Wednesday, February 25, 2015

गरीब नहीं, अमीरों की सब्सिडी बन्द कीजिए ---सुनील अमर

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि देश पर सब्सिडी का बहुत बड़ा बोझ है। इससे अगर मुक्ति मिल जाय तो यह सारा धन देश के विकास कार्यों में लगाया जा सकता है। खाद्यान्न, रसोई गैस, उर्वरक, मनरेगा तथा कुछ अन्य कल्याणकारी योजनाओं में ही तकरीबन छह लाख करोड़ रुपयों की सब्सिडी प्रतिवर्ष देनी पड़ रही है। किसी भी विकासशील देश के लिए यह रकम बहुत भारी है लेकिन अपने देश का जो सामाजिक-आर्थिक ढ़ाॅचा है, उसके परिपे्रक्ष्य में अगर देखा जाय तो सब्सिडी की यह व्यवस्था भारी नहीं अत्यावश्यक है। यह खर्च वैसे ही है जैसे किसी परिवार में बच्चों और वृद्धों पर खर्च किया जाता है। इन्हें बेसहारा तो नहीं छोड़ा जा सकता। सरकार नाम की संस्था लाभ कमाने का उपक्रम नहीं बल्कि व्यवस्था नियामक होती है। इसलिए यहाॅं प्रश्न लाभ-हानि का नहीं, व्यवस्था की उपादेयता का है। वह व्यवस्था, जो सर्वहितकारी और समभाव वाली हो। केन्द्र में आरुढ़ भाजपा की सरकार ने सत्ता संभालते ही यह स्पष्ट कर दिया था कि उसे सब्सिडी की अब तक चली आ रही व्यवस्था पसन्द नहीं है और उसने इसकी समीक्षा और नये प्रारुप की कवायद भी तभी से शुरु कर दी है और इस क्रम मंे सरकार द्वारा गठित समिति ने अपनी संस्तुतियाॅं भी पेश कर दी हैं।
सब्सिडी यानी अनुदान मूलतः दो कारणों से दिया जाता है। एक तो किसी आवश्यक वस्तु के प्रचार-प्रसार के लिए और दूसरे, ऐसी वस्तुओं की उपलब्धता आर्थिक रुप से कमजोर लोगों को कराने के लिए। देश में सबसे ज्यादा अनुदान खाद्यान्न पर खर्च हो रहा है। चालू वित्तीय वर्ष में यह एक लाख पन्द्रह हजार करोड़ रुपयों के करीब है। यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत 75 प्रतिशत ग्रामीण और 50 प्रतिशत शहरी आबादी को सस्ते खाद्यान्न उपलब्ध कराने में खर्च होता है। केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त खाद्य और उपभोक्ता मामलों के पूर्व मन्त्री शांता कुमार की अगुआई वाली समिति ने इस मद में 40 प्रतिशत की भारी-भरकम कटौती करने की सिफारिश की है। सरकार ने इस मद में कटौती का मन बना लिया है। अगर ऐसा हुआ तो यह कटौती कई नयी समस्याऐं खड़ा करेगी। खाद्य अनुदान की ध्वजवाहक योजना सार्वजनिक वितरण प्रणाली है और अपनी शुरुआत से ही यह भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हुई है। फर्जी राशन कार्ड, लाभार्थियों की श्रेणी का गलत निर्धारण, घटिया और कम मात्रा में खाद्यान्नों की बिक्री जैसे कई गम्भीर आरोप इस व्यवस्था पर लगे हैं और देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पर कई बार तल्ख टिप्प्पणी की है। शांताकुमार समिति ने एक बढि़या सुझाव यह दिया है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को हर हाल में कम्प्यूटरीकृत कर दिया जाय। इस समिति ने संप्रग सरकार की उस योजना को भी लागू करने की सिफारिश की है जिसमें खाद्यान्न व अन्य वस्तुओं के अनुदान की रकम को लाभार्थी के बैंक खाते में देकर उसे बाजार दर पर अनाज लेने को कहा जाय।
