Tuesday, December 20, 2011

'' लाजवाब है 'अदम' का खरा अंदाज़ ''


दैनिक DNA में आज  जनकवि ''अदम'' को अर्पित मेरा श्रद्धांजलि लेख -- '' लाजवाब है 'अदम' का खरा अंदाज़ ''


'' पिछड़ा वर्ग और बसपा की सोच''

दैनिक हरिभूमि ( हरियाणा, दिल्ली,छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश से प्रकाशित ) के सम्पादकीय पृष्ठ 04 पर आज मेरा आलेख --'' पिछड़ा वर्ग और बसपा की सोच'' 




Thursday, December 15, 2011

'' दो पाटों के बीच''

लोकमत समूह के हिंदी समाचार पत्र -- लोकमत समाचार के दो खंडीय दीपावली विशेषांक ( जो कि डाक विभाग की मेहरबानी से मुझे कल प्राप्त हुआ है !) में खंड दो में  ''गाँव के आँगन में'' मुद्दे पर प्रकाशित 3000 शब्दों का मेरा आलेख -- '' दो पाटों के बीच''

Sunday, October 23, 2011

राष्ट्रीय हिंदी दैनिक DNA के सम्पादकीय पृष्ठ पर 23 अक्तूबर 2011 को मेरा आलेख --

'' समझिये शीबा पर हुए हमले का निहितार्थ''

सूचना कार्यकत्री, समाजशास्त्री व साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ की स्तम्भ लेखिका सुश्री शीबा असलम फहमी के घर पर गत 8 अक्तूबर की शाम हुआ घातक हमला प्रशासन, धर्मांधों तथा अपराधियों के गठजोड़ का नतीजा है। देश में ऐसे गठजोड़ किस तेजी से पनप रहे हैं इसका प्रमाण इस घटना के महज चार दिन बाद ही सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण पर उनके न्यायालय स्थित कार्यालय में हुआ हमला है। इससे पहले भी सूचना कार्यकर्ताओं पर हमले होते ही रहे हैं और इस निंदनीय कड़ी में अभी हमले मध्यप्रदेश की सूचना कार्यकत्री शेहला मसूद की हत्या को देखा है।
अपराधियों के साथ स्थानीय प्रशासन की साठ-गाँठ कितनी गहरी है इसका पता इसी एक बात से चल जाता है कि सुश्री शीबा के घर पर हुए हमले को नियंत्रित करने के लिए जिस प्रशासन ने एक कम्पनी पी.ए.सी. तैनात किया था, उसी प्रशासन ने घटना के दो दिन बाद शीबा के परिवार को उपलब्ध सशस्त्र सुरक्षा को ही हटा लिया जबकि वर्ष 2008 में शीबा के घर पर हुए ऐसे ही एक हिंसक हमले के बाद उन्हें यह सुरक्षा मुहैया करायी गयी थी। दिल्ली के लेखकों, पत्रकारों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के भारी दबाव के बाद अंततः प्रशासन ने फिर से उनकी सुरक्षा बहाल की।
Shiba  fahim_ lead India_insidestoryसुश्री शीबा फहमी का प्रेस और दफ्तर दिल्ली में जामा मस्जिद वाले क्षेत्र में हैं। वे एक सामाजिक-सूचना कार्यकत्री और जानी मानी स्तंभ लेखिका हैं जो पिछले कई वर्षों से इस्लाम और हिंदू धर्मों में व्याप्त कुरीतियों व पंडा-मुल्लावाद के विरुद्ध अपने स्तंभ में लिखती रहती हैं और इस वजह से प्रायः ही धमकियों का सामना करती रहती हैं। उनके घर-परिवार पर इससे पहले भी कई बार हमले हो चुके हैं और इस वजह से प्रशासन ने उनके परिवार को सशस्त्र सुरक्षा उपलब्ध करा रखी है। उनके पति श्री अरशद फहमी संपादक होने के साथ-साथ सूचना कार्यकर्ता भी हैं तथा इस दम्पत्ति ने अब तक पचासों दरख्वास्तें लगाकर भू-माफियाओं, अवैध पार्किंग चलाने वालों, विदेशी मुद्रा के अवैध कारोबारियों व हवाला अपराधियों के विरुद्ध अभियान चलाया हुआ है।
जामा मस्जिद क्षेत्र में धड़ल्ले से चल रहे इन अपराधों को एक ऐसे व्यक्ति की सरपरस्ती बतायी जाती है जो अपने आपको देश के मुसलमानों का स्वयंभू मसीहा समझता है और सरकारी खैरात से उसकी मसीहाई सीना तानकर चल भी रही है। ऐसे कृत्यों का पर्दाफाश करने वाले पत्रकारों को सरे आम मारना-पीटना तथा अपना स्वार्थ सिद्धकर राजनीतिक दलों की तरफदारी में फतवे जारी करना ही जिसका धंधा है।
फहमी दम्पत्ति ने जब इस दीदा-दिलेरी के विरोध में पत्र-पत्रिकाओं में लेख, पोस्टर अभियान व सम्बन्धित विभागों में सूचना के अधिकार के तहत अर्जिया लगायीं तो उन पर असामाजिक तत्त्वों का कहर टूटना शुरु हो गया। सुश्री फहमी तो ऐसी धाधलियों के पर्दाफाश में अपने पत्रकारिता जीवन के शुरुआती दिनों (वर्ष 1996) से ही लगी हैं जब उनकी शादी भी नहीं हुई थी तथा वे अपने गृहनगर कानपुर में रहती थीं। शीबा किन मुद्दों पर लिखती हैं यह समाचार माध्यमों को देखने-पढ़ने वाले लोग जानते ही हैं। पिछले कई वर्षों से वे प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका हंस में ‘जेंडर जिहाद’ नामक स्तंभ लिखकर धर्मांघों व कठमुल्लाओं की करतूतों का खुलासा और विरोध करती रही हैं तो अपने ताजा स्तंभ ‘ मुख्यधारा के अहंकार ’ में भी वे साहित्य-समाज से लेकर तमाम क्षेत्रों में हावी मठाधीशों की करतूतों का मुखर विरोध कर रही हैं।
पिछले दिनों एनडीटीवी इंडिया के कार्यक्रम ‘मुकाबला’ में भी जिहाद पर उन्होंने जब जोरदार तर्कों के साथ बहस की तो उन्हें फोन पर खूब धमकियां मिलीं। उन्होंने अपने कई लेखों में राष्ट्रीय धरोहर जामा मस्जिद को बुखारी परिवार के चंगुल से आजाद कराने के लिए लिखा और आरोप लगाया कि जामा मस्जिद एक राष्ट्रीय स्मारक होने के बावजूद एक परिवार की पैतृक सम्पत्ति बनी हुई है और इस वजह से इसका न सिर्फ गैरकानूनी दोहन हो रहा है बल्कि इस क्षेत्र में इस परिवार का आतंक व्याप्त है।
यह परिवार इस परिसर में कई तरह के अवैध शुल्क उगाही, राष्ट्रीय सम्पत्ति को किराये पर देने के साथ-साथ ड्रग व नशा तंत्र, सेक्स रैकेट, हवाला रैकेट, मटका, सत्ता व विदेशी मुद्रा के अवैध विनिमय जैसे राष्ट्र विरोधी कार्यों की सरपरस्ती करता बताया जाता है। शीबा का दावा है कि कोई भी व्यक्ति मौके पर आकर इन गतिविधियों को कभी भी देख सकता है। वे कहती हैं कि इस क्षेत्र की हालत इतनी खराब हो चुकी है कि कोई भी शरीफ आदमी यहाँ से गुजरना भी न चाहेगा। उन्होंने इमाम के साथ ‘शाही’ शब्द जोड़े जाने पर भी खासी आपत्ति की थी और इस संदर्भ में कुछ माह पूर्व एक लेख भी लिखा था कि ‘ये शाही क्या होता है?’ और इस लेख ने भी उस वक्त उनके लिए खासी दिक्कतें खड़ी की थीं।
शीबा व उनके पति अरशद अली फहमी जो कि पत्रकार व सूचना कार्यकर्ता हैं, ने अब तक दर्जनों सूचना दरख्वास्तें लगा कर उक्त तरह की अवैध गतिविधियों का खुलासा करने व उन पर रोक लगाने का कार्य कर चुके हैं। यह साफ-साफ किसी के आर्थिक हितों के विरुद्ध है। फहमी दम्पत्ति ने ऐसे कृत्यों के विरुद्ध जबर्दस्त पोस्टर अभियान भी चलाया है। वे बुखारी परिवार की दीदा दिलेरी के बारे में बताती है कि राष्ट्रीय धरोहर जामा मस्जिद के गेट नम्बर तीन स्थित पार्क को उन लोगों ने कार व बस की वी.आई.पी. पार्किंग में बदल दिया है और संभवतः दिल्ली की सबसे मॅहगी पार्किंग है। इस पार्किंग में कार के लिए 50 रुपया प्रति घंटा और बस के लिए 800 रुपया प्रतिदिन का रेट है!
यह स्थल पर्यटन के लिए भी है और यहाँ देश-विदेश के पर्यटक बड़ी संख्या में आते हैं। अनुमान है कि यहाँ 150 से अधिक गाड़ियां रोज आती होंगीं। उनसे इस प्रकार की गई लूट सीधे ‘शाही जेब’ में जाती है। यहाँ विदेशी मुद्रा बदलने की लगभग 150 अवैध दुकाने हैं और पुलिस की हिम्मत नहीं कि वो इनकी शाही सरपरस्ती के खिलाफ जा सके। इसके अलावा यहाँ चोरी की गाड़ियों को लाकर उन्हें काट कर बेच दिया जाता है। इस प्रकार यहाँ एक आपराधिक साम्राज्य खड़ा है और इसके खिलाफ बोलने या सिर उठाने वाले के साथ वही सलूक किया जाता है जो फहमी दम्पत्ति के साथ किया जा रहा है। ताजा मामला भी शीबा का अपना न होकर एक गरीब मजदूर की मदद को लेकर था।
एक कश्मीरी मजदूर विदेश से लौटा था और उसकी विदेशी मुद्रा को बदलने के फेर में जामा मस्जिद स्थित एक दुकानदार ने धोखाधड़ी करते हुए लगभग 44000 रुपये कम दिये। इस दुकानदार के पास मुद्रा बदलने का कोई लाइसेंस भी नहीं है। उस मजदूर ने पास ही स्थित शीबा के अखबार के दफ्तर में आकर मदद की गुहार की। शीबा के पति अरशद अली फहमी ने पहले तो दुकानदार को समझाया लेकिन जब वो नहीं माना तो उन्होंने पुलिस को बुलवाया। पुलिस के दबाव में उसे पैसा उस मजदूर का वापस करना पड़ा। यह मामला इस क्षेत्र के अवैध कारोबारियों तथा उनके संरक्षणदाताओं को अपने हितों के विरुद्ध लगा और नतीजे में फहमी परिवार को सबक सिखाने का फैसला किया गया।
हमलावरों ने बाकयदा ‘अरशद फहमी-शीबा फहमी मुर्दाबाद ’ और ‘ इमाम बुखारी जिंदाबाद के नारे भी लगाये और धमकी दी कि ‘‘ टी.वी. पर जो बोलती हो वह काम नहीं आएगा’’। शीबा फहमी के घर पर हुआ ताजा हमला कई गंभीर सवाल उठाता है। मजहब की धौंस पर क्या कुछ लोग देश, कानून और संविधान सबसे उपर हो सकते हैं? किसी राष्ट्रीय धरोहर को क्या किसी की बपौती बनने दिया जा सकता है? पुरातत्व विभाग से संरक्षित किसी इमारत को किसी के निजी स्वार्थ के लिए क्या मनमाने तरीके से क्षति पहुँचाने दिया जा सकता है? देश में सूचना का अधिकार कानून लागू है और इसने वह कर दिखाया है जो आज तक बहुत मंहगी और भारी-भरकम जनहित याचिकाऐं भी नहीं कर पाती थीं।
निश्चित तौर पर दर्जनों सूचना कार्यकर्ताओं ने अपनी जान देकर आर.टी.आई. के इस पौधे को खाद-पानी दिया है। मध्य प्रदेश की सूचना कार्यकर्त्री शेहला मसूद की गत दिनों हुई हत्या इसकी ताजा मिसाल है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि सूचना कार्यकर्ताओं पर हो रहे इस तरह के हौलनाक हमलों के बीच प्रधानमंत्री व उनके मंत्रिमंडल के कई वरिष्ठ सहयोगी यह कहने लगे हैं कि सूचना कानून की समीक्षा की जानी चाहिए क्योंकि इसकी वजह से अधिकारियों को काम करने में दिक्कतें आ रही हैं? दिक्कतें अधिकारियों को आ रही हैं कि सरकार को? और क्या इसीलिए शीबा के मामले में अभियुक्तों का नाम बताने के बावजूद पुलिस ने पहले  तो उनका नाम प्राथमिकी में दर्ज करने में देरी की और बाद में उन्हें इतना मौका दिया की वो सब अपनी जमानतें करवा सकें ! अब उन सबने अपनी जमानतें करवा ली हैं और वो बाकायदा फहमी दंपत्ति को मुंह चिढ़ा रहे हैं !

