Saturday, October 20, 2012

राष्ट्र-विकास में कृषि की घटती हिस्सेदारी --- सुनील अमर

देश के सकल विकास में कृषि की हिस्सेदारी साल दर साल घटती जा रही है। सरकार की अपनी ही रिपोर्ट बताती है कि यह छह वर्षों में 19 प्रतिशत से घटकर 14 प्रतिशत पर आ गई है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि देश में अनाज का उत्पादन काफी बढ़ा है और सरकारी खरीद के कारण हमारे गोदाम न सिर्फ जरुरत से ज्यादा भरे हैं बल्कि तमाम अनाज बाहर खुले में भी रखना पड़ा है। कृषि की घटती हिस्सेदारी का एक दूसरा अर्थ यह भी है कि किसान खेती छोड़कर अन्य कार्यों में लग रहे हैं तथा कृषि योग्य जमीन घट रही व लागत बढ़ रही है। कृषि प्रधान देश होने के नाते भारत के लिए यह स्थिति ठीक नहीं कही जा सकती। देश में कृषि पर निर्भरता भी घटकर आधी से भी कम रह गयी है।
                गत दिनों कृषि से सम्बन्धित सरकारी ऑकड़े पेश किए गए जिसमें बताया गया है कि बीते आठ साल में जीडपी यानी सकल विकास में कृषि की भागीदारी पॉच प्रतिशत कम हो गयी है। वर्ष 2010 में केन्द्रीय श्रम मंत्रालय ने संसद में अपनी एक सर्वे रपट पेश की थी जिसमें बताया गया था कि कृषि पर व्यक्तियों की निर्भरता घटकर अब आधी से भी कम यानी सिर्फ 45.5 प्रतिशत ही रह गयी है। एक सरकारी ऑकड़े के ही अनुसार वर्ष 2004-05 में कुल 18.30 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि देश में थी जो अन्यान्य कारणों से घटकर वर्ष 2007-08 में 18.24 करोड़ हेक्टेयर रह गयी है यानी कि करीब छह लाख हेक्टेयर जमीन कम हो गयी है।
               सभी जानते हैं कि दुनिया का जिस तरह से वैश्वीकरण हुआ और अब आर्थिक उदारीकरण हो रहा है उसमें प्रत्येक देश के लिए कृषि प्राथमिक नहीं बल्कि तीसरे, चौथे या कहीं-कहीं तो आखिरी पायदान पर भी चली गयी है। कृषि की तरफ उतना ही ध्यान है कि यह नागरिकों की उदरपूर्ति के लिए आधारभूत अनाज ( जैसे गेहॅू-धान ) का उत्पादन करती रहे। अपने देश में कृषि के लिए न सिर्फ विविध मौसम उपलब्ध हैं बल्कि लगभग 64 प्रकार की मिट्टी भी है जिसमें प्राय: सभी फल, सब्जी और फसलें ली जा सकती हैं। बावजूद इसके आलम यह है कि देश के किसान खेती से विरक्त होते जा रहे हैं। जाहिर है कि इसके पीछे अपेक्षित सरकारी सहायता और सहूलियत का न मिलना तथा लगातार छोटी और अलाभकारी होती जा रही कृषि जोत ही मुख्य कारण हैं। दुनिया के अन्य विकसित देशं के मुकाबले हमारे देश में कृषि को बहुत कम राजकीय संरक्षण है। हमारे यहॉ प्रति किसान परिवार की औसत मासिक आय आज भी 2400 रुपये से कम है!
               इसके अलावा तमाम ऐसे अन्य कारक हैं जो किसानों को हतोत्साहित कर खेती छोड़ने को बाधय करते हैं। असल में जैसे चिकित्सा, अध्यापन, वकालत और संगीत आदि पहले व्यवसाय न होकर, वृत्ति थे वैसे ही कृषि भी एक वृत्ति ही हैं, यह अलग बात है कि आज लगभग सभी वृत्तियाँ व्यवसाय में बदल गयी हैं। बड़े किसानों या फार्म हाउस वालों की बात छोड़ दी जाय तो छोटा किसान आज भी अपनी धारती माता को छोड़ने के बारे में सोच नहीं पाता, भले ही उसे तमाम तरह के घाटे व नुकसान इससे हो रहे हों। यही कारण है कि किसान भारी तादाद में आत्महत्या कर रहे हैं। प्रकृति की मार, बाजार का खेल तथा साहूकारों के शोषण के बाद अब एक और कारक भी किसानों के उत्पीड़न में शामिल हो गया है- हायब्रिड के नाम पर निर्वंश बीज। यह देखने में आ रहा है कि कीटरोधी तथा अधिक उपज देने वाले के तौर पर प्रचारित हो रहे तथाकथित हायब्रिड बीजों में ऐसे निर्वंश बीज भी आ रहे हैं जो खेत में तैयार होने पर तो बहुत अच्छे लगते हैं लेकिन उनमें या तो बीज ही नहीं होते या फिर इनके बीज में अंकुरण क्षमता ही नहीं होती। गत वर्ष बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान आदि प्रांतों में हजारों किसानों ने उड़द, तिल व मक्का के ऐसे ही बीज बोये और नतीजे में उनके सामने निर्वंश बीज आये। इन फसलों की बालें तो बड़ी-बड़ी और तंदुरुस्त आयीं लेकिन उनमें दाने नहीं थे। किसान लुट गये! उनकी सिर्फ एक फसल नहीं बरबाद हुई बल्कि अगली फसल बोने को भी उन्हें लाले पड़ गये। ऐसी ही परिस्थितियों में किसान सूदखोरों के जाल में फॅंस जाता है।
