Thursday, October 03, 2013

महिलाओं की सेवा शर्तों में बदलाव जरुरी --- सुनील अमर


रेलू जिम्मेदारियों के कारण महिलाओं द्वारा नौकरी या रोजगार छोड़ देना एक आम बात है लेकिन हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि इसे बहुत गम्भीरता से नहीं लिया जाता, मानो ऐसा होना स्वाभाविक ही हो। सामान्य के अलावा योग्य और प्रतिभावान महिलाओं को भी ऐसा करना पड़ता है और इस प्रकार संस्थान योग्य कार्यकर्ताओं से वंचित हो जाते हैं। भारत जैसे देश में जहाँ कई करोड़ परिवार अपनी महिला सदस्य की कमाई से ही चलते हैं, ऐसा होने पर भुखमरी के कगार पर आ जाते हैं और वहाँ बिखराव शुरु हो जाता है। सुखद है कि संसद की एक स्थाई समिति ने गत दिनों एक बहुप्रतीक्षित रपट पेश कर इन परिस्थितियों को सुधारने हेतु कानून बनाने और संशोधित किये जाने की मॉग की है।
              कामकाजी महिलाओं के लिए कई प्रकार की चुनौतियाँ सामने आती हैं। घर से बाहर कदम रखते ही उन्हें तमाम तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। लैंगिक भेदभाव तथा छेड़छाड़ की घटनाऐं उनके साथ विकसित देशों में भी वैसे ही होती है जैसे तथाकथित तीसरी दुनिया के देशों में। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि इस मामले में एक अनपढ़ मजदूर स्त्री और खूब पढ़ी-लिखी स्त्री की स्थिति एक जैसी ही होती है। समान काम के लिए मजदूर स्त्री को पुरुष मजदूर के मुकाबले अगर मजदूरी कम दी जाती है तो निजी क्षेत्र के दतरों में भी उसे वेतन कम दिया जाता है, जबकि कार्य और कार्य के घंटे एक समान ही होते हैं। दुनिया का कोई भी पिछड़ा या विकसित देश हो या घने जंगलों के बीच रहने वाला कबीला, हर जगह औरत की भूमिका मर्दों से कई गुना अधिक होती हैं क्योंकि वह न सिर्फ मर्द के कन्धो से कन्धाा मिलाकर काम करती है बल्कि काम के बाद या साथ-साथ उसे घर और बच्चों को भी संभालना पड़ता है। यह एक आम दृश्य है कि पति-पत्नी अगर साथ-साथ काम पर से लौटें तो पति आराम फरमाने लगता है और पत्नी उसके चाय नाश्ते का प्रबंध कर घर, चौका और   बच्चों को संभालने में लग जाती है। कार्यस्थलों पर एक स्त्री को पुरुषवादी नजरिये से कमतर  जरुर ऑंका जाता है लेकिन तमाम सर्वेक्षणों के नतीजे बताते हैं कि अपने पुरुष सहकर्मी के मुकाबले एक स्त्री कर्मचारी/अधिकारी का कार्य निष्पादन कहीं बेहतर और समय से होता है।
               स्त्री का माँ बनना एक प्राकृतिक गुण है। समाज व राष्ट्र के अस्तित्व लिए भी यह अपरिहार्य है। एक स्त्री अगर माँ बनती है तो उसके हर प्रकार की अधिकारों की रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है। यह कर्तव्य तब और व्यापक हो जाता है अगर वह स्त्री कामकाजी है। कामकाजी स्त्री राज्य के लिए कई प्रकार से उपयोगी होती है। वह न सिर्फ राज्य के कार्यो का यथासामर्थ्य निष्पादन करती है बल्कि राज्य को एक परिवार और नागरिक भी देती है। अफसोस की बात है कि इतना होने पर भी कार्यस्थल पर  उसकी स्त्रीगत समस्याओं की तरफ से राज्य लगातार उदासीन है। यही कारण है कि जब घर या नौकरी में से एक चुनने की बात आती है तो स्त्री नौकरी छोड़ देती है। यह समस्या सरकारी क्षेत्र से लेकर निजी क्षेत्र तक व्याप्त है। निजी क्षेत्र में अक्सर ऐसा होता है कि स्त्री कर्मचारी गर्भवती होने के बाद जब अवकाश लेती है तो उसकी जगह पर किसी और की नियुक्ति कर ली जाती है। संसद की एक स्थाई समिति 'कार्मिक, विधि एवं जनशिकायत' ने कामकाजी महिलाओं की समस्या का  व्यापक अध्ययन कर गत दिवस अपनी रपट पेश की है। समिति की संस्तुति है कि नौकरी करने वाली महिलाओं, खासकर युवतियों को काम के घंटों में रियायत दी जानी चाहिए क्योंकि उन्हें अपना घर-परिवार भी संभालना पड़ता है। इसी प्रकार माँ बनने वाली कामकाजी स्त्री के लिए मातृत्व अवकाश भी 180 दिन वेतन सहित करने का सुझाव दिया गया है। समिति ने यह भी पाया है कि नौकरी करने वाले दम्पत्ति को एक ही स्थान पर नियुक्त किए जाने की व्यवस्था पर्याप्त नहीं है और इसे अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। कॉग्रेस सांसद शांताराम नायक की अध्यक्षता वाली इस समिति ने पाया कि कार्यस्थल पर हो रहे महिलाओं के यौन उत्पीड़न के मामलों में कार्यवाही बेहद असंतोषजनक है। रिपोर्ट में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि 'समिति का यह मानना है कि महिलाओं और युवा माँओं के लिए कामकाज के लचीले घंटों  तथा घर से काम करने की नीति अपना कर उन्हें कार्यालय और घर के बीच बेहतर संतुलन कायम करने में मदद की जा सकती है।'
       समिति ने सुझाव दिया है कि अगर एक कामकाजी महिला के काम छोड़ने का यही मुख्य कारण है तो इससे उचित तरीके से निपटा जा सकता है। इससे अनुभवी और कुशल कर्मचारियों को बनाये रखा जा सकेगा तथा नये कर्मचारियों को भर्ती करने  और उनके प्रशिक्षण में लगने वाले श्रम से बचा जा सकेगा। दुनिया में 120 से अधिक देश ऐसे हैं जो अपनी महिला कर्मचारी को मातृत्व अवकाश तथा नवजात के पालन-पोषण हेतु वेतन सहित अवकाश देते है। अवकाश व वेतन की स्थितियाँ हर देश में अलग-अलग हैं लेकिन अपने देश में तो सरकारी विभागों में ही इस मामले में एकरुपता नहीं है। यह अवकाश 90 दिन से लेकर 135 दिन तक का है। इस स्थिति से नाराज उक्त समिति ने सरकार से कहा है कि मातृत्व अवकाश 180 दिन तथा नवजात के पालन पोषण का अवकाश 730 दिन का वेतन सहित होना चाहिए तथा यह सरकारी व निजी क्षेत्र में समान रुप से लागू हो। अक्सर होता यह है कि जो निजी संगठन उक्त अवकाश दे भी देते है, वे इस काल का वेतन नहीं देते जिससे महिलाऐं मातृत्व अवकाश प्राय: बहुत सीमित तथा पालन पोषण अवकाश लेती ही नहीं है। समिति का यह सुझाव भी काफी प्रभावशाली है कि यदि घर से काम करना संभव हो तो महिला कर्मी को घर से ही काम करने की अनुमति होनी चाहिए ताकि वह घर भी संभाल सके।
              महिला कर्मचारियों के काम के घंटे कम करने व उन्हें घर परिवार हेतु अवकाश देने की अवधारणा नयी नहीं है। दुनिया के कई देशों में ऐसा हो चुका है। अमेरिकी कहर के शिकार हुए इराक के पूर्व राष्ट्रपति स्व. सद्दाम हुसैन ने अपने देश में स्त्रियों को अभूतपूर्व सुविधा व अधिकार दे रखा था। उनके कार्यकाल में महिला कर्मचारी सिर्फ आधो समय कार्य करती थीं और वेतन उन्हें पूरा मिलता था। सद्दाम का मानना था कि माँओं द्वारा देश के लिए योग्य नागरिक तैयार करना आफिस में कार्य करने से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। इराक में पत्नी को तलाक देने वाले को अपनी सारी सम्पत्ति तलाकशुदा पत्नी को देनी पड़ती थी। लीबिया के शासक कर्नल मुअम्मर गद्दाफी ने भी स्त्रियों व नागरिकों को तमाम तरह की वो सुविधाऐं दे रखी थीं जो अति विकसित कहे जाने वाले देशों के लिए भी संभव नहीं। स्थायी समिति के सुझाव बहुत कारगर और दूरगामी परिणाम देने वाले हैं। मौजूदा समय में जबकि समाज पर कई तरह के खतरे हमलावर हैं, मॉओं को राज्य से उक्त सहूलियतें मिलनी ही चाहिए। हम देख ही रहे हैं कि बच्चों को पालने की जिम्मेदारी से बचने के लिए आज देश की युवतियों में लिव इन रिलेशनशिप का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। यह कल्पना ही आतंकित करती है कि हमारे युवा बच्चे पैदा करना बंद कर दें। फिर परिवार और समाज कहॉ से बनेगा! अंतत: बच्चे राज्य की जिम्मेदारी हैं। बेहतर हो कि राज्य इसे प्राथमिक स्तर से ही कबूल करना शुरु कर दे।