Thursday, September 08, 2011

Wednesday, August 31, 2011

सामंती प्रवृत्ति है उत्तर पुस्तिका देखने पर रोक -- सुनील अमर



आजादी की 64वीं सालगिरह पर देश के छात्रों के लिए इससे अच्छा उपहार दूसरा नहीं हो सकता था जो बीते 9अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले द्वारा दिया। न्यायालय ने कहा कि हर छात्र को अपनी उत्तर पुस्तिका को देखने का अधिकार है कि उसके दिए जबाब को परीक्षक ने किस तरह जॉचा है। सही मायने में यह छात्रों को मिली आजादी है जो उन्हें देश की लगभग भ्रष्ट और अप्रासंगिक हो चुकी परीक्षा प्रणाली की तानाशाही से मुक्ति दिलाती है। पूंजीवाद के जितने भी अवगुण ज्ञात हैं,वे सब आज हमारी शिक्षा-परीक्षा प्रणाली में व्याप्त हैं। संभवत: इसीलिए शिक्षण संस्थाओं के इस हास्यास्पद तर्क को सर्वोच्च न्यायालय ने नकार दिया कि जॉची गई उत्तर पुस्तिका छात्रों को दिखाने से समूची परीक्षा प्रणाली ही ध्वस्त हो जाएगी।
               यह प्रश्न सहज ही एक आम आदमी के मन में आता है कि जिसने परीक्षा दी है वह छात्र अपनी जॉची गई कॉपी को देख क्यों नहीं सकता? क्या उसे यह जानने का अधिकार नहीं होना चाहिए कि उसका मूल्यॉकन सही हुआ है या गलत?क्या परीक्षक कोई सुपर नेचुरल चीज है और उससे गलती या भूल हो ही नहीं सकती? और अगर ऐसी गलती या भूल हो गई हो तो क्या उसका परिमार्जन नहीं किया जाना चाहिए?कलकत्ता उच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल माधयमिक शिक्षा बोर्ड,पश्चिम बंगाल उच्चतर शिक्षा परिषद,पश्चिम बंगाल केन्द्रीय स्कूल सेवा आयोग,कलकत्ता विश्वविद्यालय तथा चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट इंस्टीटयूट ऑफ इंडिया नामक संस्थाओं के विरुध्द दायर एक याचिका में 5 फरवरी 2009को फैसला दिया था कि सूचना के अधिकार के तहत कोई भी छात्र अपनी उत्तर पुस्तिका को देखने के लिए मॉग सकता है। इसी फैसले पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपनी मुहर लगाकर छात्रों को दशकों से चली आ रही मानसिक प्रताड़ना और सामंती उत्पीड़न से बचने का एक विधिक रास्ता दे दिया।
      यह इस देश की संवैधानिक विडम्बना ही है कि यहाँ एक ही प्रकृति और परिणाम वाले कार्यों के लिए भी अव्वल और दोयम ही नहीं बल्कि जाने कितने मानकों वाली व्यवस्थाऐं विधिक ढ़ॅग से लागू हैं! हमें याद है कि अपनी पढ़ाई के दौरान इंटरमीडिएट तक की गृह परीक्षाओं में हमें अपनी उत्तर पुस्तिकाऐं देखने को दी जाती थीं और उस दिन हम लोगों में बहुत उत्साह होता था। कई बार ऐसा होता था कि छात्र उसमें परीक्षक की गलती पकड़कर अपना प्राप्तांक सही करवाते थे क्योकि गलती किसी से भी हो सकती है। अभी बीते दिनों में हमने देखा कि सरकारी नौकरियों के लिए होने वाली योग्यता परीक्षाओं मसलन समूह 'ग', को आधुनिक प्रणाली ओ.एम.आर. के तहत कराकर परीक्षार्थियों को बाकायदा उत्तर पुस्तिका की एक कार्बन प्रति ही दे दी गई थी कि वे अखबारों में प्रकाशित होने वाले सही उत्तर की सूची से अपने लिखे उत्तरों का मिलान कर देख लें कि उनके साथ परीक्षक ने न्याय किया है या नहीं। कभी यह सुनने में नहीं आया कि इससे वह परीक्षा व्यवस्था ध्वस्त हो गई या कोई जनहित नष्ट हुआ हो। इसके उलट यह जरुर हुआ कि आपत्ति के बाद तमाम छात्रों ने अपनी मेरिट सही करवा कर लाभ प्राप्त किया।
               यह सच है कि उच्च परीक्षाओं में प्रत्येक छात्र को जॉची गई उत्तर पुस्तिका दिखा पाना संभव नहीं है लेकिन मॉगे जाने पर तो दिखाया ही जा सकता है। बोर्ड परीक्षाओं में 'स्क्रूटनी'यानी पुनर्परीक्षण की व्यवस्था तो है लेकिन इसमें भी छात्र अपनी कॉपी देख नहीं सकता। इसमें किसी अन्य परीक्षक से कॉपी को पुन: जॅचवा दिया जाता है। छात्रों व अभिभावकों द्वारा यह मॉग काफी अरसे से हो रही है कि परीक्षाओं में टॉप करने वाले छात्रों की उत्तर पुस्तिकाऐं सार्वजनिक की जॉय ताकि अन्य छात्र यह जान सकें कि टॉप करने के लिए किस तरह उत्तर दिया जाना चाहिए। इस बेहद निर्दोष सी मॉग को आज तक परीक्षा संस्थाओं द्वारा माना नहीं गया। दुनिया में जो कुछ भी प्राकृतिक या कृत्रिम सर्वश्रेष्ठ होता है,वह सप्रयास सबको देखने के लिए उपलब्ध कराया जाता है। तो फिर सर्वश्रेष्ठ कापियों को छिपाया क्यों जाता है? क्या उनकी सर्वश्रेष्ठता संदिग्ध होती है? क्या यह संदेह इस अवधारणा की पुष्टि नहीं करता कि शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थाओं में सर्वश्रेष्ठ बनाने का बाकायदा धंधा चल रहा है?
             माध्यमिक शिक्षा का बोर्ड हो या विष्वविद्यालय की परीक्षाऐं, यह तथ्य सभी जानते हैं कि आज परीक्षक किस तरह कापियॉ जॉचते हैं। परीक्षकों को प्रति कॉपी के हिसाब से जॉचने का पारिश्रमिक दिया जाता है। यानी ज्यादा कॉपी तो ज्यादा पैसा!ऐसे में परीक्षक कॉपी नहीं जॉचते बल्कि कवर पृश्ठ पर अनुमान के हिसाब से नम्बर देकर खानापूरी भर करते हैं। शिकायतें तो यहॉ तक हैं कि विश्वविद्यालयों के दमदार प्रोफेसर्स तो कॉपियाँ अपने घर मॅगवाकर लेते हैं और वहॉ उनके चेले-चपाटे परीक्षक बनकर उनका काम हल्का कर देते हैं। ऐसे में हर छात्र के दिल का धड़कना जायज है और संदेह होने पर अपनी जॉची हुई कॉपी को देखने का अधिकार भी। शुक्र है कि कलकत्ता उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने छात्रों की इस तकलीफ को समझा।
              न्यायालय के समक्ष अपना पक्ष रखते हुए उक्त संस्थाओं ने कहा था कि इससे समूची परीक्षा व्यवस्था ही ध्वस्त हो जाएगी। शिवहर्ष किसान पोस्ट ग्रेजुएट कालेज जनपद बस्ती के अंग्रेजी के वरिष्ठ प्राध्यापक डॉ. रघुवंशमणि इस प्रश्न पर कहते हैं कि प्रत्येक परीक्षा पुस्तिका को जॉचने के बाद उस पर परीक्षक को अपने हस्ताक्षर करने पड़ते हैं। इस प्रकार छात्र द्वारा कॉपी देखे जाने पर परीक्षक की पहचान खुल जाएगी जो तमाम प्रकार की परेशानियॉ खड़ी कर सकती है। लेकिन श्री रघुवंशमणि कहते हैं कि यदि कोई छात्र परीक्षक के बारे में जानना ही चाहे तो वह एलॉटमेन्ट रजिस्टर से भी जान सकता है कि उस विषय की कॉपियॉ किस परीक्षक को दी गई है। श्री मणि इस फैसले का स्वागत करते हैं। पूर्वांचल के सबसे बड़े महाविद्यालय साकेत महाविद्यालय अयोध्या, फैजाबाद के हिन्दी के वरिश्ठ प्राध्यापक डॉ. अनिल सिंह कहते हैं कि जब तमाम परीक्षाओं में कापियॉ दिखाई ही जाती हैं तो यह रोक बेमानी थी और कलकत्ता उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत सराहनीय फैसला छात्रों के हित में किया है। श्री सिंह कहते है कि इससे शिक्षा-परीक्षा में बढ़ रही माफिया प्रवृत्ति पर रोक लगाई जा सकती है। लखनऊ विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व उपाधयक्ष तेज नारायण पांडेय उर्फ पवन पांडेय कहते हैं कि शिक्षा माफियाओं से लड़ने को न्यायालय ने निरीह छात्रों को एक बहुत कारगर औजार दे दिया है।
               देश में सूचना का अधिकार कानून लागू है जो अब न सिर्फ सरकारी विभाग बल्कि तमाम निजी संस्थाओं को भी अपने दायरे में ले रहा है। ऐसे में अब यह कहकर नहीं बचा जा सकता कि यह जनहित के नाम पर नहीं है या इससे कोई तथाकथित व्यवस्था धवस्त हो जाएगी। असल में यह देश के लचर कानूनों से उपजी समस्या थी जो ठीक से विरोध न करने के कारण फल-फूल कर गरीब छात्रों के लिए जानलेवा बन गई थी जबकि पूँजीदार लोग इसी के दम पर सरकारी मलाई काट रहे थे। प्राय: सभी ने इसे न्यायिक पारदर्शिता की दिशा में एक और कदम बताते हुए इसका स्वागत किया है। शिक्षा जगत में अभी बहुत व्याधियॉ हैं लेकिन लगता है कि यह फैसला अब एक प्रवेश मार्ग का काम करेगा। ( हमसमवेत फीचर्स में २२ अगस्त २०११ को प्रकाशित)




