत देखिए। चटर्जी ने धन के बदले सवाल पूछने के मामले में 11 सांसदों को बर्खास्‍त करने के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट के नोटिस का संज्ञान लेने से यह कह कर मना कर दिया था कि यह न्‍यायपालिका का विधायिका में हस्‍तक्षेप है। सच जो भी हो, पर सोमनाथ के लोकसभा अध्‍यक्ष रहते हुए ही नोट के बदले वोट कांड में लीपापोती हुई। इस मामले की जांच के लिए गठित संसदीय समिति ने कथित तौर पर आरोपी सांसदों से बिना पूछताछ किए ही रिपोर्ट दे दी, जिसमें किसी को दोषी नहीं बताया गया। बस कहा गया कि आगे जांच की जरूरत है। सोमनाथ ने कभी भी जांच की पहल नहीं की। नतीजा यह हुआ कि दिल्‍ली पुलिस उदासीन बनी रही। इस उदासीनता के खिलाफ दायर जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने तीखे तेवर अपनाए, तो दिल्‍ली पुलिस अब हरकत में आई है। 
 अगर सरकार में बैठे जनप्रतिनिधि अपना काम ठीक से करते तो शीर्ष अदालत को दखल नहीं देना पड़ता। अभी दिल्‍ली हाईकोर्ट ने राष्‍ट्रमंडल खेल घोटाले के आरोप में जेल में बंद सुरेश कलमाड़ी की उस याचिका पर सख्‍त टिप्‍पणी की है, जिसमें कलमाड़ी ने मानसून सत्र में शरीक होने के लिए अदालत से अनुमति मांगी थी। हाईकोर्ट ने पूछा कि आखिर कलमाड़ी के लिए संसद सत्र में भाग लेना क्‍यों जरूरी है। क्‍या सरकार गिरी जा रही है। लगे हाथ कोर्ट ने कलमाड़ी से उनका संसद में भाग लेने का पिछला रिकार्ड मांग लिया। लेकिन किसी भी नेता ने एक भ्रष्‍टाचार के आरोपी के संसद में भाग लेने की मंशा का विरोध नहीं किया। ईमानदार प्रधानमंत्री ने भी नहीं और कांग्रेस आलाकमान ने भी नहीं। 
 उल्‍टे संप्रग सरकार में भ्रष्‍ट नेता की कितनी पूछ है, इसका पता कैग की उस हालिया रिपोर्ट से चलता है, जिसमें कैग ने कहा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) जानबूझकर राष्‍ट्रमंडल खेल आयोजन की जिम्‍मेदारी सुरेश कलमाड़ी के पास रहने दिया, जबकि 25 अक्‍टूबर 2004 में मंत्रिसमूह ने निश्‍चय किया था कि खेल आयोजन की जिम्‍मेदारी खेलमंत्री को दी जाए। उस मंत्रिसमूह की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह खुद शामिल थे। उस समय खेलमंत्री सुनील दत्‍त थे, जिनकी छवि के बारे में सबको पता है। उसके बाद कलमाड़ी ने क्‍या कमाल किया यह आपने देखा ही। कालेधन के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने विशेष जांच दल के गठन का फैसला तब किया जब वह आश्‍वस्‍त हो गई कि सरकार काले धन की जांच में मंशावश देरी कर रही है और अपना काम ठीक से नहीं कर रही है।   केंद्रीय सतर्कता आयुक्‍त (सीवीसी) के रूप में कथित दागदार दामन वाले पीजे थॅमस की नियुक्ति सरकार के ‘भ्रष्‍ट प्रेम’ का एक और प्रमाण है। सरकार को पता था कि थॉमस इस पद के योग्‍य नहीं है, फिर भी उसने उनकी नियुक्ति की, अदालत में उनके पक्ष में हलफनामे देती रही। इस मामले में भी अगर अदालत दखल नहीं देती तो थॉमस पूरी व्‍यवस्‍था को मुंह चिढ़ा रहे होते।
  2जी मामले में भी मीडिया रिपोर्ट के बाद न्‍यायालय दखल नहीं देता तो शायद ए राजा अब भी संचार मंत्री पद पर बने रहते। सांसद कनिमोझी जेल में नहीं होती। सलवा जुडूम मामले में भी सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा है। तभी छत्‍तीसगढ़ सरकार ने हाथ पीछे खींचा है। कर्नाटक के लोकायुक्‍त ने ठीक से काम नहीं किया होता तो आज बीएस येदियुरप्‍पा को मुख्‍यमंत्री पद से इस्‍तीफा नहीं देना पड़ता। भूमि अधिग्रहण का मामला ही लें तो अगर इसमें संप्रग-एक के कार्यकाल में ही संशोधन हो जाता तो यह इतना बड़ा मामला नहीं और न ही अदालत पहुंचता। संप्रग-एक सरकार को ही भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन विधेयक पारित करना था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया, बल्कि गैर कांग्रेस राज्‍यों में इस पर राजनीति को हवा दी। अब तक आपको पता चल गया होगा कि भ्रष्‍टाचार के खिलाफ सरकार कितनी गंभीरता से काम कर रही है और इसके खिलाफ अन्‍ना हजारे जैसे लोगों को क्‍यों जंतर-मंतर पर आमरण अनशन करना पड़ता है। क्‍यों बाबा रामदेव को लाठी खानी पड़ती है। ऐसे में भ्रष्‍टाचार रूपी रक्‍तबीज के खात्‍मे के लिए हमारे पास क्‍या विकल्‍प है, तो बस अपना संकल्‍प कि किसी भी कीमत पर न ही घूस देंगे और न ही अन्‍याय सहेंगे और लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था को पारदर्शी बनाने के लिए सतत संघर्षशील रहेंगे। o o 

Friday, June 22, 2012

सरकारी बैंक भी सूदखोरों और सामंतों की तरह पेश आते हैं किसानों के साथ ----सुनील अमर




किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारण कर्ज ही होता है जिसे वे फसल खराब होने या दाम गिर जाने के कारण बैंक या साहूकार को चुका नहीं पाते और उनकी जमीन कौड़ियों के मोल छीन ली जाती है। जमीन चली जाने के नुकसान से भी बड़ा भय उन्हें अपने समाज का होता है जो उन्हें अत्यन्त हेय दृष्टि से देखने लगता है और जहॉं जीवित रहकर सबके उपहास का पात्र बनने के बजाय मौत को गले लगाना ही उन्हें उचित लगता है। किसी किसान का अपने ही गॉव में मजदूर बन जाना मौत से भी बदतर होता है। यह वैसे ही है जैसे कोई उद्यमी अपने ही संस्थान में श्रमिक बनने को विवश हो जाय। साहूकार या सामंती तत्त्वों द्वारा मनमानी शर्तों पर कर्ज देकर लाठी के बल पर वसूल कर लेना तो समझ में आता है लेकिन जब वही काम सरकारी बैंक करने लगें तो जाहिर है कि व्यवस्था से भरोसा खत्म हो जाता है। यही वह स्थिति होती है जो किसी किसान को मौत की तरफ ले जाती है।
सरकारी बैंक किस तरह सूदखोर और सामंतों जैसा आचरण कर किसानों का सर्वनाश करते हैं, इसकी एक बानगी गत पखवारे सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में दिखाई है और कहा है कि बैंक प्रापर्टी डीलर की तरह व्यवहार न करें। उ.प्र. के बॉंदा जिले के एक किसान ने एक सरकारी बैंक से आठ हजार रुपया कर्ज लिया लेकिन कर्ज लेने के तीन साल बाद उसकी मौत हो गई। बैंक ने ब्याज सहित बकाया रुपया साढ़े दस हजार की वसूली के लिए आर.सी. (रिकवरी सर्टीफिकेट) जारी कर नीलामी प्रक्रिया शुरू की और उसका सवा तीन बीघा खेत महज छह हजार रुपये में नीलाम कर दिया! यानी कर्ज लेते समय खेत की जो कीमत थी (ध्यान रहे कि बैंक प्रापर्टी की कीमत का 75 प्रतिशत ही कर्ज देते हैं) पॉच-छह साल बाद वह कीमत बढ़ी नहीं उल्टे और घट गई। बहरहाल, बकाया चार हजार रुपये की वसूली के लिए बैंक ने कर्ज की जमानत लेने वाले व्यक्ति की डेढ़ बीघा जमीन 25,000 रुपये में नीलाम कर दी लेकिन सारा पैसा अपने पास रख लिया। याची द्वारा अपील करने पर सर्वोच्च न्यायालय ने बैंक को फटकार लगाई कि अगर जमीन को नियमानुसार बेचा गया होता तो कर्जदार की एक तिहाई जमीन बेचने से ही बकाया धनराशि प्राप्त हो सकती थी। न्यायालय ने इस बात पर सख्त रुख दिखाया कि जमानती की जमीन नीलाम करने से जो अतिरिक्त धन मिला उसे बैंक ने जमीन मालिक को देने के बजाय अपने पास कैसे रख लिया। न्यायालय ने बांदा के जिलाधिकारी को आदेश दिया कि तीन माह के भीतर अतिरिक्त धनराशि नौ प्रतिशत ब्याज सहित याची को भुगतान करें। अफसोस यह है कि जमीन बेचने की गलत प्रक्रिया अपनाए जाने को रेखांकित करने के बावजूद न्यायालय ने बैंक को निर्देशित नहीं किया कि वह जमीन मालिकों को हुई क्षति की भरपाई करे।
देश में जिस तरह से सैकड़ों कानून आज भी गुलामी के समय के हैं उसी तरह से सरकारी कर्ज वसूलने का नियम कानून भी 150 साल से अधिक पुराना है। यह सन् 1872 का इंडियन कान्टैªक्ट एक्ट है जिसकी धारा 128 के तहत कर्जदार और उसकी जमानत लेने वाला, दोनों ही कर्ज भुगतान करने के जिम्मेदार माने जाते हैं। कर्ज वसूली में असफल रहने पर बैंक सम्बन्धित जिलाधिकारी से राजस्व की वसूली के तहत कर्ज वसूले जाने का अनुरोध करता है जिस पर जिलाधिकारी सम्बन्धित क्षेत्र की तहसील को आदेश देता है। तहसील कर्मी बकाया धनराशि पर 10 प्रतिशत वसूली-कर जोड़कर बकायेदार से उसकी वसूली करता है। इसके लिए दंडात्मक व उत्पीड़नात्मक कार्यवाही तहसीलकर्मी करते हैं, मसलन नोटिस व वसूली के खर्चे, इससे भी काम न बनने पर बकायेदार को गिरफ्तार कर तहसील के बंदीगृह में निरुद्ध करना तथा आखिर में जमीन की विधिक नीलामी कर बकाया धन वसूलना। बकाया वसूलने के लिए देश के राज्यों में अलग-अलग प्राविधान हैं। मसलन, उत्तर प्रदेश में एक लाख रुपये तक के सरकारी बकाये के लिए बकायेदार का उत्पीड़न नहीं किया जा सकता और अगर बकायेदार के पास एक हैक्टेयर से कम जमीन है तो उसकी नीलामी नहीं की जा सकती। जमीन नीलामी की प्रक्रिया में यह प्राविधान है कि पहले बकायेदार के गॉव में सार्वजनिक स्थानों पर नीलामी के बाबत सरकारी सूचना चिपकाई जाय कि बकायेदार कौन है, बकाया धनराशि कितनी है, बंधक जमीन का विवरण क्या है तथा नीलामी कब और कहॉ होगी। इसके अगले चरण में ध्वनि विस्तारक यंत्र या ढ़ोल आदि पीटकर उस गॉव में उपर्युक्त तथ्यों की मुनादी की जाय और आखिर में किसी स्थानीय दैनिक समाचार पत्र, जिसकी एक निर्धारित प्रसार संख्या हो, उसमें उक्त नीलामी का ब्यौरेवार प्रकाशन किये जाने का नियम है ताकि उस क्षेत्र के आमजन अच्छी तरह अवगत हो जाएं।
नीलामी का एक अहम् पहलू विक्रय की जाने वाली भूमि का न्यूनतम मूल्य होता है जिससे कम पर उसे बेचा नहीं जा सकता। किसी भी जनपद की भूमि का न्यूनतम मूल्य निर्धारण वहां का कलेक्टर एक तयशुदा प्रक्रिया से करता है और अलग-अलग प्रकार की भूमि का अलग-अलग रेट होता है। उससे कम पर न तो उस भूमि का निबंधन यानी क्रय-विक्रय हो सकता है और न ही नीलामी। जनपद बांदा के उपर्युक्त मामले में स्पष्ट है कि तहसील द्वारा नीलामी प्रक्रिया में सम्बन्धित कानूनों का घोर उल्लंघन किया गया। भूमि को मनमानी दर पर बेच दिया गया और इस पर भी जो अतिरिक्त धन मिला वह भू-स्वामी को न देकर बैंक ने अपने पास रख लिया! सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही कहा कि अगर जमीन की नीलामी नियमानुसार की गई होती, तो कर्जदार की जमीन के एक छोटे हिस्से को बेचने से ही बैंक को अपना बकाया धन प्राप्त हो सकता था।
सरकारी बैंकों द्वारा कृषि ऋण देने के तौर-तरीके भी किसानों के हितकारी नहीं बल्कि उन्हें फंसाने वाले ही हैं। होता यह है कि खेती के लिए बनी तमाम सरकारी योजनाएं असल मे अव्यवहारिक हैं और बैंकों पर इन योजनाओं हेतु ऋण बांटने का एक लक्ष्य रख दिया जाता है। उदाहरण के लिए- बैंकों पर ट्रैक्टर खरीदने हेतु ऋण देने का एक निश्चित लक्ष्य रहता है। पिछड़े क्षेत्रों में प्रायः किसान इतना महंगा कृषि उपकरण खरीदने में असमर्थ होते हैं और बहुधा तो उनके पास वांछित जमीन ही नहीं होती। ऐसे में बैंक वाले एकाधिक किसानों को मिलाकर संयुक्त रुप से उनके नाम टैªक्टर फायनेन्स कर देते हैं जो आगे चलकर झगड़े और विफलता का पक्का कारण बनता है। इसके बाद टैªक्टर व बंधक जमीन की नीलामी ही अंतिम उपाय रह जाती है। यही उन मामलों में भी होता है जहां किसी किसान की अनिच्छा होने पर भी बैंक के दलाल टैªक्टर फायनेन्स कराकर उसे पकड़ा देते हैं। यही प्रायः हर कृषि ऋण के साथ होता है। हर स्तर पर दलाल सक्रिय रहते हैं। इसलिए आवश्यकता कृषि ऋण की नीतियों को और ज्यादा उपयोगी तथा ऋण वसूली प्रक्रिया को और पारदर्शी तथा उदार किये जाने की है। ऐसा तभी संभव है जब किसानों को व्यवसायी और उद्योगपति न माना जाए। कृषि ऋण के साथ कई प्रकार की प्राकृतिक आपदाएं जुड़ी रहती हैं तथा बाजार का कहर अलग से रहता है। इसके अलावा किसान का सामाजिक परिवेश व पृष्ठभूमि भी खासा महत्त्व रखती है। ऋण देने व वसूली करने में इन कारकों को ध्यान में रखा जाना बहुत आवश्यक है तभी किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं को कारगर ढ़ंग से रोका जा सकता है। सिर्फ किसान का कर्ज माफ कर देना कोई उपाय नहीं हो सकता।


कृषि-ऋण वसूली के नियम और स्पष्ट हों


सुनील अमर
                किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारण कर्ज ही होता है जिसे वे फसल खराब होने या दाम गिर जाने के कारण बैंक या साहूकार को चुका नहीं पाते और उनकी जमीन कौड़ियों के मोल छीन ली जाती है। जमीन चली जाने के नुकसान से भी बड़ा भय उन्हें अपने समाज का होता है जो उन्हें अत्यन्त हेय दृष्टि से देखने लगता है और जहाँ जीवित रहकर सबके उपहास का पात्र बनने के बजाय मौत को गले लगाना ही उन्हें उचित लगता है। किसी किसान का अपने ही गॉव में मजदूर बन जाना मौत से भी बदतर होता है। यह वैसे ही है जैसे कोई उद्यमी अपने ही संस्थान में श्रमिक बनने को विवश हो जाय। साहूकार या सामंती तत्त्वों द्वारा मनमानी शर्तों पर कर्ज देकर लाठी के बल पर वसूल कर लेना तो समझ में आता है लेकिन जब वही काम सरकारी बैंक करने लगें तो जाहिर है कि व्यवस्था से भरोसा खत्म हो जाता है। यही वह स्थिति होती है जो किसी किसान को मौत की तरफ ले जाती है।
               सरकारी बैंक किस तरह सूदखोर और सामंतों जैसा आचरण कर किसानों का सर्वनाश करते हैं, इसकी एक बानगी गत सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में दिखाई है और कहा है कि बैंक प्रापर्टी डीलर की तरह व्यवहार न करें। उ.प्र. के बाँदा जिले के एक किसान ने एक सरकारी बैंक से आठ हजार रुपया कर्ज लिया लेकिन कर्ज लेने के तीन साल बाद उसकी मौत हो गयी। बैंक ने ब्याज सहित बकाया रुपया साढ़े दस हजार की वसूली के लिए आर.सी. (रिकवरी सर्टीफिकेट) जारी कर नीलामी प्रक्रिया शुरु की और उसका सवा तीन बीघा खेत महज छह हजार रुपये में नीलाम कर दिया!यानी कर्ज लेते समय खेत की जो कीमत थी (ध्यान रहे कि बैंक प्रापर्टी की कीमत का 75 प्रतिशत ही कर्ज देते हैं) पॉच-छह साल बाद वह कीमत बढ़ी नहीं उल्टे और घट गयी। बहरहाल, बकाया चार हजार रुपये की वसूली के लिए बैंक ने कर्ज की जमानत लेने वाले व्यक्ति की डेढ़ बीघा जमीन 25,000 रुपये में नीलाम कर दी लेकिन सारा पैसा अपने पास रख लिया। याची द्वारा अपील करने पर सर्वोच्च न्यायालय ने बैंक को फटकार लगायी कि अगर जमीन को नियमानुसार बेचा गया होता तो कर्जदार की एक तिहाई जमीन बेचने से ही बकाया धनराशि प्राप्त हो सकती थी। न्यायालय ने इस बात पर सख्त रुख दिखाया कि जमानती की जमीन नीलाम करने से जो अतिरिक्त धन मिला उसे बैंक ने जमीन मालिक को देने के बजाय अपने पास कैसे रख लिया?न्यायालय ने बांदा के जिलाधिकारी को आदेश दिया कि तीन माह के भीतर अतिरिक्त धनराशि नौ प्रतिशत ब्याज सहित याची को भुगतान करें। अफसोस यह है कि जमीन बेचने की गलत प्रक्रिया अपनाये जाने को रेखांकित करने के बावजूद न्यायालय ने बैंक को निर्देशित नहीं किया कि वह जमीन मालिकों को हुई क्षति की भरपाई करे।
                 देश में जिस तरह से सैकड़ों कानून आज भी गुलामी के समय के हैं उसी तरह से सरकारी कर्ज वसूलने का नियम कानून भी 150 साल से अधिक पुराना है। यह सन् 1872 का इंडियन कान्टै्रक्ट एक्ट है जिसकी धारा 128 के तहत कर्जदार और उसकी जमानत लेने वाला, दोनों ही कर्ज भुगतान करने के जिम्मेदार माने जाते हैं। कर्ज वसूली में असफल रहने पर बैंक सम्बन्धित जिलाधिकारी से राजस्व की वसूली के तहत कर्ज वसूले जाने का अनुरोध करता है जिस पर जिलाधिकारी सम्बन्धित क्षेत्र की तहसील को आदेश देता है। तहसील कर्मी बकाया धनराशि पर 10 प्रतिशत वसूली-कर जोड़कर बकायेदार से उसकी वसूली करता है। इसके लिए दंडात्मक व उत्पीड़नात्मक कार्यवाही तहसीलकर्मी करते हैं, मसलन नोटिस व वसूली के खर्चे, इससे भी काम न बनने पर बकायेदार को गिरफ्तार कर तहसील के बंदीगृह में निरुध्द करना तथा आखिर में जमीन की विधिक नीलामी कर बकाया धन वसूलना। बकाया वसूलने के लिए देश के राज्यों में अलग-अलग प्रावधान हैं। मसलन, उत्तर प्रदेश में एक लाख रुपये तक के सरकारी बकाये के लिए बकायेदार का उत्पीड़न नहीं किया जा सकता और अगर बकायेदार के पास एक हैक्टेयर से कम जमीन है तो उसकी नीलामी नहीं की जा सकती। जमीन नीलामी की प्रक्रिया में यह प्रावधान है कि पहले बकायेदार के गॉव में सार्वजनिक स्थानों पर नीलामी के बाबत सरकारी सूचना चिपकाई जाय कि बकायेदार कौन है, बकाया धनराशि कितनी है, बंधक जमीन का विवरण क्या है तथा नीलामी कब और कहॉ होगी। इसके अगले चरण में ध्वनि विस्तारक यंत्र या ढ़ोल आदि पीटकर उस गॉव में उपर्युक्त तथ्यों की मुनादी की जाय और आखिर में किसी स्थानीय दैनिक समाचार पत्र, जिसकी एक निर्धारित प्रसार संख्या हो, उसमें उक्त नीलामी का ब्यौरेवार प्रकाशन किये जाने का नियम है ताकि उस क्षेत्र के आमजन अच्छी तरह अवगत हो जॉय।
               नीलामी का एक अहम् पहलू विक्रय की जाने वाली भूमि का न्यूनतम मूल्य होता है जिससे कम पर उसे बेचा नहीं जा सकता। किसी भी जनपद की भूमि का न्यूनतम मूल्य निर्धारण वहाँ का कलेक्टर एक तयशुदा प्रक्रिया से करता है और अलग-अलग प्रकार की भूमि का अलग-अलग रेट होता है। उससे कम पर न तो उस भूमि का निबंधन यानी क्रय-विक्रय हो सकता है और न ही नीलामी। जनपद बॉदा के उपर्युक्त मामले में स्पष्ट है कि तहसील द्वारा नीलामी प्रक्रिया में सम्बन्धित कानूनों का घोर उल्लंघन किया गया। भूमि को मनमानी दर पर बेच दिया गया और इस पर भी जो अतिरिक्त धन मिला वह भू-स्वामी को न देकर बैंक ने अपने पास रख लिया! सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही कहा कि अगर जमीन की नीलामी नियमानुसार की गई होती तो कर्जदार की जमीन के एक छोटे हिस्से को बेचने से ही बैंक को अपना बकाया धन प्राप्त हो सकता था।
               सरकारी बैंकों द्वारा कृषि ऋण देने के तौर-तरीके भी किसानों के हितकारी नहीं बल्कि उन्हें फॅसाने वाले ही हैं। होता यह है कि खेती के लिए बनी तमाम सरकारी योजनाऐं असल मे अव्यवहारिक हैं और बैंकों पर इन योजनाओं हेतु ऋण बॉटने का एक लक्ष्य रख दिया जाता है। उदाहरण के लिए-बैंकों पर ट्रैक्टर खरीदने हेतु ऋण देने का एक निश्चित लक्ष्य रहता है। पिछड़े क्षेत्रों में प्राय: किसान इतना मॅहगा कृषि उपकरण खरीदने में असमर्थ होते हैं और बहुधा तो उनके पास वांछित जमीन ही नहीं होती। ऐसे में बैंक वाले एकाधिक किसानों को मिलाकर संयुक्त रुप से उनके नाम ट्रैक्टर फायनेन्स कर देते हैं जो आगे चलकर झगड़े और विफलता का पक्का कारण बनता है। इसके बाद ट्रैक्टर व बंधक जमीन की नीलामी ही अंतिम उपाय रह जाती है। यही उन मामलों में भी होता है जहॉ किसी किसान की अनिच्छा होने पर भी बैंक के दलाल ट्रैक्टर फायनेन्स कराकर उसे पकड़ा देते हैं। यही प्राय:हर कृषि ऋण के साथ होता है। हर स्तर पर दलाल सक्रिय रहते हैं। इसलिए आवश्यकता कृषि ऋण की नीतियों को और ज्यादा उपयोगी तथा ऋण वसूली प्रक्रिया को और पारदर्शी तथा उदार किये जाने की है। ऐसा तभी संभव है जब किसानों को व्यवसायी और उद्योगपति न माना जाये। कृषि ऋण के साथ कई प्रकार की प्राकृतिक आपदाऐं जुड़ी रहती हैं तथा बाजार का कहर अलग से रहता है। इसके अलावा किसान का सामाजिक परिवेश व पृष्ठभूमि भी खासा महत्त्व रखती है। ऋण देने व वसूली करने में इन कारकों को ध्यान में रखा जाना बहुत आवश्यक है तभी किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं को कारगर ढ़ॅंग से रोका जा सकता है। सिर्फ किसान का कर्ज माफ कर देना कोई उपाय नहीं हो सकता। 0 0 

