WikiLeaks के खुलासे के बाद अब यह पूरी तरह साफ हो गया है, कि आने वाले दिनों में न सिर्फ़ पत्रकारिता की दशा और दिशा में आमूल-चूल तब्दीलियाँ आने वाली हैं,बल्कि यह दुनिया के तमाम शासकों को भी यह सोचने को मजबूर करेगा कि जो जनता उन्हें अपने ऊपर हुकूमत करने के लिए खुद ही चुनती है, उससे वे कितना छल-कपट कर सकते हैं! इसके अलावा जनता के धन और जनता की सरकार से ही ताकत प्राप्त करके अपने को बड़ा मीडिया घराना और चौथा स्तम्भ मानने वाले कुछ नाखुदाओं को भी '' cut to size '' कर सकती है. यह सब तो होगा ही, सबसे बड़ा काम जो हो सकता है, वह है- व्यवस्था के प्रति विद्रोह रखने वालों को भी एक बड़ा भोंपू उपलब्ध कराना ! भोंपू मैंने लिख दिया है, असहमति रखने वाले इसे बिगुल भी कह सकते हैं.
अब एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि इससे यानी विकिलिकियाई से लाभ किसका होगा? जनता जनार्दन का या फिर उनका, जिनका कि किसी प्रकार से सूचना-स्रोतों पर अधिकार रहेगा ! अभी तक जो कुछ सामने आया है, वह चूँकि पहली बार है, इसलिए हम बहुत आह्लादित से हैं और यह जानना अभी शेष है कि जो दिखाया गया है वह, शो-रूम है कि गोदाम ! अभी तो हम यही मानकर चल रहे हैं कि जुलियन असान्जे ने, जो कुछ भी पाया है वो सब खोल कर रख दिया है! और यह सही भी हो सकता है, अगर उनकी प्रतिबद्धता कोई वैचारिक न होकर सिर्फ़ रहस्योद्घाटन की ही हो ! वैचारिक प्रतिबद्धता होने पर तो सिर्फ़ वही और उतना ही बताया जाता है, जिससे कि अपने विचारों का प्रचार-प्रसार हो. यही कारण है कि वैचारिक प्रतिबद्धता वालों की बातों पर तुरंत या आँख मूंद कर भरोसा नहीं किया जाता!
दूसरों को आईना दिखाने वाला मीडिया इन दिनों खुद आईने के सामने है. अपने को चाँद समझने के मुग़ालते में रहने वाले को अब पता चल रहा है कि उसके ख़ूबसूरत कहे जाने वाले चेहरे पर भी कई बदसूरत दाग और धब्बे हैं! अपने को मीडिया का बड़ा ख़ुदाई फ़ौजदार मानने वाले, इन दाग-धब्बों को क्रमशः छिपाने, मिटाने या चमकाने में लगे हुए हैं! एकाध फ़ौजदार तो इस आधार पर इन दाग-धब्बों को माफ़ कर देने की वक़ालत कर रहे हैं कि अतीत में मीडिया ने बड़े-बड़े घोटालों-भ्रष्टाचारों को उजागर किया है, इसलिए उसकी इस पहली(!) गलती को माफ़ कर दिया जाना चाहिए ! कमाल है! भाई, यही सहूलियत आप और अपराधियों के बारे में क्यों नहीं चाहते ? आखिर वे भी तो अदालतों में कसम खाते हैं कि दुबारा अपराध नहीं करेंगें! या आपने बिल्कुल तय ही कर लिया है कि मीडिया वाले Super -Duper चीज़ हैं! अब तो आप रहम करिए देश की जनता पर और ये फ़ैसला उसे ही करने दीजिये प्लीज़.
WikiLeaks का दिखाया रास्ता बहुत सस्ता, सुलभ, आसान और बेहद असरदार है.लेकिन यह ऐसा ही बना रहने पायेगा, इसमें संदेह है, क्योंकि यह सारी दुनिया के स्थापित तंत्रों के खिलाफ है.और दुनिया भर के शासन-तंत्र और बड़े मीडिया समूह इसका गला घोटने का मंसूबा सरे-आम पाले हुए हैं.फिर भी इस विकिलिकियाई से अगर हमें काफ़ी उम्मीदें हैं तो महज़ इस कारण कि इसका उत्स हम-आप ही हैं.हम-आप अगर चाहेंगें तो यह इस WikiLeaks नहीं तो दूसरे WikiLeaks , तीसरे
WikiLeaks या फिर चौथे WikiLeaks के रूप में सामने आता ही रहेगा ! जाहिर है कि यह '' हल्दी लगे न फिटकरी और रंग चोखा'' टाइप का मामला है! 00
Thursday, December 23, 2010
Tuesday, December 21, 2010
उप्र भाजपा और उमा भारती की वापसी -- सुनील अमर
पिछले सात-आठ वर्षों से अस्त-व्यस्त पड़ी उ.प्र. भारतीय जनता पार्टी को पुनर्जीवित करने का जिम्मा अब उन उमा भारती को दिया जा रहा है, जिन्हें लगभग 5 वर्ष पूर्व पार्टी विरोधी गतिविधियों का आरोप लगाकर निष्कासित कर दिया गया था, और जिन्होंने लगभग उसी वक्त भारतीय जनशक्ति पार्टी यानी भाजपा नाम से ही अपनी नयी पार्टी बना ली थी। भाजपा नेतृत्व का मानना है कि उ.प्र. में पिछड़ों को आकर्षित व उग्र हिन्दुत्व को जीवित रखकर ही फिर से राजनीतिक स्थिरता प्राप्त की जा सकती है और इसके लिए वह उमा भारती सरीखे नेताआं को अब उपयुक्त मान रही है। पार्टी उ.प्र. को लेकर कितनी चिन्तित है, इसका अन्दाज इसी से लगाया जा सकता है कि उमा की वापसी के अलावा पूर्व राष्ट्रीय अधयक्ष राजनाथ सिंह ने अब अपना पूरा समय उ.प्र. में ही लगाने की तथा वर्तमान अधयक्ष गड़करी ने उ.प्र. पर विशेष धयान देने की घोषणा की है। यह तथ्य भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि पार्टी के पास उ.प्र. से कई बड़े और कद्दावर नेता हैं।
उमा भारती की भाजपा-वापसी के प्रयास और चर्चाऐं लगभग डेढ़ साल से चल रही हैं। दरअसल, जब एक वक्त के भाजपा के नायक कल्याण सिंह, अपने लम्बे राजनीतिक अनुभव को मिथ्या करार देते हुए अपनी धार विरोधी समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिये तो भाजपा को लगा कि अब पिछड़े वोट सपा के साथ जुड़ जायेंगें। लगभग तभी यह भूमिका बन गई थी कि अब उमा भारती को भाजपा में वापस लाया जाना चाहिए। कल्याण और उमा, ये दोनों भाजपा के पिछड़े वर्ग के दिग्गज नेता रहे हैं। स्वाभाविक ही है कि पार्टी को इनकी कमी खटकती। हालाँकि कल्याण को पार्टी में वापस लाने का प्रयोग एक राजनीतिक भूल ही साबित हुई थी। लेकिन राजनीति, सिर्फ अच्छाइयों और सच्चाइयों पर चलने की चीज तो होती नहीं। इसमें तो बहुत बार जानबूझ कर पिछली भूलों और गल्तियों पर पुन: सवार हुआ जाता है!