              वर्ष 2010 में बीज बिल में यह प्रावधान किया गया था कि बीजों की शुध्दता और उर्वरता यानी अंकुरण क्षमता को मानकों के अनुरुप न रखने पर एक लाख रुपये का जुर्माना तथा नकली बीज बेचने पर एक साल की सजा व पॉच लाख रुपये का जुर्माना देना होगा। यह नाकाफी है। इसमें किसानों को कुछ नहीं मिलता और इस बात के प्राविधान किये जाने चाहिए कि न्यूतनतम क्षतिपूर्ति किसानों को मिले। देश में अभी जो नामी-गिरामी बीज कम्पनियॉ काम कर रही हैं उनमें से पॉयनियर, मायको व मोंसेंटो ने निर्वंश बीजों को बेचा बल्कि राजकीय बीज निगम के बीज भी निर्वंश साबित हुए लेकिन कानून में ऐसी कम्पनियों पर जिम्मेदारी डालने की व्यवस्था ही नहीं है। देश में फसल बीमा योजना लागू है लेकिन आम किसान उससे वाकिफ नहीं है। सहकारी समितियों पर सदस्य किसान के उर्वरक खरीदने पर स्वत: ही एक अल्वावधि का बीमा लागू हो जाता है जो किसानों के दुर्घटनाग्रस्त होने पर क्षतिपूर्ति करता है लेकिन यह भी कागजों में ही है और क्योंकि अधिकांश सहकारी समितियॉ भ्रष्टाचार की शिकार हैं, इसलिए यह योजना प्रभावी नहीं है।
               कृषि की तरफ पर्याप्त धयान न दिये जाने से हालात असंतुलित हो गये हैं। एक तरफ तो धान-गेहॅू का इतना अधिक उत्पादन हो रहा है कि हमारे सरकारी भंडारों में इसे रखने की भी जगह नहीं है लेकिन दूसरी तरफ किसान बदहाल है और उसकी आत्महत्या करने की दर में बढ़ोत्तरी हो रही है। असल में कृषि जोतों के निरंतर छोटा होते जाने तथा उनपर निर्भरता बढ़ने से भी ऐसी समस्याऐं हो रही हैं। इनका एक समाधान बापू ने बताया था, कुटीर उद्योग के रुप में। वास्तव में कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देकर सरकारें गॉव की आबादी को गॉव में ही रोक सकती हैं। कुछ उत्पादों को कुटीर उद्योग के तौर पर चिन्हित कर उन्हें बड़े उद्योगों के लिए मना कर दिया जाय। बड़े उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं पर ज्यादा कर लगाकर छोटे-लघु व कुटीर उद्योगों को संरक्षण दिया जा सकता है। ऐसा किये जाने पर किसान अपनी छोटी खेती से बचे समय में घर पर या नजदीक के किसी उत्पादन केन्द्र पर कामकर अपनी आय बढ़ा सकते हैं। वर्तमान समय में पशुधन पर भी ज्यादा जोर नहीं दिया जा सकता क्योंकि जहाँ खेत कम हैं वहॉ इनके लिए चारे की समस्या आ जाती है। काफी अरसे से गोदाम और छोटे शीतगृहों की देश व्यापी श्रंखला बनाने की बात केन्द्र व राज्य सरकारें कर रही हैं लेकिन अभी यह क्रियान्वित नहीं हो पाया है। असल में कृषि में सरकारी निवेश ही काफी कम है। राज्य सरकारें तो और भी उदासीन हैं। सरकारी निवेश बढ़े और ठोस योजनाएं बनें तो निजी क्षेत्र भी इसमें अपना निवेश करे। अब इस सच्चाई से मुॅह नहीं मोड़ा जा सकता कि अमेरिका जैसा देश भी अपने किसानों को मुक्तहस्त अनुदान बॉट रहा है ताकि किसान खेती के काम में लगे रहें और अनाज उत्पादन होता रहे। (15 अक्टूबर-2012 )

Wednesday, October 17, 2012

मुलायम के दबाव में उ.प्र सरकार -- सुनील अमर


देश के सबसे युवा मुख्यमंत्री के रुप में अखिलेश यादव ने लगभग छह माह पूर्व उत्तर प्रदेश जैसे महाप्रदेश की बागडोर संभाली थी। इससे पूर्व अखिलेश ने कभी भी शासन में किसी दायित्व को नहीं संभाला था। इसलिए हर लिहाज से इस नये और युवा मुख्यमंत्री के कार्यकाल को ऑकने के लिए यह समय अत्यन्त कम है फिर भी चुनाव में किये गये अपने वादों पर उन्होंने अमल भी शुरु कर दिया है। बेरोजगारों को भत्ता तथा राजकीय नहरों से फसलों की मुत सिंचाई तथा कन्या विद्या धन जैसी योजनाऐं शुरु की जा चुकी है तथा किसानों के कर्जमाफी जैसी कई अन्य घोषणाओं के क्रियान्वयन पर मंथन चल रहा है। लिंगदोह समिति की सिफारिशों के अनुरुप छात्रसंघों के चुनाव कराने की घोषणा कर दी गई है।
                अखिलेश के पिता श्री मुलायम सिंह यादव सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। चुनाव परिणाम आने के बाद कई दिनों तक यह उहापोह बना हुआ था कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा! अखिलेश कहते थे कि नेताजी (मुलायम सिंह को पार्टीजन इसी सम्बोधन से बुलाते हैं) ही मुख्यमंत्री बनेंगें और नेता जी कहते थे कि अखिलेश बनेंगें। दोनों के बयानों से यह बिल्कुल साफ लगता था कि दोनों ही मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। असल में यह एक परिवार की राजनीतिक विरासत का तनावपूर्ण हस्तांतरण था जिसमें मुलायम सिंह ने बहुत धौर्य और दूरगामी सोच से काम लिया। चुनाव प्रचार से भी पहले से पिता-पुत्र एक साथ न के बराबर देखे जा रहे थे। जानना दिलचस्प होगा कि अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने के फैसले के बाद जब पिता-पुत्र यानी मुलायम-अखिलेश एक ही गाड़ी में बैठकर सपा मुख्यालय से बाहर निकले तो यह एक खबर बन गयी थी कि आज मुलायम-अखिलेश एक ही गाड़ी में बैठै!