Friday, August 12, 2011

भाषण, जो लाल किले से पढ़ा नहीं गया! ---- सुनील अमर



 मेरे प्यारे देशवासियों ......
             आज आजादी को याद करने का दिन है। आजादी की कीमत वही समझ सकता है जो गुलाम हो। वैसे ही, जैसे खाने की कीमत वही समझ सकता है जो भूखा हो। यह अच्छी बात है कि हम आप न तो गुलाम हैं और न ही भूखे। यह हमारे देश के महान नेताओं की मेहनत और त्याग का फल है। हमें आपको यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि हमने देश के चैतरफा मौजूद खतरों को नेस्तनाबूद कर दिया है। हमने बिना कुछ किए ऐसी-ऐसी चालें चलीं कि हमारे सभी पड़ोसी दुश्मन एक-एक कर परास्त होते चले गए। यह हमारी उस महान नेता की दूरगामी सोच का परिणाम है जिनका त्याग करने में कोई सानी नहीं। वे त्यागियों की परम्परा से आती भी हैं, तभी तो उनहोंने इस देश के महान त्यागी पुरुष का जातिनाम खुशी-खुशी ग्रहण किया। उनके दुश्मन आरोप लगाते हैं लेकिन मैं उनसे पूछना चाहता हॅू कि इतने बड़े देश में क्या किसी और ने भी उस त्यागी पुरुष का जातिनाम अपनाया? 
मेरे प्यारे बहनों और भाइयों,  
अब मैं कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण बातें आपसे करना चाहूँगा जिन्हें ठीक से समझना आपके लिए बहुत जरुरी है। हमने देश के बाहर की लड़ाईयों को तो सफलतापूर्वक जीत लिया लेकिन हमारे विरोधी लोग हमारी इस कामयाबी से चिढ़कर देश के भीतर ही हमारे शासन के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। वे तमाम तरह के दुष्प्रचार से हमें अस्थिर करना चाहते हैं। मैं कभी-कभी सोचकर हैरान हो जाता हॅूं कि हमारे विरोधी पढ़े-लिखे होकर भी कैसी मूर्खता की बातें करते हैं! आप सभी जानते हैं कि हमारे शासनकाल में देश में इतना ज्यादा अनाज पैदा हो रहा है कि उसे रखने की भी हमारे पास जगह नहीं है। मजबूरी में हमें उसे खुले में रखना पड़ता है। यह हमारे किसानों के सम्पन्न और खुशहाल होने का सबूत है, फिर भी हमारे विरोधी प्रचार करते हैं कि देश में तमाम लोग भूखे हैं! मुझे पता है कि देश में बहुत से लोग भूखे रहते हैं लेकिन वे इस देश की धार्मिक परम्परा और शास्त्रों में वर्णित विधान के तहत ऐसा करते हैं। हमारी धर्मप्राण जनता को मालूम है कि खुद भूखा रहकर दूसरों का पेट भरने से मोक्ष प्राप्त होता है। 
चार-पांच लोग हमारी  सरकार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हैं और कहते हैं कि सरकार के फलां मंत्री ने इतना धन ले लिया और फला ने उतना। मैं विनम्रतापूर्वक उनसे कहना चाहता हॅू कि सरकार धन से ही तो चलती है। क्या दुनिया में कोई ऐसा भी शासन तंत्र कहीं है जो बिना धन के ही चलता हो? मेरी उदारता देखिए कि मैंने अपने ऐसे विरोधियों को भी कई बार चाय और भोजन पर बुलाकर समझाया कि उनकी जो भी निजी तकलीफ और जरुरतें हो वे बतायें हम पूरी करेंगें और वे सब अपना-अपना काम करें लेकिन वे नहीं मानते। उनमें लाखों रुपया रोज कमा सकने वाले वकील हैं जो वकालत छोड़कर शासन को अस्थिर करने का षड़यंत्र रचने में लगे हैं। उनमें वरिष्ठ अधिकारी हैं जो शानदार नौकरी छोड़कर हमें हिलाने का कुप्रयास कर रहे हैं। एक पेन्शनर हैं जिन्हें बुढ़ापे में आराम करना चाहिए था लेकिन वे षडयंत्रकारियों के सरगना बने हुए हैं। आखिर सरकार क्या किसी को इसलिए पेंशन देती है कि वो सरकार को ही गिराने में उस धन का इस्तेमाल करे? आप स्वयं बताइए कि क्या ऐसे अनैतिक लोगों को सत्ता में आने का मौका मिलना चाहिए? भगवान श्री राम हमारे आदर्श हैं। बचपन में मैं भी रामलीला देखता और खेलता था। मुझे कुंभकरण के चरित्र ने बहुत प्रभावित किया! देश के एक ख्यातिलब्ध कसरतवाले ने पिछले दिनों ऐसे ही एक पवित्र रामलीला मैदान को अपवित्र करने की कोशिश करी। आधी रात का वक्त था। हम चाहते तो उन्हें कारागार में आराम से रख सकते थे लेकिन हमारा बड़प्पन देखिए कि हमने उन्हें वायुमार्ग से उनके घर भिजवा दिया। इस प्रकरण में मैं तहेदिल से शुक्रगुजार हॅू अपने सभी विपक्षी दलों का कि वे ऐसे चंद अलोकतांत्रिक लोगों के बहकावे में नहीं आये। कोई भी समझदार संगठन या व्यक्ति अपने रास्ते में कभी गढ्ढा नहीं खोदता।
एक दूसरा आरोप हमारे विरोधी हम पर मंहगाई बढ़ाने का लगाते हैं। मंहगाई, जैसा कि आप जानते हैं कि नज़रों के दोष के सिवा और कुछ नहीं। आप एक लाख आदमी से कहलवा सकते हैं कि मंहगाई से नुकसान हो रहा है और हम दो लाख आदमी से कहलवा सकते हैं कि मंहगाई से बहुत लाभ हो रहा है। हमारे विद्वान दूरदर्शी कृषि मंत्री ने हमेशा मंहगाई बढ़ने से पहले देश को आगाह किया कि फलां जिंस मंहगी हो सकती है और जैसा कि आप सबने देखा है, देख रहे हैं और देखेंगें कि उनकी बात हमेशा सच साबित हुई। आखिर मौसम विभाग आपको चेतावनी ही तो दे सकता है। वह आपके साथ छाता लेकर तो खड़ा नहीं हो सकता! हमें गर्व है कि दुनिया के किसी और देश में ऐसा दूरअंदेशी कृषि मंत्री नहीं है। हमारे विरोधी कभी भी पूरी बात नहीं बताते और आप सबको अंधेरे में रखते हैं। वे कहते हैं कि हमने डीजल और पेट्रोल का दाम बढ़ा दिया है जिससे जनता परेशान है। वे आरोप लगाते हैं कि हमने हवाई जहाज का पेट्रोल बहुत सस्ता कर दिया है। मैं उनसे सवाल करना चाहता हॅू कि आप देश और देशवासियों को आगे बढ़ते नहीं देखना चाहते? क्या देश की साधारण जनता को हवाई जहाज से यात्रा करने का मौका नहीं मिलना चाहिए? हमने इसी नीति के तहत साधारण पेट्रोल का दाम बढ़ाकर हवाई जहाज के पेट्रोल का दाम काफी कम किया ताकि हवाई यात्रा सस्ती हो सके और हमारे गरीब भाई-बहन भी उसमें बैठकर अपने सपनों को पूरा कर सकें। 
हमारे यही विरोधी षडयंत्रपूर्वक प्रचार करते हैं कि देश में गरीबी बढ़ रही है। आप रोज देखते होंगें कि जहां पैसा देकर कोई सामान खरीदना है वहाँ भी इतनी भीड़ रहती है कि आपको लाइन लगानी पड़ती है और हमें  पुलिस। क्या यह गरीबी का लक्षण है? बसों में लटकना पड़ता है, रेलगाड़ियों में छतों पर बैठना पड़ रहा है, अस्पताल भरे हैं और मरीज जमीन पर लेटकर इलाज करा रहे हैं। सरकारी दफ्तरों में इतनी भीड़ रहती है कि आपका काम महीनों क्या सालों तक नहीं हो पाता। हमारी अदालतों में करोड़ों लोग पचासों साल तक मंहगा मुकदमा लड़ते हैं, क्या यह सब गरीबी और भुखमरी के चिह्न हैं? कारों की बिक्री बढ़ रही है, मोटर सायकिलें धुआधार बिक रही हैं, हवाई जहाज से यात्रा करने के लिए भी इंतजार करना पड़ रहा है, प्रायवेट स्कूल, प्रायवेट अस्पताल, प्रायवेट बैंक, प्रायवेट कालोनियां और निजी सुरक्षा व्यस्था का बढ़ना क्या यह सब गरीबी के कारण हो रहा है? हमारे विरोधी परस्पर उल्टी बातें करतें हैं और उन्हें जरा भी शर्म नहीं आती। एक तरफ वे कहते हैं कि देश में विकट गरीबी है, दूसरी तरफ कहते हैं कि देश का खरबों रुपया विदेशी बैंकों में जमा है! यहाँ मैं आपको बताना चाहूँगा कि मैंने विदेशी बैंकों में नौकरी की है और मैं जानता हॅू कि सिर्फ अमीर देश ही विदेशों में खरबों रुपया जमा कर सकता है।
बहुत दिन से मैं आप सबसे यह सारी बातें करना चाह रहा था। मेरे अधिकारियों ने सलाह दी थी कि मैं आकाशवाणी और दूरदर्शन की मार्फत आपसे बात कर लूं लेकिन मैंने आपकी गाढ़ी कमाई से प्राप्त सरकारी धन को बरबाद करने के बजाय आज के इस अवसर का इंतजार किया। मैं बहुत देर से गौर कर रहा हॅू कि आप सब बड़े ताज्जुब से मेरे इस भाषण वाले मचान को देख रहे हैं जो इस लाल किले की प्राचीर के बावजूद मजबूत बल्लियों को बांधकर बनाया गया है। साथियों, अभी बीते दिनों जब से देश के एक सूबे में सिर्फ 34 साल पुराना एक लाल दुर्ग एक महिला के नाजुक हाथों ढ़ह गया तब से दुर्ग और किलों की मजबूती से मेरा भरोसा उठ गया है और यह किला तो वैसे भी सैकड़ों साल पुराना है। मैं एक बार फिर आप सबसे गुजारिश करना चाहूँगा कि आप सब मेरी वफादारी और देशभक्ति पर विश्वास बनाये रखें। यह देखिए, मेरे अधिकारियों ने मेरा यह भाषण अंग्रेजी लिपि में लिख रखा है लेकिन मैंने इसे राष्ट्रभाषा में ही पढ़ा! अब एक बार मेरे साथ  जोर से बोलिए- जय सोनिया! जय इंडिया!! थैंक्यू वेरी मच। वुई विल मीट अगेन एण्ड अगेन। 00 