यहाॅं यह विचार करने की जरुरत है कि सब्सिडी देने में बुराई है या सब्सिडी दिए जाने की व्यवस्था में। शांताकुमार समिति कहती है कि यदि लाभार्थी के बैंक खाते में सीधे अनुदान देने की व्यवस्था हो जाय तो सिर्फ इसी से प्रतिवर्ष 30,000 करोड़ रुपयों की बचत हो सकती है। सच्चाई यह है कि यदि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को समूचे तौर पर कम्प्यूटरीकृत व फर्जी लाभार्थियों को निकाल कर घटतौली को समाप्त कर दिया जाय तो सिर्फ इसी कार्य से इस पर आने वाला सरकारी खर्च आधा हो सकता है। भारतीय सार्वजनिक वितरण प्रणाली अपनी पाॅंच लाख राशन की दुकानों के साथ विश्व की सबसे बड़ी सरकारी वितरण प्रणाली है। वर्ष 1940 के भयावह बंगाल भुखमरी के दौरान सबसे पहले राशन की व्यवस्था की गई थी। बाद में 1960 के दशक में बाकायदा इसे सरकारी योजना बनाया गया और तब से यह प्रणाली कार्य कर रही है। अफसोस है कि इसे एक तरह से रामभरोसे छोड़ दिया गया और इसमंे सुधार और परिमार्जन के कार्य किए ही नहीं गए। अभी हाल में केन्द्र सरकार ने एक बढि़या काम शुरु किया है- रसोई गैस की सब्सिडी को लाभार्थी के बैंक खाते में सीधे देने का। निःसन्देह इससे फर्जी कनेक्शनों की पहचान हो सकेगी जो कि बहुत बड़ी तादाद में हैं। यही काम राशन कार्डों के कम्प्यूटरीकरण से भी किया जा सकता है।
लेकिन रसोई गैस और राशन में एक बुनियादी अन्तर है। राशन की दुकानें बन्द करके बैंक खाते में नकद सब्सिडी देने से कई प्रकार की समस्याऐं उत्पन्न हो सकती हैं। अभी देखने में यह आता है कि अधिकांशतः परिवार की महिला ही राशन लेने जाती है और वह जरुरत के कई अनाज खरीद कर उसका बेहतर प्रबन्धन करती है। बैंक खाते में नकद धनराशि जाने पर वह पैसा परिवार के मुखिया के हाथ में आ जाएगा और वह उसका अन्य कार्यो में उपयोग या दुरुपयोग कर सकता है। एक दूसरी दिक्कत यह भी आ सकती है कि बैंक में पैसा आने पर लाभार्थी अच्छी किस्म के लेकिन कम और एक दो तरह के ही अनाज खरीदे। इससे उसके परिवार की पोषण सम्बन्धी समस्याऐं हो सकती हैं। इस योजना की धनराशि में कटौती करके हो सकता है कि सरकार कुछ हजार करोड़ रुपये बचा ले लेकिन इससे गरीबों के पेट पर लात ही लगेगा। कुपोषण के मामले में यह देश वैसे भी दुनिया भर में बदनाम है। सरकार पैसे बचाना चाहे तो और भी प्रासंगिक तरीके हैं। एक हास्यास्पद स्थिति यह है कि सरकार अमीर लोगों से रसोई गैस पर दिए जा रहे अनुदान को स्वेच्छा से छोड़ने की अपील कर रही है! उसी अनुदानित गैस को देश का अमीर तबका भी ले रहा है और उसी को अति निर्धन भी। सरकार ने उर्वरकों पर दिया जा रहा अनुदान भी कम कर दिया है और आगे और भी कम करने पर विचार कर रही है। इस अनुदानित उर्वरक को भी देश के अमीर लोग अपने-अपने उद्योग-धन्धों और चाय-फल के बागानों तक में इस्तेमाल करते हैं। उर्वरक अनुदान का भी आधे से अधिक धन गलत लोगों को जा रहा है।
यही हाल डीजल और पेट्रोल का भी है। सवाल यह है कि सरकार केरासिन आॅयल की तरह रसोई गैस, डीजल और पेट्रोल की भी राशनिंग क्यों नहीं कर सकती? सरकार अगर किसानों और परिवहन व्यवसायियों को सस्ती दर पर डीजल देना ही चाहती है तो उनके लिए अलग से व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकती? सरकार बता रही है कि पेट्रोलियम मन्त्री की अपील पर देश मे एक बड़े उद्यमी ने स्वेच्छा से गैस सब्सिडी छोड़ दी है, देश के एक बड़े हिन्दी अखबार समूह के मालिक ने भी गैस सब्सिडी छोड़ दी है और मध्य प्रदेश में 25 लोगों ने यही काम किया है! बिडम्बना देखिए कि देश का जो उद्यमी खुद गैस उत्पादन करने में लगा हुआ वह भी गैस पर 340 रुपए प्रति सिलेन्डर की सब्सिडी