               उत्तर प्रदेश से हटने के बाद स्वाभाविक है कि मुलायम सिंह के पास राष्ट्रीय राजनीति का ही विकल्प बच रहा था क्योंकि देश के किसी अन्य राज्य में सपा का कोई जनाधार नहीं है। देश में जितने भी क्षेत्रीय राजनीतिक दल हैं उसमें सपा प्रमुख ऐसे व्यक्ति हैं जो केन्द्रीय राजनीति में सबसे ज्यादा सक्रिय हैं। वह न सिर्फ केन्द्रीय रक्षा मंत्री रह चुके हैं बल्कि एक समय (1996 में) तो प्रधानमंत्री बनते-बनते भी रह गये थे। सुधी पाठकों को याद होगा कि केन्द्रीय रक्षा मंत्री रहते हुए भी मुलायम सिंह यादव के लिए उत्तर प्रदेश ही समूचा हिन्दुस्तान था और वे जरा सा भी मौका मिलते ही रक्षा वायुयानों के काफिले के साथ लखनऊ आ धमकते थे! अब मुलायम सिंह को लगता है कि केन्द्र में ऐसी राजनीतिक परिस्थितियाँ बन चुकी हैं कि वे एक बार फिर अपने खोये हुए अवसर को पाने का प्रयास कर सकते हैं। यह तभी संभव है जब उनकी पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव में इतनी सीटें प्राप्त करे कि वे दबाव की राजनीति कर सकें। मुलायम ने कई बार कहा भी है कि अगर उन्हें 50 से अधिक सीटें मिलती हैं तो उन्हें प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक नहीं सकता। यह 50 सीटें उन्हें उत्तर प्रदेश से ही मिलने की उम्मीद है और इसे पाने के लिए स्वाभाविक हैं कि वे राज्य सरकार को इस्तेमाल कर रहे हैं। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर केन्द्र सरकार को लेकर मुलायम सिंह के कई फैसले ऐसे हैं जो अगर अखिलेश सिंह को करने होते तो शायद वे दूसरी तरह या जरा बाद में करते।
                  मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सामने आज दो तरह की राजनीतिक चुनौतियॉ हैं- एक तो आगामी लोकसभा चुनाव तथा दूसरा, विधानसभा का अगला चुनाव। अखिलेश के उपर अगर मुलायम सिंह की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का बोझ न हो तो उनके पास साढ़े चार साल का अच्छा खासा वक्त है और वे अपनी प्रबल बहुमत की सरकार के सहारे अपनी चुनावी घोषणाओं को बिना किसी अफरा-तफरी के अमली जामा पहना सकते हैं लेकिन उनकी सरकार की एक अग्नि परीक्षा लोकसभा चुनाव के रुप में सामने है जिसके लिए वक्त बहुत कम बचा है और मुसलमानों को खुश करने जैसी जिन योजनाओं के क्रियान्वयन से लोकसभा चुनाव में सीटें बढ़ाने का प्रयास मुलायम सिंह कर रहे हैं उनसे प्रदेश का दूसरा वर्ग खासा नाराज हो रहा है। इस काम में मुलायम सिंह ऐसे दत्त-चित्त होकर लगे हैं कि उनकी सबको साथ लेकर चलने की समाजवादी सोच जाने कहॉ तिरोहित हो गयी है। मुलायम के पुराने साथी तथा सपा का मुस्लिम चेहरा बताये जा रहे कैबिनेट मंत्री आजम खॉ प्रदेश में सुपर मुख्यमंत्री बन गये हैं। उनकी कार्यप्रणाली इतनी निरंकुश और बदमिजाज हो गयी है कि पार्टीजनों से लेकर नौकरशाह तक त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। आजम की ही तरह कई और वरिष्ठ मंत्री हैं जो आज भी अखिलेश को लड़का ही समझते हैं। इन्हें बर्दाश्त करना अखिलेश के लिए अपरिहार्य हो गया है। स्वाभाविक है कि अगर पिता मुलायम सिंह का दबाव न होता तो या तो ये मंत्री अपनी आदतें सुधारते या फिर बाहर का रास्ता देखते। मुलायम की मजबूरी यह है कि वे अपने इन पुराने साथियों को इस वक्त नियंत्रित नहीं कर सकते क्योंकि उनकी निगाह निकटस्थ लोकसभा चुनाव पर है। मुलायम सिंह के एक और पुराने साथी तथा फिलहाल कॉग्रेसी के केन्द्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा इन दिनों फिर मुलायम के गुन गाने लगे हैं। लोकसभा चुनाव में कॉग्रेस के संदिग्धा भविष्य से आशंकित श्री वर्मा अगर सपा में शामिल होते हैं तो वह निश्चय ही अखिलेश के लिए दूसरे आजम खाँ साबित होंगें।
                 केन्द्र की कॉग्रेसनीत संप्रग सरकार ममता-माया-मुलायम की बैसाखी पर टिकी है जिसमें से अपनी घोषणा के अनुरुप ममता बनर्जी ने संप्रग से किनारा कर लिया है। इसी मानसून सत्र में कोयला आवंटन घोटाले के मुद्दे पर मुलायम सिंह ने वाम दलों के साथ मिलकर संसद पर धरना दिया था और उनके तेवर कॉग्रेस पर बेहद आक्रामक थे लेकिन अचानक ही वे पलटी मार गये और कॉग्रेस के गुण गाने लगे। पता नहीं लोकसभा चुनाव में मुलायम अपनी इस कला से कौन सा लाभ उठायेंगें लेकिन यह सच है कि उत्तर प्रदेश में अखिलेश की बोलती बंद है। समर्थन के मामले पर अखिलेश अगर ममता बनर्जी जैसा स्टैंड ले सकते तो विधानसभा चुनावों में उनका ज्यादा भला हो सकता था। सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर मुलायम ने विरोध कर अगड़ों के पक्ष में जो स्टैंड लिया था, उनके इस कृत्य ने उसे नेपथ्य में डाल दिया है।
                मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में 50-60 सीटें पाने का मंसूबा रखते हैं। प्रदेश में वोटों का बॅटवारा सिर्फ कॉग्रेस और सपा के बीच ही नहीं होगा, उसमें भाजपा और बसपा भी होगी। प्रदेश में अभी लोकसभा चुनाव लायक माहौल सपा सरकार नहीं बना पाई है। ऐसे में चुनाव अगर समय पूर्व होते हैं तो सपा को जितनी सीटें पिछले लोकसभा चुनाव में मिली हैं उन्हीं को संभालना बड़ी बात होगी। प्रदेश की कुल 80 सीटों में ही सपा, भाजपा, बसपा और कॉग्रेस को हिस्सा मिलना है। हो सकता है कि कॉग्रेस अपनी मौजूदा सीटों में से भी कुछ को खो बैठे लेकिन उसकी खोयी सीट सपा को ही क्यों मिले, यह एक बड़ा और तकनीकी प्रश्न है। कॉग्रेस को अंधा भक्त की तरह समर्थन दे रही सपा अगर अपनी मौजूदा लोकसभा सीटों में से भी कुछ को खो देती है तो यह अखिलेश यादव की सरकार के लिए काफी संकट की बात होगी। अखिलेश के किसी भी बयान से आज तक यह नहीं लगा है कि वे केन्द्रीय राजनीति में किसी प्रकार की रुचि ले रहे हैं| 0 0 

समाचारों के प्रस्तुतिकरण पर प्रश्नचिह्न -- सुनील अमर

माचारों के संकलन और उनके प्रसारण में कितनी आजादी होनी चाहिए, यह विषय दुनिया भर में शुरु से ही अनिर्णीत रहा है। समाचार माध्यमों के जन्म के बाद से ऐसे अनेक अवसर दुनिया भर में आये हैं जब यह महसूस किया गया कि इन माध्यमों ने अपनी हदें लाँघी हैं और उसी के साथ-साथ ऐसी आवाजें भी उठीं कि इन्हें नियंत्रित किया जाना चाहिए। विश्व में ऐसे अनेक देश हैं जहाँ लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के बावजूद प्रेस को नियंत्रित किया गया है। अपने देश में भी आपातकाल के अलावा कई बार ऐसे प्रयास हो चुके हैं लेकिन अंतत: यही उचित माना गया कि यह अति महत्त्वपूर्ण माध्यम स्व-नियंत्रित रहे और अपनी हदें भी खुद ही निर्धारित करे। यह सब आरोप और मान्यताऐं लम्बे समय से ऐसे ही खुसर-पुसर तरीके से चल रही थीं लेकिन नब्बे के दशक के बाद के सूचना विस्फोट ने तो जैसे सारी सीमा ही तोड़ दी। इस विस्फोट ने जिस इलेक्ट्रॉनिक माध्यम को जन्म दिया उसने तो 'खुल जा सिम-सिम' के मंत्र को ही जैसे साकार कर दिया! यह सच है कि आज समाचार माध्यमों की स्वतंत्रता को काबू में करने की जितनी भी मॉगें की जा रही हैं वो तीन चौथाई इलेक्ट्रॉनिक माध्यम को लेकर ही है। इस माध्यम ने नैतिकता और मर्यादा की सामाजिक मान्यताओं का कुछ ऐसा उल्लंघन किया कि इसकी देखा-देखी प्रिंट मीडिया भी बहक उठा। मुम्बई में ताजमहल होटल पर हुए आतंकी हमले के बाद एक बार बड़ी शिद्दत से मीडिया की रिपोर्टिंग और उसकी लक्ष्मण रेखा पर चर्चा शुरु हुई। इस प्रकरण पर ताजा दखल दिल्ली उच्च न्यायालय का है।
               बच्चों से जुड़ी मीडिया रिपोर्टिंग के एक मामले पर सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने बीते पखवारे न सिर्फ एक दिशा निर्देश जारी किया बल्कि साफ-साफ कहा कि मीडिया को संयम और संतुलन बरतते हुए न्यायालय द्वारा जारी दिशा निर्देशों का पालन करना चाहिए। मामला यह था कि इसी साल की शुरुआत में दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में दो साल की एक बालिका भर्ती करायी गई जिसे एम्स के अधिकारियों ने फलक नाम दिया क्योंकि भर्ती के समय बालिका अनाथ थी। उसे गंभीर चोटें आई थीं और बावजूद सारे संभव उपचार के वह तीन महीने बाद हृदयाघात के कारण चल बसी। आशंका थी कि बच्ची की निर्ममता पूर्वक पिटाई की गई थी। लम्बे अरसे तक यह प्रकरण मीडिया में प्रमुखता से छाया रहा और इसने कई तरह की सामाजिक बहसों को भी जन्म दिया। इस दौरान मीडिया ने फलक के वास्तविक माता-पिता की खोज कर यह भी पता लगाया था कि कैसे वह देह मंडी की उत्पाद बनकर इस गति को पहुँची थी। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक वकील ने इस सम्बन्ध में वहाँ के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखकर शिकायत की थी कि जिस प्रकार से समाचार माध्यम दो साल की बच्ची फलक के बारे में उसके फोटो और तमाम निजी जानकारियाँ प्रचारित कर रहे हैं, उससे उसकी निजता तथा 'किशोर वय न्याय कानून' यानी जे.जे.एक्ट का उल्लंघन है। न्यायालय ने इसी पत्र पर संज्ञान लेते हुए न सिर्फ मामले की सुनवाई की बल्कि एक कमेटी का गठन भी किया जिसमें बाल न्यायालय बोर्ड के पीठासीन अधिकारी, राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग (एन.सी.पी.सी.आर.) केन्द्र व दिल्ली सरकार के सम्बन्धित अधिकारी, स्वयं सेवी संस्था, मीडिया और भारतीय प्रेस परिषद के एक-एक सदस्य को शामिल किया गया था। इस कमेटी ने बीती फरवरी में ही अपनी अनुशंषा न्यायालय को सौंप दी थी जिसमें सिफारिश की गई है कि बच्चों से सम्बन्धित मामलों में बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की मीडिया की आदत पर रोक लगायी जानी चाहिए तथा बच्चों की पहचान व उनकी निजता से सम्बन्धित बातों को भी प्रसारित नहीं किया जाना चाहिए ताकि उनके मानसिक व शारीरिक विकास पर कोई विपरीत असर न पड़े। सुनवाई कर रही पीठ ने राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग, भारतीय प्रेस परिषद, सूचना व प्रसारण मंत्रालय, प्रसार भारती व अन्य सम्बन्धित विभागों को निर्देश दिया है कि वे कमेटी की सिफारिशों का प्रचार-प्रसार कर बाल हितों की रक्षा करें। हालाँकि न्यायालय ने यह सदाशा भी प्रकट की है कि मीडिया स्वयं ही संयम से रिपोर्टिंग कर जे.जे.एक्ट का पालन करेगा।