Friday, February 03, 2012

भाजपा : नेता हैं या पोरस के हाथी ? -- सुनील अमर



एक से बढ़कर एक ! लेकिन सब एक दूसरे पर भारी !!



उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव नजदीक आते ही भारतीय जनता पार्टी के अंतर्विरोध एक-एक कर यूँ सामने आने लगे हैं जैसे राजे-रजवाड़ों के समय में उनके अंत:पुर के षडयंत्र उद्धाटित हुआ करते थे। दिल्ली से लेकर राज्यों तक भाजपा की पिछले कुछ समय की गतिविधियों को देखने-समझने पर ऐसा लगता है जैसे इसका हर बड़ा नेता अपना मनोरथ पूरा करने के लिए बेहद जल्दबाजी में हो। इस पार्टी के प्रथम पंक्ति के तमाम नेता अगर प्रधानमंत्री बनने को उतावले हैं और रोज बयानबाजी करते फिर रहे हैं तो इसके प्रदेश स्तर के बड़े नेता मुख्यमंत्री बनने के लिए। उत्तर प्रदेश जैसा राज्य जो इसकी राजनीतिक उड़ानों के लिए कभी हवाई अड्डा सरीखा महत्त्व रखता था आज ऐसी धमाचौकड़ी का शिकार हो गया है कि इस पार्टी के वे नेता जो जमीन से जुड़े हैं तथा देश-प्रदेश की राजनीतिक नब्ज की जिन्हें समझ है, अब मीडिया वालों से बचकर रहने लगे हैं। इस पार्टी के एक पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष ने ऐन चुनावों के दौरान प्रदेश के कई वरिष्ठ नेताओं को धकियाते हुए अपने पुत्र को प्रदेश महासचिव ही घोषित करवा दिया। टिकट कटने, दागियों-बाहरी नेताओं को लेने तथा मनपसंद स्थान का टिकट न पाने के कारण पहले से ही दु:खी पार्टीजनों में इससे बेहद असंतोष फैल गया है और यह आलेख लिखे जाने तक पार्टी के तीन वरिष्ठ पदाधिकारियों ने अपने पदों से इस्तीफा दे दिया था।
                सभी जानते हैं कि वर्ष 1991 के बाद से उत्तर प्रदेश भाजपा की स्थिति में लगातार गिरावट आ रही है। कभी जिन मुद्दों के सहारे यह हिन्दू जनमानस को उद्वेलित किया करती थी उन मुद्दों से एक-एक कर इसने किनारा कर लिया। और तो और, जिन कारणों से यह खुद को अन्य राजनीतिक दलों से अलग और पवित्र बताया करती थी उन कारणों को भी खो दिया। उत्तर प्रदेश की राजनीतिक दौड़ में आज यह एक पिछड़ी हुई पार्टी बनकर रह गई है। ताजा हालात यह हैं कि राष्ट्रीय स्तर के इसके तमाम नेता एक लम्बे अरसे से खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बता रहे हैं तो प्रदेश के बड़े नेता किसी भी तरह पार्टी को सत्ता के करीब लाकर मुख्यमंत्री बनने का जुगाड़ लगा रहे हैं। यही कारण है कि न सिर्फ अन्य दलों के बर्खास्त और निष्कासित नेताओं को भाजपा ने गले लगा लिया है बल्कि तमाम दागी और कुख्यात अपराधी भी पार्टी में समाहित हो गये हैं। छोटे नेताओं की बात छोड़ दीजिए, इसके बड़े नेता ही इस पार्टी की जड़ में मठ्ठा डालने के काम में लगे हुए हैं।
                पुत्रों को चुनावी टिकट या संगठन में बड़ा पद दिलाने से काफी पहले से ही भाजपा के बड़े नेताओं का रवैया बहुत स्वैच्छाचारिता का रहा है। वयोवॄध्द श्री आडवाणी ने हमेशा की तरह अपनी मर्जी से रथयात्रा की घोषणा कर दी तो कुछ दिनों बाद संघ ने जबरन न सिर्फ उसका दायरा सीमित कर दिया बल्कि श्री आडवाणी को नागपुर बुलाकर चेता भी दिया कि आप प्रधानमंत्री पद के दावेदार अब नहीं हैं। मजबूरन आडवाणी ने अपने यात्रा मार्ग में से अयोध्या और सोमनाथ को निकाल दिया। यह गौर तलब है कि लगभग इसी के बाद भाजपा के कई राज्य स्तरीय नेताओं के बयान आये कि वे भी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल हैं। प्रधानमंत्री पद को पाने की नौबत शायद 2014 में आये लेकिन लठ्ठम-लठ्ठा अभी से मचा है और राज्यों में, जहॉ मजबूत होने पर ही केन्द्र की दावेदारी बन सकती है, पार्टी को मजबूत करने की रुचि किसी को नहीं है।
                जिन पॉच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं उनमें सबसे विकट स्थिति में भाजपा उत्तर प्रदेश में ही है। समाजवादी पार्टी के शासनकाल से त्रस्त होकर मतदाताओं ने वर्ष 2007 में बसपा को जिता दिया था लेकिन पॉच साल बीतते न बीतते बसपा, सपा से भी गई-गुजरी साबित हुई और इसने लूट-खसोट के कई नये और भारी आख्यान लिख दिये। भाजपा उत्तर प्रदेश में तीसरे नम्बर की पार्टी थी। स्वाभाविक ही था कि इस बार यह सत्ता की दावेदार बनती। समाजसेवी अन्ना हजारे और योगी रामदेव के प्रकरणों से ऐसा लगा भी कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कॉग्रेस को घेर रही यह पार्टी उत्तर प्रदेश में भी बसपा को घेरेगी और इस चुनाव में एक विकल्प बनकर उभरेगी लेकिन इसके नेताओं का कमाल देखिए कि आज यह पार्टी भ्रष्टाचारियों को गले लगाने के मुद्दे पर जवाब तक नहीं दे पा रही है। संगठन के स्तर पर हालात यह हैं कि लगता ही नहीं कि कोई एक शीर्ष पदाधिकारी यहॉ ऐसा है जिसके नियंत्रण में पार्टी संगठन हो। कब किस नेता को कहॉ से लाकर सबके उपर थोप दिया जाय, कहा नहीं जा सकता।
                प्रदेश में इस बार का चुनाव पिछड़ा और मुस्लिम के संयुग्मन पर लड़ा जा रहा है और सभी राजनीतिक दलों में इस संयुग्मन को प्रभावित करने की होड़ लगी हुई है। पिछड़ा वर्ग, विशेषकर कुर्मी या पटेल मतदाता एक लम्बे अरसे या यों कहें कि अयोधया आंदोलन के दौर से ही भाजपा के साथ रहे हैं और यही कारण है कि भाजपा में कई नेता इस वर्ग से निकल कर राष्ट्रीय फलक तक आये हैं। यह अच्छा होता कि प्रदेश के ऐसे नेताओं में से ही किसी को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया जाता लेकिन कल्याण सिंह फैक्टर से निपटने के फेर में उमा भारती को वापस लाकर पहले तो सभी नेताओं के उपर थोपा गया और फिर उन्हें भावी मुख्यमंत्री के तौर पर पेश कर दिया गया जबकि पिछड़े वर्ग के नेता के तौर पर विनय कटियार और ओमप्रकाश सिंह जैसे नेता पहले से ही मौजूद हैं। ओमप्रकाश सिंह को तो पिछले पॉच वर्षों से पार्टी का भावी मुख्यमंत्री बताया जा रहा था! अनुमान लगाया जा सकता है कि भाजपा का पिछड़ा वर्ग समीकरण कैसे हल होगा! भाजपा के तमाम बड़े नेता मसलन राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र, केसरीनाथ त्रिपाठी, सूर्य प्रताप शाही व डॉ. रमापतिराम त्रिपाठी जैसे दिग्गज पूर्वी उत्तर प्रदेश से आते हैं यद्यपि पार्टी का सबसे बुरा हाल इसी क्षेत्र में है। काफी समय से राजनाथ सिंह,कलराज मिश्र और सूर्यप्रताप शाही को भी भावी मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया जा रहा था। यह समझा जा सकता है कि अब इन नेताओं की मन:स्थिति कैसी होगी। टिकट बॅटवारे को लेकर भाजपा सबसे पिछड़ी हुई पार्टी साबित हुई क्योंकि कई बड़े नेता अपने पुत्रों को अच्छी सीटों से टिकट दिलाने की कोशिश में अड़ंगेबाजी कर रहे थे। ऐसा हुआ भी है। जहॉ नहीं हो पाया वहॉ नेता पुत्रों को खुश करने के अन्य उपाय भी तलाशे गये हैं। राजनाथसिंह के पुत्र पंकज सिंह को प्रदेश मंत्री से महामंत्री बनाया जाना इसी क्रम में है। आत्ममुग्ध भाजपाइयों को अगर छोड़ दीजिए तो शायद ही कोई यह कहने वाला हो कि भाजपा सत्ता में वापस आ रही है उल्टे तमाम प्रेक्षक तो यह कयास भी लगा रहे हैं कि इस बार भी अगर भाजपा 2007 जैसी हालत में रही तो शायद विखंडित होकर सत्ता बनाने वालों के काम आ जाय! फिर भी देखिए कि कैसे सब प्रधानमंत्री बनना चाह रहे हैं, मुख्यमंत्री बनना चाह रहे हैं, सबको बढ़िया सीट का टिकट चाहिए नहीं तो पार्टी का बड़े से बड़ा पद चाहिए! लगता नहीं कि ये सब पोरस के हाथी हो गये हैं? (हम समवेत फीचर्स में ३० जनवरी को प्रकाशित)
  