    

Friday, April 26, 2013

महत्त्वाकांक्षा की फिसलन और आडवाणी --- सुनील अमर


भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी उम्र के सबसे परिपक्व दौर में हैं। इस उम्र में सार्वजनिक जीवन जी रहे किसी व्यक्ति से वैचारिक स्थिरता की उम्मीद की जाती है, फिसलन की नहीं लेकिन बीते सात-आठ वर्षों में श्री आडवाणी ने कई तरह के परस्पर विरोधी बयान देकर अपनी राजनीतिक स्थिति और भविष्य मजबूत करने की कोशिश की है। ये और बात है कि उनके ऐसे प्रयास उनकी वर्षों से संचित और अर्जित राजनीतिक हैसियत को लगातार छीज रहे हैं। राजनीति दाॅव-पेंच का खेल है। बहुत बार ऐसा होता है कि पुराने महारथियों के भी दाॅव उल्टे पड़ते रहते हैं। श्री आडवाणी के दाॅव उल्टे भले ही पड़ रहे हों लेकिन एक बात तो स्पष्ट ही है कि उनके अंदर महत्त्वाकांक्षा कूट-कूट कर भरी है। भाजपा में इस समय जबकि पुराने हो चले नेताओं को सायास या अनायास नेपथ्य में करने का अभियान सा चल पड़ा ह,ै आडवाणी की लिप्सा बताती है कि राजनीति में कोई कभी रिटायर नहीं होता।
गत सप्ताह श्री आडवाणी ने पार्टी नेताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि अयोध्या आंदोलन पर शर्म नहीं गर्व करने की जरुरत है। उनका तात्पर्य वर्ष 1992 में अयोध्या में किये गये बाबरी मस्जिद विध्वंस से था। भारतीय राजनीति के इतिहास में शायद ही ऐसा कोई और उदाहरण मिले जिसमें किसी राजनीतिक दल के वरिष्ठ नेताओं ने अपने किसी कृत्य पर कई-कई बार बयान बदला हो। आज श्री आडवाणी जिस बात पर गर्व करने की सलाह अपने नेताओं को दे रहे हैं, वर्ष 2005 में पाकिस्तान स्थित अपने जन्म स्थान के दौरे पर जाने पर वहाॅ उन्होंने इस घटना को शर्मनाक बताया था और ऐसा उन्होंने पाकिस्तान के पितृ पुरुष कायदे आजम जिन्ना की समाधि  पर जाकर कहा था। वर्ष 1992 में बाबरी विध्वंस के समय भाजपा नेता कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और उन्होंने अदालत को बाबरी मस्जिद की रक्षा का वचन दे रखा था लेकिन जब उन्हीं के नेतृत्व में मस्जिद गिरा दी गयी तो उन्होंने तथा उनकी पार्टी ने गर्वोक्ति की थी कि ‘जो कहा, सो किया’। इसके लिए वे जेल भी गये। ये और बात है बाद के दिनों में जब कल्याण सिंह भाजपा से निकाल दिये गये तो उन्होंने सार्वजनिक रुप से कई बार कहा कि उन्हें तो अंधेरे में रखकर बाबरी विध्वंस को अंजाम दिया गया। समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव से गलबहियाॅ करते समय तो उन्होंने इसे और भी विस्तार से कई बार बताया था लेकिन राजनीति का तकाजा देखिए कि वही कल्याण सिंह आज फिर से भाजपा में हैं। आडवाणी आज गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी से मात खाते दिख रहे हैं लेकिन यही आडवाणी हैं जिनकी सार्वजनिक तौर पर की गई मदद के कारण ही नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर टिके रह सके थे। 2002 के गुजरात दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी राजधर्म का पालन न कर सकने के कारण मोदी सरकार को ही बर्खास्त करना चाह रहे थे लेकिन उस वक्त श्री आडवाणी ही थे जिनके जिद पकड़ लेने के कारण वाजपेयी को पीछे हटना पड़ा था। तब आडवाणी की निगाह में नरेन्द्र मोदी से बड़ा कोई सूरमा नहीं था। श्री आडवाणी का तब का वैचारिक प्रेत आज वास्तविक आकार ले चुका है। क्या यह कहना अप्रासंगिक होगा कि मोदी आडवाणी के लिए राजनीतिक भस्मासुर साबित हो रहे हैं?
