Friday, January 16, 2015

कर्जमाफी से ही नहीं सुधरेंगे हालात -- सुनील अमर

केंद्र सरकार की हालिया किसान ऋणमाफी घोषणा के बीच भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने ऐसी योजनाओं पर गंभीर सवाल उठाते हुए इसे निष्प्रभावी करार देते हुए कहा है कि किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या जैसे संवेदनशील मुद्दे पर गहराई से अध्ययन की जरूरत है। बीते दिनों उदयपुर में आयोजित भारतीय आर्थिक संघ के सम्मेलन में उन्होंने कहा कि यह देखा जाना चाहिए कि किसानों के कर्ज बोझ की स्थिति से कैसे निपटा जा सकता है और इसके लिए ऋणमाफी के अलावा और कौन-कौन से विकल्प हो सकते हैं। ध्यान रहे कि केन्द्र सरकार ने कहा था कि ऋणग्रस्त किसानों के लिए कर्जमाफी की योजनाएं बनायी जा रही हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर ने कहा कि केन्द्रीय महालेखा परीक्षक की जांच रिपोर्ट में ऐसे तथ्य आए हैं कि ऋणमाफी योजना में बहुत से अपात्र किसानों को लाभ दिया गया जबकि जरूरतमन्द इससे वंचित रह गए। संप्रग-1 सरकार की किसान ऋणमाफी योजना नि:सन्देह जनहितकारी थी और इसने बहुत से किसानों को आत्महत्या के दबाव से मुक्त किया था। इस तथ्य को महज वातानुकूलित दफ्तरों में बैठकर महसूस नहीं किया जा सकता। इसके लिए किसानों के बीच जाकर उनकी आर्थिक, पारिवारिक व सामाजिक स्थितियों को समझना जरूरी है। यह और बात है कि देश में लागू होने वाली प्रत्येक योजना की तरह इसमें भी बाबूशाही और कमीशनखोरी जैसे भ्रष्टाचार व्याप्त हुए और रिजर्व बैंक के गवर्नर को इसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठाने का मौका मिला। 65,000 करोड़ रुपये की इस योजना को देश की लगभग 65 प्रतिशत आबादी के उद्धार के लिए लागू किया गया था। इसका लाभ लेने वाला तबका गरीब और दबा-कुचला था इसलिए भ्रष्टाचारियों द्वारा उसका बड़े पैमाने पर शोषण किया गया। देश में कल-कारखानों से लेकर हवाईजहाज कंपनी चलाने वाले उद्योगपतियों तक को कर्जमुक्त करने के लिए अरबों करोड़ रुपये की राहत और छूट दी जाती रही है लेकिन इस पर रिजर्व बैंक के किसी गवर्नर ने न उंगली उठायी और न उसे अप्रासंगिक बताया। सब जानते हैं कि देश की सार्वजनिक वितरण पण्राली आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी है। जाहिर है, इसे रघुराम राजन भी जानते होंगे लेकिन क्या तंत्र के कमजोर होने से ऐसी जनहितकारी योजनाओं को बंद किया जा सकता है? आवश्यकता तंत्र के सुधार की है। किसान ऋण माफी में जिन खामियों की तरफ इशारा किया है, उसका सर्वाधिक दारोमदार उन बैंकों पर है जो रिजर्व बैंक के अधीन चलते हैं। उन्हें पहले बैंकों के परिमार्जन का उपाय करना चाहिए। यह बात सही है कि कर्जमाफी को स्थायी उपाय या किसानों की हालत सुधारने की योजना नहीं कहा जा सकता। सही उपाय यही हो सकता है कि ऐसे हालत बनाए जाएं कि कर्जदार व्यक्ति अपनी कमाई से कर्ज की वापसी कर सके। कर्ज की वापसी तभी संभव होती है जब कर्जदार को कामधंधे में इतना लाभ हो कि उसकी पारिवारिक जरूरतें पूरी हो सकें। ऐसा न होने पर कर्जदार कर्ज के पैसे को अपनी जरूरतों पर खर्च कर डालता है। यही नहीं, कभी-कभी योजनाबद्ध तरीके से किया गया उद्यम भी प्राकृतिक आपदा की भेंट चढ़ जाता है जैसा प्राय: किसानों के साथ होता है। व्यापार में तो ऐसे मामलों को बीमा कराकर संरक्षित किया जाता है लेकिन अफसोस, देश में फसल बीमा योजना दशकों से लागू