राजनीतिक दॉव-पेंच पर बलि चढ़ती जनता ---- सुनील अमर



राजनीतिक दलों की आपसी तकरार में नुकसान जनता का ही होता है, यह एक सर्वविदित तथ्य है, लेकिन जब इस तकरार के दायरे में सरकारें आ जाती हैं तो यह नुकसान कहीं ज्यादा व्यापक और घातक हो जाता है। केन्द्र की कॉग्रेसनीत संप्रग सरकार और उत्तर प्रदेश की सत्तारुढ़ बसपा सरकार की आपसी खींचतान में बीते चार वर्षों से यही हो रहा है। दर्जनों ऐसी योजनाऐं हैं जिनकी शुरुआत या सफल क्रियान्वयन अगर समय से हो जाता तो इस महाप्रदेश की जनता को कई प्रकार की राहतें मिल सकती थीं और विकास की अटकी हुई गाड़ी जरा आगे बढ़ सकती थी, लेकिन इसके उलट योजनाओं के लिए धन की पर्याप्त व्यवस्था होने के बावजूद,वोट की राजनीति और आपराधिक कर्तव्यहीनता ने कई महत्त्वपूर्ण योजनाओं की एक प्रकार से भ्रूण हत्या ही कर दी है। अफसोस इस बात का है कि तमाम निगरानी संस्थाओं के होने के बावजूद इस घातक प्रवृत्ति पर अंकुश लगते दिख नहीं रहा है।
               उत्तर प्रदेश में इन दिनों जो ताजा राजनीतिक भूचाल आया हुआ है वह है केन्द्र की राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन योजना में हो रही व्यापक लूट-खसोट और इसके कारण हुई स्वास्थ्य विभाग के तीन उच्चाधिकारियों की हत्या। सभी जानते हैं कि प्रदेश में स्वास्थ्य सम्बन्धी सेवाऐं कितनी खस्ताहाल हैं और जरा से भी इलाज के लिए लोग निजी डाक्टरों और अस्पतालों के चंगुल में फॅंसने को विवश हैं। बावजूद इसके वर्श 2010-2011 में इस योजना के तहत केन्द्र से मिले 3100 करोड़ रुपये में से 521 करोड़ रुपये खर्च ही नहीं किये गये! इसका जो नुकसान प्रदेश की गरीब जनता को हुआ सो तो हुआ ही, वित्तीय परम्पराओं के अनुसार इस यानी चालू वर्ष के लिए आवंटित कुल 3309 करोड़ रुपयों में से 694 करोड़ रुपयों की कटौती केन्द्र ने कर दी क्योंकि राज्य सरकार दिए गए धन को खर्च ही नहीं कर पा रही थी!
               यह तथ्य ध्यान में रहे कि उ.प्र. में जीवन प्रत्याषा की दर देश के सबसे कम दर वाले राज्यों में गिनी जाती है। यहॉ मातृ मृत्यु दर 440 व शिशु मृत्यु दर 67 है। योजना थी कि प्रदेश के प्रत्येक जिला मुख्यालय या फिर पॉच लाख की आबादी पर एक ऐसा आधुनिक अस्पताल बनाया जाय जिसमें 24 घंटे ऑपरेशन तथा जटिल से जटिल प्रसव स्थितियों को संभालने की व्यवस्था हो, लेकिन यह अभी हवा में ही है। देश में प्रति एक हजार व्यक्ति पर एक डाक्टर का औसत है तो उ.प्र. में 5000 पर एक! अस्पताल में डाक्टरों के 4000 पद रिक्त हैं और बाल रोग विशेषज्ञों के 200 पद। राजकीय राजमार्गों पर होने वाली दुर्घटनाओं में तत्काल उचित चिकित्सा हेतु प्रदेश के छह प्रमुख शहरों आगरा, कानपुर, गोरखपुर, इलाहाबाद, मेरठ और झॉसी के मेडिकल कालेजों में अत्याधुनिक ट्रामा सेन्टर बनाये जाने थे लेकिन धन होने के बावजूद यह कार्य अभी फाइलों से जमीन पर उतर नहीं सका है।
               विश्व में अपने ढ़ॅंग की अनोखी योजना मनरेगा की जब शुरुआत हुई तो ऐसा लग रहा था कि इससे समाज के उस तबके को काफी राहत मिल जाएगी जो रोज कुऑ खोदकर पानी पीने को अभिशप्त है। वर्ष में 100दिन का निश्चित रोजगार या उसके न मिलने पर भत्ता, भुखमरी की आशंका के विरुध्द एक ठोस आश्वासन था, लेकिन वोट की राजनीति ने इस अतिमहत्त्वाकांक्षी योजना को भी चौपट करके रख दिया। यह जानकर आश्चर्य होगा कि अरबों रुपया सरकार के खाते में पड़ा होने के बावजूद जरुरतमंद लोगों को न तो काम दिया जा रहा है और न ही नियमानुसार भत्ता। पिछले वित्तीय वर्ष में इस योजना के तहत कुल 8000करोड़ रुपया खर्च किये जाने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन नौ माह बीत जाने के बावजूद इसमें से सिर्फ 3000 करोड़ रुपये ही खर्च हो सके थे ! यह हाल तब है जब केन्द्र सरकार इस योजना को बेहतर ढ़ॅंग से चलाने के लिए इसके बजट का छह प्रतिशत धन प्रशासनिक व्यय के रुप में देती है।
               योजना के क्रियान्वयन में किस तरह की आपराधिक लापरवाही बरती जा रही है, इसका अनुमान महज इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि गत वित्तीय वर्ष में फरवरी माह तक प्रदेश के कुल 23,19,319 परिवारों को 100 दिन का रोजगार देने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन दिया गया मात्र 3,85,407परिवारों को ही!प्रदेश के महोबा व औरैया जिले बुंदेलखण्ड प्रभाग में आते हैं और वहॉ व्याप्त सूखे की विकट स्थिति और इसके फलस्वरुप किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं से सारा देश अवगत है। इसके बावजूद सरकारी ऑकड़े बताते हैं किइन दोनों जनपदो में महज तीन प्रतिशत लोगों को ही मनरेगा में काम मिल सका! प्रदेश के जनपद सुल्तानपुर, बाराबंकी, पीलीभीत, सोनभद्र, मुरादाबाद, श्रावस्ती और सहारनपुर ऐसे जिले हैं जहॉ तीन से पॉच प्रतिशत परिवार ही मनरेगा में काम पा सके। सुल्तानपुर का रिकॉर्ड तो हैरतअंगेज है जहॉ मनरेगा में काम पाने के लिए 40503परिवार सूची में थे लेकिन काम दिया गया महज 1385 परिवारों को! यह किसी योजना का क्रियान्वयन है या मजाक? पैसा वापस चला जा रहा है लेकिन जरुरतमंदों को काम नहीं दिया जा रहा है!कमाल यह है कि इस गंभीर लापरवाही के लिए किसी अधिकारी को जिम्मेदार भी नहीं ठहराया जा रहा है।
               शहरी गरीबों के लिए केन्द्र सरकार ने दिसम्बर 2008 में एक महत्त्वाकांक्षी योजना लागू की थी - झुग्गी झोपड़ी के स्थान पर पक्का आवास देने की। इसमें सस्ती ब्याज दर, अनुदान व आसान किश्तों की व्यवस्था है। इसके लिए केन्द्र सरकार ने प्रथम चरण में 1100 करोड रुपयों की व्यवस्था की। यह जानकर आश्चर्य होगा कि तीन वर्ष बीत जाने के बावजूद राज्यों द्वारा इसमें से महज चार करोड़ बत्तीस लाख रुपये ही इस्तेमाल किए गए। लगभग 20 राज्यों ने तो इस योजना को शुरु ही नहीं किया और उत्तर प्रदेश सरीखे राज्य ने तो सिर्फ एक व्यक्ति को इसके लिए अभी तक चुना है! काँग्रेस शासित राज्यों ने भी इस योजना को नहीं शुरु किया जबकि धन बैंकों में पड़ा है।
               सूखे से त्रस्त बुंदेलखंड देश का दूसरा विदर्भ बनता जा रहा है। इसके उ.प्र. में पड़ने वाले आठ जिलों में वर्ष 2009 से लेकर अब तक के सिर्फ दो वर्षों में ही 1670 किसान कर्ज और भुखमरी से आत्महत्या कर चुके हैं और अखबारों में छपी इन खबरों पर गत माह स्वत:संज्ञान लेते इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आगामी आदेश तक हर प्रकार की सरकारी वसूली पर रोक लगाकर सरकार से ब्यौरा तलब किया है। इस हालत में भी वहॉ के लिए दिए गये अतिरिक्त केन्द्रीय सहायता के 800 करोड़ रुपयों में से बीते 31 मार्च तक सिर्फ 73 करोड़ रुपये ही खर्च करने का उपयोग प्रमाण पत्र राज्य सरकार दे पाई है! पैसा पड़ा है और लोग इसलिए मर रहे हैं कि सरकार काम के बजाय ऐश करने में लगी है।
               प्राथमिक शिक्षा का भी यही हाल है। शिक्षा का अधिकार कानून केन्द्र द्वारा लागू किए जाने के बावजूद प्रदेश सरकार ने उसे तब तक अधिसूचित नहीं किया जब तक कि केन्द्र ने इस मद में धन देना बंद नहीं कर दिया। अभी गत पखवारे उ.प्र.सरकार ने इसे अधिसूचित किया। इस प्रकार योजना और धन दोनों होने के बावजूद प्रदेश सरकार द्वारा महज इसलिए लोगों को उसका लाभ न लेने देना कि इससे तो किसी राजनीतिक दल का प्रचार होगा और उसके मतदाता बढ़ जाएगें, आपराधिक कृत्य है और उसके द्वारा संविधान के प्रति ली गई शपथ का घोर उल्लंघन भी। ( हम समवेत फीचर्स में 08 अगस्त 2011को प्रकाशित )

Wednesday, July 27, 2011

पूर्वांचल में भी हैं किसानों की समस्याऐं --- सुनील अमर




एक लम्बे अरसे से सुस्त पड़ी उत्तर प्रदेश की काँग्रेसी राजनीति को पिछले कुछ वर्षों से राहुल गॉधी ने अपने नये अंदाज में आंदोलित करना शुरु किया है। इस क्रम में सबसे पहले उन्होंने दलितों के मुहल्लों में नहाना-खाना-सोना शुरु कर कॉग्रेस में उनकी विश्वास बहाली का प्रयास किया। इसी दौरान राहुल देश-प्रदेश के युवाओं से स्कूल-कॉलेजों में जाकर मिलते रहे। इधर भूमि अधिग्रहण की ज्यादतियों पर बेहद आन्दोलित पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के बीच बार-बार जाकर उन्होंने मामले को राष्ट्रीय स्तर पर इस कदर चर्चित किया कि जहाँ प्रदेश सरकार को अपनी फेस सेविंग के लिए इस समस्या को लेकर कई फैसले करने पड़े, वहीं उन्हीं की पार्टी की अगुवाई में चल रही केन्द्र सरकार को भी किसान हितों को लेकर कई महत्त्वपूर्ण घोषणाऐं करनी पड़ीं और आगामी अगस्त माह से शुरु हो रहे संसद के मानसून सत्र में उन्हें पेश करने का निर्णय लेना पड़ा है। अब राहुल गॉधी ने पूर्वांचल की तरफ रुख किया है। कॉग्रेस की तरफ से बताया गया है कि वाराणसी में युवक कॉग्रेस की संगठनिक बैठक होगी और इसमें प्रयास होगा कि पूर्वांचल के ज्यादा से ज्यादा युवाओं को संगठन से जोड़ा जा सके। उत्तर प्रदेश में वर्ष 2012में विधानसभा के चुनाव होने हैं।
               उत्तर प्रदेश का अगर भौगोलिक और आर्थिक विश्लेशण किया जाय तो यह साफ पता चलता है कि प्रदेश का पूर्वी हिस्सा जिसमें करीब 32 जिले आते हैं, भौगोलिक रुप से पर्याप्त समृध्द होने के बावजूद राज्यकृत संसाधनों और आर्थिक समृध्दि में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुकाबले कहीं ठहरता ही नहीं। यह इस तथ्य के बावजूद है कि इसी पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही अधिकांश मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री प्रदेश और देश को अब तक मिलते रहे हैं। श्रीमती सोनिया और राहुल गॉधी स्वयं इसी पूर्वांचल क्षेत्र का प्रतिनिधित्व संसद में करते हैं। वाराणसी एक अति प्राचीन और महत्त्वपूर्ण धार्मिक नगरी होने के साथ-साथ पूर्वांचल की संस्कृति का उत्कृष्ट प्रतीक है। समग्र पूर्वांचल क्षेत्र को कोई भी संदेश देने के लिए वाराणसी से अच्छी कोई जगह नहीं। अभी कुछ माह पूर्व भी कॉग्रेस की एक संगठनात्मक बैठक यहाँ हो चुकी है।
               पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों की जिन समस्याओं को लेकर राहुल गॉधी ने भ्रमण और पदयात्रा की वे भूमि अधिग्रहण से सम्बंधित थीं लेकिन उससे कहीं त्रासद और मारक परिस्थितियॉ किसानों के साथ पूर्वांचल में मौजूद हैं। यहॉ यह कहना प्रासंगिक होगा कि यदि इस क्षेत्र की किसान-समस्याओं को श्री राहुल गॉधी द्वारा उठाया जाय तो उसका न सिर्फ तात्कालिक बल्कि दीर्घकालिक लाभ कॉग्रेस को मिल सकता है। पूर्वांचल के तमाम हिस्से जहॉ बरसात के दिनों में बाढ़ से घिर कर जन-धान की हानि का शिकार होते हैं वहीं अन्य दिनों में बिजली की हाहाकारी कटौती, सरकारी नलकूपों की स्थायी खराबी,नहरों के सूखी रहने तथा खाद-बीज की अनुपलब्धता और इसके चलते कालाबाजारी तथा तमाम सरकारी खरीद योजनाओं के बावजूद दलालों व बिचौलियों के हाथों लुटने की मजबूरी ही यहाँ के किसानों की नियति बन चुकी है। पूर्वांचल में सबसे खराब स्थिति तो शीतगृहों की है।
               आबादी और कृषि के क्षेत्रफल के लिहाज से देखें तो यहॉ न के बराबर शीतगृह हैं। यह किसानों के शोषण का बहुत बड़ा कारण है। तुलनात्मक तौर पर देखें तो पूर्वांचल की बदहाली भी बुंदेलखण्ड से कम नहीं है।
               राहुल गॉधी युवाओं को अधिकाधिक संख्या में कॉग्रेस से जोड़ना चाहते हैं। यह सच है कि वोट की राजनीति में युवा शक्ति बहुत कारगर भूमिका निभाती है और जहॉ परिवर्तन चाहिए हो वहाँ तो युवाओं बगैर काम चल ही नहीं सकता। राहुल गाँधी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान राजनीति की है। वहॉ आमतौर पर किसान सम्पन्न हैं क्योंकि उनके पास न सिर्फ बड़ी जोत है बल्कि खेती के लिए आवश्यक संसाधन के तौर पर वहाँ पर्याप्त नहरें हैं, विद्युत आपूर्ति बेहतर है, तथा गोदामों, शीतगृहों व अनाज मंडियों की व्यवस्था बेहतर है। ऐसे में वहाँ किसान का बेटा भी अपनी सम्पन्नता के बूते राजनीति में दखल बनाए रखता है। पूर्वांचल में ऐसा नहीं है। यहॉ के अधिसंख्य युवा रोजगार की खोज में पश्चिमी उत्तर प्रदेश सहित पंजाब, हरियाणा, मुम्बई या फिर गुजरात की तरफ निकल जाते हैं। जो यहॉ रह भी जाते हैं वो रोजगार के दुष्चक्र में ऐसे फॅसते हैं कि उनके लिए किसी भी राजनीतिक दल से जुड़ना संभव नहीं होता। ऐसे में समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग राजनीति में अपनी हिस्सेदारी से बचा रह जाता है और उसकी आवाज अनसुनी रह जाती है। श्री राहुल गॉधी पूर्वांचल के अपने अभियान में अगर समाज के इस वंचित वर्ग को भी सामने लाने की कोई योजना बना सकें तो यह सिर्फ राजनीतिक ही नहीं बल्कि हर लिहाज से एक बड़ा कदम साबित होगा।
               पूर्वांचल का अधिकांश हिस्सा इन्हीं दिनों बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित होता है। व्यापक जन-धन की हानि होती है। अन्य तमाम दिक्कतों के साथ-साथ किसानों की महीनों की मेहनत पर पानी फिर जाता है। बाढ़ से उनके खेत खराब हो जाते हैं और वे जलभराव के कारण बुवाई नहीं कर पाते या बोया हुआ भी नष्ट हो जाता है। इन्हीं दिनों में पूर्वांचल का पूरा क्षेत्र जापानी इंसेलायटिस या मस्तिष्क ज्वर नामक जानलेवा बीमारी से प्रभावित रहता है और प्रतिवर्ष हजारों लोग इसके शिकार होकर काल कवलित हो जाते हैं। इनमें बड़ी तादाद बच्चों की होती है। यह बीमारी पूर्वांचल के लिए अभिशाप सरीखी है। प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाऐं कितनी बदहाल और माफियाओं के चंगुल में हैं,यह अभी ताबड़तोड़ तीन सी.एम.ओ. की हत्या से स्पष्ट है, जिनमें एक डिप्टी सी.एम.ओ. थे जिन्हें जेल के भीतर कथित तौर पर मार डाला गया है। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि यह हत्याऐं उन अधिकारियों की हुई हैं जो केन्द्र सरकार की एक महत्त्वाकांक्षी स्वास्थ्य योजना राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत तैनात थे। इस योजना के तहत प्रत्येक जिला अस्पताल को दवा आदि की खरीद हेतु वर्ष में 30 करोड़ रुपये दिए जाते हैं। पूर्वांचल के मस्तिष्क ज्वर प्रभावित जिलों को इस बीमारी के उपचार हेतु खास तौर पर अतिरिक्त बजट व दवाऐं दी जाती हैं। इतना भारी-भरकम बजट फिर भी नतीजा शून्य ही रहता है क्योंकि क्रियान्वयन और निगरानी तंत्र में भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। पूर्वांचल में इस मौसम का आगमन लोगों में भय पैदा करता है। यह निश्चित है कि अगर राहुल गॉधी सरीखे नेता पूर्वांचल की इन समस्याओं में जरा भी रुचि लेना शुरु कर दें तो यहॉ के हालात काफी बदल सकते हैं,जैसा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश कीं किसान समस्याओं के संदर्भ में अभी देखा गया।
               प्रदेश की राजनीति में तीन प्रमुख वर्गों - दलित, छात्र/युवा तथा किसान - की तरफ कॉग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गॉधी ने ध्यान दिया है। इन तीनों वर्गों को अगर  राजनीति की मुख्यधारा से जोड़ा जा सके तो इसके राजनीतिक फलितार्थ तो होंगें ही,सामाजिक-आर्थिक विकास को भी गति दी जा सकती है। कहने को तो सभी राजनीतिक दलों ने इन तीनों वर्गों से सम्बन्धित अपने फ्रंटल संगठन बना रखे हैं लेकिन वह महज खानापूरी ही है। बसपा के बहुजन से सर्वजन की तरफ के प्रयाण को दलित पचा नहीं पा रहे है,और प्रदे के किसानों ने बीते तीन दशक में किसान नेताओं और धरती पुत्रों के कई रुपों को नजदीक से देखा जो अंतत:राजनीतिक भयादोहन कर सरकार में शामिल होने और कुनबापरस्ती बढ़ाने को ही किसान सेवा समझते रहे हैं। पूर्वाचल राज्य के गठन की मॉग तो एक लम्बी प्रक्रिया है लेकिन कोई भी राजनीतिक दल अगर पूर्वाचल के किसानों की गंभीरता से सुध ले ले तो उसकी जड़ें वहाँ मजबूत हो सकती हैं। इस समस्या को किसी राष्ट्रीय दल तथा नयी सोच के नेतृत्व से ही हल करने की उम्मीद की जा सकती है। क्षेत्रीय दल या राज्य सरकारें भी इस दिशा में कारगर काम नहीं कर पाऐंगीं। ( हम समवेत फीचर्स में २५ जुलाई २०११ को प्रकाशित )