श्री आडवाणी एक लम्बे अरसे से प्रधानमंत्री पद के इच्छुक हैं। आधुनिक भारत के राजनीतिक इतिहास में शायद ही कोई व्यक्ति इस तरह से इस पद के लिए प्रतीक्षारत रहा हो। समाचार माध्यम उन्हें लगातार प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री या पी.एम. इन वेटिंग लिखते आ रहे हैं लेकिन याद नहीं पड़ता कि श्री आडवाणी ने कभी इस पर कोई आपत्ति या खंडन किया हो। महज एक दशक पहले की बात है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भाजपा को साथ लेकर तो चलता था लेकिन वह आॅखें नहीं तरेर सकता था क्योंकि तब भाजपा अपने राजनीतिक  उफान पर थी लेकिन आज वही संघ भाजपा की बाहें मरोड़ रहा है। भाजपा के तपे-तपाये नेताओं को बर्खास्त कर रहा या उन्हें गुमनामी के गर्त में ढ़केल रहा है। के. गोविंदाचार्य, साध्वी ऋतम्भरा, मुरली मनोहर जोशी, बंगारु लक्ष्मण, जसवंत सिंह, कल्याण सिंह, संजय जोशी, विनय कटियार आदि ऐसे अनेक नाम हैं जिन्हें इस्तेमाल करने के बाद संघ ने इनका बस्ता बाॅध दिया। जिन्ना की समाधि पर उनकी तारीफ के कसीदे पढ़ने के बाद से श्री लालकृष्ण आडवाणी संघ में अपनी पुरानी हैसियत खो बैठे हैं और लगभग तभी से जैसे संघ ने तय कर लिया हो कि अब उसे इनकी जरुरत नहीं रही। संघ ने उन्हें कदम-कदम पर अपमानित किया। कुछ माह पूर्व मुम्बई में हुई पार्टी की बैठक आड़वाणी और सुषमा स्वराज ने क्षुब्ध होकर छोड़ दी थी। इसी बैठक में मोदी का इकबाल बुलंद किया गया था और उनकी जिद पर संजय जोशी को पार्टी से निकाला गया था।
मोदी पर संघ का पूरा आशीर्वाद है। उसी का बिल्कुल उल्टा आडवाणी के साथ है। बावजूद इसके आडवाणी अगर मैदान में डटे हैं तो यह उनका राजनीतिक तजुर्बा है जो उन्हें बताता है कि भारतीय राजनीति में कुछ भी संभव है। मोदी अगर मैदान से हट जाॅय तो स्वाभाविक है कि आडवाणी फिर से अपनी पुरानी स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं। मोदी को इस दौड़ से हटाने के लिए आडवाणी के कूटनीतिक प्रयास जारी हैं। मोदी अगर किसी भी तरह इस दौड़ से हट जाॅय तो संघ उन्हें आगे कर सके, इसकेे लिए वे संघ को खुश करने और उसकी नजर में गुड ब्वाय बनने के तमाम प्रयास कर रहे हैं। अयोध्या संध का प्रिय मुद्दा है तो अब श्री आडवाणी अयोध्या कांड पर गर्व कर रहे हैं जबकि इस कांड की जाॅच के लिए नियुक्त आयोग और अदालत के समक्ष वे बार-बार कह चुके हैं कि उन्होंने अपनी तरफ से अयोध्या में इकठ्ठा और उग्र कारसेवकों को रोकने की पूरी कोशिश की थी। किसी पद की लिप्सा किस तरह वयोवृद्ध लोगों को भी हास्यास्पद ढ़ॅग से पलटी मारने को विवश कर देती है, श्री आडवाणी इसके उदाहरण हैं। अनुकूलित किये गये समाचार माध्यम चाहे जो प्रचार करें, सच ये है कि मोदी को इस तरह सबके उपर थोपे जाने से भाजपा में एक बड़ा वर्ग काफी नाखुश है। आडवाणी ने भाजपा में एक काफी लम्बी पारी बहुत सफलतापूूर्वक और दबंगई से खेली है और इस नाते उनके पास नेता व कार्यकर्ता दोनों हैं। ये लोग मानते हैं कि संघ का मोदी कार्ड कहीं नितिन गड़करी की गति को न प्राप्त हो जाय। जदयू का दबाव अपनी जगह पर है। जिस तरह से शरद यादव अपने दल के सिद्धांतों की बातें कर मोदी प्रकरण पर भाजपा को अर्दब में लेने की कोशिश कर रहे हैं और कह रहे हैं कि सिद्धांत भी कोई चीज होती है उससे यही माना जाना चाहिए कि अगर चुनाव पूर्व उनका भाजपा से तालमेल बिगड़ा तो वह चुनाव बाद भी वैसा ही रहेगा क्योंकि पार्टी के यही सिद्धांत तो तब भी रहंेगें। राजनीति में संयोग भी बहुत महत्त्वपूर्ण कारक होता है। वर्ष 1889 में चैधरी देवीलाल सबसे बडे़ दल के नेता चुने गये थे लेकिन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह बन गये थे। स्व. चरण सिंह और स्व. चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनते हम देख ही चुके हैं। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को हटाने के बाद श्री वाजपेयी की पसंद के जिस शख्स राम प्रकाश गुप्त को मुख्यमंत्री बनाया गया था उनके बारे में पार्टी के अधिकांश नेता जानते ही नहीं थे। ऐसे विकट संभावनाओं के बियाबान में आडवाणी अगर पलटीमार चरित्र बना रहे हैं तो आश्चर्य कैसा ! 0 0  ( Published in daily DNA on edit page no. 9 on 26 Apr 2013 Link is ---http://www.dailynewsactivist.com )