लेता है! यह कानून है और इसे बदलने के बजाय सरकार अपील जारी करके ऐसे लोगों के हृदय परिवर्तन की राह देख रही है! देश के तथाकथित उद्यमियों का पिछले साल 5,00,000 करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर दिया गया। सरकार यह पैसा अगर इनसे वसूल ले तो देश में चार साल तक इसी धन से अनुदानित योजनाएं चलायी जा सकती हैं। इसलिए गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं को बन्द करने की नहीं बल्कि अमीरों द्वारा उनके दुरुपयोग को रोकने की जरुरत है। 

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क्षतिपूर्ति अभियान में लगे भाजपा और संघ —सुनील अमर

दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली शर्मनाक हार के बाद भारतीय जनता पार्टी और उसके संरक्षक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ होश में आ गए लगते हैं और पिछले नौ महीनों से उनपर छाई लोकसभा जीत की खुमारी जरा उतरती दिख रही है। असल में भाजपा और उसके सह-संगठनों पर लोकसभा चुनाव की जीत का उतना ज्यादा असर शायद न भी होता लेकिन उसके बाद हुए राज्यों के चुनाव में मिली सफलता ने उन्हें उन्मादित कर दिया। कहना चाहिए कि संघ भी उन्माद में आ गया था लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी जैसे एक नवसिखुआ और सिर्फ दिल्ली में सिमटे राजनीतिक दल के हाथों हुई भाजपा की अभूतपूर्व दुर्गति ने संघ को भी होश में ला दिया है और अब वह इस क्षति की भरपाई में लग गया है। संघ ने न सिर्फ अपने मुखपत्रों बल्कि मौखिक रुप से भी भाजपा और सह-संगठनों को चेताया है तथा समझा जाता है कि संघ प्रमुख ने मोदी को भी सुधर जाने की चेतावनी दी है। असल में भाजपा को अभी तक सिर्फ काॅग्रेस से ही लड़ने की आदत थी जो इधर राजनीतिक हालातों से कम लेकिन अपने शीर्ष नेतृत्व की हताशा और निष्क्रियता के कारण ज्यादा संकट में है। आम आदमी पार्टी के रुप में भाजपा को एक नये प्रकार की चुनौती मिली और इस चुनौती को भी उसके नेता और प्रधानमन्त्री मोदी ने वैसे ही बड़बोलेपन, हुल्लड़बाजी और सस्ते शब्दों से फिकरे कस कर जीतने की कोशिश की जैसा कि वे अबतक करते आ रहे थे। दिल्लीवासियों को उन्होने यह कहकर भी अप्रत्यक्ष रुप से चिढ़ाया कि जो सारा देश सोचता है, वही दिल्लीवासी भी सोचते हैं, जबकि अब तक प्रायः यह कहा जाता था कि दिल्ली का सन्देश देश भर में जाता है।
क्षतिपूर्ति की दिशा में पहला काम किया है प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने। बीती 17 फरवरी को दिल्ली में ईसाइयों की एक सभा में उन्होंने घोषणा की कि उनकी सरकार किसी भी धार्मिक समूह को नफरत फैलाने की इजाजत नहीं देगी और किसी भी तरह की धार्मिक हिन्सा के खिलाफ सख्ती से कार्यवाही करेगी। ध्यान रहे कि बीते दिनों पाॅच गिरजाघरों और दिल्ली के एक ईसाई स्कूल पर हमला किया गया था जिस पर विपक्षी दलों और बहुुत से ईसाई समूहों ने केन्द्र सरकार पर आॅंख मॅूदने का आरोप लगाया था। भारत यात्रा पर आए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने यात्रा के आखिरी दिन दिल्ली में तथा वापस अमेरिका जाकर वहाॅं की एक सामूहिक प्रार्थना सभा में आरोप लगाया था कि भारत में हाल के दिनों में धार्मिक असहिष्णुता बढ़ी है तथा यह देश तभी विकास कर पाएगा जब साम्प्रदायिक सद्भाव बना रहेगा। मामला तब और गर्म हो गया जब एक समय में मोदी के