उमा भारती को जब भाजपा से निकाला गया था, उस वक्त पार्टी अगर उ.प्र. में ढ़लान पर थी, तो आज वह गिर चुकी है। इस दौरान जितने भी चुनाव और उप-चुनाव हुए, उनमें लगातार इस पार्टी की हालत खराब होती गई, और प्रत्याषियों की जमानत जब्त होने का रिकार्ड बनता गया। आज तो उ.प्र. में स्थिति यह है कि अभी नयी-नयी गठित और नामालूम सी पीस पार्टी के मुकाबले भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी कहीं टिक नहीं पा रही है। अभी गत सप्ताह सम्पन्न जिला पंचायत अधयक्षों के चुनाव में 72 जिलों मे से सिर्फ एक जिले में भाजपा जीत पाई है! पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को आकर्र्षित करने के लिए सपा, बसपा और काँग्रेस कोई कोशिश बाकी नहीं रख रही हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि उ.प्र. में भाजपा के स्वर्णिम दिनों में (वर्श 1992 से लेकर 1999 तक) पिछडे, ख़ासकर कुर्मी और लोधा, इसके प्रमुख वोट बैंक हुआ करते थे। इस वोट बैंक को आकर्शित करने में प्रदेष के कल्याण सिंह, उमा भारती, ओमप्रकाश सिंह, विनय कटियार और गंगाचरण सिंह आदि नेताओं का बहुत योगदान था। लेकिन एक तो राम मंदिर निर्माण के सम्बन्ध में बार-बार की लफाजी और दूसरे उक्त बड़े नेताओं के सत्ता में कई बार रहने के बावजूद पिछड़ों के लिए कोई सार्थक कार्य न किये जाने के कारण यह वोट बैंक भी इससे उदासीन होकर दूसरी तरफ खिसक गया। इसी दौरान भाजपा के षीर्श पुरुश अटल बिहारी वाजपेयी से अपनी मत-भिन्नता के चलते कल्याण सिंह का तथा अन्यान्य कारणों से उमा भारती का जो उत्पीड़न पार्टी द्वारा शुरु हुआ तो इसका भी काफी गलत संदेश पिछड़े वर्ग में गया। भाजपा को इन सबका काफी नुकसान उठाना पड़ा।
भारतीय जनशक्ति पार्टी का गठन कर भाजपा को नेस्तनाबूद कर देने की बार-बार की धमकी और भाजपा प्रत्याशियों के खिलाफ चुनाव लड़ चुकी सुश्री उमा भारती, एक लम्बे समय से भाजपा में आने के जुगाड़ मे लगी थीं। वे अगर सफल नहीं हो पा रही थीं तो इसका साफ मतलब यह था कि पार्टी के भीतर एक बड़ा और प्रभावी तबका इसका विरोध कर रहा था। यह विरोध कितना ताकतवर था, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि लौह-पुरुष आडवाणी के खुलकर चाहने के बावजूद उमा की वापसी नहीं हो पा रही थी। अब अगर उनकी वापसी हो रही है तो यह सिर्फ आडवाणी के चाहने से नहीं, बल्कि उन परिस्थितियों के चलते हो रही है जिनमें एक तो, संघ के खुले दख़ल से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर नितिन गड़करी की नियुक्ति, दूसरी, भाजपा को एक बार फिर से 1992 की राजनीतिक-धार्मिक कट्टरता के हिसाब से चलाने का संकल्प और तीसरी, अभी-अभी बिहार में सम्पन्न विधान सभा चुनाव के नतीजों की वह व्याख्या कि बैकवर्ड और मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण ने जद-यू और भाजपा गठबंधन को हैरतअंगेज सफलता दिला दी, आदि शामिल हैं। अब भाजपा को लग रहा है कि बिहार की तरह उ.प्र. में भी बैकवर्ड कार्ड खेलकर और 1992 की तरह धार्मिक भावनाओं को उभार कर चुनावी लाभ लिया जा सकता है। हालांकि भाजपा यह भूल रही है कि बिहार का ताजा चुनाव, जाति नहीं विकास के बूते और लालू-राज की वापसी के भय को आधार बना कर लड़ा और जीत गया।
बिहार के जिस ताजा प्रयोग की चर्चा आजकल मीडिया में खूब की जा रही है, उ.प्र. में वर्ष 2007 में वही प्रयोग और वैसी ही हैरतअंगेज सफलता बसपा प्राप्त कर चुकी है। आज भी बसपा अपने उसी स्टैण्ड पर कायम है और आगामी चुनाव भी उसी तरह लड़ने की अपनी मंशा वह जाहिर कर चुकी है। ऐसे में सुश्री उमा भारती के पास वह कौन सा फार्मूला है जिससे वह न सिर्फ पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को आकर्शित कर लेंगीं बल्कि राम मंदिर के नाम पर हिन्दुओं में धार्मिक भावनाओं का उफान लाकर वे वोटों से भाजपा की झोली को भर देंगी? और यह सब, हो सकता है वे कर भी ले जातीं, लेकिन उन्हें उ.प्र. में जो भाजपा संगठन मिल रहा है, वह भी गौर करने लायक है कि क्या वह इतना सक्षम भी है? उ.प्र. में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सूर्यप्रताप शाही हैं, जो लगभग उसी तरह से अक्षम हैं, जैसे पिछले दो-तीन अध्यक्ष होते रहे हैं। निवर्तमान अघ्यक्ष डा. रमापतिराम त्रिपाठी का कार्यकाल तो बहुत ही लचर रहा। संगठन की तमाम बैठके और अधिवेशनं तक में मंच पर ही तू-तू, मैं-मैं का नजारा दिखाई पड़ता रहा। आज भी कमोवेश वही स्थिति बनी हुई है। और तो और, राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर नितिन गड़करी की ताजपोशी को ही लेकर आज तक उ.प्र. भाजपा सहज नहीं हो पाई है। यही वजह है कि देष के सभी राज्यों से अधिक ध्यान उ.प्र. पर देने के बावजूद श्री गड़करी यहॉ कोई भी सुधार कर नहीं पाए हैं।
कल्याण सिंह, साधवी ऋतम्भरा और उमा भारती सरीखे नेता भाजपा के लिए तभी तक मुफीद थे, जब तक वह कट्टर हिन्दुत्व की राह पर चल रही थी। इन सभी नेताओं ने अपने आज तक के राजनीतिक जीवन में 'जय श्री राम' और 'मंदिर वहीं बनायेंगें' के अलावा और कुछ किया नहीं। साधवी तो भाजपा के शासनकाल में काफी जमीन आदि का जुगाड़ बनाकर अब आश्रम व्यवस्था तक ही सीमित रह गई हैं। कल्याण और उमा, भाजपा से निकाले जाने के बाद अपने-अपने राजनीतिक संगठन बनाकर अपनी सामर्थ्य को ऑंक चुके हैं। दरअसल भाजपा को अयोध्या विवाद के फैसले से बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन जब फैसला आया तो उसने सारी उम्मीदों की हवा ही निकाल दी। फिर भाजपा को मुसलमानों से उम्मीद बंधी कि शायद मुसलमान ही फैसले पर प्रतिक्रिया करनी शुरु कर दें लेकिन मुसलमानों ने न्यायिक लड़ाई लड़ने की घोशणा करके अपनी प्रतिक्रिया बेहद संतुलित कर दी। इससे भाजपा और संघ को अपने भविष्य के मंसूबों को धार देने में बहुत निराशा महसूस हो रही हैं। (Published in Hum Samvet Features on 20 December 2010)
उमा भारती की भाजपा-वापसी के प्रयास और चर्चाऐं लगभग डेढ़ साल से चल रही हैं। दरअसल, जब एक वक्त के भाजपा के नायक कल्याण सिंह, अपने लम्बे राजनीतिक अनुभव को मिथ्या करार देते हुए अपनी धार विरोधी समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिये तो भाजपा को लगा कि अब पिछड़े वोट सपा के साथ जुड़ जायेंगें। लगभग तभी यह भूमिका बन गई थी कि अब उमा भारती को भाजपा में वापस लाया जाना चाहिए। कल्याण और उमा, ये दोनों भाजपा के पिछड़े वर्ग के दिग्गज नेता रहे हैं। स्वाभाविक ही है कि पार्टी को इनकी कमी खटकती। हालाँकि कल्याण को पार्टी में वापस लाने का प्रयोग एक राजनीतिक भूल ही साबित हुई थी। लेकिन राजनीति, सिर्फ अच्छाइयों और सच्चाइयों पर चलने की चीज तो होती नहीं। इसमें तो बहुत बार जानबूझ कर पिछली भूलों और गल्तियों पर पुन: सवार हुआ जाता है!