होने के बाद भी जमीन पर नहीं उतर सकी है। बैंक किसानों को कर्ज देते समय जानवरों आदि के मामलों में पशुधन बीमा जरूर कराते हैं लेकिन इस योजना में जटिलता के कारण अपढ़ और सामथ्र्यहीन किसान इसका भी लाभ नहीं ले पाते। मूल प्रश्न है कि कृषि को आपदाओं से संरक्षित और लाभदायक कैसे बनाया जाए ताकि किसान बैंकों से लिए गए ऋण को वापस कर सकें। ऐसा करने के लिए दो बातें परम आवश्यक हैं- एक कृषि उपज के लिए देश में मौजूद महंगाई के समानान्तर लाभकारी विक्रय मूल्य तय हों- दूसरे, उन्हें प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए व्यापक बीमा सुविधाएं दी जाएं। यह विडम्बना ही है कि किसान को अपनी उपज का विक्रय मूल्य स्वयं तय करने का भी अधिकार नहीं है। यह काम सरकारें करती हैं। किसान अपनी उपज को मनचाही जगह भी ले जाकर नहीं बेच सकता है। केन्द्र और राज्य सरकारें प्राय: रबी व खरीफ की फसल बोने से पहले उसका समर्थन मूल्य घोषित करती हैं। इसमें कभी भी दोतीन प्रतिशत से अधिक की वृद्धि नहीं की जाती बल्कि कई बार पिछले साल के मूल्य पर ही खरीद करती है जबकि इस दौरान देश में महंगाई कई गुना बढ़ चुकी होती है। उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों के साथ यही हो रहा है। वहां सरकार ने इस साल गन्ना क्रय मूल्य में कोई वृद्धि नहीं की। किसानों ने महंगाई के कारण कृषि लागत बढ़ने का हवाला दिया लेकिन सरकार चीनी मिल मालिकों के दबाव के आगे झुक गई। इस प्रश्न पर रिजर्व बैंक के गवर्नर को भी विचार करना चाहिए कि सरकार अपने कर्मचारियों को तो हर साल महंगाई भत्ता बढ़ाकर देती है जिससे वे बाजार में हुई कीमत वृद्धि को झेल लेते हैं लेकिन यही रवैया वह किसानों के लिए समर्थन मूल्य घोषित करने में क्यों नहीं अपनाती? रिजर्व बैंक को इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि देश के किसानों से जो अनाज सरकार एक हजार रुपये प्रति कुंतल में भी नहीं खरीदना चाहती उसी को विदेशों से ढाई हजार रुपये प्रति कुंतल के हिसाब से कैसे खरीद लेती है? सरकारें किसानों को समर्थन मूल्य और कर्जमाफी की बैसाखी लगा अपाहिज बनाए रखना चाहती हैं। कृषि आज भी देश का सबसे बड़ा क्षेत्र है और सबसे ज्यादा लोग इसी पर निर्भर हैं, इसके बावजूद इसे न उद्योग घोषित किया गया है और न उद्योगों जैसी सरकारी संरक्षा दी गई है। इसका एकमात्र कारण जान-बूझकर इसकी उपेक्षा करना है। इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि देश का सहकारी क्षेत्र का उर्वरक कारखाना इफको की सहकारी समितियों से उर्वरक खरीदने पर सदस्य किसान को बीमा की संरक्षा अपने आप प्राप्त हो जाती है। उर्वरक खरीद कर घर जा रहे किसान की यदि रास्ते में दुर्घटनावश मौत हो जाती है तो उसके आश्रितों को बीमा राशि मिल जाती है। यह योजना सफलतापूर्वक चल रही है। सवाल है कि ऐसे ही प्राकृतिक आपदा या अचानक बाजारभाव गिरने से नुकसान पर किसानों को बीमित फसल का लाभ क्यों नहीं मिलता है? केन्द्र की सत्ता में आने से पहले चुनावी सभाओं में तथा सत्ता में आने के बाद भी भाजपा नेताओं ने किसानों को उनकी उपज को ड्योढ़े दाम पर बिकवाने की बात की थी। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने हरियाणा विधानसभा चुनाव में भी यही बात की थी। सरकार अगर इतना भी कर दे तो किसान राहत की सांस ले सकेंगें लेकिन अभी कुछ होता नहीं दिख रहा है। ऐसे में गवर्नर रामन को जानना चाहिए कि या तो बीमार को बालानशीं बनाइए या फिर उसे बैसाखी लगाइए। अफसोस कि देश में वोट की राजनीति के चलते सरकारें बैसाखी लगा वोट खरीदना ही फायदेमंद समझती रही हैं। 0 0  ( Rashtriya Sahara 16 January 2015)जनवरी 16, 2015,शुक्रवार