Saturday, January 14, 2012

अदालत का यह रवैया सराहनीय ---- सुनील अमर


दिल्ली की  रोहिणी कोर्ट स्थित अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश कामिनी ने एक और सराहनीय कार्य किया है.
नाबालिग और मिर्गी की बीमारी से ग्रस्त एक लड़की के साथ 5 लड़कों द्वारा वर्ष २०११ में  3 दिन तक सामूहिक बलात्कार करने के मामले में पुलिस द्वारा घटनास्थल का सही नक्शा प्रस्तुत न करने पर न्यायमूर्ति कामिनी ने कल सरकारी वकील के साथ जाकर ख़ुद घटनास्थल का मुआयना किया. फ़ैसला १९ जनवरी को आना है. यह अनुकरणीय प्रसंग है.
जहां तक मुझे याद आता है, इससे पूर्व भी न्यायमूर्ति कामिनी ने वरिष्ठ कांग्रेसी नेता नारायण दत्त तिवारी के चर्चित पितृव्य कांड में रक्त-नमूना देने से बार-बार इन्कार करने पर कहा था कि इस वजह से क्यों न उन्हें वादी का जैविक पिता मान लिया जाय.
और इससे भी पहले न्यायमूर्ति कामिनी ने बलात्कारियों  के सम्बन्ध में कहा था कि क्यों न ऐसे ''आदी बलात्कारियों '' को बधिया कर दिया जाय

Friday, January 13, 2012

भंवरी देवी : प्रेम और अत्याचार के चक्र



                                                ( सुनील अमर )
सच है कि किसी के न रहने से दुनिया का कारोबार रुक नही जाता. प्रेम और अत्याचार के चक्र अपनी गति से चलते रहते हैं लेकिन जाने वाले के पीछे जो रह जाते हैं उनकी तकलीफ '' समाज'' नाम की हमारी व्यवस्था कई गुणा बढ़ा देती है. भंवरी देवी नही रही. सीबीआई कह रही है कि उनका क़त्ल हो गया. उसके रहने पर जो कुछ सामान्य था, नही रहने पर उसे चरित्रहीनता ( पता नही कि इसका मानक क्या है !) के अंतहीन आख्यान में बदल दिया गया है ! आप जानिए कि उसके १८ साल के बेटे और १५ साल कि बेटी ने तानों और अपमान के भय से घर से बाहर निकलना बंद कर दिया है और सबसे छोटी ७ साल की बेटी के पितृत्व-जांच की मांग उसका वह पति कर रहा  है जिसने कथित तौर पर उसके कत्ल की व्यवस्था की थी ! जनसत्ता दिल्ली के पेज ०८ पर  आज अपूर्वा की रपट -

                                          -

Tuesday, December 20, 2011

'' लाजवाब है 'अदम' का खरा अंदाज़ ''


दैनिक DNA में आज  जनकवि ''अदम'' को अर्पित मेरा श्रद्धांजलि लेख -- '' लाजवाब है 'अदम' का खरा अंदाज़ ''


'' पिछड़ा वर्ग और बसपा की सोच''

दैनिक हरिभूमि ( हरियाणा, दिल्ली,छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश से प्रकाशित ) के सम्पादकीय पृष्ठ 04 पर आज मेरा आलेख --'' पिछड़ा वर्ग और बसपा की सोच'' 




Thursday, December 15, 2011

'' दो पाटों के बीच''

लोकमत समूह के हिंदी समाचार पत्र -- लोकमत समाचार के दो खंडीय दीपावली विशेषांक ( जो कि डाक विभाग की मेहरबानी से मुझे कल प्राप्त हुआ है !) में खंड दो में  ''गाँव के आँगन में'' मुद्दे पर प्रकाशित 3000 शब्दों का मेरा आलेख -- '' दो पाटों के बीच''

Sunday, October 23, 2011

राष्ट्रीय हिंदी दैनिक DNA के सम्पादकीय पृष्ठ पर 23 अक्तूबर 2011 को मेरा आलेख --

'' समझिये शीबा पर हुए हमले का निहितार्थ''

