विशिष्ट परिस्थितियों के कारण अब तक देश में चार बार प्रबल बहुमत की सरकारें बन चुकी हैं। ऐसी पहली सरकार, 1971 में इन्दिरा गॉधी की अगुवाई वाली तत्कालीन कॉंग्रेस (आर) की थी जिसे 352 सीटें हासिल हुई थीं। दूसरी सरकार 1977 में आपातकाल के बाद नवगठित जनता पार्टी की बनी थी जिसने तब की सर्वशक्तिमान कॉग्रेस को बुरी तरह पराजित कर अकेले 295 और गठबन्धन के साथ 345 सीटें जीती थी। इसके बाद वर्ष 1984 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गॉंधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में राजीव गॉंधी के नेतृत्व में कॉंग्रेस ने सहानुभूति लहर पर सवार होकर अभूतपूर्व प्रदर्शन के साथ कुल 414 सीटें जीत कर एक तरह से विपक्ष का सफाया ही कर दिया था। और फिर पिछले साल हुए चुनाव में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन ने कॉग्रेस का सफाया करते हुए 336 सीटें जीत लीं जिसमें से भाजपा की सीटें 282 हैं। इस प्रकार आजाद भारत के 67 साल के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है जब किसी गैर कॉग्रेस दल ने अकेले दम पर बहुमत से भी अधिक सीटें जीतीं।
अनुभव यह बताता है इन चारों सरकारों ने कई अवसरों पर लोकतन्त्र की भावना के विपरीत जाकर तानाशाहों जैसा मनमाना फैसला किया। इन्दिरा गॉधी ने 1971 की उसी जीत के बाद विपक्ष पर अंकुश लगाने की ऐसी कोशिशें शुरु कीं जिसका चरम बिन्दु आपातकाल की घोषणा के रुप मंे आया। जनता सरकार भी जीत का मद संभाल नहीं पाई। आपसी फूट और विवादास्पद फैसलों के चलते ढ़ाई साल में यह जनता के कोप का शिकार हो गई। राजीव गॉंधी की सरकार ने चर्चित बेगम शाहबानो तलाक फैसले को पलट कर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की तौहीन की। अयोध्या में विवादित स्थल पर शिलान्यास करा कर मामले को बेजा हवा दी। भोपाल गैस काण्ड, बोफोर्स तोप सौदा तथा मालदीव व श्रीलंका में सैन्य हस्तक्षेप जैसे मामलों में सरकार के रुख और उसके फैसलों ने विवादों को जन्म दिया। आज विपक्ष की जो हालत लोकसभा व दिल्ली विधानसभा में है, कुछ वैसी ही हालत उस समय भी लोकसभा में थी। लोग स्तब्ध होकर राजीव सरकार के फैसलों को देख रहे थे।
देश में आज राजग की प्रबल बहुमत की सरकार है और लोकसभा में विपक्ष का नेता तक नहीं है। प्रधानमन्त्री मोदी न सिर्फ अपने चुनावी वादों से लगातार पलट रहे हैं बल्कि ऐसे-ऐसे फैसले कर रहे हैं जो जन विरोधी हैं। भूमि अधिग्रहण जैसे अहम मसले पर विपक्ष के रुप में लिया गया अपना ही स्टैंड भुलाते हुए भाजपा नेता उसे और शोषणकारी बनाकर अध्यादेश के मार्फत तानाशाही ढ़ॅंग से लागू करने में लगे हुए है। गणतन्त्र दिवस के विज्ञापन में संविधान की प्रस्तावना से छेड़छाड़, धर्म परिवर्तन, दस बच्चे पैदा करने का आह्वान तथा मोदी का नौलखा सूट ये सब इस सरकार की तानाशाही प्रवृत्ति के नमूने हैं। इसके बरक्स 1989 में अल्पमत की वी.पी. सिंह सरकार का वह फैसला याद आता है जिसमें उन्होंने सरकार के चंगुल में रह रहे आकाशवाणी-दूरदर्शन को मुक्त करते हुए प्रसार भारती का गठन कर इसे स्वायत्तशाषी संगठन बना दिया था। वाजपेयी के नेतृत्व वाले 24 दलों की एनडीए सरकार सहयोगी दलों के दबाव में ही सही पर धारा 370, समान नागरिकता और राम मन्दिर जैसे मुद्दों को ठंढ़े बस्ते में डाले रही और इसके बाद 11 दलों केे साथ सत्ता में आई कॉंग्रेस ने भी मनरेगा, सूचना का अधिकार, किसान कर्ज माफी, शिक्षा का अधिकार तथा भोजन के अधिकार जैसे कई ऐतिहासिक फैसले किए।
साफ है कि कथित मजबूत सरकार की अवधारणा खास पार्टी या नेता को भले ज्यादा ताकत दे दे, आम लोगों के हितों के लिहाज से आशंकाऐं बढ़ाने वाली ही साबित हुई हैं। सबसे गम्भीर बात है कि ऐसी सरकार में जब गाड़ी पटरी से उतरती दिखने लगती है तब भी विपक्षी पार्टियॉं या अन्य लोकतान्त्रिक शक्तियॉं हस्तक्षेप कर मामले को ज्यादा बिगड़ने से बचाने की स्थिति में नहीं होतीं।
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