Thursday, April 25, 2013

इस साहस का समर्थन करे समाज ---- सुनील अमर


खाप पंचायतों की प्रतिगामी हरकतों से त्रस्त देश के नारी समाज में एक स्त्री ने अपने हक के लिए लड़ने की हिम्मत दिखाई है। घर-परिवार और समाज के तमाम एतराज को दरकिनार कर एक फौजी की नि:संतान विधवा ने वीर्य बैंक में रखे अपने पति के वीर्य से गर्भधारण किया है। इस दंपत्ति का एक अस्पताल में संतानोत्पत्ति हेतु इलाज चल रहा था लेकिन फौजी पति को बार-बार छुट्टी नहीं मिल पाने के कारण चिकित्सकों ने उसका वीर्य सुरक्षित रख लिया था। लगभग साढ़े तीन साल पहले पति की मौत हो गई। 35 वर्षीया पत्नी ने न सिर्फ दूसरी शादी करने से इनकार कर दिया बल्कि उसने अपने परिजनों के समक्ष अपनी इच्छा रखी कि वह स्थानीय अस्पताल में रखे अपने पति के वीर्य से गर्भवती होना चाहती है। जैसा कि फौजियों की नि:संतान विधवाओं के साथ अकसर होता है, यहां भी परिजन व समाज इस स्त्री के विरुद्ध हो गए। ताजा स्थिति तक पहुंचने में उत्तर प्रदेश के आगरा जिले की इस साहसी महिला को तीन साल लंबी लड़ाई लड़कर अपने दृढ़ मनोबल का परिचय देना पड़ा और वह इस सामाजिक लड़ाई को जीत गई। हमारे भारतीय समाज की बड़ी विचित्र स्थिति है। हमारे नागर समाज के विरोध का अंतर्विरोध यह है कि वह स्त्री अधिकारों के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर सरकार के खिलाफ तो खूब प्रदर्शन कर सकता है लेकिन वहां से 20-30 किमी के दायरे में औरतों के खिलाफ जहर उगल रही खाप पंचायतों तक जाने की हिम्मत नहीं करता! ऊपर वर्णित घटना तो ऐसे घटनाक्रमों की एक कड़ी भर है जहां परिवार के लोग अपनी ही विधवा बहू को महज इसलिए मार देते या मरने को विवश कर देते हैं ताकि उसका हिस्सा और उसी सम्पत्ति को कब्जाया जा सके। सती प्रथा इसी षड्यंत्र और कुकर्म का एक हिस्सा रही है। हम प्राय: देखते-सुनते हैं कि देश की रक्षा में शहीद हो जाने वाले सैनिकों की विधवाओं के साथ उनके ही सास-ससुर और जेठ-देवर कैसे न सिर्फ उस स्त्री का पारिवारिक हक बल्कि सरकार द्वारा दी गई सहायता को भी हड़प जाने का कुचक्र करते रहते हैं। कई मामलों में तो ऐसी विधवाओं को अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ता है। उपरोक्त मामले में तो वह स्त्री अपने ही पति के वीर्य से कृत्रिम गर्भाधान करके अपने ही सास-ससुर के वंश को आगे बढ़ाना चाहती है, लेकिन यह भी उन सबको अगर कबूल नहीं तो इसका मतलब यही है कि वे अपनी संपत्ति का एक और हिस्सेदार नहीं चाहते!
ऐसी विचारधारा वाले परिवारों में ऐसी स्त्रियों के जीवन को भी खतरे से मुक्त नहीं माना जा सकता। लेकिन ऐसी सोच कम पढ़े-लिखे या अपढ़ लोगों की ही हो, ऐसा नहीं माना जा सकता। समाज के सुशिक्षित तबके का भी कमोबेश यही हाल है। हमारे देश के तथाकथित संत- महात्मा, राजनेता, बड़े नौकरशाह तथा कुछेक न्यायाधीशों के विचार भी उक्त महिला के परिजनों जैसे ही हैं। देश में बलात्कार के बढ़ते अपराधों पर संतों, सामाजिक-सियासी नेताओं के कुविचार हम जान ही चुके हैं कि बलात्कार के मामलों में सारा दोष औरत का ही होता है। हमारी पढ़ाईिलखाई, शिक्षा-दीक्षा और ज्ञान-विज्ञान की सारी तरक्की का हासिल महज यही है कि जिन परिवारों में सिर्फ लड़की ही है वहां भी मां-बाप का अंतिम संस्कार करने का हक उसे नहीं है, भले ही दूर के किसी रिश्तेदार पुरुष से यह करवाया जाए!
गत वर्ष जयपुर उच्च न्यायालय में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश अरुण मिश्र व न्यायाधीश नरेंद्र कुमार जैन की खंडपीठ ने राजस्थान सरकार से पूछा था कि मां-बाप के अंतिम संस्कार बेटियों से कराने की कोई प्रोत्साहन योजना क्यों नहीं बनती। ध्यान रहे कि राजस्थान खास तौर पर सती प्रथा से ग्रस्त राज्य है। असल में तो ऐसी योजनाओं को केंद्र सरकार द्वारा तैयार कर पूरे देश में लागू कराया जाना चाहिए। लेकिन इसके उलट स्त्रियों से संबंधित बहुत से ऐसे मामले हैं जहां अदालतों का रवैया भी हमारे पुरुष समाज की मानसिकता का ही विस्तार होता लगता है। अभी इसी साल की शुरुआत में सर्वोच्च अदालत ने कर्नाटक के एक सत्र न्यायालय के खिलाफ बहुत सख्त टिप्पणी की। एक मामले में पति दहेज के लिए अक्सर अपनी पत्नी की बेरहमी से पीटा करता था जिससे उसकी एक आंख में गंभीर चोट आई और वह हमेशा के लिए खराब हो गई। बाद में पत्नी ने तंग आकर जहर खाकर आत्महत्या कर ली। मुकदमा चलने पर ट्रायल न्यायालय ने मारपीट की घटना को विवाहित जीवन का हिस्सा बताया और सभी तीन अभियुक्तों को बरी कर दिया। जबकि इसी मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने महिला के पति को सजा दी। सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले की सुनवाई करते न्यायाधीशद्वय आफताब आलम और रंजना प्रकाश देसाई की पीठ ने ट्रायल कोर्ट की कड़े शब्दों में र्भत्सना की और कहा कि किसी महिला की पिटाई या उससे गाली-गलौज उसके आत्मसम्मान पर हमला है और इसे साधारण तौर पर नहीं लिया जा सकता। न्यायाधीशों ने कहा कि अब समय आ गया है कि अदालतें महिलाओं के प्रति किए जा रहे अत्याचारों के प्रति अपना नजरिया बदलें। यहां यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि देश में सिर्फ यौन हिंसा से संबंधित एक लाख से अधिक मामले अदालतों में विचाराधीन हैं। आगरा की इस महिला ने जिस साहस का परिचय दिया है वह एक मिसाल है। एक स्त्री अपने शरीर की उसी तरह मालिक होती है जैसे एक पुरुष। वह अगर अपने दिवंगत पति के बच्चे की मां बनना चाहती है तो इसे किस आधार पर उसका घर और समाज नकार सकता है? कारण साफ है कि अगर वह अपने पति के बच्चे का मां बन जाएगी तो वह भी पारिवारिक संपत्ति का हिस्सेदार हो जाएगा, लेकिन अगर वह विधवा किसी और से शादी कर ले तो परिवार के लोग उसके हिस्से की संपत्ति के भी स्वामी हो जाएंगे। दुर्भाग्य से समाज के हर तबके में ऐसी सोच के लोग अब भी मौजूद हैं। बहरहाल, इस महिला के साहस का समर्थन किया जाना जरूरी है।