Rashtaya Sahara      ज नवरी 16, 2015,शुक्रवार




Sunday, January 11, 2015

डॉक्टरों की निष्ठा पर उठते सवाल -- सुनील अमर

बीते आठ नवम्बर को बम्बई उच्च न्यायालय ने एक मुकदमे की सुनवाई करते हुए देश के चिकित्सकों पर जो टिप्पणी की, वह इस ‘दैवीय सेवा’ में आ चुकी गंभीर गिरावट को रेखांकित करती है। अदालत ने तिक्त स्वर में कहा कि ‘हममें से हर आदमी को कभी न कभी डॉक्टरों के हाथ परेशान होना पड़ता है।’ अदालत के विचार में अब चिकित्सकों के काम को सेवा नहीं कहा जा सकता। प्रतिवादी (अस्पताल) के वकील की दलीलों से आजिज आकर अदालत ने उन्हें झिड़कते हुए कहा कि यह मामला ही जानने को पर्याप्त है कि डॉक्टरों को करना क्या चाहिए और वे करते क्या हैं। ज्ञात हो कि इस मामले में एक निजी अस्पताल के डॉक्टर ने वहां भर्ती मरीज को ‘विजिट’
किए बिना ही उससे फीस वसूल ली थी। इससे भी ज्यादा गंभीर मामला डॉक्टरों की सर्वशक्तिमान संवैधानिक संस्था ‘मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया’ के संज्ञान में आया है। कुछ डॉक्टरों द्वारा एक दवा कंपनी से घूस लेकर उसकी अप्रत्याशित महंगी दवाओं को बिकवाने की शिकायत का संज्ञान लेते हुए काउंसिल ने प्रथम चरण में देश भर के ऐसे 300 दागी डॉक्टरों में से 150 को स्पष्टीकरण के लिए तलब किया जिसमें से 109 डॉक्टर बीते 17 नवम्बर को काउंसिल के समक्ष पेश हुए। तलब किए गए डॉक्टरों को उनके आयकर दाखिले, हालिया तीन साल के बैंक खातों के दस्तावेज तथा पासपोर्ट के साथ बुलाया गया। हैदराबाद की एक दवा कंपनी के विरुद्ध लगाए गए आरोप में कहा गया है कि इस कम्पनी ने उक्त डॉक्टरों को नकद रुपये, कार, मकान और सपरिवार विदेश यात्राओं की सुविधा मुहैया कराई। इतना ही नहीं, ऐसे डॉक्टरों के दवाखानों में टीवी लगाकर उस पर उक्त दवा कंपनी के विज्ञापन मरीजों को दिखाने को कहा गया और आरोपित डॉक्टरों ने ऐसा किया और इस सबके बदले में उन्होंने उक्त कम्पनी की ऐसी दवाएं मरीजों को लिखीं जो प्रतिष्ठित दवा कम्पनियों की दवाओं के मुकाबले तीन गुना ज्यादा महंगी थीं। जाहिर है, उक्त दवा कंपनी ने ऐसे डॉक्टरों पर खर्च किए अपने पैसों को कई गुना अधिक करके मरीजों से वसूल लिया। शिकायत में आंकड़े दिए गए हैं कि कैसे महज चार साल में ही इस नयी नवेली दवा कंपनी का कारोबार 400 करोड़ रुपयों का हो गया!
बदलते नियंतण्र परिवेश में स्वास्थ्य के लिहाज से शायद ही किसी व्यक्ति को पूरी तरह स्वस्थ कहा जा सके। दवा खरीदने में सक्षम हर व्यक्ति के घर में आज दवाएं रहती ही हैं और लोगों की डॉक्टरों के ऊपर निर्भरता बढ़ी है। ऐसे में धंधेबाज लोग मरीजों का गला काटने को पूरी निर्दयता के साथ तत्पर हैं। अब तो यहां तक कहा जाता है कि मरीज अपनी गरीबी के कारण नहीं, डॉक्टरों की लूट के कारण मर जाते हैं। यह ऐसा दुश्चक्र है जो डॉक्टरों की सहभागिता के बिना संभव नहीं। बम्बई उच्च न्यायालय की जो टिप्पणी अभी आयी है, कुछ वर्ष पूर्व इच्छा मृत्यु की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इससे भी सख्त रुख अपनाते हुए डॉक्टरों को कहा था कि इच्छा मृत्यु निर्धारित करने का काम हम आप पर नहीं छोड़ सकते। हम जानते हैं कि आप कैसे काम करते हैं!