सूचना कार्यकत्री, समाजशास्त्री व साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ की स्तम्भ लेखिका सुश्री शीबा असलम फहमी के घर पर गत 8 अक्तूबर की शाम हुआ घातक हमला प्रशासन, धर्मांधों तथा अपराधियों के गठजोड़ का नतीजा है। देश में ऐसे गठजोड़ किस तेजी से पनप रहे हैं इसका प्रमाण इस घटना के महज चार दिन बाद ही सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण पर उनके न्यायालय स्थित कार्यालय में हुआ हमला है। इससे पहले भी सूचना कार्यकर्ताओं पर हमले होते ही रहे हैं और इस निंदनीय कड़ी में अभी हमले मध्यप्रदेश की सूचना कार्यकत्री शेहला मसूद की हत्या को देखा है।
अपराधियों के साथ स्थानीय प्रशासन की साठ-गाँठ कितनी गहरी है इसका पता इसी एक बात से चल जाता है कि सुश्री शीबा के घर पर हुए हमले को नियंत्रित करने के लिए जिस प्रशासन ने एक कम्पनी पी.ए.सी. तैनात किया था, उसी प्रशासन ने घटना के दो दिन बाद शीबा के परिवार को उपलब्ध सशस्त्र सुरक्षा को ही हटा लिया जबकि वर्ष 2008 में शीबा के घर पर हुए ऐसे ही एक हिंसक हमले के बाद उन्हें यह सुरक्षा मुहैया करायी गयी थी। दिल्ली के लेखकों, पत्रकारों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के भारी दबाव के बाद अंततः प्रशासन ने फिर से उनकी सुरक्षा बहाल की।
Shiba  fahim_ lead India_insidestoryसुश्री शीबा फहमी का प्रेस और दफ्तर दिल्ली में जामा मस्जिद वाले क्षेत्र में हैं। वे एक सामाजिक-सूचना कार्यकत्री और जानी मानी स्तंभ लेखिका हैं जो पिछले कई वर्षों से इस्लाम और हिंदू धर्मों में व्याप्त कुरीतियों व पंडा-मुल्लावाद के विरुद्ध अपने स्तंभ में लिखती रहती हैं और इस वजह से प्रायः ही धमकियों का सामना करती रहती हैं। उनके घर-परिवार पर इससे पहले भी कई बार हमले हो चुके हैं और इस वजह से प्रशासन ने उनके परिवार को सशस्त्र सुरक्षा उपलब्ध करा रखी है। उनके पति श्री अरशद फहमी संपादक होने के साथ-साथ सूचना कार्यकर्ता भी हैं तथा इस दम्पत्ति ने अब तक पचासों दरख्वास्तें लगाकर भू-माफियाओं, अवैध पार्किंग चलाने वालों, विदेशी मुद्रा के अवैध कारोबारियों व हवाला अपराधियों के विरुद्ध अभियान चलाया हुआ है।
जामा मस्जिद क्षेत्र में धड़ल्ले से चल रहे इन अपराधों को एक ऐसे व्यक्ति की सरपरस्ती बतायी जाती है जो अपने आपको देश के मुसलमानों का स्वयंभू मसीहा समझता है और सरकारी खैरात से उसकी मसीहाई सीना तानकर चल भी रही है। ऐसे कृत्यों का पर्दाफाश करने वाले पत्रकारों को सरे आम मारना-पीटना तथा अपना स्वार्थ सिद्धकर राजनीतिक दलों की तरफदारी में फतवे जारी करना ही जिसका धंधा है।
फहमी दम्पत्ति ने जब इस दीदा-दिलेरी के विरोध में पत्र-पत्रिकाओं में लेख, पोस्टर अभियान व सम्बन्धित विभागों में सूचना के अधिकार के तहत अर्जिया लगायीं तो उन पर असामाजिक तत्त्वों का कहर टूटना शुरु हो गया। सुश्री फहमी तो ऐसी धाधलियों के पर्दाफाश में अपने पत्रकारिता जीवन के शुरुआती दिनों (वर्ष 1996) से ही लगी हैं जब उनकी शादी भी नहीं हुई थी तथा वे अपने गृहनगर कानपुर में रहती थीं। शीबा किन मुद्दों पर लिखती हैं यह समाचार माध्यमों को देखने-पढ़ने वाले लोग जानते ही हैं। पिछले कई वर्षों से वे प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका हंस में ‘जेंडर जिहाद’ नामक स्तंभ लिखकर धर्मांघों व कठमुल्लाओं की करतूतों का खुलासा और विरोध करती रही हैं तो अपने ताजा स्तंभ ‘ मुख्यधारा के अहंकार ’ में भी वे साहित्य-समाज से लेकर तमाम क्षेत्रों में हावी मठाधीशों की करतूतों का मुखर विरोध कर रही हैं।
पिछले दिनों एनडीटीवी इंडिया के कार्यक्रम ‘मुकाबला’ में भी जिहाद पर उन्होंने जब जोरदार तर्कों के साथ बहस की तो उन्हें फोन पर खूब धमकियां मिलीं। उन्होंने अपने कई लेखों में राष्ट्रीय धरोहर जामा मस्जिद को बुखारी परिवार के चंगुल से आजाद कराने के लिए लिखा और आरोप लगाया कि जामा मस्जिद एक राष्ट्रीय स्मारक होने के बावजूद एक परिवार की पैतृक सम्पत्ति बनी हुई है और इस वजह से इसका न सिर्फ गैरकानूनी दोहन हो रहा है बल्कि इस क्षेत्र में इस परिवार का आतंक व्याप्त है।
यह परिवार इस परिसर में कई तरह के अवैध शुल्क उगाही, राष्ट्रीय सम्पत्ति को किराये पर देने के साथ-साथ ड्रग व नशा तंत्र, सेक्स रैकेट, हवाला रैकेट, मटका, सत्ता व विदेशी मुद्रा के अवैध विनिमय जैसे राष्ट्र विरोधी कार्यों की सरपरस्ती करता बताया जाता है। शीबा का दावा है कि कोई भी व्यक्ति मौके पर आकर इन गतिविधियों को कभी भी देख सकता है। वे कहती हैं कि इस क्षेत्र की हालत इतनी खराब हो चुकी है कि कोई भी शरीफ आदमी यहाँ से गुजरना भी न चाहेगा। उन्होंने इमाम के साथ ‘शाही’ शब्द जोड़े जाने पर भी खासी आपत्ति की थी और इस संदर्भ में कुछ माह पूर्व एक लेख भी लिखा था कि ‘ये शाही क्या होता है?’ और इस लेख ने भी उस वक्त उनके लिए खासी दिक्कतें खड़ी की थीं।
शीबा व उनके पति अरशद अली फहमी जो कि पत्रकार व सूचना कार्यकर्ता हैं, ने अब तक दर्जनों सूचना दरख्वास्तें लगा कर उक्त तरह की अवैध गतिविधियों का खुलासा करने व उन पर रोक लगाने का कार्य कर चुके हैं। यह साफ-साफ किसी के आर्थिक हितों के विरुद्ध है। फहमी दम्पत्ति ने ऐसे कृत्यों के विरुद्ध जबर्दस्त पोस्टर अभियान भी चलाया है। वे बुखारी परिवार की दीदा दिलेरी के बारे में बताती है कि राष्ट्रीय धरोहर जामा मस्जिद के गेट नम्बर तीन स्थित पार्क को उन लोगों ने कार व बस की वी.आई.पी. पार्किंग में बदल दिया है और संभवतः दिल्ली की सबसे मॅहगी पार्किंग है। इस पार्किंग में कार के लिए 50 रुपया प्रति घंटा और बस के लिए 800 रुपया प्रतिदिन का रेट है!
यह स्थल पर्यटन के लिए भी है और यहाँ देश-विदेश के पर्यटक बड़ी संख्या में आते हैं। अनुमान है कि यहाँ 150 से अधिक गाड़ियां रोज आती होंगीं। उनसे इस प्रकार की गई लूट सीधे ‘शाही जेब’ में जाती है। यहाँ विदेशी मुद्रा बदलने की लगभग 150 अवैध दुकाने हैं और पुलिस की हिम्मत नहीं कि वो इनकी शाही सरपरस्ती के खिलाफ जा सके। इसके अलावा यहाँ चोरी की गाड़ियों को लाकर उन्हें काट कर बेच दिया जाता है। इस प्रकार यहाँ एक आपराधिक साम्राज्य खड़ा है और इसके खिलाफ बोलने या सिर उठाने वाले के साथ वही सलूक किया जाता है जो फहमी दम्पत्ति के साथ किया जा रहा है। ताजा मामला भी शीबा का अपना न होकर एक गरीब मजदूर की मदद को लेकर था।
एक कश्मीरी मजदूर विदेश से लौटा था और उसकी विदेशी मुद्रा को बदलने के फेर में जामा मस्जिद स्थित एक दुकानदार ने धोखाधड़ी करते हुए लगभग 44000 रुपये कम दिये। इस दुकानदार के पास मुद्रा बदलने का कोई लाइसेंस भी नहीं है। उस मजदूर ने पास ही स्थित शीबा के अखबार के दफ्तर में आकर मदद की गुहार की। शीबा के पति अरशद अली फहमी ने पहले तो दुकानदार को समझाया लेकिन जब वो नहीं माना तो उन्होंने पुलिस को बुलवाया। पुलिस के दबाव में उसे पैसा उस मजदूर का वापस करना पड़ा। यह मामला इस क्षेत्र के अवैध कारोबारियों तथा उनके संरक्षणदाताओं को अपने हितों के विरुद्ध लगा और नतीजे में फहमी परिवार को सबक सिखाने का फैसला किया गया।
हमलावरों ने बाकयदा ‘अरशद फहमी-शीबा फहमी मुर्दाबाद ’ और ‘ इमाम बुखारी जिंदाबाद के नारे भी लगाये और धमकी दी कि ‘‘ टी.वी. पर जो बोलती हो वह काम नहीं आएगा’’। शीबा फहमी के घर पर हुआ ताजा हमला कई गंभीर सवाल उठाता है। मजहब की धौंस पर क्या कुछ लोग देश, कानून और संविधान सबसे उपर हो सकते हैं? किसी राष्ट्रीय धरोहर को क्या किसी की बपौती बनने दिया जा सकता है? पुरातत्व विभाग से संरक्षित किसी इमारत को किसी के निजी स्वार्थ के लिए क्या मनमाने तरीके से क्षति पहुँचाने दिया जा सकता है? देश में सूचना का अधिकार कानून लागू है और इसने वह कर दिखाया है जो आज तक बहुत मंहगी और भारी-भरकम जनहित याचिकाऐं भी नहीं कर पाती थीं।
निश्चित तौर पर दर्जनों सूचना कार्यकर्ताओं ने अपनी जान देकर आर.टी.आई. के इस पौधे को खाद-पानी दिया है। मध्य प्रदेश की सूचना कार्यकर्त्री शेहला मसूद की गत दिनों हुई हत्या इसकी ताजा मिसाल है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि सूचना कार्यकर्ताओं पर हो रहे इस तरह के हौलनाक हमलों के बीच प्रधानमंत्री व उनके मंत्रिमंडल के कई वरिष्ठ सहयोगी यह कहने लगे हैं कि सूचना कानून की समीक्षा की जानी चाहिए क्योंकि इसकी वजह से अधिकारियों को काम करने में दिक्कतें आ रही हैं? दिक्कतें अधिकारियों को आ रही हैं कि सरकार को? और क्या इसीलिए शीबा के मामले में अभियुक्तों का नाम बताने के बावजूद पुलिस ने पहले  तो उनका नाम प्राथमिकी में दर्ज करने में देरी की और बाद में उन्हें इतना मौका दिया की वो सब अपनी जमानतें करवा सकें ! अब उन सबने अपनी जमानतें करवा ली हैं और वो बाकायदा फहमी दंपत्ति को मुंह चिढ़ा रहे हैं !

