Wednesday, July 04, 2012
Sunday, July 01, 2012
भ्रष्टाचार... आखिर कौन बोलेगा हल्ला बोल ---शंभू भद्रा
देश में भ्रष्टाचार ने रक्तबीज का रूप ले लिया है। सरकारी तंत्र पूरी तरह भ्रष्ट हो चुका है। सत्ता पक्ष और विपक्ष ‘मेरा भ्रष्टाचार बनाम तेरा भ्रष्टाचार’ का खेल ‘खेल’ रहे हैं। मीडिया कठपुतली बन कर रह गया है। अन्ना हजारे जैसे आम आदमी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाते हैं, तो राजनीतिक दलों की तरफ से कहा जाता है कि आप जनता द्वारा इलेक्टेड नहीं हैं, इसलिए आपको सरकार से संवाद करने का हक नहीं है, जबकि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है। लेकिन लगता है कि सरकार जनता को केवल वोट देने के अधिकार तक ही सीमित रखना चाहती है, जोकि किसी भी गणतांत्रिक प्रणाली के लिए बेहद खतरनाक बात है। इससे लोकशाही में जनता की भागीदारी के सिद्धांत का उल्लंघन होता है। ऐसे में अहम सवाल है कि भ्रष्ट सरकारी तंत्र से पग-पग पर पीडि़त ‘आम आदमी’ को मुक्ति कैसे मिलेगी, आखिर भ्रष्टाचार के खिलाफ कौन हल्ला बोलेगा। इन्हीं सवालों पर रोशनी डाल रहे हैं शंभू भद्रा...
भ्रष्टाचार की स्थिति नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक सरकारी योजनाओं के लिए आवंटित धन का केवल 20 फीसदी धन ही योजनाओं पर खर्च होता है। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी के स्वर में सरकारी एक रुपये का केवल 15 पैसा अंतिम लाभार्थी तक पहुंचता है। हांगकांग की संस्था पालिटिकल एंड इकोनोमी रिस्क कंस्लटेंसी के सर्वे के मुताबिक एशिया के 16 भ्रष्टतम देशों में भारत चौथे पायदान पर है। इस सूची में भारत से अधिक भ्रष्ट देश केवल फिलिपींस, इंडोनेशिया और कंबोडिया है। चीन की स्थिति भारत से बहुत बेहतर है। भारत पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, म्यांमार, थाइलैंड और श्रीलंका से भी गया गुजरा है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के अनुसार 180 देशों की सूची में नीचे से भारत 84वें स्थान पर है।
देश में संत्री से लेकर मंत्री तक करीब 90 प्रतिशत सरकारी कर्मी भ्रष्ट हैं। देश का करीब 468 अरब डालर कालाधन बाहर है। भ्रष्टाचार के रूप इसके दो रूप होते हैं। व्यक्तिगत (इंडिविजुअल) और संस्थागत (इंस्टीट्यूशनल)। घूस (नकद) लेना, किकबैक (पद का दुरुपयोग कर उपहार प्राप्त करना या कमीशन लेना), अवैध वसूली (एक्सटॉर्सन), टैक्स चोरी, हवाला, गबन (सरकारी धन की हेराफेरी), भाई-भतीजावाद (नेपोटिज्म-सगे संबंधियों एंड क्रोनीज्म-दोस्तों) आदि व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के रूप हैं। राजनीतिक भ्रष्टाचार अर्थात क्लेप्टोक्रेसी (शासन तंत्र पर कब्जा जमाकर नियम-कानून के जरिये सरकारी संपत्ति मसलन जमीन, खादान, प्राकृतिक संसाधन, तेल-गैस, सोना आदि का दोहन करना, पेट्रोनेज यानी सत्ता संभालने के तुरंत बाद नीति संचालन के महत्वपूर्ण पदों पर अपने मनपसंद अफसरों की नियुक्ति करना और सत्ता की लूट में हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए मौकापरस्त गठबंधन बनाना आदि क्लेप्टोक्रेसी है), मनी लांड्रिंग, संगठित अपराध (ऑर्गेनाइज्ड क्राइम), कॉरपोरेट कार्टेल (मिलीभगत कर उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें तय करना और क्षेत्र-मात्रा के आधार पर कारोबार का विभाजन कर लेना), कॉरपोरेट-पॉलिटिशियन नेक्सस, ड्रग्स तस्करी, मानव तस्करी, बाल मजदूरी, श्रम का शोषण आदि संस्थागत भ्रष्टाचार की श्रेणी में आते हैं।
