'' ऐसे तो नही कम होगी ग़ुरबत (गरीबी) ''
Wednesday, October 26, 2011
Sunday, October 23, 2011
राष्ट्रीय हिंदी दैनिक DNA के सम्पादकीय पृष्ठ पर 23 अक्तूबर 2011 को मेरा आलेख --
'' समझिये शीबा पर हुए हमले का निहितार्थ''
सूचना कार्यकत्री, समाजशास्त्री व साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ की स्तम्भ लेखिका सुश्री शीबा असलम फहमी के घर पर गत 8 अक्तूबर की शाम हुआ घातक हमला प्रशासन, धर्मांधों तथा अपराधियों के गठजोड़ का नतीजा है। देश में ऐसे गठजोड़ किस तेजी से पनप रहे हैं इसका प्रमाण इस घटना के महज चार दिन बाद ही सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण पर उनके न्यायालय स्थित कार्यालय में हुआ हमला है। इससे पहले भी सूचना कार्यकर्ताओं पर हमले होते ही रहे हैं और इस निंदनीय कड़ी में अभी हमले मध्यप्रदेश की सूचना कार्यकत्री शेहला मसूद की हत्या को देखा है।
अपराधियों के साथ स्थानीय प्रशासन की साठ-गाँठ कितनी गहरी है इसका पता इसी एक बात से चल जाता है कि सुश्री शीबा के घर पर हुए हमले को नियंत्रित करने के लिए जिस प्रशासन ने एक कम्पनी पी.ए.सी. तैनात किया था, उसी प्रशासन ने घटना के दो दिन बाद शीबा के परिवार को उपलब्ध सशस्त्र सुरक्षा को ही हटा लिया जबकि वर्ष 2008 में शीबा के घर पर हुए ऐसे ही एक हिंसक हमले के बाद उन्हें यह सुरक्षा मुहैया करायी गयी थी। दिल्ली के लेखकों, पत्रकारों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के भारी दबाव के बाद अंततः प्रशासन ने फिर से उनकी सुरक्षा बहाल की।
सुश्री शीबा फहमी का प्रेस और दफ्तर दिल्ली में जामा मस्जिद वाले क्षेत्र में हैं। वे एक सामाजिक-सूचना कार्यकत्री और जानी मानी स्तंभ लेखिका हैं जो पिछले कई वर्षों से इस्लाम और हिंदू धर्मों में व्याप्त कुरीतियों व पंडा-मुल्लावाद के विरुद्ध अपने स्तंभ में लिखती रहती हैं और इस वजह से प्रायः ही धमकियों का सामना करती रहती हैं। उनके घर-परिवार पर इससे पहले भी कई बार हमले हो चुके हैं और इस वजह से प्रशासन ने उनके परिवार को सशस्त्र सुरक्षा उपलब्ध करा रखी है। उनके पति श्री अरशद फहमी संपादक होने के साथ-साथ सूचना कार्यकर्ता भी हैं तथा इस दम्पत्ति ने अब तक पचासों दरख्वास्तें लगाकर भू-माफियाओं, अवैध पार्किंग चलाने वालों, विदेशी मुद्रा के अवैध कारोबारियों व हवाला अपराधियों के विरुद्ध अभियान चलाया हुआ है।
जामा मस्जिद क्षेत्र में धड़ल्ले से चल रहे इन अपराधों को एक ऐसे व्यक्ति की सरपरस्ती बतायी जाती है जो अपने आपको देश के मुसलमानों का स्वयंभू मसीहा समझता है और सरकारी खैरात से उसकी मसीहाई सीना तानकर चल भी रही है। ऐसे कृत्यों का पर्दाफाश करने वाले पत्रकारों को सरे आम मारना-पीटना तथा अपना स्वार्थ सिद्धकर राजनीतिक दलों की तरफदारी में फतवे जारी करना ही जिसका धंधा है।