मॅंहगाई बढ़ाने पर आमादा केन्द्र सरकार - सुनील अमर




यह पहले से ही पता था कि निर्यात की अनुमति देते ही चीनी के दाम बढ़ जाऐंगें, बावजूद इसके केन्द्र सरकार ने चीनी निर्यात पर लगी रोक पिछले सप्ताह हटा ली और तत्काल ही खुदरा बाजार में चीनी के दाम में चार रुपया प्रति किलो की वृद्धि हो गयी! व्यापारियों को कालाबाजार सरीखा लाभ पहुँचाने वाले वायदा कारोबार पर भी गत वर्ष तब रोक लगा दी गई थी जब चीनी का दाम 50 रुपये प्रतिकिलो तक पहुँच गया था, लेकिन इधर वह भी खोल दिया गया है। इसके साथ ही पेट्रो पदार्थों की मूल्य वृद्धि ने भी वही काम किया है जिसकी अपेक्षा थी। उधर योजना आयोग के उपाध्यक्ष जनाब मोंटेक सिंह आहलूवालिया हैं जिन्होंने गत दिनों देशवासियों को अपना अर्थशास्त्र बताया है कि पेट्रो मूल्यों में वृद्धि से मॅहगाई घटेगी! यहाँ यह जानना दिलचस्प होगा कि स्कूटर-मोटरसायकिल के पेट्रोल के मुकाबले हवाई जहाज का पेट्रोल (यानी ए.टी.एफ.) लगभग 15 रुपया प्रति लीटर सस्ता है!
गत वर्ष स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से देश को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने ठोस शब्दों में आश्वासन दिया था कि अगले 100 दिनों में मॅहगाई पर काबू पा लिया जाएगा। प्रधानमंत्री का यह ‘100 दिन’ उस कार्टून की तरह हास्यास्पद हो गया जिसमें एक घुड़सवार एक डंडे के सिरे पर चारा बाॅधकर घोड़े के मॅुंह से जरा सा आगे किये रहता है। घोड़ा समझता है कि अभी चंद कदम बढ़ते ही चारा मुंह में आ जाएगा और इसी उम्मीद में वह आगे बढ़ता जाता है। वह नहीं जानता कि उसी रफ्तार से चारा भी आगे बढ़ता जा रहा है। लाल किले से उतरने के बाद भी कई बार प्रधानमंत्री ने 100-100 दिन की मोहलत देशवासियों से मांगी लेकिन हालत घोड़े और चारे वाली ही बनी हुई है और एक बार फिर प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर पर पहुँचने वाले हैं। अभी 80 रुपये किलो वाली प्याज के दाम घटने से जरा राहत महसूस हो रही थी कि अब चीनी और टमाटर भी 50 रुपया किलो तक पहुँच रहे हैं। बाजार के जानकार अंदेशा व्यक्त कर रहे हैं कि आने वाले दिनों में टमाटर गरीबों की आँखें लाल कर देगा। अमीर लोग नहीं जानते होंगें कि गरीबों का पेट भरने में आलू, प्याज और टमाटर का कितना महत्वपूर्ण योगदान होता है। अमीर लोग टमाटर की सलाद खाते हैं लेकिन गरीब एक टमाटर फोड़कर उसमें नमक और मिर्च मिलाकर उसी से दो रोटी खाकर अपनी भूख मिटा लेता है! गरीब लोग सलाद नहीं खाते।  
कुछ साधारण से सवाल आम आदमी के मन में रोज ही उठते हैं लेकिन सत्ता प्रतिष्ठानों से उसे जवाब नहीं मिलता। मसलन, कर्नाटक और महाराष्ट्र के किसानों से जब प्याज 3 से 5 रु. प्रति किलो थोक में खरीदी जाती है तो वह दिल्ली के आजादपुर मंडी में पहॅुचकर 80 रुपये किलो कैसे बिकने लगती है? उ.प्र. के सोनभद्र और मिर्जापुर जिलों से जो टमाटर एक रुपया प्रतिकिलो से भी कम दाम पर थोक व्यापारी खरीदते हैं वह सब्जी मंडी में पहुंच कर 25 रुपया किलो कैसे हो जाता है? देश के कृषि मंत्री जब बताते हैं कि इस बार चीनी का जबर्दस्त उत्पादन हुआ है और हमारे भंडार भरे हुए हैं लिहाजा चीनी मिल मालिकों को निर्यात की अनुमति दे दी जानी चाहिए तो फिर एक ही सप्ताह में चीनी का दाम इतना ज्यादा कैसे बढ़ जाता है? और जब हमारा अतीत गवाह है कि पेट्रो मूल्य बढ़ने से हमेशा चतुर्दिक रुप से मॅहगाई बढ़ जाती है तो हमारे अर्थशास्त्री आहलूवालिया कैसे कह रहे हैं कि इससे मॅहगाई थम जाएगी? क्या यह देश की जनता से गलत बयानी नहीं है और यदि हाँ तो क्या ऐसे लोग गुनाहगार नहीं हैं?
देश के गन्ना किसानों का अरबों रुपया चीनी मिल मालिकों ने जैसे एक परम्परा के तहत दशकों से दबा रखा है। इसे निपटाने के लिए सरकार उन्हें ऋण भी देती है लेकिन वे ऋण लेकर भी किसानों का बकाया अदा नहीं करते। वे अच्छे दामों पर एथनाल बेचते हैं, गन्ने से ज्यादा मॅहगी उसकी खोई (बैगास) बेचते हैं या खोई का इस्तेमाल कर बिजली का उत्पादन करते हैं तथा चीनी का मनमानी दाम बढ़ाते व निर्यात करते हैं! क्या इन पर किसी सरकारी विभाग का नियंत्रण नहीं है? एक तमाशा देखिए - वर्ष 2008-09 में किसानों ने साल-दर-साल के शोषण से आजिज आकर गन्ना उत्पादन कम किया और इस प्रकार न्यूनतम सालाना खपत 2.30करोड़ टन के सापेक्ष सिर्फ 1.47 करोड़ टन चीनी का ही उत्पादन देश में हुआ। इसकी पूर्ति के लिए सरकार ने न सिर्फ विदेशों से 60 लाख टन चीनी का आयात किया बल्कि विदेशी चीनी पर लगने वाले 60 प्रतिशत आयात शुल्क को भी दिसम्बर 2010 तक माफ किए रखा ताकि चीनी की उपलब्धता बनाकर चढ़े दामों को गिराया जा सके। वर्ष 2009-10 में उत्पादन में थोड़ा सुधार हुआ और वह बढ़कर 1.90 करोड़ टन तक पहुंचा। चालू वर्ष में बताया गया कि चीनी का सकल घरेलू उत्पादन 2.45 करोड़ टन है जो कि घरेलू मांग से भी 15 लाख टन ज्यादा था। आयातित चीनी का भी एक बड़ा भंडार इसी के साथ मौजूद था। इन्ही सब आंकड़ों को आधार बनाकर चीनी मिल मालिक लाबी पिछले कई महीने से निर्यात को खोलने तथा वायदा कारोबार चालू किए जाने की मांग कर रही थी। यह सब सही है। व्यापार का राज-काज शायद ऐसे ही चलता होगा लेकिन इस बात का जबाब कौन देगा कि जब 15 लाख टन अतिरिक्त देशी चीनी के साथ आयातित चीनी का भंडार भी देश में मौजूद है, तो फिर दाम क्यों बढ़ रहे हैं?
अब स्थिति यह है कि सरकार ने दस लाख टन चीनी के निर्यात की छूट दे दी है और दूसरी तरफ 60 प्रतिशत आयात शुल्क अब लागू है। मतलब विदेशी चीनी अब नहीं आनी है। उसका रास्ता इस 60 प्रतिशत ने बंद कर दिया है तथा घरेलू चीनी के बाहर जाने का रास्ता खोल दिया गया है! अब इसका नतीजा जो होना था वो होने लगा है। चीनी के दामों में इधर जो 400 रुपये प्रति कुंतल की बढ़ोत्तरी हुई है वह निर्यात के कारण है। पेट्रो मूल्यों का असर पड़ना अभी बाकी है। श्री आहलूवालिया का तर्क है कि पेट्रो मूल्यों में वृद्धि के कारण लोग वस्तुओं का उपभोग करना कम कर देंगें या दाम ज्यादा देंगें। इस प्रकार जब मांग कम हो जाएगी तो आपूर्ति स्वाभाविक रुप से बढ़ जाएगी और दाम कम हो जाऐंगें। श्री आहलूवालिया जी शायद जान बूझकर इस तथ्य को नहीं बताना चाहते कि जो वर्ग पेट्रो पदार्थों का उपभोग करता है उसे इस तरह की मॅहगाइयों से कोई फर्क ही नहीं पड़ता। (इसमें कृपया मिट्टी का तेल उपयोग करने वालों और डीजल से खेती करने वालों को न जोड़ें)। यही तर्क वे हवाई जहाज यात्रियों के संदर्भ में क्यों नहीं देते? क्यों नहीं ए.टी.एफ. का दाम चैगुना कर देते ताकि सरकार का राजस्व घाटा एक झटके में ही पूरा हो जाय? 
  टमाटर का दाम बढ़ने पर हो सकता है कि सरकार पीली दाल की तरह दिल्ली आदि महानगरों में खुद ही सस्ता बिकवाना शुरु कर दे। यह कितना हास्यास्पद है कि एक संप्रभु सरकार कालाबाजारी पर लगाम लगाने के बजाय बेचारगी में सस्ती दर की दुकान चलाना शुरु कर दे! और यह कैसी निर्लज्जता है कि हवाई जहाज का पेट्रोल सस्ता करने के लिए सामान्य जनता के इस्तेमाल का पेट्रोल मॅहगा कर दिया जाय! संप्रग को क्या अब चुनाव नहीं लडना है?राष्ट्रीय हिंदी  दैनिक हरि भूमि में 27 जुलाई 2011 को प्रकाशित ) 

