Wednesday, August 31, 2011

सामंती प्रवृत्ति है उत्तर पुस्तिका देखने पर रोक -- सुनील अमर



आजादी की 64वीं सालगिरह पर देश के छात्रों के लिए इससे अच्छा उपहार दूसरा नहीं हो सकता था जो बीते 9अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले द्वारा दिया। न्यायालय ने कहा कि हर छात्र को अपनी उत्तर पुस्तिका को देखने का अधिकार है कि उसके दिए जबाब को परीक्षक ने किस तरह जॉचा है। सही मायने में यह छात्रों को मिली आजादी है जो उन्हें देश की लगभग भ्रष्ट और अप्रासंगिक हो चुकी परीक्षा प्रणाली की तानाशाही से मुक्ति दिलाती है। पूंजीवाद के जितने भी अवगुण ज्ञात हैं,वे सब आज हमारी शिक्षा-परीक्षा प्रणाली में व्याप्त हैं। संभवत: इसीलिए शिक्षण संस्थाओं के इस हास्यास्पद तर्क को सर्वोच्च न्यायालय ने नकार दिया कि जॉची गई उत्तर पुस्तिका छात्रों को दिखाने से समूची परीक्षा प्रणाली ही ध्वस्त हो जाएगी।
               यह प्रश्न सहज ही एक आम आदमी के मन में आता है कि जिसने परीक्षा दी है वह छात्र अपनी जॉची गई कॉपी को देख क्यों नहीं सकता? क्या उसे यह जानने का अधिकार नहीं होना चाहिए कि उसका मूल्यॉकन सही हुआ है या गलत?क्या परीक्षक कोई सुपर नेचुरल चीज है और उससे गलती या भूल हो ही नहीं सकती? और अगर ऐसी गलती या भूल हो गई हो तो क्या उसका परिमार्जन नहीं किया जाना चाहिए?कलकत्ता उच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल माधयमिक शिक्षा बोर्ड,पश्चिम बंगाल उच्चतर शिक्षा परिषद,पश्चिम बंगाल केन्द्रीय स्कूल सेवा आयोग,कलकत्ता विश्वविद्यालय तथा चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट इंस्टीटयूट ऑफ इंडिया नामक संस्थाओं के विरुध्द दायर एक याचिका में 5 फरवरी 2009को फैसला दिया था कि सूचना के अधिकार के तहत कोई भी छात्र अपनी उत्तर पुस्तिका को देखने के लिए मॉग सकता है। इसी फैसले पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपनी मुहर लगाकर छात्रों को दशकों से चली आ रही मानसिक प्रताड़ना और सामंती उत्पीड़न से बचने का एक विधिक रास्ता दे दिया।
      यह इस देश की संवैधानिक विडम्बना ही है कि यहाँ एक ही प्रकृति और परिणाम वाले कार्यों के लिए भी अव्वल और दोयम ही नहीं बल्कि जाने कितने मानकों वाली व्यवस्थाऐं विधिक ढ़ॅग से लागू हैं! हमें याद है कि अपनी पढ़ाई के दौरान इंटरमीडिएट तक की गृह परीक्षाओं में हमें अपनी उत्तर पुस्तिकाऐं देखने को दी जाती थीं और उस दिन हम लोगों में बहुत उत्साह होता था। कई बार ऐसा होता था कि छात्र उसमें परीक्षक की गलती पकड़कर अपना प्राप्तांक सही करवाते थे क्योकि गलती किसी से भी हो सकती है। अभी बीते दिनों में हमने देखा कि सरकारी नौकरियों के लिए होने वाली योग्यता परीक्षाओं मसलन समूह 'ग', को आधुनिक प्रणाली ओ.एम.आर. के तहत कराकर परीक्षार्थियों को बाकायदा उत्तर पुस्तिका की एक कार्बन प्रति ही दे दी गई थी कि वे अखबारों में प्रकाशित होने वाले सही उत्तर की सूची से अपने लिखे उत्तरों का मिलान कर देख लें कि उनके साथ परीक्षक ने न्याय किया है या नहीं। कभी यह सुनने में नहीं आया कि इससे वह परीक्षा व्यवस्था ध्वस्त हो गई या कोई जनहित नष्ट हुआ हो। इसके उलट यह जरुर हुआ कि आपत्ति के बाद तमाम छात्रों ने अपनी मेरिट सही करवा कर लाभ प्राप्त किया।