फहमी दम्पत्ति ने जब इस दीदा-दिलेरी के विरोध में पत्र-पत्रिकाओं में लेख, पोस्टर अभियान व सम्बन्धित विभागों में सूचना के अधिकार के तहत अर्जिया लगायीं तो उन पर असामाजिक तत्त्वों का कहर टूटना शुरु हो गया। सुश्री फहमी तो ऐसी धाधलियों के पर्दाफाश में अपने पत्रकारिता जीवन के शुरुआती दिनों (वर्ष 1996) से ही लगी हैं जब उनकी शादी भी नहीं हुई थी तथा वे अपने गृहनगर कानपुर में रहती थीं। शीबा किन मुद्दों पर लिखती हैं यह समाचार माध्यमों को देखने-पढ़ने वाले लोग जानते ही हैं। पिछले कई वर्षों से वे प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका हंस में ‘जेंडर जिहाद’ नामक स्तंभ लिखकर धर्मांघों व कठमुल्लाओं की करतूतों का खुलासा और विरोध करती रही हैं तो अपने ताजा स्तंभ ‘ मुख्यधारा के अहंकार ’ में भी वे साहित्य-समाज से लेकर तमाम क्षेत्रों में हावी मठाधीशों की करतूतों का मुखर विरोध कर रही हैं।
पिछले दिनों एनडीटीवी इंडिया के कार्यक्रम ‘मुकाबला’ में भी जिहाद पर उन्होंने जब जोरदार तर्कों के साथ बहस की तो उन्हें फोन पर खूब धमकियां मिलीं। उन्होंने अपने कई लेखों में राष्ट्रीय धरोहर जामा मस्जिद को बुखारी परिवार के चंगुल से आजाद कराने के लिए लिखा और आरोप लगाया कि जामा मस्जिद एक राष्ट्रीय स्मारक होने के बावजूद एक परिवार की पैतृक सम्पत्ति बनी हुई है और इस वजह से इसका न सिर्फ गैरकानूनी दोहन हो रहा है बल्कि इस क्षेत्र में इस परिवार का आतंक व्याप्त है।
यह परिवार इस परिसर में कई तरह के अवैध शुल्क उगाही, राष्ट्रीय सम्पत्ति को किराये पर देने के साथ-साथ ड्रग व नशा तंत्र, सेक्स रैकेट, हवाला रैकेट, मटका, सत्ता व विदेशी मुद्रा के अवैध विनिमय जैसे राष्ट्र विरोधी कार्यों की सरपरस्ती करता बताया जाता है। शीबा का दावा है कि कोई भी व्यक्ति मौके पर आकर इन गतिविधियों को कभी भी देख सकता है। वे कहती हैं कि इस क्षेत्र की हालत इतनी खराब हो चुकी है कि कोई भी शरीफ आदमी यहाँ से गुजरना भी न चाहेगा। उन्होंने इमाम के साथ ‘शाही’ शब्द जोड़े जाने पर भी खासी आपत्ति की थी और इस संदर्भ में कुछ माह पूर्व एक लेख भी लिखा था कि ‘ये शाही क्या होता है?’ और इस लेख ने भी उस वक्त उनके लिए खासी दिक्कतें खड़ी की थीं।
शीबा व उनके पति अरशद अली फहमी जो कि पत्रकार व सूचना कार्यकर्ता हैं, ने अब तक दर्जनों सूचना दरख्वास्तें लगा कर उक्त तरह की अवैध गतिविधियों का खुलासा करने व उन पर रोक लगाने का कार्य कर चुके हैं। यह साफ-साफ किसी के आर्थिक हितों के विरुद्ध है। फहमी दम्पत्ति ने ऐसे कृत्यों के विरुद्ध जबर्दस्त पोस्टर अभियान भी चलाया है। वे बुखारी परिवार की दीदा दिलेरी के बारे में बताती है कि राष्ट्रीय धरोहर जामा मस्जिद के गेट नम्बर तीन स्थित पार्क को उन लोगों ने कार व बस की वी.आई.पी. पार्किंग में बदल दिया है और संभवतः दिल्ली की सबसे मॅहगी पार्किंग है। इस पार्किंग में कार के लिए 50 रुपया प्रति घंटा और बस के लिए 800 रुपया प्रतिदिन का रेट है!