Thursday, July 21, 2011

एक जुनून इस ‘‘सायकिल टीचर’’ आदित्य का ! -- सुनील अमर


कहावत है कि वह जुनून क्या जो सिर चढ़कर न बोले! ऐसा ही एक जूनून सिर पर सवार है लखनऊ के आदित्य कुमार के। आदित्य लोगों को अंग्रेजी में निपुण करना चाहते हैं, वह भी फ्री में। वे चाहते हैं कि आज के छात्रों व युवाओं को कम से कम इतनी अंग्रेजी जरुर आये कि वे अपनी रोजमर्रा की आवश्यकताओं को बेहिचक पूरी कर सकें। आदित्य साधनहीन हैं लेकिन यह साधनहीनता उनके उत्साह को कम नहीं कर सकी है। अपनी आजीविका के लिए वे ट्यूशन पढ़ाते हैं लेकिन समाज निर्माण का जज़्बा ऐसा है कि बड़े-बड़े साधन सम्पन्नों को उनके सामने शर्म करनी चाहिए। एक पुरानी सी बाइसिकिल पर अपना साजो-सामान बांधकर आदित्य सड़क-सड़क, गली-गली और झुग्गी-झोपडि़यों में घूम-टहल कर जरुरतमंदों को अंग्रेजी भाषा का निःशुल्क प्रशिक्षण देते हैं। ऐसा वे पिछले पांच वर्षों से नियमित रूप से कर रहे हैं। उनसे अंग्रेजी सीखने वालों में गरीब घरों के छात्र, फेरी लगाने वाले दुकानदार, फुटपाथ किनारे बैठकर रोजी कमाने वाले मजलूम से लेकर पुलिसवाले तक शामिल हैं।
          अपने जुनून के बारे में आदित्य बताते हैं कि वे मूलरुप से जनपद फर्रुखाबाद के रहने वाले हैं और रोजगार की तलाश में लगभग 15 साल पहले लखनऊ आ गये थे। रोजगार के तौर पर उन्हें यहां ट्यूशन पढ़ाना पड़ा। आदित्य बताते हैं कि वे एक दलित परिवार से हैं इसलिए आज के समाज में जितनी भी सामाजिक विसंगतियां दलितों को लेकर हैं, आदित्य को भी वह सब झेलना पड़ा है और आज भी झेल रहे हैं। वे कहते हैं कि सामाजिक प्रताड़ना ने ही मुझे प्रेरित किया कि गरीब लोगों को अगर ठीक से शिक्षा मिल जाय तो गरीबी दूर करने की अपनी लड़ाई को वे बेहतर ढ़ॅग से लड़ सकते हैं। उनका प्रयास इसी दिशा में है।
आदित्य ने अपनी साइकिल में एक छोटा सा पी.ए.एस. यानी पब्लिक एड्रेस सिस्टम लगा रखा है और बैनर भी। वे लोगों को इसी लाउडस्पीकर से आकर्षित कर अपनी बात बताते हैं और अगर अंग्रेजी सीखने वाले ज्यादा लोग हो जाते हैं या सड़क पर शोरगुल ज्यादा होता है तो इसी से लोगों को पढ़ाते भी हैं। उनके इस अभिनव समाज सेवा के कारण अब लोग उन्हें साइकिल टीचर, गरीबों का शिक्षक और ऑन रोड अंग्रेजी शिक्षक कहने लगे हैं। वे बताते हैं कि उन्होंने इस तरह के काम में आ रही दिक्कतों और अपने अनुभव के आधार पर कई तरह का पाठ्यक्रम भी बना रखा है और जिस तरह के प्रशिक्षु होते हैं उन्हें उसी मुताबिक शिक्षा देते हैं। आदित्य बताते हैं कि वे एक वीडियो कैमरा भी रखते हैं और उससे तमाम जरुरी चीजों को रिकार्ड कर उसका पढ़ाई में इस्तेमाल करते हैं।
‘‘काम तो बहुत कठिन है?’’ पूछने पर आदित्य कहते हैं कि लगन हो तो कठिन काम भी आसान लगने लगता है, और फिर यह तो समाजसेवा है और खास बात यह है कि इससे उन्हें बहुत सुकून मिलता है। ‘‘सड़क किनारे ऐसा भीड़ वाला काम करने में काफी अड़चन आती होगी?’’ इसके जवाब में आदित्य कहते हैं कि कभी-कभी होती है लेकिन अब उन्हें इस बात का तजुर्बा हो गया है कि उन्हें अपनी क्लास कहां लगानी चाहिए। वे बताते हैं कि अब तो उन्हें काफी लोग पहचानने लगे हैं और देखते ही उनके पास इकट्ठा हो जाते हैं।०० ( हस्तक्षेप डाट कॉम  व चौराहा डाट कॉम पर २१ जुलाई को प्रकाशित )


Hastakshep.com

एक जुनून इस ‘‘सायकिल टीचर’’ आदित्य का !



Wednesday, July 20, 2011

उ.प्र.भाजपा : बाड़ ही खेत चरने पर आमादा --- सुनील अमर




उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव नजदीक आ गये हैं, राजनीतिक दलों की गतिविधियों से ऐसा लगने लगा है फिर भी राज्य में मौजूद दोनों राष्ट्रीय दल -काँग्रेस और भाजपा, में अभी वह तेजी नहीं दिख रही है जो राज्य स्तरीय बसपा और सपा में है। इन दोनों दलों ने तो अपने संभावित प्रत्याशियों की सूची भी लगभग पूरी कर ली है,जबकि कॉग्रेस और भाजपा ने अभी शुरुआत ही नहीं की है। जैसा कि सभी जानते हैं,आंतरिक अनुशासन के मामले में भाजपा कॉग्रेस का मुकाबला नहीं कर सकती इसलिए भाजपा की तरफ से प्रत्याशियों की घोषणा और उस पर होने वाले संभावित गृह युध्द की मीमांसा अभी से होने लगी है। हमेशा की अपेक्षा इसके इस बार ज्यादा संगीन होने की संभावना व्यक्त की जा रही है क्योंकि पार्टी की प्रदेश इकाई में इस बार न सिर्फ बड़े नेताओं की भरमार हो गई है बल्कि तमाम बड़े और वरिष्ठ नेताओं के पुत्र-पुत्रियों में भी टिकट हासिल करने की होड़ सी लग गई है। इसकी चर्चा करने पर सांगठनिक अनुभव रखने वाले वरिष्ठ भाजपा नेताओं के चेहरे पर परेशानी के लक्षण साफ-साफ दिखने लगते हैं।
               बीते एक दो वर्षों में प्रदेश में जो भी चुनाव या उपचुनाव हुए उनमें भाजपा की हालत बहुत खराब रही है। इसे एक वाक्य में इस तरह समझा जा सकता है कि प्रदेष में नवगठित और मुस्लिम संगठन के तौर पर पहचान बनाने वाली पीस पार्टी तथा कई निर्दलियों से भी भाजपा प्रत्याशी इन चुनावों में पीछे रहे हैं। ऐसा उन क्षेत्रों में भी हुआ जो भाजपा के दिग्गजों के लिए सुरक्षित माने जाते थे। अभी साल भर भी नहीं हुआ जब जिला पंचायत अध्यक्ष के स्थानीय निकाय चुनाव में प्रदेश के 70 जिलों में से सिर्र्फ एक जिले में ही भाजपा प्रत्याशी जीत सका था। जाहिर है कि इससे पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं। यही कारण था कि संगठन की ढ़ीली चूड़ियों को कसने के फेर में राष्ट्रीय नेतृत्व ने प्रदेश इकाई को बड़े-बड़े नेताओं और असंख्य पदाधिकारियों से भर दिया। प्रदेश अधयक्ष, तीन प्रदेश प्रभारी, पूर्व प्रदेश अधयक्षों की एक कोर कमेटी, चुनाव तैयारियों को मॉनीटर करने के लिए पॉच वरिष्ठ नेताओं की एक कमेटी तथा चुनाव प्रभारी और विशेष चुनाव प्रभारी! अब नेता से लेकर कार्यकर्ता तक के लिए यह एक अबूझ पहेली कि इसमें से सबसे बड़ा और शक्तिमान कौन है। इसमें ताजा आमद वाली सुश्री उमा भारती, योगी आदित्य नाथ, वरुण गाँधी और पूर्व बजरंगी विनय कटियार जैसों का जिक्र जानबूझकर छोड़ दिया गया है क्योंकि ये सब तो प्रदेश में रहेंगें ही।
               उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए यहाँ तमाम बड़े नेताओं का होना भी एक समस्या ही है। अब इन बड़े नेताओं के पुत्रों व पुत्रियों ने भी प्रदेश की राजनीति में हाथ आजमाने की शुरुआत कर दी है और ऐसा प्रत्येक बड़ा नेता चाह रहा है कि उसकी संतान को किसी दमदार सीट का टिकट मिल जाय! अब यह चाह कोढ़ में खाज वाली ऐसी स्थिति को चरितार्थ कर रही है जिससे निपटना पार्टी नेतृत्व के लिए आसान नहीं होगा। मसलन- पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अधयक्ष तथा प्रदेश के विशेष चुनाव प्रभारी राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह हैं। इनके लिए कई सीटों पर सर्वेक्षण हो रहा है कि यह कहाँ से जीत सकते हैं। चर्चा है कि गौतमबुध्द नगर, वाराणसी और लखनऊ में से किसी एक या एकाधिक पर इन्हें टिकट मिल सकता है। श्री पंकज सिंह वैसे भी प्रदेश संगठन में मंत्री हैं। दूसरे बड़े नेता सांसद लालजी टंडन हैं जिनके पुत्र गोपाल टंडन हैं। माना जाता है कि श्री लालजी टंडन श्री अटल बिहारी वाजपेयी के कृपापात्र हैं। ये जब लखनऊ से सांसद बने तो इनके द्वारा रिक्त विधानसभा सीट लखनऊ पश्चिमी पर इनके पुत्र ने अपनी दावेदारी जताते हुए टिकट मॉगा लेकिन वह नहीं मिला। अब 2012 के चुनाव में ये फिर दावेदार हैं।
               एक दूसरे बड़े नेता सत्यदेव सिंह हैं। श्री सिंह न सिर्फ वरिष्ठ हैं बल्कि मौजूदा प्रदेश संगठन में प्रवक्ता भी हैं। अयोधया से सटे जनपद गोण्डा को काटकर बनाये गये जनपद बलरामपुर से श्री सिंह सांसद हुआ करते थे। इस प्रकार इनकी राजनीतिक कर्मभूमि गोण्डा और बलरामपुर ही है। श्री सिंह के पुत्र वैभव सिंह हैं और विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते हैं लेकिन बलरामपुर या गोण्डा से नहीं बल्कि किसी जिताऊ सीट से और इस क्रम में इनकी निगाह लखनऊ पूर्वी सीट पर है। यह सीट भाजपा की मजबूत सीटों में से है। एक अन्य वरिष्ठ नेता पूर्व सांसद रामबख्श वर्मा हैं जो अपने बेटे आलोक वर्मा के लिए कन्नौज से टिकट चाहते हैं। इसी प्रकार पूर्व संगठन मंत्री, पूर्व विधान परिषद सदस्य तथा वर्तमान में राष्ट्रीय कार्य समिति के सदस्य प्रो. रामजी सिंह हैं जो अपने लाड़ले अरिजित सिंह को जनपद मउ से टिकट दिलवाना चाहते हैं।
               इसी प्रकार प्रदेश सरकार में कई बार मंत्री रह चुकी वरिष्ठ नेता व मौजूदा प्रदेश महामंत्री श्रीमती प्रेमलता कटियार हैं जो अपनी पुत्री नीलिमा कटियार के लिए कानपुर से टिकट चाहती हैं। एक समय के दिग्गज रहे स्व. रामप्रकाश त्रिपाठी की पुत्री सुश्री अर्चना पाण्डे हैं जो छिबरामऊ से एक अदद टिकट की ख्वाहिशमंद हैं। यह सूची अभी और भी लम्बी होगी और जितनी लम्बी होगी उतना ही पार्टी का चुनावी और अनुशासनात्मक ढ़ाँचा बिगड़ेगा। इससे तमाम लोग नाराज होंगें और आयाराम-गयाराम का खेल चालू होगा। इन दिक्कतों के साथ-साथ प्रदेष के बनते-बिगड़ते राजनीतिक समीकरण भी हैं जिनसे पार पाने के लिए पार्टी का शीर्ष नेतृत्व माथापच्ची कर रहा है। असल में बसपा की अद्भुत मजबूती और कॉग्रेस के दमदार उभार ने भाजपा के साथ-साथ सपा को भी चिंतित कर रखा है। इन पँक्तियों के लेखक का शुरु से ही यह मत रहा है कि सपा और भाजपा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब भी इनमें से एक का भला होगा तो दूसरे को प्रतिक्रियास्वरुप फायदा हो ही जाएगा।
               उत्तर प्रदेश की राजनीति में जब से भाजपा का अवसान हो रहा है ठीक तभी से सपा का ग्राफ भी गिरावट पर है। इन दोनों पार्टियों को सबसे ज्यादा नुकसान कॉग्रेस से दिख रहा है। बसपा संस्थापक स्व.कांशीराम का सिध्दान्त ही था कि कॉग्रेस की मजबूती बसपा के लिए खतरे की घंटी होगी। इस प्रकार आज उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा और भाजपा के लिए कॉग्रेस एक चुनौती है। भाजपा की पकड़ अपने पितृ संगठन जनसंघ के समय से ही ज्यादातर शहरी मतदाताओं पर ही रही है। वो तो बाद में अयोध्या आंदोलन के दौरान भाजपा का विस्तार ग्रामीण क्षेत्रों में हुआ। अब भाजपा नेतृत्व यह सोचकर चिन्तित है कि राहुल गॉधी की सक्रियता से कहीं शहरी मतदाता कॉग्रेस की तरफ न मुड़ जाय। बीते लोकसभा चुनाव के बाद राजनीतिक विश्लेषकों ने यह राय व्यक्त की थी कि पिछड़े वर्ग के मतदाताओं का झुकाव कॉग्रेस की तरफ हुआ है। भाजपा के स्वर्णिम दिनों में यह वर्ग अच्छी तादाद में भाजपा से जुड़ा था। इसी वर्ग को साधने के लिए ही उमा भारती को लाया गया है। इस प्रकार उत्तर प्रदेश में एक विचित्र संयोग यह हो गया है कि देश के दोनों राष्ट्रीय दलों ने यहॉ की चुनावी कमान जिन्हें सौंप रखी है वे न सिर्फ मध्य प्रदेश के हैं बल्कि वहॉ के पूर्व मुख्यमंत्री भी रहे हैं यानी कि कॉग्रेस के दिग्विजय सिंह और भाजपा की उमा भारती! 
               भाजपा से जहॉ अपेक्षा यह थी कि वह मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में अपने लिए कोई समीकरण तलाश कर नेताओं और कार्यकर्ताओं को आश्वस्त करे, वहॉ उसके बड़े नेता अपने और अपनी संतानों के राजनीतिक भविष्य को आश्वस्त करने में ही अपनी सारी ऊर्जा लगा रहे हैं। इससे पार्टी में निचले स्तर पर हताशा जनक संदेश जा रहे हैं। पार्टी के निष्ठावान और समर्पित नेता व कार्यकर्ता खिन्न हैं लेकिन वे करें ही क्या जब बाड़ ही खेत चरने पर आमादा है।   ( हम समवेत फीचर्स में १८ जुलाई को प्रकाशित )