उमा भारती को जब भाजपा से निकाला गया था, उस वक्त पार्टी अगर उ.प्र. में ढ़लान पर थी, तो आज वह गिर चुकी है। इस दौरान जितने भी चुनाव और उप-चुनाव हुए, उनमें लगातार इस पार्टी की हालत खराब होती गई, और प्रत्याषियों की जमानत जब्त होने का रिकार्ड बनता गया। आज तो उ.प्र. में स्थिति यह है कि अभी नयी-नयी गठित और नामालूम सी पीस पार्टी के मुकाबले भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी कहीं टिक नहीं पा रही है। अभी गत सप्ताह सम्पन्न जिला पंचायत अधयक्षों के चुनाव में 72 जिलों मे से सिर्फ एक जिले में भाजपा जीत पाई है! पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को आकर्र्षित करने के लिए सपा, बसपा और काँग्रेस कोई कोशिश बाकी नहीं रख रही हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि उ.प्र. में भाजपा के स्वर्णिम दिनों में (वर्श 1992 से लेकर 1999 तक) पिछडे, ख़ासकर कुर्मी और लोधा, इसके प्रमुख वोट बैंक हुआ करते थे। इस वोट बैंक को आकर्शित करने में प्रदेष के कल्याण सिंह, उमा भारती, ओमप्रकाश सिंह, विनय कटियार और गंगाचरण सिंह आदि नेताओं का बहुत योगदान था। लेकिन एक तो राम मंदिर निर्माण के सम्बन्ध में बार-बार की लफाजी और दूसरे उक्त बड़े नेताओं के सत्ता में कई बार रहने के बावजूद पिछड़ों के लिए कोई सार्थक कार्य न किये जाने के कारण यह वोट बैंक भी इससे उदासीन होकर दूसरी तरफ खिसक गया। इसी दौरान भाजपा के षीर्श पुरुश अटल बिहारी वाजपेयी से अपनी मत-भिन्नता के चलते कल्याण सिंह का तथा अन्यान्य कारणों से उमा भारती का जो उत्पीड़न पार्टी द्वारा शुरु हुआ तो इसका भी काफी गलत संदेश पिछड़े वर्ग में गया। भाजपा को इन सबका काफी नुकसान उठाना पड़ा।
भारतीय जनशक्ति पार्टी का गठन कर भाजपा को नेस्तनाबूद कर देने की बार-बार की धमकी और भाजपा प्रत्याशियों के खिलाफ चुनाव लड़ चुकी सुश्री उमा भारती, एक लम्बे समय से भाजपा में आने के जुगाड़ मे लगी थीं। वे अगर सफल नहीं हो पा रही थीं तो इसका साफ मतलब यह था कि पार्टी के भीतर एक बड़ा और प्रभावी तबका इसका विरोध कर रहा था। यह विरोध कितना ताकतवर था, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि लौह-पुरुष आडवाणी के खुलकर चाहने के बावजूद उमा की वापसी नहीं हो पा रही थी। अब अगर उनकी वापसी हो रही है तो यह सिर्फ आडवाणी के चाहने से नहीं, बल्कि उन परिस्थितियों के चलते हो रही है जिनमें एक तो, संघ के खुले दख़ल से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर नितिन गड़करी की नियुक्ति, दूसरी, भाजपा को एक बार फिर से 1992 की राजनीतिक-धार्मिक कट्टरता के हिसाब से चलाने का संकल्प और तीसरी, अभी-अभी बिहार में सम्पन्न विधान सभा चुनाव के नतीजों की वह व्याख्या कि बैकवर्ड और मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण ने जद-यू और भाजपा गठबंधन को हैरतअंगेज सफलता दिला दी, आदि शामिल हैं। अब भाजपा को लग रहा है कि बिहार की तरह उ.प्र. में भी बैकवर्ड कार्ड खेलकर और 1992 की तरह धार्मिक भावनाओं को उभार कर चुनावी लाभ लिया जा सकता है। हालांकि भाजपा यह भूल रही है कि बिहार का ताजा चुनाव, जाति नहीं विकास के बूते और लालू-राज की वापसी के भय को आधार बना कर लड़ा और जीत गया।
बिहार के जिस ताजा प्रयोग की चर्चा आजकल मीडिया में खूब की जा रही है, उ.प्र. में वर्ष 2007 में वही प्रयोग और वैसी ही हैरतअंगेज सफलता बसपा प्राप्त कर चुकी है। आज भी बसपा अपने उसी स्टैण्ड पर कायम है और आगामी चुनाव भी उसी तरह लड़ने की अपनी मंशा वह जाहिर कर चुकी है। ऐसे में सुश्री उमा भारती के पास वह कौन सा फार्मूला है जिससे वह न सिर्फ पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को आकर्शित कर लेंगीं बल्कि राम मंदिर के नाम पर हिन्दुओं में धार्मिक भावनाओं का उफान लाकर वे वोटों से भाजपा की झोली को भर देंगी? और यह सब, हो सकता है वे कर भी ले जातीं, लेकिन उन्हें उ.प्र. में जो भाजपा संगठन मिल रहा है, वह भी गौर करने लायक है कि क्या वह इतना सक्षम भी है? उ.प्र. में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सूर्यप्रताप शाही हैं, जो लगभग उसी तरह से अक्षम हैं, जैसे पिछले दो-तीन अध्यक्ष होते रहे हैं। निवर्तमान अघ्यक्ष डा. रमापतिराम त्रिपाठी का कार्यकाल तो बहुत ही लचर रहा। संगठन की तमाम बैठके और अधिवेशनं तक में मंच पर ही तू-तू, मैं-मैं का नजारा दिखाई पड़ता रहा। आज भी कमोवेश वही स्थिति बनी हुई है। और तो और, राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर नितिन गड़करी की ताजपोशी को ही लेकर आज तक उ.प्र. भाजपा सहज नहीं हो पाई है। यही वजह है कि देष के सभी राज्यों से अधिक ध्यान उ.प्र. पर देने के बावजूद श्री गड़करी यहॉ कोई भी सुधार कर नहीं पाए हैं।
कल्याण सिंह, साधवी ऋतम्भरा और उमा भारती सरीखे नेता भाजपा के लिए तभी तक मुफीद थे, जब तक वह कट्टर हिन्दुत्व की राह पर चल रही थी। इन सभी नेताओं ने अपने आज तक के राजनीतिक जीवन में 'जय श्री राम' और 'मंदिर वहीं बनायेंगें' के अलावा और कुछ किया नहीं। साधवी तो भाजपा के शासनकाल में काफी जमीन आदि का जुगाड़ बनाकर अब आश्रम व्यवस्था तक ही सीमित रह गई हैं। कल्याण और उमा, भाजपा से निकाले जाने के बाद अपने-अपने राजनीतिक संगठन बनाकर अपनी सामर्थ्य को ऑंक चुके हैं। दरअसल भाजपा को अयोध्या विवाद के फैसले से बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन जब फैसला आया तो उसने सारी उम्मीदों की हवा ही निकाल दी। फिर भाजपा को मुसलमानों से उम्मीद बंधी कि शायद मुसलमान ही फैसले पर प्रतिक्रिया करनी शुरु कर दें लेकिन मुसलमानों ने न्यायिक लड़ाई लड़ने की घोशणा करके अपनी प्रतिक्रिया बेहद संतुलित कर दी। इससे भाजपा और संघ को अपने भविष्य के मंसूबों को धार देने में बहुत निराशा महसूस हो रही हैं। (Published in Hum Samvet Features on 20 December 2010)