              अन्यान्य कारणों से मीडिया आज अतिरंजित होकर रिपोर्टिंग करता है। इसके पीछे प्राय: वैचारिक व व्यावसायिक कारण ही होते हैं लेकिन एक तीसरा कारण भी होता है और वह है नासमझी का। बहुधा ऐसा होता है कि बच्चों या फिर वयस्कों के मामलों में भी रिपोर्टिंग करते समय संवाददाता यह भूल जाता है कि उस व्यक्ति की कोई निजी जिन्दगी भी है और कैमरे के सामने या अखबार में छप जाने के बाद उसे अपने परिवेश में लोगों से दो-चार होना पड़ेगा। बच्चों के उत्पीड़न या महिलाओं के दैहिक शोषण की परिचय सहित खबरें उनका शेष जीवन भी नारकीय बना देती है। हाल के दशकों में मीडिया की अतिरंजना का जबरदस्त उदाहरण अयोध्या में बाबरी मस्जिद पर हमले के समय मिला था जब एक खास विचारधारा वाले समाचार पत्रों ने पुलिस गोलीबारी से मरने वालों की संख्या के बारे में बताया था कि मृतकों को ट्रकों में भरकर सरयू नदी में फेंका गया था! हालॉकि उन्हीं अखबारों ने एक-दो दिन के बाद मृतकों की संख्या को काफी कम करके अपनी ही पूर्ववर्ती खबर को गलत साबित किया था और इस काम के लिए बाद में भारतीय प्रेस परिषद ने ऐसे अखबारों की भर्त्सना भी की थी। वर्ष 2008 में मुम्बई में हुए ताज हमले के समय भी मीडिया के अति उत्साह को लेकर तमाम सवाल उठाये गये थे और प्रतिबंध लगाने की भी बात उठी थी लेकिन अंतिम निष्कर्ष यही निकला था कि मीडिया आत्मानुशासित रहे तभी उचित होगा। इसी क्रम में कई वरिष्ठ पत्रकारों ने स्वयं ही एक कमेटी बनाकर आत्मानुशासन के मानदंड तय किये थे। हालॉकि यह कहना मुहाल है कि उसमें से कितनों का पालन किया जा रहा है! यही कारण तो है कि भारतीय प्रेस परिषद जैसी स्वायत्तशाषी व विधायी संस्था ने भी दंड देने का अधिकार नहीं लिया है। वह गलत कृत्यों के लिए समाचार पत्रों-पत्रिकाओं की महज भर्त्सना ही करती है क्योंकि यदि वह दंड देने का अधिकार लेगी तो उसके दंड के विरुध्द अपील भी होगी और इस प्रकार उसकी सर्वोच्चता जाती रहेगी।
               समाचार संकलन व प्रस्तुतिकरण में संतुलन का निरंतर अभाव होता जा रहा है। खबरों के साथ विचारों का घालमेल कर देना अब आम बात हो गई है। समाचार लेखन में गलत शब्दों का प्रयोग कर अर्थ का अनर्थ (जैसे आरोपित की जगह आरोपी तथा मुखालफ़त की जगह खिलाफ़त जैसे बहु प्रयुक्त शब्द) तो किया ही जा रहा है, इससे भी ज्यादा खतरनाक काम तो तमाम समाचारों को अदालती फैसले की तरह लिखने में किया जा रहा है। मसलन,पुलिस कहती है कि उसने चार बदमाश पकड़े तो संवाददाता भी लिख देता है कि चार बदमाश पकड़े गये!जबकि प्राय:90 प्रतिशत मामलों में इन कथित बदमाशों को अदालत बाइज्जत बरी कर देती है क्योंकि पुलिस का पक्ष बेहद लचर होता है। यही रवैया सेक्स रैकेट के मामले में होता है जब अखबार छापता है कि चार काल-गर्ल पकड़ी गई!वो तो भुक्तभोगियों के पास संसाधन या जानकारी का अभाव ही इन अखबारों की बचत बन जाता है अन्यथा ऐसे 'बदमाश' या 'कालगर्ल' अगर न्यायालय चले जॉय तो ये अखबार सजा के पात्र हो सकते हैं। हैरत तो यह देखकर होती है कि जिस समय में अप्रशिक्षित लेकिन स्वत:स्फूर्त लोग इस क्षेत्र में आते थे तब इसकी मर्यादा कहीं ज्यादा बनी रहती थी जबकि आज अगर मीडिया ने उद्योग का रुप ले लिया है तो इसके लिए प्रशिक्षित कामगार तैयार करने की फैक्टरियाँ भी खूब खुल गई हैं फिर भी अधकचरापन बढ़ता ही जा रहा है। ऐसा संभवत: सम्पादक नामक संस्था में हुए ह्रास के कारण ही हो रहा है। सम्पादक कभी स्वयं में एक पाठशाला हुआ करता था। 0 0

उ.प्र. सरकार के अंतर्विरोध --- सुनील अमर


देश के सबसे युवा मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार अपने व्यापक अंतर्विरोधों के कारण दिन-ब-दिन न सिर्फ जनता की आकांक्षाओं पर निराशा थोप रही है बल्कि कैबिनेट के शिवपाल यादव व आजम खाँ जैसे कई वरिष्ठ मंत्रियों के उन्मुक्त आचरण की वजह से बार-बार हास्यास्पद स्थिति भी पैदा हो रही है। यह सच है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इससे पूर्व कभी किसी सरकार में नहीं रहे हैं और इस प्रकार अपने पहले अवसर पर ही वह प्रदेश के इस सर्वोच्च प्रशासनिक दायित्व के पद पर आसीन हैं। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर भी अपने लम्बे राजनीतिक जीवन में कभी किसी कैबिनेट में शामिल नहीं हुए थे और सीधे प्रधानमंत्री ही बने थे। स्व. राजीव गॉधी भी पहली ही बार में प्रधानमंत्री बन गये थे। श्री अखिलेश यादव को राजनीतिक व प्रशासनिक अनुभव बहुत कम है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य का मुख्यमंत्री होना गहरे राजनीतिक अनुभव की मॉग करता है जिसकी स्वाभाविक कमी अखिलेश के फैसलों और कैबिनेट पर उनके नियंत्रण में झलकती है।