प्रशंसक रहे अमेरिकी अखबार न्यूयार्क टाइम्स ने भी ओबामा जैसी ही सख्त टिप्पणी कर मोदी से उनकी इस मसले पर सतत चुप्पी का कारण पूछा। बराक ओबामा के बयान को मोदी सरकार के कार्यकाल में हो रहे अल्पसंख्यकों पर हमले तथा जबरन धर्म परिवर्तन के मसलों पर सख्त टिप्पणी माना गया था और सरकार ने तिलमिला कर इसका प्रतिरोध भी किया था लेकिन जब ऐसी ही सख्त सलाह भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी दिया तो प्रधानमन्त्री मोदी के लिए किसी उचित मन्च से इसका क्रियान्वयन जरुरी हो गया। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा के बुरी तरह साफ हो जाने से हतप्रभ संघ ने कई सवाल उठाए हैं। यह सभी जानते हैं कि डाॅक्टर हर्षवर्धन जैसे साफ-सुथरे चरित्र वाले नेता की मोदी ने दुर्गति ही कर दी। पहले तो उन्हें केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से ही चलता कर दिया जबकि श्री हर्षवर्धन एक चिकित्सक होने के नाते अपने विभाग में प्रशंसनीय कार्य कर रहे थे तथा उनके पास जनहित की कई शानदार योजनाऐं थीं लेकिन उनका क्रियान्वयन होने से दवा तथा सिगरेट बनाने वाली कम्पनियों को नुकसान होना तय था तो उन्हें हटाकर श्री मोदी ने एक महत्त्वहीन विभाग में कर दिया। दिल्ली में पिछले चुनाव से ही श्री हर्षवर्धन भाजपा की तरफ से मुख्यमन्त्री पद के दावेदार थे लेकिन ऐन मौके पर मोदी-शाह की जोड़ी ने किरण बेदी को पार्टी पर थोप दिया। संघ ने अपने मुखपत्र मंे पूछा है कि क्या भाजपा को अपने नेताओं-कार्यकर्ताओं पर भरोसा नहीं था?
दिल्ली विधानसभा चुनाव में जिस तरह से भाजपा का सफाया हुआ है उससे इस तर्क पर विश्वास करना कठिन है कि श्रीमती बेदी की जगह भाजपा या संघ कैडर का कोई नेता होता तो भाजपा ज्यादा सीटें निकाल ले जाती। हो सकता है कि संघ ने हताश कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखने के लिए बेदी के चयन को हार का कारण बताया हो लेकिन सभी जानते हैं कि लोकसभा चुनाव जीतने के बाद से लगातार मोदी ने दोमुॅहापन का परिचय दिया और मर्यादाओं की धज्जियाॅं उड़ाने वाला ऐसा आचरण किया कि मानों वे एक लोकतान्त्रिक देश के प्रधानमन्त्री नहीं बल्कि पाकिस्तान सरीखे किसी देश के तख्तापलट तानाशाह हों। दिल्ली के चुनाव में अगर वे गली-गली भाषण करने को कूद न पड़े होते और वे इसे स्थानीय नेतृत्व के भरोसे छोड़ दिए होते तो मतदाता शायद भाजपा पर कुछ और भरोसा दिखाते भी लेकिन दो-चार परिस्थितिजन्य चुनावी सफलताओं ने मोदी को ऐसे दर्प और अहंकार से भर दिया था कि वे अपने-आप को हर मर्ज की दवा समझने की भूल कर बैठे थे। मोदी और भाजपा-संघ के कारकुनों की कैसी मनःस्थिति थी इसका एक कार्टून में गज़ब का चित्रण किया गया था जिसमें एक तरफ मोदी सरकारी रेडियो पर ‘मन की बात’ कर रहे हैं तो बगल में खडे़ कुछ त्रिशूल-चिमटाधारी कह रहे हैं कि आप अपने मन की कर रहे हैं तो हमें भी अपने मन की करने दीजिए न! इस प्रवृत्ति का प्रतिकार तो होना ही था। दिल्ली की हार ने भाजपा को संभलने के लिए ठोकर दी है। कल्पना कीजिए कि भाजपा अगर दिल्ली चुनाव में इज्जत बचाने भर को भी सीटें पा जाती तो आज बिहार में क्या हुआ होता? क्या तब भी भाजपा वहाॅं इतने ही धैर्य से बैठी होती? क्या तब भी भाजपा इतने ही नर्म स्वर में जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती से सरकार बनाने की बातचीत कर रही होती?