Monday, December 13, 2010
भयादोहन करती विज्ञापनों की भाषा -- सुनील अमर
टी.वी.चैनलों पर इन दिनों एक विज्ञापन आता है, जिसमें साफ,सुन्दर और मजबूत दाँतों वाली एक युवा लड़की को एक टूथ पेस्ट कम्पनी का सेल्समैन बताता है कि उसके दाँतों में बहुत ज्यादा कीटाणु हैं और वह उसे एक अजीबो-गरीब पैमाने से नापकर दिखाता है, जिसमें ढ़ेर सारे बैक्टीरिया दिखायी पड़ते हैं लेकिन जब वह लड़की सेल्समैन की कम्पनी का टूथ पेस्ट कर लेती है, तो तुरन्त ही उसके दाँतों से कीटाणु गायब हो जाते हैं! सेल्समैन बताता है कि सबके मुँह में इसी तरह कीटाणु होते हैं, जो दाँतों और मसूढ़ों को सड़ा डालते हैं। तात्पर्य यह है कि उस कम्पनी का टूथ पेस्ट जरुर करना चाहिए। साबुनों का भी विज्ञापन इसी तरह आता है कि यदि अला-फला कम्पनी के साबुनों का इस्तेमाल न किया गया तो कपड़े खतरनाक कीटाणुओं से भरे रहेंगें और तमाम भयानक बीमारियाँ होती रहेंगीं। एक साबुन कम्पनी तो अपनी एक ऐसी प्रयोगशाला दिखाती है, जैसी कि बड़ी-बड़ी दवा कम्पनियों में भी क्या होती होगी! दर्शक, स्वाभाविक ही बड़े पशो-पेश में पड़ जाता है कि क्या वास्तव में उसके कपड़े कीटाणुओं से भरे पड़े हैं?
भूमंडलीकरण ने जिस उपभोक्ता-संस्कृति या उपभोगवाद को जन्म दिया है, यह विज्ञापनी कुचक्र उसी का प्रतिफलन है। दरअसल डर को बेचना बहुत आसान होता है, बशर्ते ग्राहक को ठीक से डरा दिया जाय। डरा हुआ आदमी कुछ भी कर सकता है क्योंकि उसके विवेक पर डर हाबी हुआ रहता है। ऐसे में उसे डर से मुक्ति का जो उपाय बताया जाता है वह सहज ही उसे अपना लेता है। वस्तुओं की बिक्री बढ़ाने के लिए विवेकहीन ग्राहक से अच्छा और क्या हो सकता है! सो येन-केन-प्रकारेण ग्राहकों को डराने का यह गैर-कानूनी कार्य सरे-आम और निर्बाध रुप से चल रहा है। अब ऐसा नहीं है कि डराने का यह खेल सिर्फ उपभोक्ता वस्तुओं के लिए ही किया जा रहा है, बल्कि इसका दायरा काफी विस्तृत हो चुका है। इसमें पहले भूत-प्रेत की कपोल-कल्पित कहानियों पर आधारित धारावाहिकों को दिखाकर भयभीत ग्राहक तैयार किये जाते हैं, तत्पश्चात उनके उपचारार्थ ढ़ोंगी बाबाओं, तांत्रिकों और तथाकथित धर्मगुरुओं को टी.वी. चैनलों पर पेशकर उनकी दुकान चलवाई जाती है। यह ध्यान दिला देना उचित ही होगा कि भयादोहन के इस व्यापार में सिर्फ उपदेश ही नहीं बिकता बल्कि करोड़ों-अरबों रुपये की पूजा सामग्रियों और चढ़ावे का भी वारा-न्यारा होता है। इस प्रकार यह एक सुनियोजित व्यापार है।
टी.वी. पर आने वाले विज्ञापनों पर अगर गौर करें तो पता चलता है कि इनका सहज निशाना मुख्य तौर पर महिलाऐं और बच्चे होते हैं। इन्हीं को लक्ष्य कर विज्ञापनों का निर्माण किया जाता है। इसके पीछे का मनोविज्ञान भी बिल्कुल साफ है-घर चलाने और उसके लिए सामान खरीदने की जिम्मेदारी गृहणी की होती है तथा प्रत्येक बच्चा अपने माँ-बाप की कमजोरी होता है। बच्चे की सलामती और उसके खुशहाल भविष्य के लिये मॉ-बाप कुछ भी करने के लिए हमेशा ही हो जाते हैं, और इसीलिए वे धंधोबाजों के निशाने पर आ जाते हैं। धंधा करने के लिए पहले भ्रान्तियाँ पैदा की जाती हैं, तत्पश्चात उसके निवारण के सामान उपलब्ध कराये जाते हैं। अभी कुछ दिन पहले एक विज्ञापन आता था जिसमें एक स्त्री दूसरी से कहती थी कि- साफ तो है लेकिन स्वच्छ नहीं। अब जब तक आम दर्शक इस व्याकरण में पड़े कि साफ और स्वच्छ का फर्क क्या हुआ तब तक उसे बता दिया जाता था कि साफ तो किसी भी उत्पाद से किया जा सकता है लेकिन स्वच्छता तो सिर्फ उसी कम्पनी के उत्पाद से आ सकती है! एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने अपने साबुन के प्रचार के लिए एक समय तो एक नया शब्द ही गढ़ लिया था-चमकार! अब आप शब्दकोश में तलाशते रहिये यह शब्द और इसका मतलब! दिक्कत किसी वस्तु के प्रचार में नहीं बल्कि उसे जबरन बेचने में है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ दृष्य या श्रव्य माध्यमों पर ही ऐसा हो रहा है। प्रिन्ट माध्यम मे भी यह खेल उसी रफ्तार से हो रहा है जैसे दृष्य-श्रव्य में। यहाँ न सिर्फ शब्दों की बाजीगरी है बल्कि कानूनी शिकन्जे से अपनी गर्दन बचाये रखने के लिए अपठनीय बारीक अक्षरों में हिदायतें छापने की चालाकी भी रहती है। यह सभी जानते हैं कि सफाई अच्छी बात है लेकिन सफाई का आतंक पैदाकर कोई वस्तु विशेष बेचने का प्रयास करना तो गैर कानूनी ही कहा जाएगा। बच्चों के लिए एक विज्ञापन में दिखाया जाता है कि गर्मी के दिनों में सूर्य देवता बाकायदा एक पाइप उनके सिर पर लगाकर सारी ताकत चूस लेते हैं। धूप में लड़खड़ाता हुआ एक बच्चा और उसके सिर पर चिपकी एक पाइप से शरीर की सारी ताकत खींचती कोई आसमानी शक्ति! और फिर यह आदेशात्मक सुझाव कि सिर्फ उनकी कम्पनी का फलां पेय पदार्थ ही इससे बच्चे की सुरक्षा कर सकता है। अब बच्चे तो बच्चे, बड़ों को भी यह विज्ञापन ऐसा विचलित करता है कि वे भी अपने नन्हें-मुन्नों की सलामती के लिए चिन्तित हो जायँ। और वास्तव में यही चिन्ता पैदा कर देना ही तो करोड़ों में बनने वाले इन विज्ञापनों की सफलता है! जब आप चिन्तित हो जायेंगें तभी तो चिन्ता दूर करने का उपाय करेंगें!