यह स्थल पर्यटन के लिए भी है और यहाँ देश-विदेश के पर्यटक बड़ी संख्या में आते हैं। अनुमान है कि यहाँ 150 से अधिक गाड़ियां रोज आती होंगीं। उनसे इस प्रकार की गई लूट सीधे ‘शाही जेब’ में जाती है। यहाँ विदेशी मुद्रा बदलने की लगभग 150 अवैध दुकाने हैं और पुलिस की हिम्मत नहीं कि वो इनकी शाही सरपरस्ती के खिलाफ जा सके। इसके अलावा यहाँ चोरी की गाड़ियों को लाकर उन्हें काट कर बेच दिया जाता है। इस प्रकार यहाँ एक आपराधिक साम्राज्य खड़ा है और इसके खिलाफ बोलने या सिर उठाने वाले के साथ वही सलूक किया जाता है जो फहमी दम्पत्ति के साथ किया जा रहा है। ताजा मामला भी शीबा का अपना न होकर एक गरीब मजदूर की मदद को लेकर था।
एक कश्मीरी मजदूर विदेश से लौटा था और उसकी विदेशी मुद्रा को बदलने के फेर में जामा मस्जिद स्थित एक दुकानदार ने धोखाधड़ी करते हुए लगभग 44000 रुपये कम दिये। इस दुकानदार के पास मुद्रा बदलने का कोई लाइसेंस भी नहीं है। उस मजदूर ने पास ही स्थित शीबा के अखबार के दफ्तर में आकर मदद की गुहार की। शीबा के पति अरशद अली फहमी ने पहले तो दुकानदार को समझाया लेकिन जब वो नहीं माना तो उन्होंने पुलिस को बुलवाया। पुलिस के दबाव में उसे पैसा उस मजदूर का वापस करना पड़ा। यह मामला इस क्षेत्र के अवैध कारोबारियों तथा उनके संरक्षणदाताओं को अपने हितों के विरुद्ध लगा और नतीजे में फहमी परिवार को सबक सिखाने का फैसला किया गया।
हमलावरों ने बाकयदा ‘अरशद फहमी-शीबा फहमी मुर्दाबाद ’ और ‘ इमाम बुखारी जिंदाबाद के नारे भी लगाये और धमकी दी कि ‘‘ टी.वी. पर जो बोलती हो वह काम नहीं आएगा’’। शीबा फहमी के घर पर हुआ ताजा हमला कई गंभीर सवाल उठाता है। मजहब की धौंस पर क्या कुछ लोग देश, कानून और संविधान सबसे उपर हो सकते हैं? किसी राष्ट्रीय धरोहर को क्या किसी की बपौती बनने दिया जा सकता है? पुरातत्व विभाग से संरक्षित किसी इमारत को किसी के निजी स्वार्थ के लिए क्या मनमाने तरीके से क्षति पहुँचाने दिया जा सकता है? देश में सूचना का अधिकार कानून लागू है और इसने वह कर दिखाया है जो आज तक बहुत मंहगी और भारी-भरकम जनहित याचिकाऐं भी नहीं कर पाती थीं।
निश्चित तौर पर दर्जनों सूचना कार्यकर्ताओं ने अपनी जान देकर आर.टी.आई. के इस पौधे को खाद-पानी दिया है। मध्य प्रदेश की सूचना कार्यकर्त्री शेहला मसूद की गत दिनों हुई हत्या इसकी ताजा मिसाल है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि सूचना कार्यकर्ताओं पर हो रहे इस तरह के हौलनाक हमलों के बीच प्रधानमंत्री व उनके मंत्रिमंडल के कई वरिष्ठ सहयोगी यह कहने लगे हैं कि सूचना कानून की समीक्षा की जानी चाहिए क्योंकि इसकी वजह से अधिकारियों को काम करने में दिक्कतें आ रही हैं? दिक्कतें अधिकारियों को आ रही हैं कि सरकार को? और क्या इसीलिए शीबा के मामले में अभियुक्तों का नाम बताने के बावजूद पुलिस ने पहले तो उनका नाम प्राथमिकी में दर्ज करने में देरी की और बाद में उन्हें इतना मौका दिया की वो सब अपनी जमानतें करवा सकें ! अब उन सबने अपनी जमानतें करवा ली हैं और वो बाकायदा फहमी दंपत्ति को मुंह चिढ़ा रहे हैं !
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