Wednesday, March 20, 2013

तो हमें तुम्हारी जरूरत ही क्या है मौलाना?--शीबा असलम फ़हमी



imageशीबा असलम फ़हमी

कश्मीर की तीन मुसलमान लड़कियों को खामोश करके खुश तो बहुत होगे तुम! तुम दुनिया को यह बताना चाहते हो कि उनके गिटार को चुप करवा कर तुमने इस्लाम को बचा लिया भारत में, कश्मीर में. लेकिन असलियत तुम जानते हो, और दूसरे भी कि तुमने इस्लाम को नहीं बल्कि अपनी सत्ता को बचाया है. अगर आम मुसलमान अपनी जिंदगी के फैसले खुद करने लगेगा, खुद सोचने-समझने लगेगा तो फिर तुम किस मर्ज की दवा रह जाओगे? आखिर उन लड़कियों को कहना पड़ा कि 'मुफ्ती ही बेहतर जानते हैं कि अल्लाह का हुक्म क्या है, इसलिए हम मुफ्ती की बात मानते हुए अपना म्यूजिक बंद करते हैं.' वैसे अल्लाह ने ईरान, तुर्की, पाकिस्तान, बांग्लादेश और ट्यूनीशिया के मौलानाओं को म्यूजिक पर पाबंदी क्यूं नहीं बताई? सिर्फ भारतीय मौलाना से अल्लाह यह राजदारी क्यूं करता है? अपनी बेटियों से इतना डरे हुए क्यूं हो, मौलाना?
देखें मौलाना, ऐसा है कि आपका औरतों से दुश्मनी वाला रवैया अब किसी तरह परदे में रहने वाला नहीं. अब मुसलमान औरत को समझ में आ रहा है कि पहले तो आपने मजहब को, उसकी जानकारियों को, उसकी राहतों को अगवा कर अपने अंधेरे पिंजरों में कैद कर लिया जहां सिर्फ आपके हमखयाल ही दाखिल हो सकते हैं. जिसने भी जरा सी चूं-चां की, वह भटका हुआ करार दिया गया यानी कि मुसलमान औरत को पहले तो मजहब की उम्दा और आला तालीम से दूर रखा गया, उसके लिए अच्छे और बाकायदा मजहबी तालीम देने वाले संस्थान ही कायम नहीं होने दिए गए. मजहब के मामलों पर गौर-ओ-फिक्र से मुसलमान औरत को अलग रखा. किसी पर्सनल लॉ बोर्ड, किसी फिकह अकादमी, किसी मुशावरत, किसी कजियात में मुसलमान औरत को कभी कोई ऐसी फैसला लेने लायक भागीदारी नहीं दी गई कि वह इस्लाम में औरत को राहत देने वाले इंतजामों से बाखबर हो कर उनका अपने पक्ष में इस्तेमाल कर पाती.
इसके बाद मुसलमान औरत पर तुमने अपनी मनचाही मर्दाना शरियत थोपी. यहां पर भी वही जिद कि हम जो बताएं वही शरियत है और उस पर तुर्रा यह भी कि शरियत बदल नहीं सकती, हिमालय की तरह अटल है. किसको बेवकूफ बना रहे हो, मौलाना? शिया, मेमन, बोहरा, देवबंदी, बरेलवी, हनफी, शाफई, मलिकी, महदवी और न जाने कितनी तरह की शरियतें रचने के बाद औरतों को बताते हो कि शरियत अटल है? शरियत के नाम पर तीन तलाक की मानसिक हिंसा तुम करो और करवाओ और हम यह मान लें कि यही अल्लाह का इंसाफ है औरत के लिए? चार बीवियां तुम रखो और रखवाओ और हम मान लें कि यही अल्लाह का इंसाफ है? अरे, अल्लाह को क्यों बदनाम करते हो अपने मतलब के लिए?
मुसलमान औरत को कभी कोई ऐसी फैसला लेने लायक भागीदारी नहीं दी गई कि वह इस्लाम में औरत को राहत देने वाले इंतजामों से बाखबर हो कर उनका अपने पक्ष में इस्तेमाल कर पाती
हमें पता है कि तुमने इसी लिए भारत में मुसलमान औरतों को मस्जिद में नहीं आने दिया. अगर मुसलमान औरतें भी सारी दुनिया के मुस्लिम मुल्कों की तरह मस्जिदों में उसी हक से दाखिल हो जाएं जिस हक से मर्द होते हैं तो क्या आसमान टूट पड़ेगा कौम पर? लेकिन यह कोई मासूम- सी पाबंदी नहीं है, मौलाना. तुम्हें पता है कि अगर ये औरतें हर रोज एक छत के नीचे इकट्ठी होकर आपस में बातचीत कर लेंगी, अपने हाल एक-दूसरे पर जाहिर कर देंगी तो संगठित हो जाएंगी. अभी वे उन जुल्मों को सिर्फ 'अपनी बदनसीबी' और 'अल्लाह का इम्तेहान' समझ कर एक निजी दुख की तरह झेल लेती हैं. मगर वे एक जगह इकट्ठी हो गईं तो उन्हें पता चल जाएगा कि ये तो वे तारीखी ज़ुल्म हैं जो उनकी नानी-दादी-मांओं ने
भी झेले हैं.
आखिर 'कौम' की तमाम मुश्किलों पर मस्जिदों के भीतर ही तो एक राय बनाई जाती है न? यहां तक कि देहली की एक मस्जिद तो यह तक तय कर देती है कि कौम अगले चुनाव में वोट किसे देगी. तो मौलाना, तुम्हें भी पता है और हमें भी पता है कि मस्जिद में अगर औरतें इकट्ठी हो गईं तो सबसे पहले खतरा तुम पर ही आना है.
 मौलाना पूरी कौम के नाम पर या कौम के लिए तुम जो भी बोर्ड, मजलिस, मदरसा, स्कूल, नदवा, वगैरह बनाते हो उसमें मुसलमान औरतों को 50 फीसदी नुमाइंदगी क्यूं नहीं देते? तुम लगातार भारत सरकार को कोसते रहते हो कि वह मुसलमानों की तादाद के मुताबिक उन्हें नुमाइंदगी न दे कर उनके साथ नाइंसाफी करती है, उनकी तरक्की में रुकावट डालती है. लेकिन जहां तुम पॉवर में हो वहां भारत सरकार से भी बड़े वाले हुक्मरां बन जाते हो. तब तुम्हें यह खयाल नहीं आता कि मुसलमान औरतें आबादी का आधा हिस्सा हैं? अपने जलसों में जब तुम पूरी कौम के मामलात तय करते हो तो देहली की वजीर-ए-आला शीला दीक्षित और कांग्रेस सदर सोनिया गांधी को तो मंच के बीचोबीच जगह देते हो, लेकिन इसी जलसे में एक भी मुसलमान औरत तुम्हें नहीं मिलती शामिल रखने के लिए?
 लेकिन मौलाना उस ऊपरवाले का सितम देखो कि जब कौम पर मुश्किल आती है तो कोई तीस्ता सीतलवाड़, कोई मनीषा सेठी, कोई जमरूदा, कोई सीमा, कोई सहबा, कोई नंदिता, कोई अरुंधती ही सड़कों से ले कर मीडिया तक पर उतरती है अपने हमवतनों को बचाने के लिए. तब तुम चुप्पी साधे ताकते रहते हो औरतों के इस अहसान को. तब बरसों से जमा किया गया तुम्हारा इक्तेदार, सरकारों के साथ तुम्हारी वोट वाली सांठ-गांठ, या तुम्हारा 'खास इल्म' किसी काम नहीं आता कौम के. तुम लाखों की रैलियां करके जिन सियासी दलों को यह जताते हो कि देखो हमारे पास इतना बड़ा वोट-बैंक है लिहाजा हमसे सौदा करो, वे सियासी पार्टियां तुम्हें बस
एक बार भुनाने लायक बैंक-चेक से ज्यादा कुछ समझती नहीं.
किस्सा-कोताह यह कि तुम्हारे होने से कौम को राहत तो कोई मिलती नहीं, इसकी इज्जत और हिफाजत में तो कोई इजाफा होता नहीं, इसकी छवि एक सहनशील और इंसाफ-पसंद कौम की बनती नहीं, तुम्हारी अपनी औरतें और कमजोर और पसमांदा खुद तुमसे खुश नहीं, तुम्हारे जरिये चलाए जा रहे इदारों, मदरसों, स्कूलों से समाज के काम के इंसान तो निकलते नहीं. तो फिर तुम हो किस काम के? कोई ऐसी सामाजिक बुराई जो तुम्हारे होने से मिट गई हो उसका नाम बताओ, मौलाना? तुम उन खाप पंचायतों से किस तरह अलग हो जो जुल्म की शिकार औरतों पर ही उस जुल्म की जिम्मेदारी थोप देती हैं? दहेज घरेलू हिंसा, बेटियों-बहनों को जायदाद में हक, जात-बिरादरी की ऊंच-नीच जैसे मामलों पर तो कभी तुम्हारी आवाज बुलंद होते सुनी नहीं. वक्फ की जायदादों पर नाग की तरह कुंडली मारे बैठो हो जो  बेवाओं-यतीमों-तलाकशुदा औरतों का हक था.
अगर किसी तरह का कोई अच्छा काम तुमसे हो ही नहीं सकता तो हमें तुम्हारी जरूरत क्या? सिर्फ मर्दाने मदरसे चलाओ और बंद करो अपनी ये सामाजिक दुकानें, मौलाना !   (http://www.tehelkahindi.com/index.php?news=1658)