दुनिया में धन केन्द्रित व्यवस्था और 'इस्तेमाल करो और फेंको' की पनपती संस्कृति ने निश्चित ही पुराने आदर्शों और मान्यताओं को ढहाया है। यही कारण है कि आज के समाज में तमाम ऐसे भी व्यवसाय हो गये हैं जो लोगों की भावनाओं को क्षति पहुँचाकर ही किये जाते हैं। इसके प्रतिफलन में भावनाऐं और संवेदनाऐं भी धीरे-धीरे दम तोड़ती जा रही हैं। यह सहज ही सोचने वाली बात है कि जिस तरह से विज्ञापनों में बताया जाता है कि काम करने से हाथों में कीटाणु, सांस लेने से शरीर के भीतर कीटाणु, कपड़ों में कीटाणु, दॉतों में कीटाणु, हर प्रकार के खाद्य पदार्थों में कीटाणु और गरज़ यह कि चारों तरफ कीटाणु ही कीटाणु भरे पड़े हैं, ऐसे में तो दुनिया के हर आदमी का जीवन ही दुश्वार हो जाना चाहिए था! लेकिन ऐसा नहीं है, लोग जी रहे है बल्कि हो यह रहा है कि आज अमीरों द्वारा संक्रमण और बीमारियॉ ज्यादा फैलायी जा रही हैं। बीते दिनों में हमने देखा कि वैश्वीकरण के चलते 'मैड काउ डिजीज','बर्ड फ्लू' और 'स्वाइन फ्लू', जैसी घातक संक्रामक बीमारियाँ गरीबों की देन नहीं थीं बल्कि जो सम्पन्न वर्ग है और जो खान-पान और रहन-सहन के सारे विज्ञापनी एहतियात बरत सकता है, वही पहले-पहल इन सबकी चपेट में आया और फिर बाकी लोगों को आना ही था। ये विज्ञापनी सावधानियॉ जाहिर है कि धंधेबाज हैं और इनका मकसद सिर्फ लोगों की जेब से पैसा खींचना भर ही हैं। फिर भी यह सवाल अपनी जगह रह ही जाता है कि लोगों को बहला-फुसला कर, दिग्भ्रमित कर अपना उल्लू सीधा करना कहाँ तक उचित है?
--- सुनील अमर ( Published in HumSamvet Features 13December2010)
भूमंडलीकरण ने जिस उपभोक्ता-संस्कृति या उपभोगवाद को जन्म दिया है, यह विज्ञापनी कुचक्र उसी का प्रतिफलन है। दरअसल डर को बेचना बहुत आसान होता है, बशर्ते ग्राहक को ठीक से डरा दिया जाय। डरा हुआ आदमी कुछ भी कर सकता है क्योंकि उसके विवेक पर डर हाबी हुआ रहता है। ऐसे में उसे डर से मुक्ति का जो उपाय बताया जाता है वह सहज ही उसे अपना लेता है। वस्तुओं की बिक्री बढ़ाने के लिए विवेकहीन ग्राहक से अच्छा और क्या हो सकता है! सो येन-केन-प्रकारेण ग्राहकों को डराने का यह गैर-कानूनी कार्य सरे-आम और निर्बाध रुप से चल रहा है। अब ऐसा नहीं है कि डराने का यह खेल सिर्फ उपभोक्ता वस्तुओं के लिए ही किया जा रहा है, बल्कि इसका दायरा काफी विस्तृत हो चुका है। इसमें पहले भूत-प्रेत की कपोल-कल्पित कहानियों पर आधारित धारावाहिकों को दिखाकर भयभीत ग्राहक तैयार किये जाते हैं, तत्पश्चात उनके उपचारार्थ ढ़ोंगी बाबाओं, तांत्रिकों और तथाकथित धर्मगुरुओं को टी.वी. चैनलों पर पेशकर उनकी दुकान चलवाई जाती है। यह ध्यान दिला देना उचित ही होगा कि भयादोहन के इस व्यापार में सिर्फ उपदेश ही नहीं बिकता बल्कि करोड़ों-अरबों रुपये की पूजा सामग्रियों और चढ़ावे का भी वारा-न्यारा होता है। इस प्रकार यह एक सुनियोजित व्यापार है।
टी.वी. पर आने वाले विज्ञापनों पर अगर गौर करें तो पता चलता है कि इनका सहज निशाना मुख्य तौर पर महिलाऐं और बच्चे होते हैं। इन्हीं को लक्ष्य कर विज्ञापनों का निर्माण किया जाता है। इसके पीछे का मनोविज्ञान भी बिल्कुल साफ है-घर चलाने और उसके लिए सामान खरीदने की जिम्मेदारी गृहणी की होती है तथा प्रत्येक बच्चा अपने माँ-बाप की कमजोरी होता है। बच्चे की सलामती और उसके खुशहाल भविष्य के लिये मॉ-बाप कुछ भी करने के लिए हमेशा ही हो जाते हैं, और इसीलिए वे धंधोबाजों के निशाने पर आ जाते हैं। धंधा करने के लिए पहले भ्रान्तियाँ पैदा की जाती हैं, तत्पश्चात उसके निवारण के सामान उपलब्ध कराये जाते हैं। अभी कुछ दिन पहले एक विज्ञापन आता था जिसमें एक स्त्री दूसरी से कहती थी कि- साफ तो है लेकिन स्वच्छ नहीं। अब जब तक आम दर्शक इस व्याकरण में पड़े कि साफ और स्वच्छ का फर्क क्या हुआ तब तक उसे बता दिया जाता था कि साफ तो किसी भी उत्पाद से किया जा सकता है लेकिन स्वच्छता तो सिर्फ उसी कम्पनी के उत्पाद से आ सकती है! एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने अपने साबुन के प्रचार के लिए एक समय तो एक नया शब्द ही गढ़ लिया था-चमकार! अब आप शब्दकोश में तलाशते रहिये यह शब्द और इसका मतलब! दिक्कत किसी वस्तु के प्रचार में नहीं बल्कि उसे जबरन बेचने में है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ दृष्य या श्रव्य माध्यमों पर ही ऐसा हो रहा है। प्रिन्ट माध्यम मे भी यह खेल उसी रफ्तार से हो रहा है जैसे दृष्य-श्रव्य में। यहाँ न सिर्फ शब्दों की बाजीगरी है बल्कि कानूनी शिकन्जे से अपनी गर्दन बचाये रखने के लिए अपठनीय बारीक अक्षरों में हिदायतें छापने की चालाकी भी रहती है। यह सभी जानते हैं कि सफाई अच्छी बात है लेकिन सफाई का आतंक पैदाकर कोई वस्तु विशेष बेचने का प्रयास करना तो गैर कानूनी ही कहा जाएगा। बच्चों के लिए एक विज्ञापन में दिखाया जाता है कि गर्मी के दिनों में सूर्य देवता बाकायदा एक पाइप उनके सिर पर लगाकर सारी ताकत चूस लेते हैं। धूप में लड़खड़ाता हुआ एक बच्चा और उसके सिर पर चिपकी एक पाइप से शरीर की सारी ताकत खींचती कोई आसमानी शक्ति! और फिर यह आदेशात्मक सुझाव कि सिर्फ उनकी कम्पनी का फलां पेय पदार्थ ही इससे बच्चे की सुरक्षा कर सकता है। अब बच्चे तो बच्चे, बड़ों को भी यह विज्ञापन ऐसा विचलित करता है कि वे भी अपने नन्हें-मुन्नों की सलामती के लिए चिन्तित हो जायँ। और वास्तव में यही चिन्ता पैदा कर देना ही तो करोड़ों में बनने वाले इन विज्ञापनों की सफलता है! जब आप चिन्तित हो जायेंगें तभी तो चिन्ता दूर करने का उपाय करेंगें!
