राजनीतिक दलों की आपसी तकरार में नुकसान जनता का ही होता है, यह एक सर्वविदित तथ्य है, लेकिन जब इस तकरार के दायरे में सरकारें आ जाती हैं तो यह नुकसान कहीं ज्यादा व्यापक और घातक हो जाता है। केन्द्र की कॉग्रेसनीत संप्रग सरकार और उत्तर प्रदेश की सत्तारुढ़ बसपा सरकार की आपसी खींचतान में बीते चार वर्षों से यही हो रहा है। दर्जनों ऐसी योजनाऐं हैं जिनकी शुरुआत या सफल क्रियान्वयन अगर समय से हो जाता तो इस महाप्रदेश की जनता को कई प्रकार की राहतें मिल सकती थीं और विकास की अटकी हुई गाड़ी जरा आगे बढ़ सकती थी, लेकिन इसके उलट योजनाओं के लिए धन की पर्याप्त व्यवस्था होने के बावजूद,वोट की राजनीति और आपराधिक कर्तव्यहीनता ने कई महत्त्वपूर्ण योजनाओं की एक प्रकार से भ्रूण हत्या ही कर दी है। अफसोस इस बात का है कि तमाम निगरानी संस्थाओं के होने के बावजूद इस घातक प्रवृत्ति पर अंकुश लगते दिख नहीं रहा है।
उत्तर प्रदेश में इन दिनों जो ताजा राजनीतिक भूचाल आया हुआ है वह है केन्द्र की राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन योजना में हो रही व्यापक लूट-खसोट और इसके कारण हुई स्वास्थ्य विभाग के तीन उच्चाधिकारियों की हत्या। सभी जानते हैं कि प्रदेश में स्वास्थ्य सम्बन्धी सेवाऐं कितनी खस्ताहाल हैं और जरा से भी इलाज के लिए लोग निजी डाक्टरों और अस्पतालों के चंगुल में फॅंसने को विवश हैं। बावजूद इसके वर्श 2010-2011 में इस योजना के तहत केन्द्र से मिले 3100 करोड़ रुपये में से 521 करोड़ रुपये खर्च ही नहीं किये गये! इसका जो नुकसान प्रदेश की गरीब जनता को हुआ सो तो हुआ ही, वित्तीय परम्पराओं के अनुसार इस यानी चालू वर्ष के लिए आवंटित कुल 3309 करोड़ रुपयों में से 694 करोड़ रुपयों की कटौती केन्द्र ने कर दी क्योंकि राज्य सरकार दिए गए धन को खर्च ही नहीं कर पा रही थी!
यह तथ्य ध्यान में रहे कि उ.प्र. में जीवन प्रत्याषा की दर देश के सबसे कम दर वाले राज्यों में गिनी जाती है। यहॉ मातृ मृत्यु दर 440 व शिशु मृत्यु दर 67 है। योजना थी कि प्रदेश के प्रत्येक जिला मुख्यालय या फिर पॉच लाख की आबादी पर एक ऐसा आधुनिक अस्पताल बनाया जाय जिसमें 24 घंटे ऑपरेशन तथा जटिल से जटिल प्रसव स्थितियों को संभालने की व्यवस्था हो, लेकिन यह अभी हवा में ही है। देश में प्रति एक हजार व्यक्ति पर एक डाक्टर का औसत है तो उ.प्र. में 5000 पर एक! अस्पताल में डाक्टरों के 4000 पद रिक्त हैं और बाल रोग विशेषज्ञों के 200 पद। राजकीय राजमार्गों पर होने वाली दुर्घटनाओं में तत्काल उचित चिकित्सा हेतु प्रदेश के छह प्रमुख शहरों आगरा, कानपुर, गोरखपुर, इलाहाबाद, मेरठ और झॉसी के मेडिकल कालेजों में अत्याधुनिक ट्रामा सेन्टर बनाये जाने थे लेकिन धन होने के बावजूद यह कार्य अभी फाइलों से जमीन पर उतर नहीं सका है।
विश्व में अपने ढ़ॅंग की अनोखी योजना मनरेगा की जब शुरुआत हुई तो ऐसा लग रहा था कि इससे समाज के उस तबके को काफी राहत मिल जाएगी जो रोज कुऑ खोदकर पानी पीने को अभिशप्त है। वर्ष में 100दिन का निश्चित रोजगार या उसके न मिलने पर भत्ता, भुखमरी की आशंका के विरुध्द एक ठोस आश्वासन था, लेकिन वोट की राजनीति ने इस अतिमहत्त्वाकांक्षी योजना को भी चौपट करके रख दिया। यह जानकर आश्चर्य होगा कि अरबों रुपया सरकार के खाते में पड़ा होने के बावजूद जरुरतमंद लोगों को न तो काम दिया जा रहा है और न ही नियमानुसार भत्ता। पिछले वित्तीय वर्ष में इस योजना के तहत कुल 8000करोड़ रुपया खर्च किये जाने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन नौ माह बीत जाने के बावजूद इसमें से सिर्फ 3000 करोड़ रुपये ही खर्च हो सके थे ! यह हाल तब है जब केन्द्र सरकार इस योजना को बेहतर ढ़ॅंग से चलाने के लिए इसके बजट का छह प्रतिशत धन प्रशासनिक व्यय के रुप में देती है।