Thursday, September 08, 2011

Wednesday, August 31, 2011

सामंती प्रवृत्ति है उत्तर पुस्तिका देखने पर रोक -- सुनील अमर



आजादी की 64वीं सालगिरह पर देश के छात्रों के लिए इससे अच्छा उपहार दूसरा नहीं हो सकता था जो बीते 9अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले द्वारा दिया। न्यायालय ने कहा कि हर छात्र को अपनी उत्तर पुस्तिका को देखने का अधिकार है कि उसके दिए जबाब को परीक्षक ने किस तरह जॉचा है। सही मायने में यह छात्रों को मिली आजादी है जो उन्हें देश की लगभग भ्रष्ट और अप्रासंगिक हो चुकी परीक्षा प्रणाली की तानाशाही से मुक्ति दिलाती है। पूंजीवाद के जितने भी अवगुण ज्ञात हैं,वे सब आज हमारी शिक्षा-परीक्षा प्रणाली में व्याप्त हैं। संभवत: इसीलिए शिक्षण संस्थाओं के इस हास्यास्पद तर्क को सर्वोच्च न्यायालय ने नकार दिया कि जॉची गई उत्तर पुस्तिका छात्रों को दिखाने से समूची परीक्षा प्रणाली ही ध्वस्त हो जाएगी।
               यह प्रश्न सहज ही एक आम आदमी के मन में आता है कि जिसने परीक्षा दी है वह छात्र अपनी जॉची गई कॉपी को देख क्यों नहीं सकता? क्या उसे यह जानने का अधिकार नहीं होना चाहिए कि उसका मूल्यॉकन सही हुआ है या गलत?क्या परीक्षक कोई सुपर नेचुरल चीज है और उससे गलती या भूल हो ही नहीं सकती? और अगर ऐसी गलती या भूल हो गई हो तो क्या उसका परिमार्जन नहीं किया जाना चाहिए?कलकत्ता उच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल माधयमिक शिक्षा बोर्ड,पश्चिम बंगाल उच्चतर शिक्षा परिषद,पश्चिम बंगाल केन्द्रीय स्कूल सेवा आयोग,कलकत्ता विश्वविद्यालय तथा चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट इंस्टीटयूट ऑफ इंडिया नामक संस्थाओं के विरुध्द दायर एक याचिका में 5 फरवरी 2009को फैसला दिया था कि सूचना के अधिकार के तहत कोई भी छात्र अपनी उत्तर पुस्तिका को देखने के लिए मॉग सकता है। इसी फैसले पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपनी मुहर लगाकर छात्रों को दशकों से चली आ रही मानसिक प्रताड़ना और सामंती उत्पीड़न से बचने का एक विधिक रास्ता दे दिया।
      यह इस देश की संवैधानिक विडम्बना ही है कि यहाँ एक ही प्रकृति और परिणाम वाले कार्यों के लिए भी अव्वल और दोयम ही नहीं बल्कि जाने कितने मानकों वाली व्यवस्थाऐं विधिक ढ़ॅग से लागू हैं! हमें याद है कि अपनी पढ़ाई के दौरान इंटरमीडिएट तक की गृह परीक्षाओं में हमें अपनी उत्तर पुस्तिकाऐं देखने को दी जाती थीं और उस दिन हम लोगों में बहुत उत्साह होता था। कई बार ऐसा होता था कि छात्र उसमें परीक्षक की गलती पकड़कर अपना प्राप्तांक सही करवाते थे क्योकि गलती किसी से भी हो सकती है। अभी बीते दिनों में हमने देखा कि सरकारी नौकरियों के लिए होने वाली योग्यता परीक्षाओं मसलन समूह 'ग', को आधुनिक प्रणाली ओ.एम.आर. के तहत कराकर परीक्षार्थियों को बाकायदा उत्तर पुस्तिका की एक कार्बन प्रति ही दे दी गई थी कि वे अखबारों में प्रकाशित होने वाले सही उत्तर की सूची से अपने लिखे उत्तरों का मिलान कर देख लें कि उनके साथ परीक्षक ने न्याय किया है या नहीं। कभी यह सुनने में नहीं आया कि इससे वह परीक्षा व्यवस्था ध्वस्त हो गई या कोई जनहित नष्ट हुआ हो। इसके उलट यह जरुर हुआ कि आपत्ति के बाद तमाम छात्रों ने अपनी मेरिट सही करवा कर लाभ प्राप्त किया।
               यह सच है कि उच्च परीक्षाओं में प्रत्येक छात्र को जॉची गई उत्तर पुस्तिका दिखा पाना संभव नहीं है लेकिन मॉगे जाने पर तो दिखाया ही जा सकता है। बोर्ड परीक्षाओं में 'स्क्रूटनी'यानी पुनर्परीक्षण की व्यवस्था तो है लेकिन इसमें भी छात्र अपनी कॉपी देख नहीं सकता। इसमें किसी अन्य परीक्षक से कॉपी को पुन: जॅचवा दिया जाता है। छात्रों व अभिभावकों द्वारा यह मॉग काफी अरसे से हो रही है कि परीक्षाओं में टॉप करने वाले छात्रों की उत्तर पुस्तिकाऐं सार्वजनिक की जॉय ताकि अन्य छात्र यह जान सकें कि टॉप करने के लिए किस तरह उत्तर दिया जाना चाहिए। इस बेहद निर्दोष सी मॉग को आज तक परीक्षा संस्थाओं द्वारा माना नहीं गया। दुनिया में जो कुछ भी प्राकृतिक या कृत्रिम सर्वश्रेष्ठ होता है,वह सप्रयास सबको देखने के लिए उपलब्ध कराया जाता है। तो फिर सर्वश्रेष्ठ कापियों को छिपाया क्यों जाता है? क्या उनकी सर्वश्रेष्ठता संदिग्ध होती है? क्या यह संदेह इस अवधारणा की पुष्टि नहीं करता कि शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थाओं में सर्वश्रेष्ठ बनाने का बाकायदा धंधा चल रहा है?
             माध्यमिक शिक्षा का बोर्ड हो या विष्वविद्यालय की परीक्षाऐं, यह तथ्य सभी जानते हैं कि आज परीक्षक किस तरह कापियॉ जॉचते हैं। परीक्षकों को प्रति कॉपी के हिसाब से जॉचने का पारिश्रमिक दिया जाता है। यानी ज्यादा कॉपी तो ज्यादा पैसा!ऐसे में परीक्षक कॉपी नहीं जॉचते बल्कि कवर पृश्ठ पर अनुमान के हिसाब से नम्बर देकर खानापूरी भर करते हैं। शिकायतें तो यहॉ तक हैं कि विश्वविद्यालयों के दमदार प्रोफेसर्स तो कॉपियाँ अपने घर मॅगवाकर लेते हैं और वहॉ उनके चेले-चपाटे परीक्षक बनकर उनका काम हल्का कर देते हैं। ऐसे में हर छात्र के दिल का धड़कना जायज है और संदेह होने पर अपनी जॉची हुई कॉपी को देखने का अधिकार भी। शुक्र है कि कलकत्ता उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने छात्रों की इस तकलीफ को समझा।
              न्यायालय के समक्ष अपना पक्ष रखते हुए उक्त संस्थाओं ने कहा था कि इससे समूची परीक्षा व्यवस्था ही ध्वस्त हो जाएगी। शिवहर्ष किसान पोस्ट ग्रेजुएट कालेज जनपद बस्ती के अंग्रेजी के वरिष्ठ प्राध्यापक डॉ. रघुवंशमणि इस प्रश्न पर कहते हैं कि प्रत्येक परीक्षा पुस्तिका को जॉचने के बाद उस पर परीक्षक को अपने हस्ताक्षर करने पड़ते हैं। इस प्रकार छात्र द्वारा कॉपी देखे जाने पर परीक्षक की पहचान खुल जाएगी जो तमाम प्रकार की परेशानियॉ खड़ी कर सकती है। लेकिन श्री रघुवंशमणि कहते हैं कि यदि कोई छात्र परीक्षक के बारे में जानना ही चाहे तो वह एलॉटमेन्ट रजिस्टर से भी जान सकता है कि उस विषय की कॉपियॉ किस परीक्षक को दी गई है। श्री मणि इस फैसले का स्वागत करते हैं। पूर्वांचल के सबसे बड़े महाविद्यालय साकेत महाविद्यालय अयोध्या, फैजाबाद के हिन्दी के वरिश्ठ प्राध्यापक डॉ. अनिल सिंह कहते हैं कि जब तमाम परीक्षाओं में कापियॉ दिखाई ही जाती हैं तो यह रोक बेमानी थी और कलकत्ता उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत सराहनीय फैसला छात्रों के हित में किया है। श्री सिंह कहते है कि इससे शिक्षा-परीक्षा में बढ़ रही माफिया प्रवृत्ति पर रोक लगाई जा सकती है। लखनऊ विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व उपाधयक्ष तेज नारायण पांडेय उर्फ पवन पांडेय कहते हैं कि शिक्षा माफियाओं से लड़ने को न्यायालय ने निरीह छात्रों को एक बहुत कारगर औजार दे दिया है।
               देश में सूचना का अधिकार कानून लागू है जो अब न सिर्फ सरकारी विभाग बल्कि तमाम निजी संस्थाओं को भी अपने दायरे में ले रहा है। ऐसे में अब यह कहकर नहीं बचा जा सकता कि यह जनहित के नाम पर नहीं है या इससे कोई तथाकथित व्यवस्था धवस्त हो जाएगी। असल में यह देश के लचर कानूनों से उपजी समस्या थी जो ठीक से विरोध न करने के कारण फल-फूल कर गरीब छात्रों के लिए जानलेवा बन गई थी जबकि पूँजीदार लोग इसी के दम पर सरकारी मलाई काट रहे थे। प्राय: सभी ने इसे न्यायिक पारदर्शिता की दिशा में एक और कदम बताते हुए इसका स्वागत किया है। शिक्षा जगत में अभी बहुत व्याधियॉ हैं लेकिन लगता है कि यह फैसला अब एक प्रवेश मार्ग का काम करेगा। ( हमसमवेत फीचर्स में २२ अगस्त २०११ को प्रकाशित)