दुनिया में धन केन्द्रित व्यवस्था और 'इस्तेमाल करो और फेंको' की पनपती संस्कृति ने निश्चित ही पुराने आदर्शों और मान्यताओं को ढहाया है। यही कारण है कि आज के समाज में तमाम ऐसे भी व्यवसाय हो गये हैं जो लोगों की भावनाओं को क्षति पहुँचाकर ही किये जाते हैं। इसके प्रतिफलन में भावनाऐं और संवेदनाऐं भी धीरे-धीरे दम तोड़ती जा रही हैं। यह सहज ही सोचने वाली बात है कि जिस तरह से विज्ञापनों में बताया जाता है कि काम करने से हाथों में कीटाणु, सांस लेने से शरीर के भीतर कीटाणु, कपड़ों में कीटाणु, दॉतों में कीटाणु, हर प्रकार के खाद्य पदार्थों में कीटाणु और गरज़ यह कि चारों तरफ कीटाणु ही कीटाणु भरे पड़े हैं, ऐसे में तो दुनिया के हर आदमी का जीवन ही दुश्वार हो जाना चाहिए था! लेकिन ऐसा नहीं है, लोग जी रहे है बल्कि हो यह रहा है कि आज अमीरों द्वारा संक्रमण और बीमारियॉ ज्यादा फैलायी जा रही हैं। बीते दिनों में हमने देखा कि वैश्वीकरण के चलते 'मैड काउ डिजीज','बर्ड फ्लू' और 'स्वाइन फ्लू', जैसी घातक संक्रामक बीमारियाँ गरीबों की देन नहीं थीं बल्कि जो सम्पन्न वर्ग है और जो खान-पान और रहन-सहन के सारे विज्ञापनी एहतियात बरत सकता है, वही पहले-पहल इन सबकी चपेट में आया और फिर बाकी लोगों को आना ही था। ये विज्ञापनी सावधानियॉ जाहिर है कि धंधेबाज हैं और इनका मकसद सिर्फ लोगों की जेब से पैसा खींचना भर ही हैं। फिर भी यह सवाल अपनी जगह रह ही जाता है कि लोगों को बहला-फुसला कर, दिग्भ्रमित कर अपना उल्लू सीधा करना कहाँ तक उचित है?
--- सुनील अमर ( Published in HumSamvet Features 13December2010)
Friday, December 10, 2010
पैसे के खेल से जो पत्रकारिता चलेगी, वो पैसे का ही खेल करेगी --- सुनील अमर
इन दिनों मीडिया में भ्रष्टाचार को लेकर बड़ा स्यापा हो रहा है. जिससे भी जितना बन पड़ रहा है, उतना विलाप वो कर रहा है. दू:खी लोग कह रहे हैं कि बड़ा भ्रष्टाचार हो गया है! उनके कहने से ऐसा लग रहा है कि जैसे किन्हीं छोटे लोगों ने अपनी औकात भूल कर कोई बड़ी वारदात कर दी है! अरे भाई! जब बड़े लोगों ने की है तो बड़ी वारदात ही तो करेंगें! आखिर इतनी सड़ांध आने के बावजूद अभी भी तो बदस्तूर कहा ही जा रहा है कि देश के दो बड़े पत्रकार ....!
ये बड़े पत्रकार क्या होते हैं भला ? जाहिर है कि यहाँ लम्बाई तो नापी नहीं जा रही है. उन्हें मिले ईनामों-इकरामों को भी नहीं गिना जा रहा है. जो मिले या अपने गढ़े किन्हीं बड़े पदों पर आसीन हैं, उन्हें ही रवायत के लिहाज़ से बड़ा कहा जाता है,वरना बड़प्पन नापने के लिए अगर आदर्श पैमानों का इस्तेमाल किया जाता तो लिस्ट ऊपर से नीचे को पलट सकती है.अब निश्चिंतता इसी बात को लेकर है कि ऐसा होना ही नहीं है ! दरअसल जो लोग रोना रो रहे हैं, वो कोई 50 साल पुराना एक आईना लिए हैं, उसी में वो अपना भी मुंह देखते रहते हैं और दूसरों को भी वही दिखाने की कोशिश करते रहते हैं! इस सच्चाई को जान-बूझ कर भूलते हुए कि आज के बड़ी कुर्सी पर बैठे हुए पत्रकार, ऐसे आईने को देखना ही नहीं चाहते,क्योंकि इसकी उन्हें जरुरत भी नहीं है और यह उन्हें डराता भी है!
जिन बड़े पत्रकारों की नैतिक और आर्थिक फिसलन पर इतना स्यापा किया जा रहा है, अब तो उनका लगभग समूचा परिवेश ही जानकारी में है ! वे किसी मिशनरी के प्रोडक्ट नहीं हैं, और न ही वे किसी प्रकार का गणवेश धारण कर कोई समाज-सेवा करने की घोषणा करके इस मैदान में उतरे ही थे.वे जिस खेत के उत्पाद हैं वहाँ यही सब जोता-बोया जाता है, जिसकी फसल उन्होंने काटी है !
ये विलाप माने रख सकता था, असर डाल सकता था, अगर हम ज्यादा नहीं सिर्फ़ 20 साल पहले के समय में होते . जब एक स्वाभाविक लगन,एक स्वतः स्फूर्त समाज बदलने की ललक और समाज के महाजनों द्वारा स्थापित आदर्शों को अपनाने का एक दृढ निश्चय लेकर कोई युवा (प्रायः मध्यम वर्ग से) पत्रकारिता के विकट जंगल में उतरता था.एक समय में तो ऐसा आह्वान किया जाता था कि (पत्रकारिता के लिए ) ऐसे नवजवानों कि आवश्यकता है जिन्हें खाने के लिए दो सूखी रोटियां और रहने के लिए जेल उपलब्ध रहेगी. और यह भी सुखद इतिहास रहा है कि नवजवानों की कभी कमी नहीं पड़ी.