भ्रष्ट डॉक्टरों को खरीदने के लिए दवा निर्माता कम्पनियां कैसे-कैसे हथकंडे अपना रही हैं, यह जानना दिलचस्प होगा। ऊपर घूस देने के जिन तरीकों के बारे में बताया गया है, उसके अलावा भी कई ऐसे रास्ते हैं जिनसे ऐसे डॉक्टरों को उपकृत कर कम्पनियां अपना मतलब हल करती हैं। इनमें से एक खतरनाक तरीका है- डॉक्टरों के नाम से प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नलों में शोध रपट छपवाना। ऐसी भी खबरें हैं कि बहुत सी दवा कंपनियां मेडिकल के छात्रों से शोधपरक लेख लिखवाकर उन्हें अंतरराष्ट्रीय मेडिकल जर्नलों में ऐसे डॉक्टरों के नाम से छपवाती हैं जिसका लेख की तैयारी में कोई योगदान नहीं होता। ऐसे लेखों के प्रकाशित होने से निसन्देह डॉक्टरों की प्रतिष्ठा बढ़ती है और बदले में डॉक्टर वो सब करते हैं जो ऐसा करने वाली दवा कंपनी चाहती है। यह वैसे ही है जैसे देश के कई विविद्यालयों में पीएचडी की उपाधि के बारे में कहा जाता है कि यह पैसा देकर लिखवा ली जाती है। दवाओं के अलावा कंपनियां यही खेल स्वास्थ्य सम्बन्धी उपकरणों के मामले में भी करती हैं। खबरें बताती हैं कि प्राणरक्षक स्वास्थ्य उपकरणों (जैसे हृदय संबधी बीमारी में लगाया जाने वाला पेसमेकर आदि) की बिक्री में डॉक्टरों की मिलीभगत से कई-कई गुना ज्यादा लाभ कमाया जा रहा है। इस सम्बन्ध में हुई कतिपय शिकायतों पर एमएफडीए यानी महाराष्ट्र फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने अपनी ताजा जांच में पाया कि ऐसे उपकरण बनाने वाली कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने भारतीय वितरकों को कई गुना ज्यादा दाम वसूलने की अनुमति दे रखी है बशत्रे इस तरह प्राप्त धन को डॉक्टरों को प्रभावित करने में लगाया जाय। एमएफडीए की रिपोर्ट में अमेरिका की ऐसी एक कंपनी मेडट्रॉनिक इनकापरेरेशन के बारे में बताया गया है कि कैसे इसके द्वारा निर्मित स्वास्थ्य उपकरण, जिसे डीईएस कहा जाता है, को इसकी भारतीय शाखा इंडिया मेडट्रॉनिक प्रालि को 30,848 रुपये में बेचा गया। इस शाखा ने इस उपकरण को एक वितरक को 67,000 रुपये में बेचा और इस वितरक ने इसे एक अस्पताल को एक लाख रुपये से अधिक में बेच दिया। ध्यान रहे कि इस उपकरण पर अधिकतम विक्रय मूल्य एक लाख बासठ हजार रुपये मुद्रित है! ज्यादा संभावना है कि अस्पताल ने अपने मरीजों से अधिकतम मूल्य ही वसूला होगा। इस विधा के जानकार बताते हैं कि ऐसे उपकरणों की उत्पादन लागत महज चार- छह हजार रुपये ही आती है लेकिन उन्हें मरीजों को 40 गुना अधिक मूल्य पर बेचा जाता है! जाहिर है, लूट का यह खेल डॉक्टरों की सहमति के बिना संभव नहीं। यूं मरीजों से लूट का यह खेल पूरी दुनिया में जारी है और इसकी जडें़ उन देशों में हैं जो अपने को विकसित और ज्यादा सभ्य बताते हैं। महाराष्ट्र एफडीए की जॉच में पता चला कि अमेरिका की मेडट्रॉनिक, जॉनसन एंड जॉनसन तथा एबॉट जैसी फार्मा कंपनियां दुनिया के सामने बेशक लंबी-लंबी बातें करती हैं लेकिन अपने देश में डॉक्टरों और वितरकों को घूस देकर मरीजों के शोषण के मामले में कई- कई बार दंडित हो चुकी हैं। इसी वर्ष मई में मेडट्रॉनिक इनकापरेरेशन ने अमेरिकी डॉक्टरों को घूस देकर उपकरण बिकवाने के आरोप में लगे जुर्माने पर सरकार को 61 करोड़ रुपये दिया था। यह कंपनी ऐसा करने की आदी है और 2011 में भी इसने लगभग डेढ़ अरब रुपये का जुर्माना इन्हीं आरोपों के चलते भरा था। एबॉट ने भी इन्हीं आरोपों के चलते 34 करोड़ तथा जॉनसन की सहयोगी तथा चार अन्य कम्पनियों ने 2007 में पौने दो अरब रुपये का जुर्माना दिया था लेकिन भारत में ये कंपनियां अपना और अपने धंधेबाज सहयोगियोें की जेबें भरने में बेहिचक लगी हैं। 0 0 ( Rastriya Sahara 22 N0v 2014)

Rashtaya Sahara     नवंबर 22, 2नवंबर 22, 2014014

उच्च शिक्षण संस्थानों के निम्नस्तरीय हथकन्डे --- सुनील अमर

देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में व्याप्त स्तरहीनता और कौशलविहीन पढ़ाई-लिखाई पर उच्च न्यायालयों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक कई बार सख्त टिप्पणिया कर चुका है लेकिन यह सिलसिला थम नहीं रहा है। लाखों-करोड़ों रुपए खर्च कर शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को उचित शिक्षा नहीं मिल रही है और हाल ही में