Friday, August 12, 2011

भाषण, जो लाल किले से पढ़ा नहीं गया! ---- सुनील अमर



 मेरे प्यारे देशवासियों ......
             आज आजादी को याद करने का दिन है। आजादी की कीमत वही समझ सकता है जो गुलाम हो। वैसे ही, जैसे खाने की कीमत वही समझ सकता है जो भूखा हो। यह अच्छी बात है कि हम आप न तो गुलाम हैं और न ही भूखे। यह हमारे देश के महान नेताओं की मेहनत और त्याग का फल है। हमें आपको यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि हमने देश के चैतरफा मौजूद खतरों को नेस्तनाबूद कर दिया है। हमने बिना कुछ किए ऐसी-ऐसी चालें चलीं कि हमारे सभी पड़ोसी दुश्मन एक-एक कर परास्त होते चले गए। यह हमारी उस महान नेता की दूरगामी सोच का परिणाम है जिनका त्याग करने में कोई सानी नहीं। वे त्यागियों की परम्परा से आती भी हैं, तभी तो उनहोंने इस देश के महान त्यागी पुरुष का जातिनाम खुशी-खुशी ग्रहण किया। उनके दुश्मन आरोप लगाते हैं लेकिन मैं उनसे पूछना चाहता हॅू कि इतने बड़े देश में क्या किसी और ने भी उस त्यागी पुरुष का जातिनाम अपनाया? 
मेरे प्यारे बहनों और भाइयों,  
अब मैं कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण बातें आपसे करना चाहूँगा जिन्हें ठीक से समझना आपके लिए बहुत जरुरी है। हमने देश के बाहर की लड़ाईयों को तो सफलतापूर्वक जीत लिया लेकिन हमारे विरोधी लोग हमारी इस कामयाबी से चिढ़कर देश के भीतर ही हमारे शासन के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। वे तमाम तरह के दुष्प्रचार से हमें अस्थिर करना चाहते हैं। मैं कभी-कभी सोचकर हैरान हो जाता हॅूं कि हमारे विरोधी पढ़े-लिखे होकर भी कैसी मूर्खता की बातें करते हैं! आप सभी जानते हैं कि हमारे शासनकाल में देश में इतना ज्यादा अनाज पैदा हो रहा है कि उसे रखने की भी हमारे पास जगह नहीं है। मजबूरी में हमें उसे खुले में रखना पड़ता है। यह हमारे किसानों के सम्पन्न और खुशहाल होने का सबूत है, फिर भी हमारे विरोधी प्रचार करते हैं कि देश में तमाम लोग भूखे हैं! मुझे पता है कि देश में बहुत से लोग भूखे रहते हैं लेकिन वे इस देश की धार्मिक परम्परा और शास्त्रों में वर्णित विधान के तहत ऐसा करते हैं। हमारी धर्मप्राण जनता को मालूम है कि खुद भूखा रहकर दूसरों का पेट भरने से मोक्ष प्राप्त होता है। 
चार-पांच लोग हमारी  सरकार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हैं और कहते हैं कि सरकार के फलां मंत्री ने इतना धन ले लिया और फला ने उतना। मैं विनम्रतापूर्वक उनसे कहना चाहता हॅू कि सरकार धन से ही तो चलती है। क्या दुनिया में कोई ऐसा भी शासन तंत्र कहीं है जो बिना धन के ही चलता हो? मेरी उदारता देखिए कि मैंने अपने ऐसे विरोधियों को भी कई बार चाय और भोजन पर बुलाकर समझाया कि उनकी जो भी निजी तकलीफ और जरुरतें हो वे बतायें हम पूरी करेंगें और वे सब अपना-अपना काम करें लेकिन वे नहीं मानते। उनमें लाखों रुपया रोज कमा सकने वाले वकील हैं जो वकालत छोड़कर शासन को अस्थिर करने का षड़यंत्र रचने में लगे हैं। उनमें वरिष्ठ अधिकारी हैं जो शानदार नौकरी छोड़कर हमें हिलाने का कुप्रयास कर रहे हैं। एक पेन्शनर हैं जिन्हें बुढ़ापे में आराम करना चाहिए था लेकिन वे षडयंत्रकारियों के सरगना बने हुए हैं। आखिर सरकार क्या किसी को इसलिए पेंशन देती है कि वो सरकार को ही गिराने में उस धन का इस्तेमाल करे? आप स्वयं बताइए कि क्या ऐसे अनैतिक लोगों को सत्ता में आने का मौका मिलना चाहिए? भगवान श्री राम हमारे आदर्श हैं। बचपन में मैं भी रामलीला देखता और खेलता था। मुझे कुंभकरण के चरित्र ने बहुत प्रभावित किया! देश के एक ख्यातिलब्ध कसरतवाले ने पिछले दिनों ऐसे ही एक पवित्र रामलीला मैदान को अपवित्र करने की कोशिश करी। आधी रात का वक्त था। हम चाहते तो उन्हें कारागार में आराम से रख सकते थे लेकिन हमारा बड़प्पन देखिए कि हमने उन्हें वायुमार्ग से उनके घर भिजवा दिया। इस प्रकरण में मैं तहेदिल से शुक्रगुजार हॅू अपने सभी विपक्षी दलों का कि वे ऐसे चंद अलोकतांत्रिक लोगों के बहकावे में नहीं आये। कोई भी समझदार संगठन या व्यक्ति अपने रास्ते में कभी गढ्ढा नहीं खोदता।
एक दूसरा आरोप हमारे विरोधी हम पर मंहगाई बढ़ाने का लगाते हैं। मंहगाई, जैसा कि आप जानते हैं कि नज़रों के दोष के सिवा और कुछ नहीं। आप एक लाख आदमी से कहलवा सकते हैं कि मंहगाई से नुकसान हो रहा है और हम दो लाख आदमी से कहलवा सकते हैं कि मंहगाई से बहुत लाभ हो रहा है। हमारे विद्वान दूरदर्शी कृषि मंत्री ने हमेशा मंहगाई बढ़ने से पहले देश को आगाह किया कि फलां जिंस मंहगी हो सकती है और जैसा कि आप सबने देखा है, देख रहे हैं और देखेंगें कि उनकी बात हमेशा सच साबित हुई। आखिर मौसम विभाग आपको चेतावनी ही तो दे सकता है। वह आपके साथ छाता लेकर तो खड़ा नहीं हो सकता! हमें गर्व है कि दुनिया के किसी और देश में ऐसा दूरअंदेशी कृषि मंत्री नहीं है। हमारे विरोधी कभी भी पूरी बात नहीं बताते और आप सबको अंधेरे में रखते हैं। वे कहते हैं कि हमने डीजल और पेट्रोल का दाम बढ़ा दिया है जिससे जनता परेशान है। वे आरोप लगाते हैं कि हमने हवाई जहाज का पेट्रोल बहुत सस्ता कर दिया है। मैं उनसे सवाल करना चाहता हॅू कि आप देश और देशवासियों को आगे बढ़ते नहीं देखना चाहते? क्या देश की साधारण जनता को हवाई जहाज से यात्रा करने का मौका नहीं मिलना चाहिए? हमने इसी नीति के तहत साधारण पेट्रोल का दाम बढ़ाकर हवाई जहाज के पेट्रोल का दाम काफी कम किया ताकि हवाई यात्रा सस्ती हो सके और हमारे गरीब भाई-बहन भी उसमें बैठकर अपने सपनों को पूरा कर सकें। 
हमारे यही विरोधी षडयंत्रपूर्वक प्रचार करते हैं कि देश में गरीबी बढ़ रही है। आप रोज देखते होंगें कि जहां पैसा देकर कोई सामान खरीदना है वहाँ भी इतनी भीड़ रहती है कि आपको लाइन लगानी पड़ती है और हमें  पुलिस। क्या यह गरीबी का लक्षण है? बसों में लटकना पड़ता है, रेलगाड़ियों में छतों पर बैठना पड़ रहा है, अस्पताल भरे हैं और मरीज जमीन पर लेटकर इलाज करा रहे हैं। सरकारी दफ्तरों में इतनी भीड़ रहती है कि आपका काम महीनों क्या सालों तक नहीं हो पाता। हमारी अदालतों में करोड़ों लोग पचासों साल तक मंहगा मुकदमा लड़ते हैं, क्या यह सब गरीबी और भुखमरी के चिह्न हैं? कारों की बिक्री बढ़ रही है, मोटर सायकिलें धुआधार बिक रही हैं, हवाई जहाज से यात्रा करने के लिए भी इंतजार करना पड़ रहा है, प्रायवेट स्कूल, प्रायवेट अस्पताल, प्रायवेट बैंक, प्रायवेट कालोनियां और निजी सुरक्षा व्यस्था का बढ़ना क्या यह सब गरीबी के कारण हो रहा है? हमारे विरोधी परस्पर उल्टी बातें करतें हैं और उन्हें जरा भी शर्म नहीं आती। एक तरफ वे कहते हैं कि देश में विकट गरीबी है, दूसरी तरफ कहते हैं कि देश का खरबों रुपया विदेशी बैंकों में जमा है! यहाँ मैं आपको बताना चाहूँगा कि मैंने विदेशी बैंकों में नौकरी की है और मैं जानता हॅू कि सिर्फ अमीर देश ही विदेशों में खरबों रुपया जमा कर सकता है।
बहुत दिन से मैं आप सबसे यह सारी बातें करना चाह रहा था। मेरे अधिकारियों ने सलाह दी थी कि मैं आकाशवाणी और दूरदर्शन की मार्फत आपसे बात कर लूं लेकिन मैंने आपकी गाढ़ी कमाई से प्राप्त सरकारी धन को बरबाद करने के बजाय आज के इस अवसर का इंतजार किया। मैं बहुत देर से गौर कर रहा हॅू कि आप सब बड़े ताज्जुब से मेरे इस भाषण वाले मचान को देख रहे हैं जो इस लाल किले की प्राचीर के बावजूद मजबूत बल्लियों को बांधकर बनाया गया है। साथियों, अभी बीते दिनों जब से देश के एक सूबे में सिर्फ 34 साल पुराना एक लाल दुर्ग एक महिला के नाजुक हाथों ढ़ह गया तब से दुर्ग और किलों की मजबूती से मेरा भरोसा उठ गया है और यह किला तो वैसे भी सैकड़ों साल पुराना है। मैं एक बार फिर आप सबसे गुजारिश करना चाहूँगा कि आप सब मेरी वफादारी और देशभक्ति पर विश्वास बनाये रखें। यह देखिए, मेरे अधिकारियों ने मेरा यह भाषण अंग्रेजी लिपि में लिख रखा है लेकिन मैंने इसे राष्ट्रभाषा में ही पढ़ा! अब एक बार मेरे साथ  जोर से बोलिए- जय सोनिया! जय इंडिया!! थैंक्यू वेरी मच। वुई विल मीट अगेन एण्ड अगेन। 00 