लेकिन आज ? कस्बाई स्तर पर भी किसी अख़बार का संवाददाता बनने के लिए क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं और क्या-क्या लेन-देन करना पड़ता है, इसे सिर्फ़ कोई भुक्तभोगी ही बता सकता है.और जिन्हें आज मीडिया घराना कहा जाता है, उनमें प्रवेश पाने के लिए तो पत्रकारिता या प्रबंधन या फिर दोनों की वो डिग्रियां होनी चाहिए जो लाखों रूपये फीस देने के बाद मिलती है.और एक गलाकाट प्रतियोगिता अलग से पार करनी पड़ती है. जिन महापुरुषों के भ्रष्ट हो जाने का स्यापा हो रहा है, वे दो सूखी रोटी का इश्तहार देख कर पत्रकारिता में नहीं कूद पड़े थे! वे सब एक योजनाबद्ध ढंग से इसकी तैयारी और इसके नफ़े-नुकसान का गुणा-भाग कर के आये थे. आज अरबों रुपयों से तैयार बड़े और भारी-भरकम पत्रकारिता संस्थानों से 'दीक्षित' होकर जो फ़ौज निकल रही है, ज़रा वहाँ के माहौल का भी जायजा लेना चाहिए कि हमारे भविष्य के कर्णधार किस मानसिकता के साथ तैयार किये जा रहे हैं! जब पत्रकारिता को हमने कैरियर बना दिया है, तो जो ऐब-ओ-हुनर कैरियर वालों में होते हैं, वो सब अपने विकृत रूप में इनमें भी आयेंगें ही.
पत्रकारों को काबू में रखने के लिए, अनुशासित करने के लिए और मर्यादित रहने के लिए नियम-कानूनों की बातें की जा रही हैं, जैसे यह देश में कोई नया प्रयोग होगा! आखिर पत्रकारों को छोड़ कर शेष सभी के लिए तो बने ही हैं तमाम नियम-कानून. कौन सा नतीजा दे रही हैं ये बंदिशें? हद तो यह है कि हम पहले तो एक काजल की कोठरी तैयार करते हैं फिर कुछ लोगों से अपेक्षा रखते हैं कि वे किसी मदारी के करतब को दिखाकर बेदाग उसमें आया-जाया करें! आज पत्रकारिता का समूचा तंत्र ही क्या विशाल पूंजी के नियोजन से नहीं चल रहा है ?बड़ी-बड़ी सेलरी, बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ और बड़ी-बड़ी कोठियां, जिन पत्रकारों के पास हैं (और जिन्हें हमीं स्यापा करने वाले लोग हर छोटे-बड़े कार्यक्रमों में आज तक देवता समझ कर बुलाने की जुगत करते रहे हैं ) ये सब क्या गंगाजल से रोज आचमन करने से आ जाती हैं? आखिर किसको मूर्ख बनाने के लिए यह प्रलाप किये जा रहे हैं?एक महापुरुष ने तो प्रायश्चित के तौर पर अपना कालम कुछ दिनों के लिए बंद करने की घोषणा कर दी है, मानों कह रहे हों कि-लो,अब जब कालम के बिना तुम सब चिल्लाओगे तब तुम्हारी समझ में आयेगी मेरी अहमियत! दूसरी ओर एक महास्त्री हैं जो घूम-घूम कर प्रतिप्रश्न कर रही हैं कि जब ऐसा-ऐसा और ऐसा हुआ था तो क्यों नहीं स्यापा किये थे आप सब?
बिडम्बना देखिये कि जो महा-जन कभी दबे-कुचलों की बात करने के लिए विचारधारा-विशेष की ध्वजा उठाये फिरते थे, वे साफ-साफ और सरे-आम बिके और रातों-रात नौकर( संपादक) से मालिक बन गए,लेकिन हम उन्हें देवता ही मानते रहे! आज उन्हीं देवताओं की जूठन को प्रसाद के बजाय बिष्टा कह रहे हैं! क्यों भाई?
पैसे के खेल से जो पत्रकारिता चलेगी, वो पैसे का ही खेल करेगी. अब इसे जो भोले-बलम लोग नहीं मानना चाहते, वो कृपया कुछ दिनों के लिए किसी पहाड़ी की गुफा में चले जांय और वहाँ अपने मन को साध कर कोई फार्मूला ले आयें जो पैसे के खेल में भी चाल-चरित्र और चेहरा आदर्श बना कर रख सकता हो! पत्रकार तो आज भी दो सूखी रोटी के ऐलान पर तमाम मिल जायेंगें लेकिन ऐसा ऐलान करने वाला कोई मालिक भी तो निकले! और अगर नहीं , तो आगे तमाम संघवी और तमाम बरखायें आपको कीचड़ में लथपथ दिखाई पड़ेंगें क्योंकि सत्ता-तंत्र राडियाओं से अटा पड़ा है.
मालिक-विहीन अख़बार यानी सहकारी समितियों द्वारा अख़बार चलाने की अवधारणा की गयी थी, कई विफल प्रयोग भी किये गए देश में. उ.प्र. के फ़ैजाबाद जिले से जनमोर्चा नामक एक हिंदी दैनिक सहकारिता के ही आधार पर पिछले 53 वर्षों से नियमित चल भी रहा है, लेकिन कर्मचारी बताते हैं कि वहाँ भी सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है. तो असल चीज नीयत है और जब नीयत में खोट आ जाय तो लोकतंत्र से बढ़िया चरागाह और कहाँ मिल सकता है?
लेकिन इतिहास गवाह है कि आदर्शों और मूल्यों की बुझी हुई राख से ही बहुत बार ऐसी चिंगारियां निकली हैं कि सोने की बड़ी-बड़ी लंकाएं जल कर खाक़ हो गयी हैं. जब आप चिंता कर रहे हैं, हम चिंता कर रहे हैं, हम-सब चिंता कर रहे हैं, तो इस लंका को तो जलना ही है एक दिन!
कैफ़ी आज़मी की एक नज़्म ऐसे माहौल में बड़ी राहत दे रही है -- '' आज की रात बड़ी गर्म हवा चलती है, ..... तुम उठो, तुम भी उठो, तुम भी उठो.तुम भी उठो , इसी दीवार में इक राह निकल आयेगी .......''
राह जरूर निकलेगी दोस्तों ! और वो हमें ही निकालनी होगी,
आमीन !
ये बड़े पत्रकार क्या होते हैं भला ? जाहिर है कि यहाँ लम्बाई तो नापी नहीं जा रही है. उन्हें मिले ईनामों-इकरामों को भी नहीं गिना जा रहा है. जो मिले या अपने गढ़े किन्हीं बड़े पदों पर आसीन हैं, उन्हें ही रवायत के लिहाज़ से बड़ा कहा जाता है,वरना बड़प्पन नापने के लिए अगर आदर्श पैमानों का इस्तेमाल किया जाता तो लिस्ट ऊपर से नीचे को पलट सकती है.अब निश्चिंतता इसी बात को लेकर है कि ऐसा होना ही नहीं है ! दरअसल जो लोग रोना रो रहे हैं, वो कोई 50 साल पुराना एक आईना लिए हैं, उसी में वो अपना भी मुंह देखते रहते हैं और दूसरों को भी वही दिखाने की कोशिश करते रहते हैं! इस सच्चाई को जान-बूझ कर भूलते हुए कि आज के बड़ी कुर्सी पर बैठे हुए पत्रकार, ऐसे आईने को देखना ही नहीं चाहते,क्योंकि इसकी उन्हें जरुरत भी नहीं है और यह उन्हें डराता भी है!
जिन बड़े पत्रकारों की नैतिक और आर्थिक फिसलन पर इतना स्यापा किया जा रहा है, अब तो उनका लगभग समूचा परिवेश ही जानकारी में है ! वे किसी मिशनरी के प्रोडक्ट नहीं हैं, और न ही वे किसी प्रकार का गणवेश धारण कर कोई समाज-सेवा करने की घोषणा करके इस मैदान में उतरे ही थे.वे जिस खेत के उत्पाद हैं वहाँ यही सब जोता-बोया जाता है, जिसकी फसल उन्होंने काटी है !