प्रधानमन्त्री ने भी स्वीकार किया है कि देश में आवश्यकता के अनुरुप योग्य छात्रों की कमी है। शिक्षा के क्षेत्र में आ रही इस गिरावट का सबसे चिन्तनीय पहलू यह है कि यह बहुत भयावह रुप में देश के तमाम मेडिकल कालेजों में भी व्याप्त है और वहां से बिना उचित संसाधन यानी अध्यापक और उपकरण बगैर ही शिक्षा पूरी कर छात्र बाहर निकल रहे हैं। जैसा कि एक अॅग्रेजी अखबार का दावा है कि ऐसे मेडिकल कालेज
ं के मानकों की जब मेडिकल काउन्सिल आफ इन्डिया द्वारा समय-समय पर जांच की जाती है तो उस समय ये एक-दो दिन के लिए बाहर से डाॅक्टरों को बुला कर अपने यहां कार्यरत दिखा देते हैं और इस एवज में ऐसे डाक्टरों को दो से चार लाख रुपये तक दिए जाते हैं! जाहिर है कि ऐसे कालेज मेडिकल काउन्सिल आफ इन्डिया के तन्त्र में अपना जुगाड़ रखने के कारण जाॅच टीम जाने के पहले ही सूचित होकर फैकल्टी की व्यवस्था कर लेते हैं। वहा पढ़ने वाले छात्र इसलिए इसकी शिकायत नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें कालेज प्रबन्धन द्वारा उत्पीडि़त किए जाने का डर होता है। ढि़ठाई का आलम तो यह है कि ऐसे कालेज अपनी वेबसाइट और विवरणिका आदि में संकाय यानी फैकल्टी को एकदम अप-टू-डेट दिखाते हैं! जैसी कि खबरें आती रहती हैं, ऐसे संस्थानों से छात्र अक्सर वांछित प्रयोग आदि किए बिना ही शिक्षा पूरी कर लेते हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि अपने व्यावहारिक जीवन में वे मरीजों का कैसा उपचार करते होंगें।
             भ्रष्टाचार की यही कहानी इंजीनियरिंग और प्रबन्धन के संस्थानों की भी है। इनकी वेबसाइट देखने पर तो लगता है कि ये कालेज न होकर किसी विश्वविद्यालय की फैकल्टीज हैं और उसी की तर्ज पर तमाम भारी-भरकम पदों का सृजन किए रहते हैं लेकिन सच्चाई, उपर वर्णित मेडिकल कालेजों जैसी ही है। ऐसे ज्यादातर संस्थानों में प्रैक्टिकल के लिए उपयुक्त प्रयोगशालाऐं और उपकरण ही नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में तो 767 संस्थान वहां के तकनीकी विश्वविद्यालय में पंजीकृत हैं! इनका हाल यह है कि वहां छात्रों से ज्यादा फीस लेने के अलावा उन्हें सरकार से मिलने वाली शुल्क वापसी की अरबों रुपये की धनराशि में भारी घपले की शिकायतें हैं और कई संस्थानों के खिलाफ मुकदमे भी चल रहे हैं। प्रबन्धतन्त्र की दबंगई का आलम यह रहता है कि वे अपने प्रभाव वाले बैंकों में अपने संस्थान के छात्रों के खाते खुलवा कर और उनसे हस्ताक्षर करवा कर चेक ले लेते हैं। शुल्क वापसी की धनराशि जब छात्र के बैंक खाते में आती है तो उसे प्रबन्धतंत्र निकाल लेता है! विश्वविद्यालय की परीक्षा व्यवस्था ऐसी है कि मूल्यांकन का आधा अधिकार संस्थान प्रबन्धन के पास होता है और वे छात्रों को भयभीत किए रहते हैं। फैकल्टी का आलम यह है कि जो अधकचरे लोग रखे भी जाते हैं वे शैक्षणिक सत्र के बीच में ही संस्थान छोड़कर चले जाते हैं और छात्रों की पढ़ाई बाधित होती रहती है। पर्सनैल्टी डेवलेपमेन्ट (व्यक्तित्व विकास) और लैंगुएज सरीखे विषयों के लिए तो अध्यापक ही नहीं रखे जाते। यही कारण है कि ऐसे संस्थानों से 7-8 लाख रुपये खर्च कर इंजीनियरिंग या प्रबन्धन की पढ़ाई करने वाले छात्रों में ऐसी कुशलता आ ही नहीं पाती कि उन्हें कहीं नौकरी मिल सके।
             इसका नतीजा यह हुआ है कि अब ऐसे भी संस्थान अस्तित्व में आ गए हैं जो तकनीकी और प्रबन्धन की पढ़ाई कर निकले छात्रों से मोटी फीस के बदले चार-छह महीने का पाठ्यक्रम करवा कर उन्हें उनसे सम्बन्धित कार्य-अवसरों के लिए दक्ष बनाने का दावा करते हैं। बावजूद इसके न तो सम्बन्धित विश्वविद्यालय और न ही मन्त्रालय, कोई भी इन तकनीकी और प्रबन्धन संस्थानों से नहीं पूछता कि आखिर आपकी चार- पांच साल की पढ़ाई से छात्र दक्ष क्यों नहीं हो पा रहे हैं। वर्ष 2008 में आई वैश्विक मन्दी के बाद से हाल यह है कि कम्पनिया ऐसे छात्रों को चार- पांच हजार रुपये मासिक वेतन पर भी नौकरी देने को तैयार नहीं हो रही हैं क्योंकि ऐसे छात्रों की भारी भीड़ नौकरी के लिए मौजूद है। देश की एक प्र्रमुख उड्डयन कम्पनी तो ऐसे नवजात मेकैनिकल इन्जीनियरों को छह माह से लेकर साल भर तक बिना एक पैसा दिए काम पर रखती है और कहती है कि हम इन्हें प्रशिक्षण दे रहे हैं!