Thursday, July 14, 2011

बुंदेलखण्ड : प्रकृति नहीं, सियासत का कोप भारी है ! --- सुनील अमर


बुंदेलखण्ड देश का दूसरा विदर्भ बनता जा रहा है। केन्द्र और राज्य सरकारों के तमाम घोषित उपायों के बावजूद यहॉ के किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं का सिलसिला थम नहीं रहा है। स्थिति की भयावहता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि गत माह इलाहाबाद उच्च न्यायालय उ.प्र. ने समाचार पत्रों में छप रही आत्महत्याओं की खबरों पर स्वत: संज्ञान लेते हुए केन्द्र व उ.प्र. सरकार से कैफियत तलब की है। इस क्षेत्र की बदहाली के लिए प्राकृतिक कारणों के साथ-साथ राजनीतिक कारण कितने जिम्मेदार हैं, इसको इस तथ्य से समझा जा सकता है कि केन्द्र द्वारा गत वर्ष बुंदेलखण्ड को अतिरिक्त सहायता के मद में दिए गए 800 करोड़ रुपये को उ.प्र. सरकार खर्च ही नहीं कर पाई है और उसने बीते मार्च माह तक मात्र 73 करोड़ यानी सिर्फ 09 प्रतिशत धनराशि का उपयोग प्रमाण पत्र दिया है! जानना दिलचस्प होगा कि केन्द्र सरकार ने बुंदेलखण्ड के विकास और राहत कार्यों के लिए कुल लगभग 8000 करोड़ रुपयों का भारी-भरकम विषेश पैकेज दे रखा है लेकिन वहॉ प्रशासनिक स्तर पर घोर अवयस्था के चलते स्थिति सुधारने के बजाय और बिगड़ती ही जा रही है।
               बीते 15 जून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उक्त मामले का स्वत: संज्ञान लेते हुए न सिर्फ केन्द्र व राज्य सरकार से जवाब तलब किया है बल्कि अग्रिम आदेश तक इस क्षेत्र में सभी प्रकार की राजकीय व साहूकरी वसूली पर रोक भी लगा दी है। आत्म हत्याओं के ऑकड़े से चिंतित न्यायालय ने उ.प्र. के मुख्य सचिव को आदेश दिया है कि वे ऐसे प्रत्येक प्रकरण में अस्पताल,थाना तथा ब्लाक मुख्यालय से विस्तृत जानकारी तथा किसानों को शासन द्वारा दी जाने वाली कुल सहायता का ब्यौरा एक माह के भीतर न्यायालय में पेश करें। न्यायालय की चिंता को किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के इन ऑकड़ों से समझा जा सकता है कि वर्ष 2009से अब तक यानी मात्र दो वर्ों में 1670 किसानों ने कर्ज व गरीबी से तंग आकर अपनी जान दे दी है। बुंदेलखण्ड मध्य प्रदेश और उ.प्र. के कुछ हिस्सों को मिलाकर बनता है। इसमें उ.प्र. के बॉदा, जालौन, हमीरपुर, झॉसी, चित्रकूट, महोबा और ललितपुर जिले हैं।     केन्द्र से पर्याप्त धनराशि आने के बावजूद प्रदेश सरकार की प्रशासनिक अक्षमता के कारण योजनाओं पर अमल नहीं हो पा रहा है जिससे हताश किसान अपनी जीवनलीला ही समाप्त कर ले रहे हैं।
               बुंदेलखण्ड की प्रमुख समस्या सूखा है। एक तो यह समूचा क्षेत्र वैसे ही पथरीला और असमतल है दूसरे बीते एक दशक से यहॉ नियमित बरसात न होने के कारण स्थिति इतनी विकराल हो गई है कि जगह-जगह जमीन फट जाती है और दरारों में से बेतहाशा धुॅआ निकलने लगता है। उ.प्र. में इस बार जब बसपा की सरकार सत्तारुढ़ हुई तो उसने तीन साल पहले 2008में बुंदेलखण्ड के सूखे से चिन्तित होकर वहॉ कृत्रिम बरसात कराने की घोषणा की और इसके लिए विदेशों से तकनीकी जानकारी भी प्राप्त की गई। यह प्रक्रिया इसमें सिल्वर आयोडाइड (चॉदी का एक अवयव) इस्तेमाल होने के कारण मॅहगी तो थी लेकिन इसके व्यापक असर को देखते हुए इस पर अमल करने का निश्चय किया गया। अब पता नहीं कोई प्रशासनिक अड़चन आयी या लगभग उसी दौरान कॉग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गॉधी ने बुंदेलखण्ड पर थोड़ा ध्यान देना शुरु कर दिया, जो भी हो, राज्य सरकार ने इस अत्यन्त उपयोगी योजना को किसी तहखाने में डाल दिया।
               आज बुंदेलखण्ड के दोनो हिस्सों की मुख्य समस्या पानी की किल्लत और इससे उत्पन्न समस्याऐं जैसे कि फसल का सूखना तथा चारे व पेयजल की कमी आदि ही हैं। जाहिर है कि ये समस्याऐं हल की जा सकती हैं और इनको हल करने के लिए तमाम योजनाऐं वहॉ लागू भी है लेकिन वे सब प्रशासनिक लूट-खसोट की शिकार होकर उत्पीड़नकारी हो गयी हैं। वहॉ गॉवों में सामुदायिक रसोई चलाकर जरुरतमंदों को भोजन देने की योजना है तो जानवरों के लिए चारा बैंक भी है। पेयजल के सचल टैंकरों से जलापूर्ति की व्यवस्था है तो मनरेगा जैसी योजनाओं की मार्फत कार्य के अवसर भी उपलब्ध कराये जा रहे है और मनरेगा के श्रम का उपयोग तालाबो की खुदाई, उनका सुदृढ़ीकरण तथा बरसाती जल को रोकने के लिए मेंड़ व बॉध बनाने में भी किया जा रहा है। किसानों की ऋण माफी योजना वहाँ भी लागू की गई है। यें सब है लेकिन इन सबके वहॉ काम न कर पाने का मुख्य कारण प्रशासनिक भ्रष्टाचार है जिसके कारण जरुरतमंद लोग कोई भी लाभ नहीं पा रहे हैं और उनके सामने अंतिम विकल्प अपनी जान गँवा देने का ही है। सार्वजनिक वितरण के लिए वहॉ गए पेयजल के टैंकरों को बदमाश बन्दूक के बल पर लूट लेते हैं और फिर मनमाना दाम लेकर बेचते हैं। बाकी योजनाओं के हश्र का अनुमान लगाया जा सकता है। हताशा का आलम यह है कि आत्महत्या के साथ-साथ इस क्षेत्र से पलायन भी तेजी से हो रहा है। सरकारी ऑकड़ों की ही मानें तो इधर के वर्षों में लगभग 13000 परिवार उ.प्र. के बुंदेलखण्ड से पलायित हो चुके हैं। गैर सरकारी तौर पर यह संख्या दोगुनी बतायी जाती है।
               उच्च न्यायालय के संज्ञान लेने के तत्काल बाद केन्द्रीय योजना आयोग की एक बैठक हुई जिसमें उक्त क्षेत्र के सांसदों ने हिस्सा लिया। बुंदेलखण्ड पैकेज की धनराशि के खर्च पर हुई इस समीक्षा बैठक में शामिल बांदा से सपा सांसद आर. के. पटेल ने कहा कि सारी योजनाऐ अधिकारियों की लूट-खसोट की शिकार हैं और इनकी सी.बी.आई. जॉच होनी चाहिए। सपा के ही घनश्याम अनुरागी ने पैकेज के कार्यो में भारी बंदरबॉट की शिकायत की तो झॉसी के सांसद प्रदीप जैन आदित्य ने आरोप लगाया कि प्रदेश सरकार जानबूझकर बुंदेलखण्ड में केन्द्रीय योजनाओं की दुर्दशा कर रही है, क्योंकि उसे डर है कि कहीं योजनाओं की सफलता का श्रेय राहुल गॉधी को न मिल जाय। जैन ने किसानों के कर्ज के एकमुश्त समाधान किए जाने की मॉग केन्द्र सरकार से की जबकि हमीरपुर के बसपा सांसद विजय बहादुर सिंह ने आरोप लगाया कि बुंदेलखण्ड के लिए प्रस्तावित कई योजनाओं के लिए केन्द्र के कई विभागों से धन मिलना था जो कि आज तक मिला ही नहीं। बहरहाल श्री सिंह के आरोप उस वक्त निराधार साबित हो गये जब गत सप्ताह उ.प्र. के मुख्य सचिव ने स्वीकार किया कि केन्द्र द्वारा दिए गए धन को खर्च करने के लिए अभी उन्हें एक वर् का समय और चाहिए। उन्होंने यह स्वीकारोक्ति बुंदेलखण्ड पर केन्द्रीय पैकेज के प्रभारी डॉ. जे.एस. सामरा के साथ हुई एक बैठक में की।
               बुंदेलखण्ड के लोगों की हताा और विषाद का मुख्य कारण पानी है। इसका हल हुए बगैर वहॉ जन जीवन सामान्य नहीं हो सकता। तमाम कारगर और तस्वीर बदलने मे सक्षम योजनाऐं वहॉ राजनीतिक खींचतान में उलझी पड़ी हैं। इसलिए आवश्यकता वहॉ जलागम की कोई केन्द्रीय योजना शुरु करने की है। इसी समस्या के हल के लिए बहुउद्देष्यीय केन-बेतवा नदी जोड़ने की योजना बनाई गई है। केन्द्र की इस योजना के तहत केन नदी के अतिरिक्त पानी को बेतवा नदी तक पहॅुचाया जाना प्रस्तावित है तथा इसमें बनाये जाने बॉध, बैराज और नहरों से पूरे बुंदेलखण्ड को हरा-भरा किया जाना है। इसके तहत मकोरिया, रिछान, बरारी और केसरी नामक स्थानों पर बॉध बनाये जाने हैं तथा इसी में से नहरें निकलेंगी। प्रारम्भ में 1800 करोड़ रुपये की अनुमानित यह योजना अब 9000 करोड़ रुपये की बतायी जा रही है, लेकिन इसका क्रियान्वयन बुंदेलखण्ड की सूरत बदल सकता है।(Published in Humsamvet Features on 11 July 2011)