ये विलाप माने रख सकता था, असर डाल सकता था, अगर हम ज्यादा नहीं सिर्फ़ 20 साल पहले के समय में होते . जब एक स्वाभाविक लगन,एक स्वतः स्फूर्त समाज बदलने की ललक और समाज के महाजनों द्वारा स्थापित आदर्शों को अपनाने का एक दृढ निश्चय लेकर कोई युवा (प्रायः मध्यम वर्ग से) पत्रकारिता के विकट जंगल में उतरता था.एक समय में तो ऐसा आह्वान किया जाता था कि (पत्रकारिता के लिए ) ऐसे नवजवानों कि आवश्यकता है जिन्हें खाने के लिए दो सूखी रोटियां और रहने के लिए जेल उपलब्ध रहेगी. और यह भी सुखद इतिहास रहा है कि नवजवानों की कभी कमी नहीं पड़ी.
लेकिन आज ? कस्बाई स्तर पर भी किसी अख़बार का संवाददाता बनने के लिए क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं और क्या-क्या लेन-देन करना पड़ता है, इसे सिर्फ़ कोई भुक्तभोगी ही बता सकता है.और जिन्हें आज मीडिया घराना कहा जाता है, उनमें प्रवेश पाने के लिए तो पत्रकारिता या प्रबंधन या फिर दोनों की वो डिग्रियां होनी चाहिए जो लाखों रूपये फीस देने के बाद मिलती है.और एक गलाकाट प्रतियोगिता अलग से पार करनी पड़ती है. जिन महापुरुषों के भ्रष्ट हो जाने का स्यापा हो रहा है, वे दो सूखी रोटी का इश्तहार देख कर पत्रकारिता में नहीं कूद पड़े थे! वे सब एक योजनाबद्ध ढंग से इसकी तैयारी और इसके नफ़े-नुकसान का गुणा-भाग कर के आये थे. आज अरबों रुपयों से तैयार बड़े और भारी-भरकम पत्रकारिता संस्थानों से 'दीक्षित' होकर जो फ़ौज निकल रही है, ज़रा वहाँ के माहौल का भी जायजा लेना चाहिए कि हमारे भविष्य के कर्णधार किस मानसिकता के साथ तैयार किये जा रहे हैं! जब पत्रकारिता को हमने कैरियर बना दिया है, तो जो ऐब-ओ-हुनर कैरियर वालों में होते हैं, वो सब अपने विकृत रूप में इनमें भी आयेंगें ही.
पत्रकारों को काबू में रखने के लिए, अनुशासित करने के लिए और मर्यादित रहने के लिए नियम-कानूनों की बातें की जा रही हैं, जैसे यह देश में कोई नया प्रयोग होगा! आखिर पत्रकारों को छोड़ कर शेष सभी के लिए तो बने ही हैं तमाम नियम-कानून. कौन सा नतीजा दे रही हैं ये बंदिशें? हद तो यह है कि हम पहले तो एक काजल की कोठरी तैयार करते हैं फिर कुछ लोगों से अपेक्षा रखते हैं कि वे किसी मदारी के करतब को दिखाकर बेदाग उसमें आया-जाया करें! आज पत्रकारिता का समूचा तंत्र ही क्या विशाल पूंजी के नियोजन से नहीं चल रहा है ?बड़ी-बड़ी सेलरी, बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ और बड़ी-बड़ी कोठियां, जिन पत्रकारों के पास हैं (और जिन्हें हमीं स्यापा करने वाले लोग हर छोटे-बड़े कार्यक्रमों में आज तक देवता समझ कर बुलाने की जुगत करते रहे हैं ) ये सब क्या गंगाजल से रोज आचमन करने से आ जाती हैं? आखिर किसको मूर्ख बनाने के लिए यह प्रलाप किये जा रहे हैं?एक महापुरुष ने तो प्रायश्चित के तौर पर अपना कालम कुछ दिनों के लिए बंद करने की घोषणा कर दी है, मानों कह रहे हों कि-लो,अब जब कालम के बिना तुम सब चिल्लाओगे तब तुम्हारी समझ में आयेगी मेरी अहमियत! दूसरी ओर एक महास्त्री हैं जो घूम-घूम कर प्रतिप्रश्न कर रही हैं कि जब ऐसा-ऐसा और ऐसा हुआ था तो क्यों नहीं स्यापा किये थे आप सब?
बिडम्बना देखिये कि जो महा-जन कभी दबे-कुचलों की बात करने के लिए विचारधारा-विशेष की ध्वजा उठाये फिरते थे, वे साफ-साफ और सरे-आम बिके और रातों-रात नौकर( संपादक) से मालिक बन गए,लेकिन हम उन्हें देवता ही मानते रहे! आज उन्हीं देवताओं की जूठन को प्रसाद के बजाय बिष्टा कह रहे हैं! क्यों भाई?
पैसे के खेल से जो पत्रकारिता चलेगी, वो पैसे का ही खेल करेगी. अब इसे जो भोले-बलम लोग नहीं मानना चाहते, वो कृपया कुछ दिनों के लिए किसी पहाड़ी की गुफा में चले जांय और वहाँ अपने मन को साध कर कोई फार्मूला ले आयें जो पैसे के खेल में भी चाल-चरित्र और चेहरा आदर्श बना कर रख सकता हो! पत्रकार तो आज भी दो सूखी रोटी के ऐलान पर तमाम मिल जायेंगें लेकिन ऐसा ऐलान करने वाला कोई मालिक भी तो निकले! और अगर नहीं , तो आगे तमाम संघवी और तमाम बरखायें आपको कीचड़ में लथपथ दिखाई पड़ेंगें क्योंकि सत्ता-तंत्र राडियाओं से अटा पड़ा है.
मालिक-विहीन अख़बार यानी सहकारी समितियों द्वारा अख़बार चलाने की अवधारणा की गयी थी, कई विफल प्रयोग भी किये गए देश में. उ.प्र. के फ़ैजाबाद जिले से जनमोर्चा नामक एक हिंदी दैनिक सहकारिता के ही आधार पर पिछले 53 वर्षों से नियमित चल भी रहा है, लेकिन कर्मचारी बताते हैं कि वहाँ भी सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है. तो असल चीज नीयत है और जब नीयत में खोट आ जाय तो लोकतंत्र से बढ़िया चरागाह और कहाँ मिल सकता है?
लेकिन इतिहास गवाह है कि आदर्शों और मूल्यों की बुझी हुई राख से ही बहुत बार ऐसी चिंगारियां निकली हैं कि सोने की बड़ी-बड़ी लंकाएं जल कर खाक़ हो गयी हैं. जब आप चिंता कर रहे हैं, हम चिंता कर रहे हैं, हम-सब चिंता कर रहे हैं, तो इस लंका को तो जलना ही है एक दिन!
कैफ़ी आज़मी की एक नज़्म ऐसे माहौल में बड़ी राहत दे रही है -- '' आज की रात बड़ी गर्म हवा चलती है, ..... तुम उठो, तुम भी उठो, तुम भी उठो.तुम भी उठो , इसी दीवार में इक राह निकल आयेगी .......''
राह जरूर निकलेगी दोस्तों ! और वो हमें ही निकालनी होगी,
आमीन !
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