Tuesday, February 26, 2013

बैंकों की उपेक्षा के शिकार छोटे किसान

बैंकों की उपेक्षा के शिकार छोटे किसान

                  देश के छोटे किसानों की आर्थिक हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा है, ऐसा एक ताजा सरकारी रपट में बताया गया है। सरकार द्वारा इस सिलसिले में किये जा रहे प्रयत्नों को राष्ट्रीयकृत बैंकों की वजह से वांछित सफलता नहीं मिल रही है और छोटे किसान मजबूरी में साहूकारों और सूदखोरों के चंगुल में फॅंस रहे हैं। यही वजह है कि किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं का दु:खद सिलसिला थम नहीं रहा है। देश में सबसे खराब स्थिति महाराष्ट्र की है जहॉ गत माह विधानमंडल में सरकार ने स्वीकार किया कि औसत चार किसान प्रतिदिन आत्महत्या कर रहे हैं। कहने की जरुरत नहीं कि ये सब छोटे किसान ही होते हैं। नियंत्रक व महालेखा परीक्षक की ताजा रपट बताती है कि देश में महज छह प्रतिशत छोटे किसान ही बैंकों से ऋण पा रहे हैं बाकी 94 प्रतिशत अपनी कृषि सम्बन्धी जरुरतों के लिए सूदखोरों के रहमो-करम पर हैं। यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि देश में सूदखोरी और साहूकारी का धंधा इधर काफी तेजी से बढ़ रहा है।
                  कृषि योग्य जमीन के लगातार बॅटवारे तथा अन्यान्य सरकारी जरुरतों के लिए किये जा रहे भूमि अधिग्रहण के चलते लघु व सीमांत किसानों की संख्या बढ़ रही है। यह दोहरे ढॅंग़ से इसलिए खतरनाक है कि जोत घटने के साथ इस पर पारिवारिक निर्भरता भी बढ़ती जा रही है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन ने ताजा रपट में बताया है कि देश में 80 प्रतिशत लघु व सीमांत किसान हैं और नियंत्रक व महालेखा परीक्षक की रपट बताती है कि इस 80 प्रतिशत में से महज 06 प्रतिशत को ही बैंकों से कृषि ऋण मिल पा रहा है। यह एक भयावह सच्चाई है। इस सच्चाई को यह तथ्य और संगीन बना देता है कि केन्द्र सरकार द्वारा जो भारी भरकम राशि किसान ऋण माफी के लिए दी जाती है उसका वास्तविक हश्र क्या होता होगा। वह किन तथाकथित किसानों के पास पहॅुच जाती होगी!
                केन्द्र सरकार व भारतीय रिजर्व बैंक के निर्देश हैं कि राष्ट्रीयकृत बैंक अपनी सकल ऋण राशि का 18 प्रतिशत कृषि कार्यो के लिए दें। असल में ऐसी निगरानी करने की व्यवस्था है ही नही कि बैंक इस 18 प्रतिशत राशि में से लघु व सीमांत किसानों को कितना देते हैं। हो यह रहा है कि इसमें से अधिकांश धानराशि बड़े किसान, कृषि फार्म वाले, बीज उत्पादन में लगी बड़ी कम्पनियॉ, कृषि यंत्र बनाने वाले उद्यमी तथा चाय बागान और फलों के बगीचे वाले असरदार लोग ले जाते हैं। बैंक सिर्फ यह दिखा देते हैं कि उन्होंने सकल ऋणराशि का 18 प्रतिशत कृषि कार्य हेतु वितरित कर दिया है। अगर यह जॉच ही कर ली जाय कि क्षेत्रवार उन्होंने कितना कृषि ऋण वितरित किया तो भी साफ हो जाय कि बैंक क्या खेल कर रहे हैं। गत वर्ष सूचना के अधिकार के तहत मॉगी गयी एक जानकारी में देश के एक बड़े राष्ट्रीयकृत बैंक ने बताया था कि उसने 75 प्रतिशत से अधिक कृषि ऋण सिर्फ मुम्बई की शाखाओं से ही बॉट दिया था! कारण साफ है कि मुम्बई में ही तमाम बड़ी-बड़ी बीज उत्पादक कम्पनियों व कृषि उपकरण निर्माताओं के कार्यालय हैं। कृषि उपकरणों का गोरखधंधा भी काफी बड़ा है। कृषि के नाम पर बनने वाले तमाम यंत्र और उपकरण का प्रयोग अन्यान्य कार्यो व उद्यमों में होता है, वैसे ही जैसे कृषि के लिए दी जा रही भारी छूट वाली उर्वरक और डीजल का लाभ ज्यादातर दूसरे लोग ही उठा रहे हैं। बीते पॉच वर्षों में केन्द्र सरकार ने कृषि ऋण पर दी जाने वाली धनराशि को ढ़ाई गुना से भी अधिक बढ़ा दिया है लेकिन हालात बताते हैं कि देश के किसानों की हालात में वांछित सुधार नहीं आ पा रहा है। महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र और उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का बुंदेलखंड इलाका इसका उदाहरण है।
                ध्यान रहे कि सरकार किसान क्रेडिट कार्ड की मार्फत दिए जाने वाले ऋण पर सिर्फ सात प्रतिशत ब्याज लेती है तथा समय से ऋण चुकाने वाले किसानों को एक से दो प्रतिशत व्याज दर की छूट भी देती है, जबकि अन्य कृषि ऋण 11 से 16 प्रतिशत की ब्याज दर पर हैं। दूसरे, कृषि ऋणों की वसूली में ज्यादा सख्ती न किये जाने की हिदायत भी सरकारें देती रहती हैं। यही कारण है कि बड़े किसान और तथाकथित उद्यमी इस सरकारी रियायत को झटक लेते हैं। छोटे किसानों को अपनी जरुरतों के लिए मजबूरी में सूदखोरों के पास जाना पड़ता है जो अंतत: या तो उनकी जमीन हड़प लेते हैं या पैसा वसूलने के लिए उन्हें तमाम तरह से उत्पीड़ित करते हैं। ऐसे साहूकारों या सूदखोरों को वित्तीय तकनीकी भाषा में 'शैडो बैंकिंग' कहा जाता है। यानी छद्म बैंकिंग। स्विटजरलैंड स्थिति अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्था 'फायनेन्सियल स्टैब्लिटी बोर्ड की ताजा रपट बताती है कि भारत में ऐसी शैडो बैंकिंग बहुत तेजी से फैल रही है और सरकार को इस पर रोक लगानी चाहिए। संस्था का ऑकलन है कि यह 20 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है और देश में इसका कारोबार 37 लाख करोड़ से ज्यादा का हो गया है। संस्था का सुझाव है कि नियम कानूनों के अभाव ने शैडो बैंकिग को देश की अर्थव्यस्था के लिये खतरनाक बना दिया है अन्यथा यह बैंकिंग का विकल्प हो सकती है। स्व. अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट ने जो बताया था कि देश में 84 करोड़ 60 लाख लोगों की औसत दैनिक आय रु. 09 से लेकर 19 के बीच में हैं, यह वर्ग अपनी जरुरतों के लिए इन्हीं साहूकारों व सूदखोरों के चंगुल में फॅंसता है।
               लघु व सीमांत किसान खेती में लगे रहें इसका सिर्फ एक उपाय उन्हें सरकारी प्रोत्साहन देना ही है। दुनिया के विकसित देशों में भी खेती सरकारी सहयता पर ही निर्भर है। अमेरिका जैसे देशों में तो किसानों को भारी मदद दी जाती है। भारत का सामाजिक और भौगोलिक ताना-बाना ऐसा है कि यहॉ खेती को सिर्फ बड़े किसानों या सामूहिक खेती के भरोसे छोड़ा ही नहीं जा सकता। ऐसे में किसानों को प्रोत्साहन और संरक्षण आवश्यक है। अफसोस ये है कि देश में बहुत बड़ी संख्या में ग्रामीण क्षेत्र अभी बैंकों से जुड़े नहीं हैं। 5000 से अधिक की आबादी वाले ग्रामीण क्षेत्रों में शाखा खोलने के लिए सरकार के दबाव के बावजूद बैंक इसलिए तैयार नहीं हैं कि इस पर खर्च बहुत आएगा और वहॉ व्यवसाय न के बराबर होगा। श्री प्रणब मुखर्जी के वित्त मंत्रीत्व में बैंकों ने इस पर साफ कह दिया था कि अगर सरकार धन दे तभी बैंक अपनी शाखा खोल सकते हैं। सरकारी दबाव के दबाव के बाद हालात यह है कि बैंकों ने गॉवों में शाखा खोलने के बजाय वहॉ अपने कमीशन एजेंट रख दिये हैं जो प्रकारान्तर से अनपढ़ गॉव वालों का शोषण करने में लगे हैं। यह स्थिति ठीक नहीं है। लघु और सीमान्त किसान अपने उत्पाद के लिए सरकार या बाजार के अच्छे मूल्य समर्थन के बावजूद खुशहाल नहीं हो सकते क्योंकि उनके पास बेचने को ज्यादा कुछ होता ही नहीं। वे खेती में लगे रहें इसके लिए उन्हें सरकारी सहायता चाहिए ही। ऐसे लोगों का खेती से विमुख होना सरकार के खाद्य संरक्षण कार्यक्रम को भारी चुनौती देगा।