               यह सच है कि उच्च परीक्षाओं में प्रत्येक छात्र को जॉची गई उत्तर पुस्तिका दिखा पाना संभव नहीं है लेकिन मॉगे जाने पर तो दिखाया ही जा सकता है। बोर्ड परीक्षाओं में 'स्क्रूटनी'यानी पुनर्परीक्षण की व्यवस्था तो है लेकिन इसमें भी छात्र अपनी कॉपी देख नहीं सकता। इसमें किसी अन्य परीक्षक से कॉपी को पुन: जॅचवा दिया जाता है। छात्रों व अभिभावकों द्वारा यह मॉग काफी अरसे से हो रही है कि परीक्षाओं में टॉप करने वाले छात्रों की उत्तर पुस्तिकाऐं सार्वजनिक की जॉय ताकि अन्य छात्र यह जान सकें कि टॉप करने के लिए किस तरह उत्तर दिया जाना चाहिए। इस बेहद निर्दोष सी मॉग को आज तक परीक्षा संस्थाओं द्वारा माना नहीं गया। दुनिया में जो कुछ भी प्राकृतिक या कृत्रिम सर्वश्रेष्ठ होता है,वह सप्रयास सबको देखने के लिए उपलब्ध कराया जाता है। तो फिर सर्वश्रेष्ठ कापियों को छिपाया क्यों जाता है? क्या उनकी सर्वश्रेष्ठता संदिग्ध होती है? क्या यह संदेह इस अवधारणा की पुष्टि नहीं करता कि शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थाओं में सर्वश्रेष्ठ बनाने का बाकायदा धंधा चल रहा है?
             माध्यमिक शिक्षा का बोर्ड हो या विष्वविद्यालय की परीक्षाऐं, यह तथ्य सभी जानते हैं कि आज परीक्षक किस तरह कापियॉ जॉचते हैं। परीक्षकों को प्रति कॉपी के हिसाब से जॉचने का पारिश्रमिक दिया जाता है। यानी ज्यादा कॉपी तो ज्यादा पैसा!ऐसे में परीक्षक कॉपी नहीं जॉचते बल्कि कवर पृश्ठ पर अनुमान के हिसाब से नम्बर देकर खानापूरी भर करते हैं। शिकायतें तो यहॉ तक हैं कि विश्वविद्यालयों के दमदार प्रोफेसर्स तो कॉपियाँ अपने घर मॅगवाकर लेते हैं और वहॉ उनके चेले-चपाटे परीक्षक बनकर उनका काम हल्का कर देते हैं। ऐसे में हर छात्र के दिल का धड़कना जायज है और संदेह होने पर अपनी जॉची हुई कॉपी को देखने का अधिकार भी। शुक्र है कि कलकत्ता उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने छात्रों की इस तकलीफ को समझा।
              न्यायालय के समक्ष अपना पक्ष रखते हुए उक्त संस्थाओं ने कहा था कि इससे समूची परीक्षा व्यवस्था ही ध्वस्त हो जाएगी। शिवहर्ष किसान पोस्ट ग्रेजुएट कालेज जनपद बस्ती के अंग्रेजी के वरिष्ठ प्राध्यापक डॉ. रघुवंशमणि इस प्रश्न पर कहते हैं कि प्रत्येक परीक्षा पुस्तिका को जॉचने के बाद उस पर परीक्षक को अपने हस्ताक्षर करने पड़ते हैं। इस प्रकार छात्र द्वारा कॉपी देखे जाने पर परीक्षक की पहचान खुल जाएगी जो तमाम प्रकार की परेशानियॉ खड़ी कर सकती है। लेकिन श्री रघुवंशमणि कहते हैं कि यदि कोई छात्र परीक्षक के बारे में जानना ही चाहे तो वह एलॉटमेन्ट रजिस्टर से भी जान सकता है कि उस विषय की कॉपियॉ किस परीक्षक को दी गई है। श्री मणि इस फैसले का स्वागत करते हैं। पूर्वांचल के सबसे बड़े महाविद्यालय साकेत महाविद्यालय अयोध्या, फैजाबाद के हिन्दी के वरिश्ठ प्राध्यापक डॉ. अनिल सिंह कहते हैं कि जब तमाम परीक्षाओं में कापियॉ दिखाई ही जाती हैं तो यह रोक बेमानी थी और कलकत्ता उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत सराहनीय फैसला छात्रों के हित में किया है। श्री सिंह कहते है कि इससे शिक्षा-परीक्षा में बढ़ रही माफिया प्रवृत्ति पर रोक लगाई जा सकती है। लखनऊ विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व उपाधयक्ष तेज नारायण पांडेय उर्फ पवन पांडेय कहते हैं कि शिक्षा माफियाओं से लड़ने को न्यायालय ने निरीह छात्रों को एक बहुत कारगर औजार दे दिया है।
               देश में सूचना का अधिकार कानून लागू है जो अब न सिर्फ सरकारी विभाग बल्कि तमाम निजी संस्थाओं को भी अपने दायरे में ले रहा है। ऐसे में अब यह कहकर नहीं बचा जा सकता कि यह जनहित के नाम पर नहीं है या इससे कोई तथाकथित व्यवस्था धवस्त हो जाएगी। असल में यह देश के लचर कानूनों से उपजी समस्या थी जो ठीक से विरोध न करने के कारण फल-फूल कर गरीब छात्रों के लिए जानलेवा बन गई थी जबकि पूँजीदार लोग इसी के दम पर सरकारी मलाई काट रहे थे। प्राय: सभी ने इसे न्यायिक पारदर्शिता की दिशा में एक और कदम बताते हुए इसका स्वागत किया है। शिक्षा जगत में अभी बहुत व्याधियॉ हैं लेकिन लगता है कि यह फैसला अब एक प्रवेश मार्ग का काम करेगा। ( हमसमवेत फीचर्स में २२ अगस्त २०११ को प्रकाशित)




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