मानदण्डों के उल्लंघन और छात्रों के शोषण का यही सिलसिला बी.एड. कालेजों में भी चल रहा है।
              निर्धारित से दो गुना ज्यादा फीस और तमाम तरह के अघोषित शुल्क लेने के बावजूद शिक्षण-प्रशिक्षण का स्तर उपर वर्णित मेडिकल और तकनीकी संस्थानों जैसा ही है। छात्रों से हो रही खुलेआम लूट पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कुछ वर्ष पूर्व व्यवस्था बनाई कि काउन्सिलिंग के समय ही निर्धारित फीस का बैंक ड्राट वहा मौजूद सम्बन्धित कालेज के स्टाफ को देना होगा लेकिन कालेज द्वारा लूट करने की गुंजाइश यहा भी छोड़ दी गई। आयोग ने यह व्यवस्था नहीं बनाई कि छात्र को ड्राट देने पर वहीं प्रवेश का प्रमाण पत्र भी दे दिया जाय ताकि वे कालेज प्रबन्धन के शोषण से बच सकें बल्कि उन्हें कालेज में जाकर प्रवेश लेने के लिए पाच दिन का समय दिया गया। वहां जाने पर कालेज प्रबन्धन छात्रों से अतिरिक्त धन की मांग करते हैं। छात्रों द्वारा अस्मर्थता व्यक्त करने पर उन्हें पांच दिन दौड़ा कर समय सीमा बीत जाने का भय दिखाकर वसूली की जाती है। इस स्थिति में इधर महज यह परिवर्तन आया है कि अब बी.एड. कालेजों की अधिकांश सीटें खाली जा रही हैं तो प्रबन्धन जैसे-तैसे भी प्रवेश ले ले रहा है। बहुत सारे बी.एड., तकनीकी और प्रबन्धन कालेज बन्द होने की कगार पर हैं।
               देश में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाऐं तीन चैथाई के करीब निजी क्षेत्र में ही हैं। इसलिए इनमें जाने वाले लोगों का बहुविधि शोषण स्वाभाविक ही है। निजी क्षेत्र का ध्येय वाक्य - ‘शुभ और लाभ’ होता है। वह अपने व्यवसाय का शुभ और उससे लाभ कमाना चाहता है। इन पर नियन्त्रण रखने की जिम्मेदारी सरकारी तन्त्र की होती है जो कि अपने न्यस्त स्वार्थों के चलते खुद ही इस लूट में शामिल हो जाता है। देश में ऐसे विशिष्ट शिक्षा प्राप्त बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही है जिन्होंने लाखों रुपए का बैंक ऋण लेकर पढ़ाई की है। बैंक ने एक निश्चित समयावधि यानी कोर्स पूरा होने तक के लिए ही ऋण देते हैं और उम्मीद करते हैं कि इसके बाद छात्र रोजगार प्राप्त कर ऋण लौटाना शुरु कर देगा लेकिन जिस तरह की उच्च शिक्षा छात्रों को मिल रही है उससे बेरोजगारी ही बढ़ रही है। बैंकों का ऋण भी फॅंस रहा है। इस स्थिति से निकालने की जिम्मेदारी सरकार पर ही आती है। ऐसी संस्थाओं की निगरानी की सख्त व्यवस्था ही छात्रों को कौशलपूर्ण शिक्षा दे सकती है जो अंततः उन्हें समय पर रोजगार दिला सकेगी। सरकार को यह भी ध्यान देना होगा कि बैंकों का बहुत सारा धन ऐसी हजारों संस्थाओं में लग चुका है और खबरें बताती हैं कि ऐसे अधिकांश संस्थान भारी घाटे में चल रहे हैं। इसलिए शिक्षण-प्रशिक्षण के ऐसे कार्यक्रम बनाए जाने की जरुरत है जिससे स्थापित हो चुकी संस्थाओं और उनमें पढ़ने वाले छात्रों, दोनों का भला हो सके।
 
  संस्करण: 08 दिसम्बर2014

स्त्री अधिकारों की तस्वीर इतनी भयावह क्यों ? -- सुनील अमर