                प्रदेश में इस बार जब चुनाव में समाजवादी पार्टी को प्रबल बहुमत प्राप्त हुआ तो इस बात पर कई दिनों तक रस्साकशी हुई कि मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव बनें या उनके पुत्र अखिलेश। अखिलेश कहते थे कि नेता जी ही बनेंगें और नेता जी यानी मुलायम कहते थे कि अखिलेश बनेंगें। ये सच्चाई है कि मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बनना चाहते थे लेकिन पार्टी की पसंद के बहाने हुआ यह एक पारिवारिक सत्ता हस्तांतरण था। शुरु में ऐसा सोचा जा रहा था कि अखिलेश एक रिमोट कंट्रोल्ड मुख्यमंत्री होंगें लेकिन ऐसा कुछ खास लगा नहीं। अखिलेश के कुछ फैसलों में ऐसा अधकचरापन झलका कि वह उनके और उनके उन्हीं जैसे सलाहकारों का ही काम लगा। बेरोजगारी भत्ता में तमाम तिकड़म और विधायकों को मंहगी कार खरीदवाने जैसे फैसले इसके प्रमाण हैं।
                सरकार में सबसे बड़ी दिक्कत कई मंत्रियों का अत्यन्त वरिष्ठ तथा मुख्यमंत्री का बहुत कनिष्ठ होना है। यह फ़र्क 4-6 साल का नहीं, पीढ़ियों का है। आजम खाँ जैसे नेता समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्य और सपा प्रमुख मुलायम सिंह के दोस्त हैं और इसी तरह अवधेश प्रसाद, शिवपाल सिंह यादव, भगवती सिंह तथा अहमद हसन आदि मुलायम सिंह के हमउम्र तथा संस्थापक सदस्य हैं। इसमें शिवपाल तो अखिलेश के सगे चाचा हैं। इतने वरिष्ठों से मुलायम का बतौर मुख्यमंत्री काम लेना तो स्वाभाविक था लेकिन अखिलेश का इन पर वह नियंत्रण नहीं है। शिवपाल तो शुरु से ही उच्छृंखल स्वभाव के रहे हैं। सपा की पिछली सरकार में हुई पुलिस भर्ती धांधली के निर्देशक शिवपाल ही बताये गये थे। इस बार भी उन्होंने पिछले महीने अधिकारियों की एक बैठक में कथित तौर पर यह कहा कि आप सब चोरी तो कर सकते हैं लेकिन डाका नहीं डाल सकते। बाद में, शिवपाल मार्का नेता जैसा करते हैं, उन्होंने भी कह दिया कि मीडिया की कवरेज ही गलत थी। वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री आजम खॉ ने भी गत सप्ताह विधान सभा सचिवालय में एक मीटिंग के दौरान एक वरिष्ठ अधिकारी को असंसदीय शब्दों का प्रयोग कर भगा दिया।
                  यह सच है कि प्रदेश की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है। कई मामलों में तो निवर्तमान सरकार से भी अधिक खराब हालात हो गये हैं जैसे विद्युत आपूर्ति व मंहगाई। यह कहा जा सकता है कि प्रदेश में बरसात ठीक से न होने के कारण ऐसा हुआ है लेकिन जनता को तर्क नहीं परिणाम चाहिए। जब किसान के घर में गेंहॅू था तो व्यापारी उसे 950 रुपये कुन्तल भी नहीं खरीद रहे थे आज वही गेंहूॅ बाजार में 1600 से 1700 रुपये कुंतल बिक रहा है। प्रदेश में धान रोपाई के समय बरसात नहीं हुई तो बाजार में यूरिया खाद उपलब्ध थी लेकिन जब खाद डालने का समय आया तो बाजार से यूरिया गायब है या फिर कालाबाजारी में बिक रही है। उपर से जले पर नमक छिड़कने का काम मुख्यमंत्री के चाचा शिवपाल यादव कर रहे हैं कि प्रदेश में खाद की भरमार है!पूरे पॉच साल यही परिस्थितियॉ मायावती की बसपा सरकार में थीं। सरकार के सारे आश्वासन, केन्द्र सरकार की आर्थिक सहायता व चीनी निर्यात पर छूट देने के बावजूद प्रदेश के गन्ना किसानों का अरबों रुपया चीनी मिलों के पास बकाया पड़ा है और सरकार का कोई भी मंत्री सुनने को तैयार नहीं है।
                        प्रदेश की मौजूदा कैबिनेट में सबसे बड़े स्वेच्छाचारी मोहम्मद आजम खॉ हैं। अपने कार्य व्यवहार में वे खुद को मुख्यमंत्री ही मानते हैं। उनका एकमात्र गुण सपा में वरिष्ठ मुसलमान नेता होना है। प्रदेश में सपा की प्रत्येक सरकार वे कैबिनेट मंत्री रहे हैं। जितना उन्हें अखिलेश झेल रहे हैं उससे ज्यादा मुलायम सिंह झेल चुके हैं। गत वर्ष उनकी सपा में वापसी हुई है। अखिलेश के लिये यह खेल नया है जबकि उनके पिता मुलायम सिंह इस तरह के कई लोगों को हताश,निराश तत्पश्चात मनाकर वापस पार्टी में ला चुके हैं। आजम खॉ की ही तरह एक समय में बेनी प्रसाद वर्मा भी सपा के लिए अक्सर सिरदर्द हुआ करते थे। बेनी भी सपा के संस्थापक सदस्य थे लेकिन तब अमर सिंह के नियंत्रण में मुलायम सिंह हुआ करते थे इसलिए अमर सिंह ने अन्यान्य कारणों से आजम और बेनी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया। आजम तो गत वर्ष वापस आ गये लेकिन बेनी प्रसाद वर्मा अब कॉग्रेस में हैं और केन्द्रीय मंत्री का पद सुशोभित कर रहे हैं। बेनी का बड़बोलापन अभी भी गया नहीं हैं और अपनी आदत के अनुसार कॉग्रेस को भी गाहे-बगाहे मुसीबत में डालने का काम करते रहते हैं।