योजना के क्रियान्वयन में किस तरह की आपराधिक लापरवाही बरती जा रही है, इसका अनुमान महज इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि गत वित्तीय वर्ष में फरवरी माह तक प्रदेश के कुल 23,19,319 परिवारों को 100 दिन का रोजगार देने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन दिया गया मात्र 3,85,407परिवारों को ही!प्रदेश के महोबा व औरैया जिले बुंदेलखण्ड प्रभाग में आते हैं और वहॉ व्याप्त सूखे की विकट स्थिति और इसके फलस्वरुप किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं से सारा देश अवगत है। इसके बावजूद सरकारी ऑकड़े बताते हैं किइन दोनों जनपदो में महज तीन प्रतिशत लोगों को ही मनरेगा में काम मिल सका! प्रदेश के जनपद सुल्तानपुर, बाराबंकी, पीलीभीत, सोनभद्र, मुरादाबाद, श्रावस्ती और सहारनपुर ऐसे जिले हैं जहॉ तीन से पॉच प्रतिशत परिवार ही मनरेगा में काम पा सके। सुल्तानपुर का रिकॉर्ड तो हैरतअंगेज है जहॉ मनरेगा में काम पाने के लिए 40503परिवार सूची में थे लेकिन काम दिया गया महज 1385 परिवारों को! यह किसी योजना का क्रियान्वयन है या मजाक? पैसा वापस चला जा रहा है लेकिन जरुरतमंदों को काम नहीं दिया जा रहा है!कमाल यह है कि इस गंभीर लापरवाही के लिए किसी अधिकारी को जिम्मेदार भी नहीं ठहराया जा रहा है।
शहरी गरीबों के लिए केन्द्र सरकार ने दिसम्बर 2008 में एक महत्त्वाकांक्षी योजना लागू की थी - झुग्गी झोपड़ी के स्थान पर पक्का आवास देने की। इसमें सस्ती ब्याज दर, अनुदान व आसान किश्तों की व्यवस्था है। इसके लिए केन्द्र सरकार ने प्रथम चरण में 1100 करोड रुपयों की व्यवस्था की। यह जानकर आश्चर्य होगा कि तीन वर्ष बीत जाने के बावजूद राज्यों द्वारा इसमें से महज चार करोड़ बत्तीस लाख रुपये ही इस्तेमाल किए गए। लगभग 20 राज्यों ने तो इस योजना को शुरु ही नहीं किया और उत्तर प्रदेश सरीखे राज्य ने तो सिर्फ एक व्यक्ति को इसके लिए अभी तक चुना है! काँग्रेस शासित राज्यों ने भी इस योजना को नहीं शुरु किया जबकि धन बैंकों में पड़ा है।
सूखे से त्रस्त बुंदेलखंड देश का दूसरा विदर्भ बनता जा रहा है। इसके उ.प्र. में पड़ने वाले आठ जिलों में वर्ष 2009 से लेकर अब तक के सिर्फ दो वर्षों में ही 1670 किसान कर्ज और भुखमरी से आत्महत्या कर चुके हैं और अखबारों में छपी इन खबरों पर गत माह स्वत:संज्ञान लेते इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आगामी आदेश तक हर प्रकार की सरकारी वसूली पर रोक लगाकर सरकार से ब्यौरा तलब किया है। इस हालत में भी वहॉ के लिए दिए गये अतिरिक्त केन्द्रीय सहायता के 800 करोड़ रुपयों में से बीते 31 मार्च तक सिर्फ 73 करोड़ रुपये ही खर्च करने का उपयोग प्रमाण पत्र राज्य सरकार दे पाई है! पैसा पड़ा है और लोग इसलिए मर रहे हैं कि सरकार काम के बजाय ऐश करने में लगी है।
प्राथमिक शिक्षा का भी यही हाल है। शिक्षा का अधिकार कानून केन्द्र द्वारा लागू किए जाने के बावजूद प्रदेश सरकार ने उसे तब तक अधिसूचित नहीं किया जब तक कि केन्द्र ने इस मद में धन देना बंद नहीं कर दिया। अभी गत पखवारे उ.प्र.सरकार ने इसे अधिसूचित किया। इस प्रकार योजना और धन दोनों होने के बावजूद प्रदेश सरकार द्वारा महज इसलिए लोगों को उसका लाभ न लेने देना कि इससे तो किसी राजनीतिक दल का प्रचार होगा और उसके मतदाता बढ़ जाएगें, आपराधिक कृत्य है और उसके द्वारा संविधान के प्रति ली गई शपथ का घोर उल्लंघन भी। ( हम समवेत फीचर्स में 08 अगस्त 2011को प्रकाशित )
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