स्त्री-पुरुष समानता की कीमत क्या होगी ? --- सुनील अमर

 दो घटनाओं से बात शुरु करना चाहूँगा। दोनों 40 साल से ज्यादा ही पुरानी हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवों में कहीं-कहीं एक बेहद गरीब जाति निवास करती है,जिसे वहॉ की स्थानीय बोली में वनराजा या वनमंशा कहा जाता है। ये कद-काठी, चाल-ढ़ाल, रहन-सहन तथा बोली आदि में आदिवासी सरीखे होते हैं,आबादी से काफी दूर बाग या इसी तरह के स्थान पर झोपड़ी डालकर रहते हैं,दोना-पत्तल बनाना इनका पुश्तैनी काम है। इसी वनराजा समुदाय की एक 35-40 वर्षीया स्त्री अपने पति के साथ एक दिन गॉव के एक संभ्रांत व्यक्ति के यहॉ आई और कहा कि ''बाबू, हम दोनों की 'खपड़कुच्ची' करवा दो।'' बाबू भी खपड़कुच्ची का मतलब नहीं जानते थे, सो उसी से पूछा कि यह क्या होता है?इस पर उस औरत ने कहा अब हमारी अपने मर्द के साथ और नहीं पट रही है, इसलिए हम 'बियाह' तोड़ना चाहते हैं। उसने आगे बताया कि खपरैल वाली छत में लगने वाला 'खपड़ा' जमीन पर रखकर पति-पत्नी दोनों अपने पैर से मार-मारकर तोड़ देंगें तो रिश्ता टूटा मान लिया जाएगा यानी कि तलाक हो जाएगा और यह काम समाज के किसी बडे अादमी के सामने होना चाहिए।