वर्ष 2014 के आम चुनाव में मोदी का अंधाधुन्ध विज्ञापनी प्रयोग काठ की हाॅड़ी सरीखा था जिसे बार-बार चूल्हे पर नहीं चढ़ाया जा सकता, इसे दिल्ली ने दिखा दिया। तो अब दूसरा रास्ता खोजना ही होगा। यह दूसरा रास्ता भी तभी कारगर होगा जब उस पर चलने को मतदाता भरोसा कर सकें। 2014 में जिस मोदी पर उन्होंने भरोसा किया था वह तो हवा-हवाई निकला। आम लोगों के लिए सिर्फ बातें-बातें-बातें और दुर्दशा तो खास लोगों के लिए देश का पूरा ख़जाना। ऐसे तो लोग दुबारा झाॅंसे में आऐंगें नहीं। तो अब भाजपा और उसके आइकन मोदी को धोने-पोंछने की तैयारी है। जिस नौलखे सूट को ओबामा के आने पर उन्होंने बड़े दर्प से पहना था, उसे नीलाम कर देना पड़ा है ताकि उस पैसे से थोड़ा भरोसा खरीदा जा सके। बहरहाल यह जाॅंच का विषय होना चाहिए कि किसके कहने पर ऐसा सूट मोदी ने बनवाया और किसके कहने पर उसे नीलाम कर दिया! अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न जरा रोक दिया गया है, घर वापसी भाजपा को ही रिवर्स गियर में लेकर चली गयी है, स्त्रियों से दस बच्चे पैदा कर उन्हें विहिप व संघ को सौंप देने के आहवान का जो विकट विरोध स्त्री समाज द्वारा हुआ उससे आतंकित संघ प्रमुख ने खुद ही अब इस पर सख्ती कर दी है। यह तो भयभीत समूहों की शुरुआत है। इन्तजार तो अगले कदमों का है। (http://www.humsamvet.in/humsamvet/?p=1694)

किसानों को मदद चाहिए, मधुर बोल नहीं ---सुनील अमर

बीते साल अक्तूबर में महाराष्ट्र के विदर्भ में एक चुनावी रैली को सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री श्री मोदी ने कहा था कि एक किसान सरकार से सिर्फ पानी माॅगता है और बदले में वह मिट्टी से सोना पैदा करने की क्षमता रखता है लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो किसान पूरे देश को सन्तरे का जूस मुहैया करा रहा है वह खुद जहर पीने को विवश है! केन्द्र की भाजपा सरकार के अपने आॅंकड़े बताते हैं कि पहले 100 दिन बीतने के दौरान ही कर्ज और आपदा से ग्रस्त 4600 किसान आत्महत्या कर चुके थे। यह सही है कि देश में किसान बीते कई वर्षों से आत्महत्या की राह पकड़े हुए हैं लेकिन सवाल यह है कि क्रिकेट मैच के दौरान 16 बार ट्वीट करने वाले प्रधानमन्त्री मोदी इस राष्ट्रीय त्रासदी पर क्या एक बार भी ट्वीट नहीं कर सकते थे?