Tuesday, July 12, 2011

दिल्ली और पटना से प्रकाशित उर्दू दैनिक '' हमारा समाज'' में मेरा आलेख

दिल्ली और पटना से प्रकाशित उर्दू दैनिक '' हमारा समाज'' के सम्पादकीय पेज पर मेरा आलेख 12 जुलाई 2011  को --

दिल्ली से प्रकाशित उर्दू दैनिक ''जदीद खबर '' में मेरा आलेख

दिल्ली से प्रकाशित उर्दू दैनिक ''जदीद खबर ''  में 12 जुलाई 2011 को सम्पादकीय पृष्ठ 3 पर मेरा आलेख- http://jadidkhabar.कॉम 

Saturday, June 25, 2011

सच सच बतलाना निगमानंद.. --- सुनील अमर





                                प्रिय निगमानंद,
स्वामी निगमानंद 
             पैंतीस साल की उम्र कुछ कम तो नहीं होती! खासकर उस मुल्क में जहाँ के बच्चे इन दिनों पैदा होने के बाद 35 महीने में ही जवान हो जाते हों, तुम बच्चे ही बने रहे? साधु के साधु ही रह गये तुम और उसी निगाह से इस मुल्क के निजाम को भी देखते रहे? क्या तुम्हें वास्तव में यह नहीं पता था कि अब बच्चे तोतली आवाज में ‘‘मैया, मैं तो चन्द्र खिलौना लैहौं’’ न गाकर ‘‘माई नेम इज शीला, शीला की जवानी’’ और ‘‘मुन्नी बदनाम हुई’’ मार्का गाना गाने लगे हैं? इस तरक्कीशुदा देश में बच्चे तक इच्छाधारी होने लगे हैं निगमानंद लेकिन तुम......?
तुम तो पढ़े-लिखे भी थे निगमानंद फिर भी नहीं समझ पाये कि देश के मौजूदा हालात और निजाम सब अर्थमय हो गये हैं और इसी बीच तुम लगातार अनर्थ की बातें कर रहे थे? जिस देश में औलादें अपने बूढ़े माँ-बाप को भूलने लगी हों वहाँ तुम गंगा जैसी हजारों-हजार साल बूढ़ी नदी के स्वास्थ्य की बात कर रहे थे? तुम बालू-मिट्टी और पत्थर खोदकर अरबपति बन रहे लोगों के पेट पर लात मारने की बात कर रहे थे? क्या तुम नहीं जानते थे कि जिस देश का मुखिया अर्थशास्त्री हो, उसका वित्तमंत्री अर्थशास्त्री हो, उसका गृहमंत्री अर्थशास्त्री हो तथा उसके योजना आयोग का सर्वे-सर्वा भी प्रकांड अर्थशास्त्री हो, उस देश में अर्थ-चिन्तन, अर्थ-रक्षण और अर्थ-भक्षण के अलावा और होगा क्या, और उसमें जो भांजी मारने की कोशिश करेगा उसे आधी रात को पुलिस आकर रामलीला मैदान कर देगी चाहे वह कितना भी बड़ा योगी या मदारी क्यों न हो? क्या तुम टी.वी. और अखबार नहीं देख-पढ़ रहे थे? ओह! लेकिन कैसे देखते-पढ़ते तुम निगमानंद, तुम्हें तो न्याय की लड़ाई ने हफ्तों से कोमा में कर रखा था। इस देश में यह रिवाज बनता जा रहा है कि जो न्याय और इंसाफ की बात करता है, उसे हम लोग कोमा में ही देखना पसंद करते हैं। इरोम शर्मिला को तो तुमने देखा ही रहा होगा निगमानंद जिनके पेट में 10 साल से अन्न नहीं गया है ? तो क्या उन्हीं से प्रेरणा ली थी तुमने अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने की?
अपनी स्कूली किताबों में तुमने जरुर कहीं पढ़ा रहा होगा कि नदियाँ हमारी माँ  हैं क्योंकि इन्होंने ही हमारी सभ्यताओं को जन्म दिया है। इन्हीं की गोद में पल-बढ़कर हम सभ्य बने और आज बिच्छू के बच्चों की तरह इस लायक हो गये हैं कि इन्हें ही मिटाने पर आमादा हैं। तुम इसी का तो विरोध कर रहे थे निगमानंद? तुम शायद इधर कर्नाटक नहीं गये थे नहीं तो देखते कि जमीन खोदकर खरबपति बनने वालों के अंग विशेष पर ही वहाँ की सरकार टिकी हुई है और ऐसी ही सरकारों से प्राणवायु ग्रहण करने वालों के राज्य में तुम ऐसे ही महारथियों के खिलाफ आमरण अनशन कर रहे थे तो तुम्हें तो मरना ही था निगमानंद! भूख से या षडयंत्र से। लेकिन इतना अन्याय देखकर तो गंगा खुद ही इस देश को छोड़ देना चाहेंगी निगमानंद, तुमने नाहक ही अपनी जान दी!
सवाल तुम्हारी मौत का नहीं है निगमानंद। इस देश में तो तुम्हारे जैसे तमाम लोग भूख, प्यास, अन्याय, दुर्घटना और सरकार की साजिशों का शिकार होकर रोज मरते ही रहते हैं। सवाल तुम्हारे उस भोलेपन का है, सवाल तुम्हारी उस आत्म-मुग्धता का है जिसे यह भरोसा था कि जब इस महान लोकतांत्रिक देश का एक नागरिक, एक बिल्कुल जायज और देश हित के मुद्दे को लेकर अपनी मांग न मानी जाने पर जान देने का ऐलान करेगा तो सत्ता की चूलें हिल जायेंगीं! इसी भोलेपन ने इस देश में तुमसे भी पहले तीन जानें ली हैं निगमानंद, इसे जानते हुए भी तुम इतने आत्म मुग्ध और विश्वास से भरे हुए क्यों थे? क्या तुमने चंद दिन पहले ही नहीं देखा था कि सारी दुनिया में क्रांति ला देने का दावा करने वाले स्वयंभू योगी, पुलिस को देखकर औरतों के बीच में जा छिपते हैं? लेकिन तुम कैसे देखते निगमानंद, तुम तो कोमा में थे। और यह अच्छा ही था कि तुम यह सब देखने के लिए होश में नहीं थे, नहीं तो भ्रम टूटने की कई और तकलीफें लेकर ही तुम मरते।
  तुम तो जानते ही थे कि इस देश में उत्पीड़न से आजिज लोग पुलिस कप्तान के दफ्तर में पेट्रोल छिड़ककर आत्मदाह कर लेते हैं फिर भी कुछ नहीं होता, जिला मैजिस्ट्रेट की अदालत के सामने परिवार सहित आग लगा लेते हैं लेकिन ऊॅंचा सुनने और चमकदार देखने की अभ्यस्त हमारी यह अंधी-बहरी व्यवस्था उन्हें तब भी नहीं सुनती। निगमानंद, अपनी जान से बढ़कर किसी भी आदमी के पास क्या होता है देने के लिए? और अगर तब भी उसकी न सुनी जाय तो वह ऐसे आँख बंद कर पगुराते जानवर को ठोंक-पीटकर सही करने पर आमादा न हो जाय तो और क्या करे? और तब यह सत्ता पुरुष धीरे से आधी आँख खोलकर कहता है कि यह तो नक्सली है और यह तो राष्ट्रद्रोही है!
अरसा हुआ जब हमारा लोकतंत्र, भीड़तंत्र में बदल गया। शायद तुम कभी जेल नहीं गये थे निगमानंद नहीं तो जरुर जानते कि कैदी जिंदा रहें या मुर्दा, गिनती में पूरे होने ही चाहिए! कमाल देखिए कि जेल का यही अलिखित नियम हमारे लोकतंत्र में लिखित रुप में मौजूद है! यहाँ भी मॅूड़ी ही गिनी जाती है। जिसके साथ जितनी ज्यादा मॅूड़ी, उसे देश को चर-खा लेने का उतना ही ज्यादा अधिकार! तो तुम्हारे साथ कितनी मुंडियां थीं निगमानंद ? क्या कहा, एक भी नहीं? हा-हा ! फिर तुमने कैसे हिम्मत कर ली थी सरकार से अपनी बातें मनवाने की दोस्त? क्या तुम्हें टीम अन्ना का भी हश्र नहीं पता था? लेकिन कैसे पता होता तुम्हें निगमानंद, तुम तो कोमा में थे!
सच बताना निगमानंद, तुम भूख-प्यास से कोमा में  चले गये थे या अपने विश्वासों के टूटने की वजह से? मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि विश्वास का टूटना आदमी को भीतर से तोड़ देता है। निगमानंद और इरोम शर्मिला जैसों को अगर भूख-प्यास सताती तो वे भी इस भीड़तंत्र में खूब चरते-खाते और यकीन मानिये, हुक्मरान उन्हें लाखों-करोड़ों देकर सम्मानित करते और सर-आँखों पर बैठाते! लेकिन जिसकी भूख अपने चारों तरफ के लोगों का पेट भरा देखने से मिटती हो, जिसकी प्यास दुधमुंहों को दूध पीते देखकर मिटती हो और यह सब न होने पर जो आततायी व्यवस्था से लड़ने को उद्यत हो जाते हों, उन्हें देर-सबेर तुम्हारी तरह कोमा में ही जाना पड़ता है दोस्त!
सादगी, ईमानदारी, सच्चाई और विनम्रता यह सब आजकल कोमा की ही अवस्थाऐं हैं दोस्त निगमानंद! इनका अंत कैसे होता है, तुम्हें देखने के बाद अब इस पर सोचने की जरुरत क्या? बस, इतना जरुर बताना निगमानंद कि हमारे मौजूदा निजाम का कोमा कैसे टूटेगा? ( दैनिक जनसन्देश  टाईम्स में २५ जून २०११ को सम्पादकीय पृष्ठ ८ पर प्रकाशित www.jansandeshtimes.com )