राजनीतिक दॉव-पेंच पर बलि चढ़ती जनता ---- सुनील अमर



राजनीतिक दलों की आपसी तकरार में नुकसान जनता का ही होता है, यह एक सर्वविदित तथ्य है, लेकिन जब इस तकरार के दायरे में सरकारें आ जाती हैं तो यह नुकसान कहीं ज्यादा व्यापक और घातक हो जाता है। केन्द्र की कॉग्रेसनीत संप्रग सरकार और उत्तर प्रदेश की सत्तारुढ़ बसपा सरकार की आपसी खींचतान में बीते चार वर्षों से यही हो रहा है। दर्जनों ऐसी योजनाऐं हैं जिनकी शुरुआत या सफल क्रियान्वयन अगर समय से हो जाता तो इस महाप्रदेश की जनता को कई प्रकार की राहतें मिल सकती थीं और विकास की अटकी हुई गाड़ी जरा आगे बढ़ सकती थी, लेकिन इसके उलट योजनाओं के लिए धन की पर्याप्त व्यवस्था होने के बावजूद,वोट की राजनीति और आपराधिक कर्तव्यहीनता ने कई महत्त्वपूर्ण योजनाओं की एक प्रकार से भ्रूण हत्या ही कर दी है। अफसोस इस बात का है कि तमाम निगरानी संस्थाओं के होने के बावजूद इस घातक प्रवृत्ति पर अंकुश लगते दिख नहीं रहा है।
               उत्तर प्रदेश में इन दिनों जो ताजा राजनीतिक भूचाल आया हुआ है वह है केन्द्र की राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन योजना में हो रही व्यापक लूट-खसोट और इसके कारण हुई स्वास्थ्य विभाग के तीन उच्चाधिकारियों की हत्या। सभी जानते हैं कि प्रदेश में स्वास्थ्य सम्बन्धी सेवाऐं कितनी खस्ताहाल हैं और जरा से भी इलाज के लिए लोग निजी डाक्टरों और अस्पतालों के चंगुल में फॅंसने को विवश हैं। बावजूद इसके वर्श 2010-2011 में इस योजना के तहत केन्द्र से मिले 3100 करोड़ रुपये में से 521 करोड़ रुपये खर्च ही नहीं किये गये! इसका जो नुकसान प्रदेश की गरीब जनता को हुआ सो तो हुआ ही, वित्तीय परम्पराओं के अनुसार इस यानी चालू वर्ष के लिए आवंटित कुल 3309 करोड़ रुपयों में से 694 करोड़ रुपयों की कटौती केन्द्र ने कर दी क्योंकि राज्य सरकार दिए गए धन को खर्च ही नहीं कर पा रही थी!
               यह तथ्य ध्यान में रहे कि उ.प्र. में जीवन प्रत्याषा की दर देश के सबसे कम दर वाले राज्यों में गिनी जाती है। यहॉ मातृ मृत्यु दर 440 व शिशु मृत्यु दर 67 है। योजना थी कि प्रदेश के प्रत्येक जिला मुख्यालय या फिर पॉच लाख की आबादी पर एक ऐसा आधुनिक अस्पताल बनाया जाय जिसमें 24 घंटे ऑपरेशन तथा जटिल से जटिल प्रसव स्थितियों को संभालने की व्यवस्था हो, लेकिन यह अभी हवा में ही है। देश में प्रति एक हजार व्यक्ति पर एक डाक्टर का औसत है तो उ.प्र. में 5000 पर एक! अस्पताल में डाक्टरों के 4000 पद रिक्त हैं और बाल रोग विशेषज्ञों के 200 पद। राजकीय राजमार्गों पर होने वाली दुर्घटनाओं में तत्काल उचित चिकित्सा हेतु प्रदेश के छह प्रमुख शहरों आगरा, कानपुर, गोरखपुर, इलाहाबाद, मेरठ और झॉसी के मेडिकल कालेजों में अत्याधुनिक ट्रामा सेन्टर बनाये जाने थे लेकिन धन होने के बावजूद यह कार्य अभी फाइलों से जमीन पर उतर नहीं सका है।
               विश्व में अपने ढ़ॅंग की अनोखी योजना मनरेगा की जब शुरुआत हुई तो ऐसा लग रहा था कि इससे समाज के उस तबके को काफी राहत मिल जाएगी जो रोज कुऑ खोदकर पानी पीने को अभिशप्त है। वर्ष में 100दिन का निश्चित रोजगार या उसके न मिलने पर भत्ता, भुखमरी की आशंका के विरुध्द एक ठोस आश्वासन था, लेकिन वोट की राजनीति ने इस अतिमहत्त्वाकांक्षी योजना को भी चौपट करके रख दिया। यह जानकर आश्चर्य होगा कि अरबों रुपया सरकार के खाते में पड़ा होने के बावजूद जरुरतमंद लोगों को न तो काम दिया जा रहा है और न ही नियमानुसार भत्ता। पिछले वित्तीय वर्ष में इस योजना के तहत कुल 8000करोड़ रुपया खर्च किये जाने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन नौ माह बीत जाने के बावजूद इसमें से सिर्फ 3000 करोड़ रुपये ही खर्च हो सके थे ! यह हाल तब है जब केन्द्र सरकार इस योजना को बेहतर ढ़ॅंग से चलाने के लिए इसके बजट का छह प्रतिशत धन प्रशासनिक व्यय के रुप में देती है।
               योजना के क्रियान्वयन में किस तरह की आपराधिक लापरवाही बरती जा रही है, इसका अनुमान महज इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि गत वित्तीय वर्ष में फरवरी माह तक प्रदेश के कुल 23,19,319 परिवारों को 100 दिन का रोजगार देने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन दिया गया मात्र 3,85,407परिवारों को ही!प्रदेश के महोबा व औरैया जिले बुंदेलखण्ड प्रभाग में आते हैं और वहॉ व्याप्त सूखे की विकट स्थिति और इसके फलस्वरुप किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं से सारा देश अवगत है। इसके बावजूद सरकारी ऑकड़े बताते हैं किइन दोनों जनपदो में महज तीन प्रतिशत लोगों को ही मनरेगा में काम मिल सका! प्रदेश के जनपद सुल्तानपुर, बाराबंकी, पीलीभीत, सोनभद्र, मुरादाबाद, श्रावस्ती और सहारनपुर ऐसे जिले हैं जहॉ तीन से पॉच प्रतिशत परिवार ही मनरेगा में काम पा सके। सुल्तानपुर का रिकॉर्ड तो हैरतअंगेज है जहॉ मनरेगा में काम पाने के लिए 40503परिवार सूची में थे लेकिन काम दिया गया महज 1385 परिवारों को! यह किसी योजना का क्रियान्वयन है या मजाक? पैसा वापस चला जा रहा है लेकिन जरुरतमंदों को काम नहीं दिया जा रहा है!कमाल यह है कि इस गंभीर लापरवाही के लिए किसी अधिकारी को जिम्मेदार भी नहीं ठहराया जा रहा है।
               शहरी गरीबों के लिए केन्द्र सरकार ने दिसम्बर 2008 में एक महत्त्वाकांक्षी योजना लागू की थी - झुग्गी झोपड़ी के स्थान पर पक्का आवास देने की। इसमें सस्ती ब्याज दर, अनुदान व आसान किश्तों की व्यवस्था है। इसके लिए केन्द्र सरकार ने प्रथम चरण में 1100 करोड रुपयों की व्यवस्था की। यह जानकर आश्चर्य होगा कि तीन वर्ष बीत जाने के बावजूद राज्यों द्वारा इसमें से महज चार करोड़ बत्तीस लाख रुपये ही इस्तेमाल किए गए। लगभग 20 राज्यों ने तो इस योजना को शुरु ही नहीं किया और उत्तर प्रदेश सरीखे राज्य ने तो सिर्फ एक व्यक्ति को इसके लिए अभी तक चुना है! काँग्रेस शासित राज्यों ने भी इस योजना को नहीं शुरु किया जबकि धन बैंकों में पड़ा है।
               सूखे से त्रस्त बुंदेलखंड देश का दूसरा विदर्भ बनता जा रहा है। इसके उ.प्र. में पड़ने वाले आठ जिलों में वर्ष 2009 से लेकर अब तक के सिर्फ दो वर्षों में ही 1670 किसान कर्ज और भुखमरी से आत्महत्या कर चुके हैं और अखबारों में छपी इन खबरों पर गत माह स्वत:संज्ञान लेते इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आगामी आदेश तक हर प्रकार की सरकारी वसूली पर रोक लगाकर सरकार से ब्यौरा तलब किया है। इस हालत में भी वहॉ के लिए दिए गये अतिरिक्त केन्द्रीय सहायता के 800 करोड़ रुपयों में से बीते 31 मार्च तक सिर्फ 73 करोड़ रुपये ही खर्च करने का उपयोग प्रमाण पत्र राज्य सरकार दे पाई है! पैसा पड़ा है और लोग इसलिए मर रहे हैं कि सरकार काम के बजाय ऐश करने में लगी है।
               प्राथमिक शिक्षा का भी यही हाल है। शिक्षा का अधिकार कानून केन्द्र द्वारा लागू किए जाने के बावजूद प्रदेश सरकार ने उसे तब तक अधिसूचित नहीं किया जब तक कि केन्द्र ने इस मद में धन देना बंद नहीं कर दिया। अभी गत पखवारे उ.प्र.सरकार ने इसे अधिसूचित किया। इस प्रकार योजना और धन दोनों होने के बावजूद प्रदेश सरकार द्वारा महज इसलिए लोगों को उसका लाभ न लेने देना कि इससे तो किसी राजनीतिक दल का प्रचार होगा और उसके मतदाता बढ़ जाएगें, आपराधिक कृत्य है और उसके द्वारा संविधान के प्रति ली गई शपथ का घोर उल्लंघन भी। ( हम समवेत फीचर्स में 08 अगस्त 2011को प्रकाशित )