विदर्भ के बारे में वरिष्ठ कृषि पत्रकार पी. साईंनाथ जो कहते हैं कि यह जगह किसानों के लिए ठीक नहीं है। वास्तव मंे उनका यही कथन पूरे देश के किसानों पर लागू हो रहा है। खेती वैसे भी प्रकृति के सहारे होने वाला कार्य है और इस लिहाज से बेहद अनिश्चित हालत रहती है। ऐसे में इसे पूर्णरुप से सरकारी संरक्षण मिलना ही चाहिए। अफसोस की बात है कि आजादी के बाद से आज तक सभी सरकारों ने किसानों की बदहाली और खाद्यान्न की कमी का रोना तो रोया लेकिन इस दिशा में ऐसा कुछ नहीं किया जिससे किसान अपनी बदहाली से उबर सकें। इस प्रकरण में सबसे कडुवा मजाक तो प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और उनके गृहमन्त्री ने किया है। प्रधानमन्त्री ने उक्त बयान दिया तो हरियाणा के हालिया विधानसभा चुनाव की एक रैली में केन्द्रीय गृहमन्त्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि उनकी सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि देश के किसानों को प्रति कुन्तल पैदावार पर रु. 150 का मुनाफा जरुर मिले। हम सभी जानते हैं कि आज भी देश के प्रत्येक हिस्से में कर्ज से दबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं और अपनी उपज बिचैलियों को बेचने को विवश हैं। इस स्थिति में रत्ती भर भी सुधार नहीं हुआ है और अब महाराष्ट्र से भाजपा के एक विधायक कह रहे हैं कि किसान मर रहे हैं तो इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं क्योंकि अब खेती वही किसान करेंगें जो खेती करने के लायक हैं। उनका इशारा साफ है कि छोटे और आर्थिक रुप से कमजोर किसान खेती छोड़कर मजदूरी करें और उनकी खेती बड़ी कम्पनियों को लीज पर दे दी जाय। सम्प्रग सरकार के समय से ही इस दिशा में धीरे-धीरे कदम बढ़ाए जा रहे हैं।
सरकार की तरफ से किसानों को दी जाने वाली सहायता में उर्वरक सब्सिडी एकमात्र बड़ी सहायता है। पिछले साल के बजट में यह लगभग 73,000 करोड़ रुपये थी लेकिन इसमें दो बातों को प्रमुख रुप से समझ लेना चाहिए कि बाजार में मुक्त रुप से बिकने वाली अनुदानयुक्त उर्वरक को कोई भी खरीद सकता है, उसका किसान होना जरुरी नहीं और दूसरे, इस उर्वरक अनुदान की रकम में निर्माता और सरकारी तन्त्र का बहुत बड़े पैमाने पर खेल होता है। सब जानते हैं कि जरुरत के समय किसानों को यही उर्वरक कालाबाजार में खरीदना पड़ता है। किसानों को अनुदानयुक्त बीज देने और समर्थन मूल्य पर पैदावार को खरीदने की कहानी भी किसी से छिपी नहीं है। कृषि ऋण की तरह इसका लाभ भी सिर्फ बड़े किसान ही उठा पाते हैं। संप्रग सरकार द्वारा 65,000 करोड़ रुपये का जो कृषि ऋण माफ किया गया था उससे किसानों का ही नहीं बहुत से सरकारी बैंकों का भी उद्धार हुआ था। इसलिए जरुरत यह समझने की है कि किसानों की वास्तविक और जमीनी मदद कैसे की जानी चाहिए। यह साफ है कि किसानों के नाम पर दी जा रही छूट कहीं और पहुॅंच रही है और उनकी दयनीय स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है।