अभी दुनिया में हर साल एक ट्रिलियन (10 खरब) डालर का संस्थागत भ्रष्टाचार होता है। आजकल भ्रष्टाचार का एक तीसरा रूप भी प्रचलन में है- थर्ड पार्टी करप्शन। यह है सरकार और कॉरपोरेट के बीच या देश और देश के बीच किसी खास नीति को प्रभावित करने के लिए या अपनी बात मनवाने के लिए एक भरोसेमंद मध्यस्थ थर्ड पार्टी की भूमिका निभाता है। थर्ड पार्टी करप्शन अवसर के स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की राह में बाधक है। कैसे असर डालता है भ्रष्टाचार किसी भी देश के विकास में सबसे बड़ा बाधक है भ्रष्टाचार। अगर चुनाव और विधायिका भ्रष्ट हैं, तो आप स्वच्छ प्रशासन की कल्पना नहीं कर सकते। न ही आप नीति निर्माताओं से ईमानदारी और जन-जवाबदेही की अपेक्षा कर सकते। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार इंसाफ और कानून के राज को नकारात्मक तरीके से प्रभावित करता है। प्रशासन (पुलिस सहित) में भ्रष्टाचार जन कल्याण के लिए बनी सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन को बाईपास करता है और घूस, अवैध वसूली किकबैक आदि को बढ़ावा देता है। यह जनतंत्र के लोक कल्याण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।
गवर्नेंस में भ्रष्टाचार सरकार की संस्थागत क्षमता को कमजोर करता है, जिससे सरकारी संसाधन की लूट को बल मिलता है और सरकारी दफ्तर खरीद-बिक्री केंद्र बनकर रह जाता है। फलत: ऐसी सरकार की वैधता पर सवाल उठने लगता है। कॉरपोरेट भ्रष्टाचार मौके की समानता और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के माहौल पर हमला करता है। कॉरपोरेट और सरकार के बीच नेक्सस जन संसाधन की लूट को प्रश्रय देता है। उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्य नियंत्रण पर से सरकार की पकड़ ढीली हो जाती है। कंपनियां कार्टेल बनाकर मनमानी पर उतर आती है और जनता महंगाई से बिलबिलाने लगती है। कॉरपोरेट को कानून का भय नहीं रह जाता है और वह सरकारी नियमों के पालन में आनाकानी बरतने लगता है। प्रभाव और धौंस का इस्तेमाल कर व्यापार करना भी भ्रष्टाचार है और इससे स्वस्थ व्यापार की अवधारणा का हनन होता है। अमेरिका इसका उदाहरण है। पब्लिक सेक्टर (सार्वजनिक क्षेत्र) में भ्रष्टाचार सरकारी धन को मुनाफे के खेल में झोंक देता है, जिससे जनता को उचित दर उत्पाद उपलब्ध कराने की भावना खत्म हो जाती है। इस भ्रष्टाचार के चलते सरकारी कंपनियों के अधिकारी सार्वजनिक परियोजनाओं के क्रियान्वयन में व्यवधान पैदा करने लगते हैं, इससे उच्च स्तर का निर्माण नहीं हो पाता है, पर्यावरण की उपेक्षा होती और सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता प्रभावित होती है। नतीजा सरकार पर बजट दबाव बढ़ जाता है।
शायद इसीलिए नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने कहा था कि सूखे के कारण अकाल नहीं पड़ता, बल्कि राजनीतिक कायरता के चलते अकाल से लोगों की मौत होती है।
इसके अलावा स्वास्थ्य, शिक्षा, जन सुरक्षा और ट्रेड यूनियनों में भी जमकर भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार पनपाने वाले शासन के लूपहोल्स 1.सरकारी सेवाओं, योजनाओं और नियमों के क्रियान्वयन में गोपनीयता होना। अर्थात प्रशासन में पारदर्शिता का अभाव। वैसे आरटीआई के रूप में जनता के पास हथियार है, लेकिन यह एकतरफा है। जब किसी व्यक्ति को किसी सरकारी फैसले के बारे में जानने की जरूरत महसूस होगी, तब वह आरटीआई का इस्तेमाल कर सकेगा। लेकिन होना यह चाहिए कि केवल गोपनीय अपवाद को छोड़ कर सभी प्रशासनिक फैसले पारदर्शी तरीके से किए जाएं। यह विडियो रिकार्डिंग और लाइव प्रसारण से संभव है।