                   समाजवादी पार्टी पहली बार प्रबल बहुमत में आयी है और यह अच्छा ही होता अगर मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने होते। यह पहला अवसर होता जब उन्हें अपनी मर्जी और हनक के अनुसार सरकार चलाने को मिलती। वो एकाध साल में सरकार को पटरी पर लाकर अखिलेश को कुर्सी सौंप सकते थे और अखिलेश भी कुछ दिन कैबिनेट का ककहरा सीख लेते, लेकिन शायद अखिलेश में धौर्य खत्म हो गया था। राजनीतिक सूत्र बताते हैं कि अखिलेश कोई भी रिस्क नहीं लेना चाहते थे। आज स्थिति यह है कि कैबिनेट के तमाम वरिष्ठ मंत्री अपनी मर्जी के हो गये हैं। इसका सबसे बुरा असर नौकरशाही पर पड़ा है और वह प्रभावशाली नेताओं की गणेश परिक्रमा कर अपनी जेबें भरने में लगी है। यह नौकरशाही पिछली सरकार में यही कर रही थी। यही वजह है कि जनता को कोई भी बदलाव दिख नहीं रहा है। मुलायम सिंह अपनी पिछली सरकार में भी आपातकाल में अन्यान्य कारणों से जेल भेजे गये लोगों को लोकतंत्र-सेनानी घोषित कर रुपया 3000 प्रतिमाह की पेंशन देने की तैयारी में हैं। सभी जानते हैं कि आपातकाल में महज राजनीतिक व्यक्ति ही नही ज्यादातर अपराधी ही जेल भेजे गये थे। अपनी पिछली सरकार में जब मुलायम सिंह ने ऐसा किया था तो भी अपराधी तत्त्वों द्वारा लाभ उठाने की शिकायतें हुई थी। असल में मुलायम सिंह का यह प्रयास महज कॉग्रेस को चिढ़ाने के लिए था। सभी जानते हैं कि कॉग्रेस ने ही आपातकाल लगाया था। मुलायम के ऐसा करने से यह बात लगातार चर्चा में रहेगी। सरकार चाहे कितनी भी बढ़िया नीतियॉ बना रही हो, उद्योग धन्धों को बढ़ावा दे रही हो तथा यमुना एक्सप्रेस वे बना रही हो, आम आदमी तो यह देखता है कि उसके रोटी, कपड़ा और मकान का क्या हुआ? वह यह जानना चाहता है उसके बच्चों की शिक्षा व रोजी के लिए क्या संभवनायें इस सरकार ने पैदा की हैं। यह अफसोसजनक ही है कि अखिलेश यादव की सरकार 'फर्स्ट इम्प्रेशन' के तौर पर ऐसा कुछ भी नहीं कर सकी है। मुलायम सिंह के राजनीतिक गुरु डॉ. राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि ' जिन्दा कौमें पॉच साल इन्तजार नहीं करतीं '। मुलायम सिंह को भी राजकाज सुधारने के लिए दखल देना ही चाहिए अन्यथा हो सकता है कि पॉच साल बाद जनता दुबारा इंतजार करने को राजी न हो! 0 0 

चिकित्सक और चिकित्सा पध्दतियों का घालमेल --- सुनील अमर



ह अब एक सामान्य सी बात है कि चिकित्सा की किसी भी पध्दति में डिग्री लिया हुआ व्यक्ति बड़े आराम और अधिकार के साथ अंग्रेजी दवाओं की प्रैक्टिस करता है। अधिकांश मरीज यह जानते ही नहीं कि अंग्रेजी दवाओं से उनका इलाज करने वाला डॉक्टर ऐसा करने के लिए अधिकृत नहीं है। देश के प्रत्येक हिस्से में ऐसे हजारों डॉक्टर मेडिकल प्रैक्टिस करते मिल जायेंगे जिन्होंने पढ़ाई तो आयुर्वेद, होम्योपैथ या फिर यूनानी पध्दति में की है लेकिन मरीजों का इलाज वे इन दवाओं से न करके ऍग्रेजी दवाओं से ही करते हैं। इस सिलसिले में एक दिलचस्प वाकया उत्तर प्रदेश का है जहॉ कुछ अरसा पहले तक सरकारी अस्पतालों में तैनात होने वाले आयुर्वेद व होम्योपैथ के डॉक्टर भी ऍग्रेजी दवाऐं ही मरीजों को लिखते व देते थे। प्रदेश में सत्तारुढ़ नयी सरकार ने गत माह एक शासनादेश जारी कर आयुर्वेद, होम्यापैथ व यूनानी पध्दति के समस्त डॉक्टरों द्वारा ऍग्रेजी दवाओं के प्रयोग पर रोक लगा दी तथा इसके उल्लंघन पर आपराधिक कार्यवाही करने का निर्देश भी दिया। इस रोक के विरुध्द कुछ चिकित्सकों ने वहॉ के उच्च न्यायालय में अपील की तो गत सप्ताह अदालत ने सरकार के कदम को सही बताते हुए कहा कि याची अपनी विधा के विशेषज्ञ हो सकते हैं लेकिन इतने भर से उन्हें मार्डन दवाओं की प्रैक्टिस करने का अधिकार नहीं मिल जाता।
               यह सच है कि देश में एम.बी.बी.एस. डिग्रीधारी डॉक्टरों की भारी कमी है। कमी तो असल में मेडिकल कालेजों की ही बहुत है जहाँ तैयार होकर डॉक्टर निकलते हैं। मेडिकल की पढ़ाई के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षा सी.पी.एम.टी. अत्यन्त कठिन है तथा सीटें बहुत कम होने के कारण प्रत्येक सीट के लिए दावेदारों की संख्या अत्यधिक हो जाती है। प्रशासनिक सेवा की परीक्षाओं की तरह सी.पी.एम.टी. में भी मेरिट के हिसाब से पहले एम.बी.बी.एस. के लिए तत्पश्चात अन्य चिकित्सा पध्दतियों के लिए चयन होता है। हर पध्दति का अपना विशिष्ट पाठयक्रम तथा उपचार विधि होती है। जैसे इंजेक्शन और ऑपरेशन की जो व्यवस्था ऐलोपैथ में है वैसा संभवत: दुनिया की किसी अन्य पध्दति में नहीं है। इधर कुछ वर्षो से कुछ आयुर्वेदिक दवा निर्माताओं ने इंजेक्शन बनाना शुरु किया है लेकिन अन्यान्य कारणों से वह लोकप्रिय नहीं हो पाया है। आयुर्वेद हमारे देश की अत्यन्त प्राचीन चिकित्सा पध्दति है और आज भी दुनिया भर में महत्त्व रखती है लेकिन इसके मुकाबले एलोपैथ महज इसलिए सर्वव्यापी और लोकप्रिय हो गया कि असर करने में इसकी तीव्रता, सर्व सुलभता तथा इस पर हो रहे विस्मयकारी अनुसंधानों ने इसे सरर्वोच्च कर दिया। इसके बजाय आयुर्वेद हजारों साल पुरानी उन किताबों पर आश्रित होकर रह गया है जिन्हें ज्यादातर तो लाल कपड़े में बॉधकर रख दिया गया है और वे पूजा की सामाग्री बनकर रह गये हैं। इनमें कोई भी उल्लेखनीय अनुसंधान नहीं हुआ है। इसी प्रकार होम्योपैथी को भी इस देश में आये दो सौ साल से अधिक हो रहा है लेकिन वह महज पढ़े-लिखे लोगों में ही सिमटी हुई है।