किसान की मदद कैसे की जा सकती है? सीधा सा जवाब है कि उसे उसके उत्पादन की लाभदायक कीमत देकर। किसानों का अरबों रुपया दबाए बैठी चीनी मिलों को सरकार तमाम तरह की राहत के अलावा निर्यात सब्सिडी भी दे रही है। बीते वर्ष में सिर्फ चीनी निर्यात के मद मंे सरकार ने 200 करोड़ रुपये का अनुदान मिलों को दिया था। अभी बीते सप्ताह केन्द्रीय खाद्य और आपूर्ति मन्त्री रामविलास पासवान ने फिर घोषणा की है कि चीनी मिलों को 14 लाख टन चीनी पर निर्यात सब्सिडी दी जाएगी। सरकार के ऐसे फैसले उसकी सोच और प्राथमिकता को दर्शाते हैं। सरकार सब्सिडी की खाद और बीज क्यों देती है? क्योंकि वह किसान को उत्पादन की लाभदायक कीमत नहीं देना चाहती। पूर्व केन्द्रीय कृषि मन्त्री शरद पवार और तत्कालीन वित्त मन्त्री और आज के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के विभागों ने समर्थन मूल्य की वृद्धि पर कहा था कि मूल्य ज्यादा बढ़ा देने पर बाजार में मॅहगाई बढ़ जाएगी! यह कितना क्रूर मजाक था कि किसान का माल सस्ते में खरीदेंगें ताकि शेष देशवासी सस्ता अनाज पा सकें! क्या इस दृष्टिकोण को बदले बिना किसानों का भला किया जा सकता है? उर्वरक सब्सिडी पर खर्च किए जा रहे अन्धाधुन्ध रकम को संयोजित करके किसानों की उपज का लाभकारी दाम क्यों नहीं दिया जा सकता। सरकार उन्हें सस्ते ब्याज का प्रलोभन देकर ऋण देती है और किसान इसमें फॅंस जाता है क्योंकि किसानों को ऋण का प्रबन्धन करना आता ही नहीं। दुःखद तो यह है कि किसानों को खेती के अलावा कुछ और करने को सिखाया, बताया और कराया ही नहीं जाता। पूर्व राष्ट्रपति कलाम ने एक महत्त्वाकांक्षी योजना ‘पूरा’ यानी ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाऐं की कल्पना की थी। यह योजना अगर ठीक से लागू की जाय तो किसानों को न सिर्फ उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिले बल्कि वे अपने खाली समय में कुटीर-धन्धों से सम्बन्धित कार्य करके भी आय बढ़ा सकते हैं। इसे आधी-अधूरी संप्रग सरकार ने कुछ जिलों में लागू भी किया था लेकिन असल में यह कोमा में ही पड़ी है। देश में फसल बीमा लागू है लेकिन आम किसान उसके बारे में जानता तक नहीं। क्या फसल बीमा को अनिवार्य रुप से लागू नहीं किया जा सकता? खासकर फसली ऋण के मामलों में? क्या इस बात की व्यवस्था नहीं की जा सकती कि देश का प्रत्येक लघु और सीमान्त किसान अपने जीवन और फसल के लिए बीमा से आच्छादित हो? आखिर इसी देश में लाॅंच किए जाने वाले उपग्रह और शादियों के समारोह तक बीमित किए जा रहे हैं। 
Link -- 
http://www.jansandeshtimes.in/index.php…    ( 23 Feb 2015)

किसानों को हवाई नहीं जमीनी मदद मिले ---सुनील अमर

किसानों को दी जाने वाली सरकारी सहायता में उर्वरक सब्सिडी एकमात्र बड़ी सहायता है। पिछले साल के बजट में यह लगभग 73,000 करोड़ रुपये थी लेकिन इसमें दो बातें समझ ली जानी चाहिए कि बाजार में मुक्त रूप से बिकने वाले अनुदानयुक्त उर्वरक को कोई भी खरीद सकता है। उसका किसान होना जरूरी नहीं और दूसरे, इस उर्वरक अनुदान की रकम में निर्माता और सरकारी तंत्र का बड़े पैमाने पर खेल होता है। सब जानते हैं कि जरूरत के समय किसानों को यही उर्वरक काला- बाजार में खरीदना पड़ता है। किसानों को अनुदानयुक्त बीज देने और समर्थन मूल्य पर पैदावार खरीदने की कहानी भी किसी से छिपी नहीं है। कृषि ऋण की तरह इसका लाभ भी सिर्फ बड़े किसान ही उठा पाते हैं। संप्रग सरकार द्वारा 65,000 करोड़ रुपये का जो कृषि ऋण माफ किया गया था उससे किसानों का ही नहीं, बहुत से सरकारी बैंकों का भी उद्धार हुआ था। इसलिए जरूरत यह समझने की है कि किसानों की वास्तविक और जमीनी मदद कैसे की जानी चाहिए। साफ है कि किसानों के नाम पर दी जा रही छूट कहीं और पहुंच रही है और वह बदहाल