              इस पर बाबू ने जानना चाहा कि आखिर ऐसा क्या हो गया है कि रिश्ता तोड़ने की नौबत आ गई है? तब उस औरत ने कहा कि दिन भर काम हम करें, खाना हम बनायें, घर हम संभालें, सोते समय इसका पैर भी हम दबाऐं और यह दिन भर महुआ की शराब उतारे और उसे पीकर हमारी पिटाई करे। अब हम इसके साथ किसी भी सूरत में नहीं रहेंगे। हालांकि उसके पति ने उससे सुलह करने की काफी कोशिश की लेकिन उस औरत ने उसी वक्त 'खपड़कुच्ची' कर ली! कुछ समय पश्चात वह एक दूसरा पति ले आई और उसी गॉव में अलग छप्पर डाल कर रहने लगी!
              दूसरा वाक्या इससे जरा हट कर है। उप्र में एक महिला शिक्षाधिकारी हुआ करती थीं। पढ़ाई-लिखाई और फिर नौकरी की कुछ ऐसी व्यस्तता रही कि उम्र के 35-40साल निकल गये और वे शादी नहीं कर पाईं। बाद में उन्हें अपने पद और अपनी उम्र के माफिक कोई जॅचा ही नही। लेकिन शरीर की भी एक भूख होती है। पद और सामाजिक मर्यादा यहॉ भी इतना ज्यादा आड़े आती है कि इस भूख को आम आदमी की तरह मिटाना संभव नहीं दिखता। सो धीरे-धीरे उन्होंने अपने चपरासी, जो कि उनके घरेलू नौकर की भी तरह काम करता था, से ही इस भूख को शांत करना शुरु किया और एक दिन उन्हें उससे एक बच्चा भी हुआ। शिक्षाधिकारी ने तय किया कि वे उससे बाकायदा शादी कर लेंगी। इस कार्य में उस व्यक्ति का चपरासी का पद आड़े आ रहा था, सो उन्होंने उसकी नौकरी छुड़वा कर उसे कोई व्यवसाय शुरु करा दिया।
                इन दोनों घटनाओं का ज़िक्र यहाँ विवाह नामक संस्था के प्रसंग में है। ये घटनाऐं लगभग र्आशती पुरानी और समाज के दो सर्वथा विपरीत वर्ग से हैं। दोनों में सम्बनित स्त्रियों ने अपनी खुदमुख्तारी दिखाई, अपने पुरुषों का अपने हिसाब से इस्तेमाल किया और अपने जीवन की दिशा तय की। आज टूटते वैवाहिक सम्बन, अदालतों में बढ़ते तलाक के मामले और इन सबसे  निजात पाने के लिए प्रचलन में आ रहा 'लिव इन रिलेशन', इन सब के पीछे वजह या यो कहें कि डर, सिर्फ यह है कि साथ रह रहे स्त्री-पुरुष में से 'पत्नी' कौन बने? यह तो निश्चित है कि दोनों में से किसी एक के पत्नी बने बगैर तो विवाह नामक संस्था की गाड़ी दूर तक चलनी नहीं है। अब समानता के मुद्दे को लें। समाज के अर्थ-केन्द्रित होते जाने और वैश्वीकरण की परिघटना ने जिन सामाजिक संस्थाओं को सर्वाधिक क्षति पहॅुंचाई, उनमें सर्व प्रमुख हैं- परिवार और विवाह। इन दोनों पर इन दिनों मॅडराते खतरे को देखकर अब इनके बचे रहने पर ही संशय हो रहा है! समाज में धन के निर्णायक तत्त्व हो जाने के कारण सभी गुण और आदर्श अब गौण हो गये हैं। इस क्रम में ज्यादा से ज्यादा धन कमाने की होड़ ने पुरुषों को इस बात के लिये मजबूर किया कि वे अपनी स्त्रियों को भी धन कमाने के लिए मैदान में उतारें। धन कमाने के लिए योग्यता जरुरी थी और योग्यता के लिए पढ़ाई। पढ़ाई ने सिर्फ योग्यता ही नहीं दी, बुद्धि, विवेक और जागरुकता भी दी, और यही तीनों चीजें हैं जिनसे पुरुष हमेशा ही स्त्री को सप्रयास दूर रखता आया था।  यहॉ देखने वाली बात यह है कि जिस भी समाज में स्त्री अपने पुरुष के मुकाबले आर्थिक रुप से आत्मनिर्भर हुई, वहॉ प्राय: दो ही बातें हुईं-या तो उसका पुरुष उसके साथ पत्नी बनकर रहा या फिर छुटकारा! कई जगह तो इसका ऐसा दिलचस्प नजारा देखने को मिल रहा है कि वहॉ पुरुष अपनी स्त्री की पत्नी बना हुआ है! मसलन, जिन्हें खुद नौकरी नहीं मिली लेकिन जिनकी पत्नियों को नौकरी मिल गई, वे घर सँभालने लगे, पत्नियों को सायकिल या मोटरसायकिल पर बैठा कर उनके कार्यस्थल तक रोज लाने-ले जाने लगे और बच्चे भी संभाले। लेकिन जहॉ यह नहीं हुआ, चाहे पुरुष के भी कमाऊ होने के कारण या उसके अन्दर एक मर्द का दंभ होने के कारण, वहॉ टकराव हुआ। तो क्या यह माना जाय कि परिवार और विवाह नामक संस्थाऐं निष्प्रयोज्य हो रही हैं? और क्या इन संस्थाओं को बचा कर रखने के लिए वह कीमत चुकानी जरुरी है जो ये मॉगती हैं? स्त्री का मानसिक अनुकूलन करने के लिए हमारे प्राचीन ग्रंथों ने यह पारिभाषित किया कि परिवार रुपी गाड़ी के लिए पति और पत्नी दो पहिए के समान हैं लेकिन साथ में सारा जोर इस बात पर भी लगाया कि पति ही परमेश्वर है! फिर वो पहिया कैसे हुआ? लिव इन रिलेशनशिप का तो मूलभाव ही अस्थायित्व है, फिर इसमें परिवार की गुंजाइश कहॉ बचती है? और अगर बच्चे पैदा हुए, तो अलगाव के बाद उनकी परवरिश कौन करे?
                   तो क्या स्त्री-पुरुष समानता की कीमत हम परिवार को खत्म करके चुकायेंगे? कैरियर और रिलेशन, इन दो तत्त्वों ने आज के युवा को आत्मकेन्द्रित बना दिया है। कहना न होगा वह अब समाज के प्रति अपने दायित्वों को ही नकारने लगा है। संतान को जन्म दिये बगैर स्त्री-पुरुष का सम्बन बनाकर रखना क्या समाज और प्रकृति के प्रति अपराध नहीं है? समूची सृष्टि में ऐसा उदाहरण क्या और किसी जीव या वनस्पति में मिल सकता है? बहरहाल आज जहाँ हम आ चुके हैं, वहॉ से पीछे हटना तो मुमकिन नहीं। इसी के साथ यह भी मुमकिन नहीं कि स्त्री को माँ का लबादा ओढ़ाकर उसे ही बच्चे की समस्त जिम्मेदारियों का नैसर्गिक वाहक माना जाय। ऐसे में सवाल यह उठता है कि ऐसे युगलों को बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित कैसे किया जाय?स्पष्ट है कि राष्ट्र को ही आगे आकर यह जिम्मेदारी लेनी होगी। जो युगल बच्चे पैदा करने के बाद भी उनका पालन-पोषण न करना चाहें,उन्हें राष्ट्र पाले। अपने देश में अभी ऐसे युगलों की यह प्रवृत्ति खतरनाक चेतावनी के स्तर पर नहीं पहुँची है लेकिन शुरुआत हो चुकी है। स्त्री-पुरुष समानता आवश्यक है और साथ ही साथ परिवार भी लेकिन यह तभी मुमकिन है जब पैदा हुए बच्चे की जिम्मेदारी के मामले में माँ भी उतनी ही स्वतंत्र हो जितना कि पिता। देश की भावी माताओं को यह गारंटी राष्ट्र से मिलनी ही चाहिए।