2.मीडिया में खोजी पत्रकारिता का अभाव होना।
3.बोलने और विरोध करने की आजादी और प्रेस की स्वतंत्रता का कुंद हो जाना।
4.सरकारी लेखा का कमजोर होना।
5.कदाचार पर अंकुश के लिए निगरानी तंत्र का या तो अभाव होना या लचर होना।
6.सरकार को नियंत्रित करने वाले कारकों जैसे सिविल सोसायटी का मौन रहना, एनजीओ का सक्रिय नहीं रहना और जनता द्वारा अपने वोट के महत्व को नहीं समझना।
7. त्रुटिपूर्ण प्रशासनिक सेवा, सुस्त सुधार, कानून के भय का अभाव, न्यायपालिका व न्यायिक व्यवस्था का जनोन्मुख नहीं होना और सामाजिक प्रहरी के तौर पर काम कर रहे ईमानदार नागरिक को पर्याप्त सुरक्षा नहीं मिलना। उपरोक्त सभी लूपहोल्स हैं जो भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं। शासन तंत्र में भ्रष्टाचार के लिए उपलब्ध अवसर 1.सरकारी कर्मियों को नकद उपयोग करने की छूट होना। 2.सरकारी धन को केंद्रीयकृत रखना, उसका विकेंद्रीकरण नहीं होना। उदाहरण के तौर पर दो करोड़ रुपये से दो हजार निकलेगा तो पत नहीं चलेगा पर दस हजार से दो हजार निकलेगा तो तुरंत पता चल जाएगा। 3.बिना सुपरविजन किए सरकारी निवेश करना। 4.सरकारी संपत्ति की बिक्री और अपारदर्शी तरीके से विनिवेश होना। 5.हर काम के लिए लाइसेंस का प्रावधान होना। इससे अवैध लेनदेन को बढ़ावा मिलता है। 6.लंबे समय तक सरकारी कर्मी का एक स्थान पर टिका होना। जनता और सरकारी कर्मियों के बीच कम संवाद होना। किसी भी फैसले के दुष्परिणाम की स्थिति में सरकारी कर्मियों की जवाबदेही तय नहीं होना। 7.चुनाव प्रक्रिया का महंगा होना। 8.प्रचुर सरकारी प्राकृतिक संसाधन के निर्यात का अवसर होना। पब्लिक सेक्टर का विशाल होना। 71 प्रतिशत भ्रष्टाचार पब्लिक सेक्टर में है।
शासन व्यवस्था के जरिये सरकारी संसाधन जमीन-खान-सोना-स्पेक्ट्रम आदि पर कब्जा जमाने का मौका होना। 9.शासन में स्वार्थ हित, भाई-भतीजावाद, उपहार संस्कृति और जनता के बीच वर्ग व जाति विभाजन की स्थिति होना। उक्त सभी अवसर भ्रष्टाचार के लिए खाद-पानी की तरह है। संप्रग सरकार का लचर रवैया अभी तक आपने देखा कि हमारी शासन प्रणाली में उपरोक्त वर्णित वो तमाम खामियां हैं जो भ्रष्टाचार के फलने-फूलने में मददगार हैं। अब कुछ नमूना भ्रष्टाचार के प्रति वर्तमान संप्रग सरकार के लचर रवैये का। अदालत की सक्रियता देश के राजनीतिक दलों को हमेशा चुभती रही है।
अभी किसी सदन का सदस्य नहीं होने के बावजूद वरिष्ठ माकपाई व पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने न्यायिक सक्रियता के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। लेकिन सोमनाथ बाबू की करतूत देखिए। चटर्जी ने धन के बदले सवाल पूछने के मामले में 11 सांसदों को बर्खास्त करने के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट के नोटिस का संज्ञान लेने से यह कह कर मना कर दिया था कि यह न्यायपालिका का विधायिका में हस्तक्षेप है। सच जो भी हो, पर सोमनाथ के लोकसभा अध्यक्ष रहते हुए ही नोट के बदले वोट कांड में लीपापोती हुई। इस मामले की जांच के लिए गठित संसदीय समिति ने कथित तौर पर आरोपी सांसदों से बिना पूछताछ किए ही रिपोर्ट दे दी, जिसमें किसी को दोषी नहीं बताया गया। बस कहा गया कि आगे जांच की जरूरत है। सोमनाथ ने कभी भी जांच की पहल नहीं की। नतीजा यह हुआ कि दिल्ली पुलिस उदासीन बनी रही। इस उदासीनता के खिलाफ दायर जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने तीखे तेवर अपनाए, तो दिल्ली पुलिस अब हरकत में आई है।