हैं। प्रकृति पर निर्भर खेती की स्थिति बेहद अनिश्चित रहती है। ऐसे में इसे सरकारी संरक्षण मिलना ही चाहिए। अफसोस कि आजादी के बाद से आज तक सरकारें किसानों की बदहाली और खाद्यान्न की कमी का रोना तो रोती हैं लेकिन इस दिशा में ऐसा कुछ नहीं हुआ जिससे किसान बदहाली से उबर सकें। हम सभी जानते हैं कि आज भी देश में कर्ज तले दबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं और अपनी उपज बिचौलियों को बेचने को विवश हैं। इस स्थिति में रत्ती भर सुधार नहीं हुआ है। केन्द्र की भाजपा सरकार के आंकड़े बताते हैं कि पहले सौ दिन बीतने के दौरान ही कर्ज और आपदा से ग्रस्त 4600 किसान आत्महत्या कर चुके थे। यह सही है कि देश में किसान बीते कई वर्षों से आत्महत्या की राह पकड़े हैं लेकिन सवाल है कि इस राष्ट्रीय त्रासदी पर प्रधानंमंत्री क्या एक बार भी ट्वीट नहीं कर सकते थे? सवाल है कि किसान की मदद कैसे की जा सकती है? सीधा जवाब है, उसे उसके उत्पादन की लाभदायक कीमत देकर। किसानों का अरबों रुपया दबाए बैठी चीनी मिलों को सरकार तमाम तरह की राहत के अलावा निर्यात सब्सिडी भी दे रही है। बीते वर्ष में सिर्फ चीनी निर्यात मद में सरकार ने 200 करोड़ रुपये का अनुदान मिलों को दिया था। केन्द्रीय खाद्य और आपूत्तर्ि मन्त्री रामविलास पासवान ने फिर घोषणा की है कि चीनी मिलों को 14 लाख टन चीनी पर निर्यात सब्सिडी दी जाएगी। सरकार के ऐसे फैसले उसकी सोच और प्राथमिकता दर्शाते हैं। सरकार सब्सिडी की खाद और बीज क्यों देती है? क्योंकि वह किसान को उत्पादन की लाभदायक कीमत नहीं देना चाहती। पूर्व केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार और तत्कालीन वित्त मंत्री के विभागों ने समर्थन मूल्य की वृद्धि पर कहा था कि मूल्य ज्यादा बढ़ा देने से बाजार में महंगाई बढ़ जाएगी! यह कितना क्रूर मजाक था कि किसान का माल सस्ते में खरीदेंगें ताकि शेष देशवासी सस्ता अनाज पा सकें! क्या इस दृष्टिकोण को बदले बिना किसानों का भला किया जा सकता है? उर्वरक सब्सिडी पर खर्च की जा रही अंधाधुंध रकम को संयोजित करके किसानों की उपज का लाभकारी दाम क्यों नहीं दिया जा सकता है! सरकार उन्हें सस्ते ब्याज का पल्रोभन देकर ऋण देती है और किसान इसमें फंस जाता है क्योंकि किसानों को ऋण का प्रबन्धन करना आता ही नहीं। दु:खद यह है कि किसानों को खेती के अलावा कुछ और करने को सिखाया, बताया और कराया ही नहीं जाता। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने एक महत्वाकांक्षी योजना ‘पूरा’ यानी ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाएं की कल्पना की थी। यह योजना अगर ठीक से लागू की जाए तो किसानों को न सिर्फ उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिले बल्कि वे खाली समय में कुटीर-धन्धों से सम्बन्धित कार्य करके भी आय बढ़ा सकते हैं। इसे संप्रग सरकार ने कुछ जिलों में आधी-अधूरी लागू भी किया था लेकिन यह कोमा में पड़ी है। देश में फसल बीमा लागू है लेकिन आम किसान उसके बारे में जानता तक नहीं। क्या फसल बीमा को अनिवार्य रूप से लागू नहीं किया जा सकता? खासकर फसली ऋण के मामलों में? क्या इस बात की व्यवस्था नहीं की जा सकती कि देश का प्रत्येक लघु और सीमान्त किसान अपने जीवन और फसल के लिए बीमा से आच्छादित हो? आखिर इसी देश में लांच हो रहे उपग्रह और शादियों के समारोह तक बीमित किए जा रहे हैं। 0 0