    कुछ ताजा खबरें हैं जिन्हें इकठ्ठा करके पढ़ना स्त्री अधिकारों के लिए भयकारी और मर्द जाति के लिए शर्मिन्दगी का बायस बनता है। ईरान में गत सप्ताह एक युवती को इसलिए फाॅंसी पर लटका दिया गया क्योंकि उससे बलात्कार की कोशिश कर रहे एक पूर्व सरकारी जासूस को उसने मार दिया था, हरियाणा में एक ऐसा व्यक्ति मुख्यमंत्री बन गया है जिसका सार्वजनिक रुप से मानना है कि बलात्कार के लिए औरतें खुद जिम्मेदार होती हैं, केन्द्र में सत्तारुढ भाजपा की मोदी सरकार ने अदालत को अपना नजरिया बताया है कि यदि किसी अविवाहित स्त्री के बच्चा है तो उसे यह बताना लाजिमी होगा कि यह बच्चा बलात्कार से तो नहीं पैदा हुआ है और उत्तर प्रदेश की पुलिस ने लिखित में स्वीकार किया है कि जीन्स पहनने और मोबाइल फोन इस्तेमाल करने के कारण ही लड़कियों के साथ ज्यादातर बलात्कार होता है! स्त्रियों के बारे में ऐसी ही राय बहुत से न्यायाधीशों, विचारकों तथा साधु-सन्तों की भी है। बलात्कार के कई मामलों में जेल में बन्द एक स्वयंभू बापू ने तो दिल्ली निर्भया कान्ड के बाद यह कह कर अपने चरित्र का परिचय दे दिया था कि- ‘लड़की को बलात्कारियों के पैरों में पड़ जाना चाहिए था तो उसकी हत्या न होती!’ हालांकि तब तक उनके बलात्कार के मामलों का खुलासा नहीं हुआ था।
 इस क्रम में ताजा विचार उत्तर प्रदेश पुलिस का प्राप्त हुआ है। सूचना के अधिकार के तहत जिला पुलिस प्रमुखों से जानकारी मांगी गई थी कि उनके जिले में बलात्कार के कितने मामले हैं, उनके निराकरण के लिए क्या कदम उठाए गए और इस अपराध के कारण क्या हो सकते हैं। जवाब में प्रदेश की लगभग सभी जिला पुलिस ने एक जैसा विचार व्यक्त करते हुए बताया है कि बलात्कार के कारणों में लड़कियों का पहनावा, पश्चिमी संस्कृति का अनुकरण और मोबाइल फोन प्रमुख कारण है। चाहिए तो यह कि सूचना कार्यकर्ता लोकेश खुराना उत्तर प्रदेश पुलिस से एक जानकारी और मांगते कि जब पश्चिमी संस्कृति, पहनावा और मोबाइल फोन नहीं थे तब क्या बलात्कार नहीं होते थे? ‘तहलका’ पत्रिका ने भी गत वर्ष महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों पर दिल्ली के पुलिसवालों का साक्षात्कार प्रकाशित किया था जिसका निष्कर्ष था कि सिर्फ दो पुलिस वालों को छोड़कर शेष सभी की राय थी कि जो महिलाएं बलात्कार की शिकायत दर्ज कराने आती हैं वे या तो अनैतिक, स्वच्छन्द स्वभाव की चरित्रहीन होती हैं या वेश्याएं होती हैं और वे पुरुषों को ब्लैकमेल करना चाहती हैं !
  स्त्रियों के प्रति होने वाले अपराधों में तुलनात्मक रुप से सारी दुनिया में बढ़ोत्तरी हुई है। बचाव के नये और ज्यादा सक्षम कानूनों, आपराधिक जांच  प्रणाली में हुआ वैज्ञानिक विकास तथा समाज में आई जागरुकता और खुलेपन के बावजूद स्थिति का बयान प्रख्यात नारीवादी लेखिका तस्लीमा नसरीन के शब्दों में किया जा सकता है कि- ‘औरतों के लिए कोई भी देश सुरक्षित नहीं।’ कहने को तो हम पहले से कहीं ज्यादा सभ्य हुए हैं और दिनोंदिन ज्यादा सभ्य होते भी जा रहे हैं लेकिन स्त्रियों के प्रति हमारा नजरिया और ज्यादा तंग होता जा रहा है। पिछले कई हजार वर्षों की तरह हम आज भी औरतों को दोयम दर्जे का इन्सान ही मानते-समझते हैं। ब्रिटेन को लोकतन्त्र की जननी कहा जाता है लेकिन वहां भी स्त्रियों को वोट देने का अधिकार अभी कुछ दशक पूर्व ही मिला है और इसी तरह अमेरिका में भी। ईसाई धर्म को बहुत उदार और परोपकारी बताकर प्रचार किया जाता है लेकिन उसका स्पष्ट मानना है कि स्त्री का कोई अलग अस्तित्व नहीं बल्कि उसे तो मर्द की पसली से बनाया गया है।