अगर सरकार में बैठे जनप्रतिनिधि अपना काम ठीक से करते तो शीर्ष अदालत को दखल नहीं देना पड़ता। अभी दिल्ली हाईकोर्ट ने राष्ट्रमंडल खेल घोटाले के आरोप में जेल में बंद सुरेश कलमाड़ी की उस याचिका पर सख्त टिप्पणी की है, जिसमें कलमाड़ी ने मानसून सत्र में शरीक होने के लिए अदालत से अनुमति मांगी थी। हाईकोर्ट ने पूछा कि आखिर कलमाड़ी के लिए संसद सत्र में भाग लेना क्यों जरूरी है। क्या सरकार गिरी जा रही है। लगे हाथ कोर्ट ने कलमाड़ी से उनका संसद में भाग लेने का पिछला रिकार्ड मांग लिया। लेकिन किसी भी नेता ने एक भ्रष्टाचार के आरोपी के संसद में भाग लेने की मंशा का विरोध नहीं किया। ईमानदार प्रधानमंत्री ने भी नहीं और कांग्रेस आलाकमान ने भी नहीं।
उल्टे संप्रग सरकार में भ्रष्ट नेता की कितनी पूछ है, इसका पता कैग की उस हालिया रिपोर्ट से चलता है, जिसमें कैग ने कहा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) जानबूझकर राष्ट्रमंडल खेल आयोजन की जिम्मेदारी सुरेश कलमाड़ी के पास रहने दिया, जबकि 25 अक्टूबर 2004 में मंत्रिसमूह ने निश्चय किया था कि खेल आयोजन की जिम्मेदारी खेलमंत्री को दी जाए। उस मंत्रिसमूह की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह खुद शामिल थे। उस समय खेलमंत्री सुनील दत्त थे, जिनकी छवि के बारे में सबको पता है। उसके बाद कलमाड़ी ने क्या कमाल किया यह आपने देखा ही। कालेधन के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने विशेष जांच दल के गठन का फैसला तब किया जब वह आश्वस्त हो गई कि सरकार काले धन की जांच में मंशावश देरी कर रही है और अपना काम ठीक से नहीं कर रही है। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के रूप में कथित दागदार दामन वाले पीजे थॅमस की नियुक्ति सरकार के ‘भ्रष्ट प्रेम’ का एक और प्रमाण है। सरकार को पता था कि थॉमस इस पद के योग्य नहीं है, फिर भी उसने उनकी नियुक्ति की, अदालत में उनके पक्ष में हलफनामे देती रही। इस मामले में भी अगर अदालत दखल नहीं देती तो थॉमस पूरी व्यवस्था को मुंह चिढ़ा रहे होते।
2जी मामले में भी मीडिया रिपोर्ट के बाद न्यायालय दखल नहीं देता तो शायद ए राजा अब भी संचार मंत्री पद पर बने रहते। सांसद कनिमोझी जेल में नहीं होती। सलवा जुडूम मामले में भी सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा है। तभी छत्तीसगढ़ सरकार ने हाथ पीछे खींचा है। कर्नाटक के लोकायुक्त ने ठीक से काम नहीं किया होता तो आज बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा नहीं देना पड़ता। भूमि अधिग्रहण का मामला ही लें तो अगर इसमें संप्रग-एक के कार्यकाल में ही संशोधन हो जाता तो यह इतना बड़ा मामला नहीं और न ही अदालत पहुंचता। संप्रग-एक सरकार को ही भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन विधेयक पारित करना था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया, बल्कि गैर कांग्रेस राज्यों में इस पर राजनीति को हवा दी। अब तक आपको पता चल गया होगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार कितनी गंभीरता से काम कर रही है और इसके खिलाफ अन्ना हजारे जैसे लोगों को क्यों जंतर-मंतर पर आमरण अनशन करना पड़ता है। क्यों बाबा रामदेव को लाठी खानी पड़ती है। ऐसे में भ्रष्टाचार रूपी रक्तबीज के खात्मे के लिए हमारे पास क्या विकल्प है, तो बस अपना संकल्प कि किसी भी कीमत पर न ही घूस देंगे और न ही अन्याय सहेंगे और लोकतांत्रिक व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के लिए सतत संघर्षशील रहेंगे। o o
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