               आयुर्वेद, यूनानी और होम्योपैथ के सिध्दांतकार यह कहते हैं कि उनकी चिकित्सा पध्दति भी तीव्र असरकारी है लेकिन सच यही है कि तात्कालिक असर के मामले में एलोपैथ का कोई सानी नहीं है। इस पध्दति में इंजेक्शन और ऑपरेशन की सुलभता ने इसे सर्वोच्च बना दिया है। चिकित्सक, चाहे वह सरकारी ही क्यों न हो, के पास गया हुआ मरीज तत्काल आराम चाहता है और यह उसे एलोपैथ में ही मिल पाता है। दूसरे, न सिर्फ सरकार अस्पतालों में एलोपैथ पार जोर देती है, बाजार में सर्वाधिक सुलभता भी इन्हीं दवाओं की है। यही कारण है कि अन्य पैथी के चिकित्सक भी इसी पैथी में इलाज करने को प्रमुखता देते हैं क्योंकि यह सहूलियत व व्यवयसाय दोनों दृष्टिकोण से ठीक पड़ता है। लेकिन प्रश्न यहॉ उनकी योग्यता का है। सरकारी अस्पताल हों या समाज में मौजूद प्रायवेट चिकित्सक, अगर एम.बी.बी.एस. डॉक्टर मौजूद हों तो न तो मरीज को अन्य डॉक्टर के पास जाना पड़ेगा और न ही अन्य पैथी के चिकित्सकों को एलोपैथ अपनाने को मजबूर होना पड़ेगा। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि एलोपैथिक दवाऐं तेज असर करने के साथ-साथ, मरीज को अगर अनुकूल न हुई तो नुकसान भी उतनी ही तेजी से करती है और क्षणांश में जानलेवा हो सकती हैं। यही कारण है कि अपात्र व्यक्तियों द्वारा इसकी प्रैक्टिस को गैर कानूनी व दंड योग्य घोषित किया गया है।     राजकीय प्रश्रय किसी भी विधा को शीर्ष पर पहुॅचा सकता है। अंग्रेजी भाषा और एलोपैथी के साथ यही हुआ है। सरकार का सारा जोर एलोपैथी पर रहता है। मेडिकल कॉउसिल ऑफ इंडिया में भी एलोपैथ का ही बोलबाला रहता है। बावजूद इसके, देश में डॉक्टर्स की भारी कमी है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के ऑकड़े बताते हैं कि देश के सामुदायिक केन्द्रों पर चिकित्सकों के लगभग चालीस प्रतिशत पद खाली पड़े हुए हैं। लगभग यही हाल कम्पाउन्डरों का भी है। जितने डॉक्टर हर साल संस्थानों से पढ़कर बाहर निकलते हैं उनमें से अधिकांश विदेश चले जाते हैं और कमाल यह है कि इस पर न तो सरकार को कोई नियंत्रण हैं और न इसकी जानकारी ही कि कितने डॉक्टर्स प्रतिवर्ष देश के बाहर चले जाते हैं।           
 लगभग एक वर्ष से केन्द्र सरकार यह योजना बना रही है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों के लिए तीन वर्षीय पाठयक्रम के आधार पर डॉक्टर्स तैयार किये जॉय जो उसी क्षेत्र में नौकरी या प्रैक्टिस करने को बाध्य हों। इसका ये मंतव्य है कि एक तो डॉक्टरों की कमी को जल्दी पूरा किया जा सके तथा ग्रामीण क्षेत्रों में योग्य डॉक्टर उपलब्ध रहें। इस योजना का सबसे ज्यादा विरोध डॉक्टर ही कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि ये सब-ग्रेड के डाक्टर उनके प्रोफेशन और उनकी हनक को कम कर देंगें। सरकार की आधी-अधूरी कोशिशों के साथ ये अत्यन्त आवश्यक योजना ठंढ़े बस्ते में पड़ी हुई है जबकि ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों व सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर डॉक्टर्स की बहुत किल्लत है। संसद में प्राय: हर बड़े राजनीतिक दल से तमाम डॉक्टर सांसद हैं लेकिन शायद ही इनके द्वारा कभी डॉक्टरों या मेडिकल कॉलेजों की कमी की बात की जाती हो। एलोपैथ के डॉक्टर यदि पर्याप्त संख्या में उपलब्धा हों तो दूसरे पैथ के डॉक्टर से एलोपैथ की दवा लेने मरीज क्यों जाऐंगें। अभी तो स्थिति यह है कि बड़ी संख्या में दवा विक्रेता भी मरीजों का उपचार करते रहते हैं। सरकारी ऑकड़ों के अनुसार हर साल औसत 1200 एम.बी.बी.एस. डॉक्टर विदेश चले जाते हैं और इस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं हैं जबकि ऐसे एक डॉक्टर को तैयार करने में सरकार का करोड़ों रुपया खर्च होता है और ये जिस देश में जाते हैं उन्हें बिना पैसा खर्च किये डॉक्टर मिल जाते हैं। देश में मेडिकल कॉलेज बहुत कम हैं। इस पर भी सितम यह है कि कॉलेजों को मानक के अनुसार न पाने पर मेडिकल काउन्सिल ऑफ इंडिया उनकी सीटें ही कम कर दे रही है। उच्च न्यायालय का आदेश सराहनीय है लेकिन गरीब मरीजों के मामले में यही कहावत सटीक बैठती है कि मरता क्या न करता। जब तक काबिल डॉक्टरों की पर्याप्त उपलब्धता नहीं होगी, मरीज आयुर्वेदिक और होम्यो ही नहीं झोला छाप से भी इलाज कराते रहेंगें। ग्रामीण डॉक्टरों को तैयार करने की योजना पर शीघ्र अमल ही इसका सही हल हो सकता है। जरुरत है कि सरकार डॉक्टरों की धौंस में आये बिना इस योजना को शुरु करे। 0 0