  बलात्कार अगर कमअक्ल, सिरफिरे या अपराधियों द्वारा ही किया जा रहा होता तो माना जाता कि इनकी शिक्षा-दीक्षा और रहन-सहन दुरुस्त किए जाने की जरुरत है लेकिन जैसा कि आॅकड़े उपलब्ध हैं, मर्दों के सारे प्रकार बलात्कार में शामिल पाए जाते हैं। न्यायाधीश, उच्च नौकरशाह, वरिष्ठ राजनेता, सांसद,विधायक, लेखक,पत्रकार, डाॅक्टर, प्रोफेसर, सफल उद्योगपति और दुनिया की बड़ी आबादी को मोहित और प्रभावित करने वाले साधु-सन्यासी भी बलात्कार के जुर्म में जेलों में बन्द हैं। इस प्रकार माना यह जाना चाहिए कि यह प्रवृत्ति व्यक्ति में विचारों के कारण पनपती है। विचार की जहां तक स्थिति है उसमें उपर गिनाई गई श्रेणी के लोगों के विचार ही इस कृत्य को पोषित करने का काम करते हैं। संत कहे जाने वाले कवि तुलसीदास का भी ऐसा ही मत है- ‘जिम स्वतन्त्र होय बिगरैं नारी।’ कल्याणी मेनन और शिवकुमार द्वारा वर्ष 1996 में लिखित पुस्तक ‘भारत में स्त्रियां’ में औरतों के खिलाफ हिंसा के बारे में 109 न्यायाधीशों के साक्षात्कार का निचोड़ दिया गया है जिसमें 48 प्रतिशत न्यायाधीशों का मानना था कि कुछ मौंकों पर पति द्वारा पत्नी को थप्पड़ जायज होता है, 74 प्रतिशत का मानना था कि परिवार को टूटने से बचाना औरत का पहला सरोकार होना चाहिए चाहे उसके लिए उसे हिंसा का सामना क्यों न करना पड़े। 68 प्रतिशत का मानना था कि औरतों का उत्तेजक कपड़े पहनना यौन हमले को बुलावा देना है तथा 55 प्रतिशत का मानना था कि बलात्कार के मामले में औरत के नैतिक चरित्र की अहमियत है ! हो सकता है कि इसी दृष्टिकोण के चलते देश की अदालतों में बलात्कार के एक लाख सात हजार एक सौ सैंतालिस से अधिक मुकदमें लटके पड़े हैं। 333 मामले तो सर्वोच्च न्यायालय में ही पड़े हैं। राजनेताओं की सोच तो और भी भयानक है। तृणमूल कांग्रेस के विधायक और अभिनेता चिरंजीत ने दो साल पूर्व बलात्कार की एक घटना पर अपनी राय व्यक्त की थी कि लड़कियों का बलात्कार उनकी छोटी स्कर्ट की वजह से होता है और इसके लिए महिलाऐं खुद ही जिम्मेदार होती हैं। दो साल पूर्व मध्य प्रदेश के उद्योगमंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने भी अपनी मानसिकता उजागर की थी कि महिलाऐं लक्ष्मण रेखा लाघेंगीं तो रावण आएगा ही तो गत वर्ष छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ननकी राम कॅवर ने एक सरकारी संरक्षणगृह में आदिवासी गरीब लड़कियों के साथ हुए बलात्कार के मामले पर कहा था कि बलात्कार के लिए ग्रह-नक्षत्र जिम्मेदार होते हैं! समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव कहते हैं कि लड़कों से गलती हो ही जाती है! इससे भी कमाल का दृष्टिकोण संघ प्रमुख मोहन भागवत का है कि ‘रेप भारत में नहीं इन्डिया में होता है’!
  दुनिया की आधी आबादी को आज भी इन्सान नहीं माना जाता। उसका शारीरिक ही नहीं मानसिक शोषण भी कदम-कदम पर किया जाता है। एक ताजा सर्वेक्षण बताता है कि दिल्ली में 1669 स्कूली लड़कियों पर महज एक शौचालय की सुविधा है। ऐसे में जरुरत पड़ने पर लड़कियां खुले में नहीं तो और कहां जाऐंगी और फिर मर्दवादी सोच वाले कहेंगें कि ये बलात्कारियों को आमन्त्रित करती हैं! सरकारें महिला अधिकारों की बातें तो करती हैं लेकिन सच्चाई देखिए कि देश की पुलिस में महिलाऐं सिर्फ 5 प्रतिशत ही हैं। नागरिक अधिकारों की सबसे प्रबल पैरोकार और संरक्षक अदालतों के कार्यस्थल में भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं और गत वर्ष इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने महिला वकीलों और वादकारियों के साथ हो रही घटनाओं से चिन्तित होकर एक अधिकारी की तैनाती की जो ऐसे मामलों को दर्ज कर सके। जिस तरह कार्यस्थल पर महिलाओं को पुरुषों से भिन्न आवश्यकता की मानकर संसाधन मुहैया कराए जाते हैं उसी तरह उनके जीवनयापन के प्रत्येक क्षेत्र को जब तक उनके अनुकूल सुरक्षित नहीं किया जाता तब तक उनकी बेहतरी की बात करना महज किताबी ही होगी। 0 0           
   संस्करण: 10 नवम्बर2014